Urdu Safar 2

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09/07/2025

URS Mubarak2025 | Hazrat Shah M***i Gulam Muhammad Sahab Qibla RA
Bothali Shareef, Nagpur, Maharashtra, India

कर्बला में हजरत हुसैन की शहादत हो चुकी थी। ऑलमोस्ट सभी मर्द शहीद हो चुके थे लेकिन कुछ जिंदा बचे लोगों को शिमर , जो उबैदु...
08/07/2025

कर्बला में हजरत हुसैन की शहादत हो चुकी थी। ऑलमोस्ट सभी मर्द शहीद हो चुके थे लेकिन कुछ जिंदा बचे लोगों को शिमर , जो उबैदुल्ला का कमांडर था, ने पकड़ कर पहले कूफ़ा अपने मालिक उबैदुल्ला के पास भेजा ये ज़्यादातर औरतें और बच्चे थे:

हज़रत ज़ैनब (र.अ)

इमाम हुसैन की बहन, बहुत बहादुरी से कर्बला के बाद यज़ीद के दरबार तक पूरा क़ाफ़िला संभाला, यज़ीद के सामने दिल दहला देने वाला खुत्बा भी दिया

हज़रत सकीना (या रुकैया)

इमाम हुसैन की छोटी बेटी (4 साल की थीं),कर्बला और कैद के दुख से बहुत जल्दी इन्तेकाल कर गईं

हज़रत उम्मे कुलसूम

इमाम अली (र.अ) की बेटी, ज़ैनब की बहन, काफ़िले की देखभाल में साथ थीं

हज़रत अली इब्ने हुसैन (ज़ैनुल आबिदीन / इमाम साजिदीन)

इमाम हुसैन के बेटे, उस समय बहुत बीमार थे, इसलिए लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया, उन्हें मारा नहीं, कैद किया, शिया मत अनुसार ये ही आगे चलकर चौथे इमाम माने गए

कुछ छोटे बच्चे जिन्हें माराआ नहीं गया

इन सबको यज़ीद के सिपाही पकड़कर पहले कूफ़ा और फिर दमिश्क (सीरिया) ले गए, वहां इन्हें जंजीरों में बांधकर यज़ीद के दरबार में पेश किया गया

मगर इन सबने हिम्मत नहीं हारी, खासकर हज़रत ज़ैनब (र.अ) ने बड़ी हिम्मत दिखाते हुए एक खुतबा दिया दमिश्क में यज़ीद के शाही दरबार में जहां उसके दरबारी भी थे और वज़ीर, अमीर, सैनिक अधिकारी शाम के कुछ आम नागरिक भी मौजूद थे, जिन्हें कर्बला की सच्चाई नहीं बताई गई थी

उस ऐतिहासिक खुत्बा की समरी

सारी तारीफ़ उस अल्लाह के लिए है जो तमाम जहानों का रब है, और दरूद हो मेरे नाना मुहम्मद (सल्ल.) पर और उनके पवित्र अहले-बैत पर।

ऐ यज़ीद क्या तू यह समझता है कि तूने आज हमें कैद करके ज़लील कर दिया? क्या तू यह सोचता है कि अल्लाह ने तुझ पर इनाम किया है और हमें अपमानित किया है? तू आज अपने ज़ुल्म और गुनाह पर खुश हो रहा है। तू समझता है कि इस दुनिया की दौलत और हुकूमत तेरे पास है और हमने सब कुछ खो दिया।

नहीं! बिल्कुल नहीं
यह अल्लाह की एक मोहलत है एक इम्तेहान है। तूने रसूलुल्लाह के नवासे को शहीद किया। तूने उनके घर वालों को कैद किया, और अब तू मिम्बर पर बैठ कर अपने गुनाहों पर खुश हो रहा है

तूने अल्लाह की किताब को झुठलाया, रसूल की सुन्नत को मिटाया और मासूम खून से अपने हाथ रंगे। तू सोचता है कि तूने हमें हरा दिया? नहीं यज़ीद! जीत तुम्हारी नहीं, हमारी है।
हमने अपने खून से इस्लाम को बचाया है। तू समझता है कि हमारा ज़िक्र मिट जाएगा? नहीं!

