25/09/2025
खाप पंचायतें – एक समय समाज की रीढ़ मानी जाने वाली ये परंपरागत व्यवस्थाएं अब कानून और आधुनिकता की भेंट चढ़ती नजर आ रही हैं। पहले जब किसी गांव में विवाद या सामाजिक अपराध होता था, तो समाज के बुजुर्ग, सरपंच, ताऊ और पंचायतें बिना किसी कोर्ट-कचहरी के समाधान निकाल देती थीं। फैसलों में कठोरता होती थी, लेकिन न्याय होता था। अपराधी को समाज से डर लगता था, इज्जत की परवाह होती थी।
लेकिन अब...
जैसे-जैसे खाप पंचायतों को अवैध घोषित करने की मांग, कोर्ट में केस और सोशल मीडिया ट्रायल का चलन बढ़ा, समाज के अंदर से डर और अनुशासन धीरे-धीरे खत्म होने लगा। जिन बुजुर्गों और समाज के कद्दावर लोगों की बात एक समय कानून से ऊपर मानी जाती थी, उन्हें अब कोर्ट के कटघरों में खड़ा किया जा रहा है।
क्या बदला?
खापों के फैसलों पर कोर्ट की दखल
समाज के लोगों द्वारा समाज के ही बुजुर्गों को घसीटना
सामूहिक अनुशासन की जगह व्यक्तिगत स्वार्थ हावी
न्याय की जगह बदले और अपमान की भावना
नतीजा?
अब न तो ताऊ से डर, न ही समाज की इज्जत की परवाह। नाबालिग से लेकर अधेड़ तक अपने फैसले खुद लेने लगे हैं। अपराधों में बढ़ोतरी, रिश्तों में दरारें, और सामाजिक ताने-बाने का विघटन – ये सब इसी बदलाव के दुष्परिणाम हैं।
न्याय जरूरी है, लेकिन अनुशासन उससे भी जरूरी होता है।
खाप पंचायतों की प्रथा में सुधार हो सकता है, लेकिन उन्हें पूरी तरह नकार देना समाज को दिशाहीन करने जैसा है।
सोचिए – डर खत्म हुआ या जिम्मेदारी?