16/10/2025
🔔 एक मंदिर और घंटे वाला आदमी
एक मंदिर था।
उसमें सभी लोग वेतन (सैलरी) पर थे।
आरती करने वाला,
पूजा करने वाला,
घंटा बजाने वाला आदमी भी वेतन पर था...
घंटा बजाने वाला आदमी आरती के समय भाव (लगन/श्रद्धा) में इतना मग्न हो जाता था, कि उसे होश ही नहीं रहता था।
घंटा बजाने वाला आदमी पूरे भक्ति भाव से अपना काम करता था, जिससे मंदिर की आरती में आने वाले लोग भगवान के साथ-साथ, घंटा बजाने वाले आदमी के भाव के भी दर्शन करते थे। उसकी भी वाह-वाही होती थी...
एक दिन मंदिर का ट्रस्ट बदल गया, और नए ट्रस्टी ने यह फरमान सुनाया, कि हमारे मंदिर में काम करने वाले सभी लोग पढ़े-लिखे होने चाहिए, जो पढ़े-लिखे न हों उन्हें नौकरी से निकाल दो।
उस घंटे बजाने वाले भाई को ट्रस्टी ने कहा, 'आप आज तक का अपना वेतन ले लो, और अब से आप नौकरी पर मत आना।'
उस आदमी ने कहा, "साहब भले ही पढ़ाई-लिखाई नहीं है, लेकिन मेरा भाव (लगन) देखिए!"
ट्रस्टी ने कहा, "सुन लो, आप पढ़े-लिखे नहीं हैं, इसलिए नौकरी पर नहीं रखा जाएगा..."
दूसरे दिन से मंदिर में नए लोगों को रखा गया। लेकिन आरती में आने वाले लोगों को पहले जैसा मज़ा नहीं आता था। घंटा बजाने वाले भाई की गैर-हाज़िरी (अनुपस्थिति) लोगों को खलने लगी।
कुछ लोग इकठ्ठा होकर उस भाई के घर गए। उन्होंने विनती की कि 'आप मंदिर में आइए।'
उस आदमी ने जवाब दिया, "अगर मैं आऊंगा तो ट्रस्टी को लगेगा कि यह नौकरी लेने के लिए आ रहा है। इसलिए मैं नहीं आ सकूंगा।"
वहां आए लोगों ने एक उपाय सुझाया कि 'हम आपको मंदिर के ठीक सामने एक दुकान खोल देते हैं। वहां आपको बैठना है। और आरती के समय घंटा बजाने आ जाना। बस फिर कोई नहीं कहेगा कि आपको नौकरी की ज़रूरत है..."
अब उस भाई ने मंदिर के बाहर दुकान शुरू की, जो इतनी चली कि एक से सात दुकानें और सात दुकानों से एक फैक्ट्री बन गई।
अब वह आदमी मर्सिडीज़ में बैठकर घंटा बजाने आता था।
समय बीता। यह बात पुरानी हो गई।
मंदिर का ट्रस्ट फिर से बदल गया।
नए ट्रस्ट को मंदिर को नया बनाने के लिए दान की ज़रूरत थी।
मंदिर के नए ट्रस्टियों ने सोचा कि सबसे पहले इस मंदिर के सामने की फैक्ट्री मालिक से बात करते हैं...
ट्रस्टी मालिक के पास गए। सात लाख का खर्च है, ऐसा बताया।
फैक्ट्री मालिक ने एक भी सवाल किए बिना चेक लिखकर ट्रस्टी को दे दिया। ट्रस्टी ने चेक हाथ में लिया और कहा, "साहब हस्ताक्षर (सिग्नेचर) तो बाकी है।"
मालिक ने कहा, "मुझे हस्ताक्षर करना नहीं आता। लाइए अंगूठा लगा दूं, चल जाएगा..."
यह सुनकर ट्रस्टी चौंक गए और कहने लगे, "साहब आप अनपढ़ (बिना पढ़े-लिखे) हैं तो इतने आगे हैं। अगर पढ़े-लिखे होते तो कहां होते...!!!"
तो उस सेठ ने हंसकर कहा,
"भाई, अगर मैं पढ़ा-लिखा होता, तो बस मंदिर में घंटा ही बजाता होता।"
⭐ सारांश (Moral of the Story):
काम कैसा भी हो, हालात कैसे भी हों, आपकी काबिलियत आपकी भावनाओं (लगन/श्रद्धा) से ही तय होती है। भावनाएं शुद्ध होंगी, तो ईश्वर और एक सुंदर भविष्य निश्चित रूप से आपका साथ देंगे।
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