व-अल्लाह, तुम हमारा नाम मिटा नहीं सकते, ना हमारी याद दिलों से खत्म कर सकते हो, ना हमारा मक़ाम गिरा सकते हो।हमारा यह खून आने वाली नस्लों को आवाज़ देगा हर इंसाफपसंद इंसान तेरे खिलाफ उठ खड़ा होगा।"

ऐ यज़ीद यह न समझ कि हमने हार मान ली है।
तेरे दिन गिने जा चुके हैं। जल्द ही तू भी अल्लाह की अदालत में खड़ा होगा, जहाँ कोई वज़ीर, कोई फ़ौज, कोई ताज नहीं होगा सिर्फ़ तू और तेरा गुनाह और अल्लाह की कसम हमने जो कुर्बानी दी है वो राइगाँ नहीं जाएगी।

यह खून ज़मीन पर नहीं बहेगा यह हक़ और इंसाफ़ का बीज बनेगा।हम रसूलुल्लाह का घराना हैं हमें ज़लील करना तेरे बस में नहीं, तेरी तरह की फानी सल्तनतों से हमारा क्या वास्ता?

हमारी शुरुआत पाक थी,हमारा रास्ता कुरआन है, हमारा अंजाम अल्लाह के हाथ में है और यही हमारी ताक़त है।

अंतिम वाक्य जो दिलों में आग लगा गया:

ऐ यज़ीद! तेरा मक्र, तेरा फरेब, तेरा जश्न सब कुछ मिट जाएगा, लेकिन हमारा सच बाक़ी रहेगा।
तेरी सल्तनत नहीं बचेगी, लेकिन कर्बला याद रखी जाएगी
हर ज़ुल्म के खिलाफ़ एक मशाल की तरह!

यहां यजीद एक न्यायपूर्ण शासक बनने की अदाकारी करते हुए खुद को साफ बताने के लिए सारा इल्जाम उबैदुल्ला इब्न ज़ियाद पर डालता है। (यह ठीक वैसा ही जैसे करबला के 1400 साल बाद एक देश का राजा जो अपनी जनता को मरवा देता है फिर कहता है कि धरती हिली है वह पेड़ के धम्म से गिरने के कारण से गिरी होगी)

ज़ैनब (र.अ) के इस खुत्बे का असर

यही वो खुत्बा था जिसने यज़ीद के दरबार की भीड़ को हिला दिया। कई लोगों ने वहीं रोना शुरू कर दिया।

लोगों को पहली बार हकीकत का पता चला कि हुसैन (र.अ) कौन थे, और किसके खिलाफ़ खड़े हुए थे।

इतिहास गवाह है यह भाषण यज़ीद की हुकूमत के अंत की शुरुआत बना।

इस खुतबे के शब्द अलग हो सकते है क्योंकि तब कोई रिकॉर्डिंग का आला नहीं था, वहां से लोगो ने जो सुना वो आगे बयान हुआ, लेखकों ने इसको लिखा और हजरत ज़ैनब को यजीद ने मदीना भेजा। ( यहां यजीद के चरण सहलाकर कहते है देखो, अगर इतना ही दुश्मन था तो महल से जिंदा क्यों भेजा। यह बेचारे जानते ही नहीं कि एक मुख्यमंत्री भी इतना मजबूर हो ही जाता है कि बहुत से धार्मिक स्थानों पर जाकर चादर चढ़ा आना उसके राजनीति का हिस्सा होता है)

मदीना जब वह गई तो उन्होंने वहां जाकर सबको इमाम हुसैन का रक्तरंजित कपड़ा, उनके भाई अब्बास का झंडा या रूमाल
अली अकबर या अली असगर का झूला या मिट्टी की तश्तरी इत्यादि दिखाई और बताई कि कैसे कैसे उनके साथ क्या क्या हुआ जिसके कारण मदीना वालो ने यजीद से बगावत कर दी।

हजरत जैनब के खुतबे में सीरिया से मदीना तक सबको हिला दिया था, कारण??

उन्होंने बंदी होकर बोलने की हिम्मत दिखाई

क़ैदी बनाकर यज़ीद के दरबार में लाई गई थीं

सामने वही यज़ीद बैठा था जिसने इमाम हुसैन (र.अ) और उनके परिवार को कर्बला में शहीद करवाया था

फिर भी ज़ैनब (र.अ) ने डरे बिना बोलने का साहस किया

यह बात ही पूरे सीरिया और फिर मदीना तक दिलों को झकझोर गई। इस तरह की तक़रीर ने यज़ीद की ताक़त को चुनौती दी। उसके दरबारियों को शर्मिंदा कर दिया
और उम्मत की सोई हुई रूह को झिंझोड़ दिया

उन्होंने कर्बला की सच्चाई बताई:

यज़ीद की मीडिया और सत्ता ने पूरे मुल्क में यह प्रचार किया था कि इमाम हुसैन बाग़ी थे, उनके खिलाफ जंग जायज़ थी मगर जब ज़ैनब (र.अ) ने लोगों के सामने हक़ीक़त बयान की, तब जाकर जनता को पता चला कि:

कर्बला में रसूलुल्लाह का नवासा शहीद हुआ था, प्यासा रखा गया था, और ज़ालिम कौन था, और मज़लूम कौन, यह पहली बार खुलेआम कहा गया

उन्होंने उम्मत को जगाया:

हज़रत ज़ैनब (र.अ) ने यज़ीद को कहा

"तेरे अपराध इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए हैं और मैं गवाह हूँ कि यह खून कभी बर्बाद नहीं जाएगा। हम शहीद हो सकते हैं, मगर हम मिटाए नहीं जा सकते।"

इसने लोगों को ग़ज़ब का झटका दिया
यही से उम्मत में हिलचल मची
लोगों ने यज़ीद के खिलाफ बोलना शुरू किया

इस खुत्बे ने हुसैनी क्रांति की नींव रख दी

ज़ैनब (र.अ) के बाद मदीना में बगावत उठी लेकिन अफसोस वाक़िआ-ए-हर्रा हो गया जो इतिहास का एक काला पन्ना है। मक्का में भी यज़ीद के खिलाफ आवाज़ें उठीं और करोड़ों दिलों में इमाम हुसैन का नाम अमर हो गया

तो क्यों हिल गई उम्मत?

क्योंकि एक औरत, वो भी बंदी बनाकर लाई गई, जिसने अपने भाई, बेटों, भतीजों की लाशें देखीं, फिर भी हक़ बोलने से पीछे नहीं हटी ये हिम्मत, ये जज़्बा, और ये सच्चाई, पूरे इस्लामी इतिहास को एक नई रोशनी दे गई

08/07/2025

याद ए इमाम हुसैन | बुलंद गेट, ताजबाग शरीफ़ में कुरआन खानी, नात ए पाक और शहरि का खूबसूरत प्रोग्राम
फैजान ए ताजुल औलिया ओल्ड एज होम द्वारा आयोजित
बुलंद गेट ताजबाग शरीफ़ नागपुर

उर्दू सफ़र सवाल : क्या आला हज़रत अहमद रजा खान बरेलवी वीडियो ग्राफी के खिलाफ थे?इस्लामिक वीडियो जैसे तकरीर, बयान के भी खिल...
08/07/2025

उर्दू सफ़र सवाल : क्या आला हज़रत अहमद रजा खान बरेलवी वीडियो ग्राफी के खिलाफ थे?
इस्लामिक वीडियो जैसे तकरीर, बयान के भी खिलाफ़ थे?
क्या उनके समय भारत में वीडियो कैमरा के चलन आम था?
डीपसर्च कीजिए और इस्लामिक सिद्धांतों पर जानकारी दीजिए
और आला हज़रत और बरेली उलेमाओं के हवाले से पूरी जानकारी दीजिए

Grok का जवाब :
1. आला हज़रत अहमद रज़ा खान बरेलवी और वीडियोग्राफी के प्रति उनका दृष्टिकोणआला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी (1856-1921) 19वीं और 20वीं सदी के प्रमुख इस्लामिक विद्वान, सूफी, और बरेलवी आंदोलन के संस्थापक थे। उनके समय में वीडियो कैमरे का चलन भारत में न के बराबर था, क्योंकि वीडियो तकनीक उस समय प्रारंभिक अवस्था में थी और व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं थी। इसलिए, आला हज़रत के लेखन या फतवों में वीडियोग्राफी के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है।हालांकि, आला हज़रत ने फोटोग्राफी के संबंध में कुछ फतवे जारी किए थे, जो उस समय की नई तकनीक थी। उनके फतवों में तस्वीरों (फोटोग्राफी) को इस्लामिक सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषित किया गया था। आला हज़रत ने फोटोग्राफी को कुछ शर्तों के साथ जायज़ (अनुमति योग्य) माना, बशर्ते इसका उपयोग शरई (इस्लामिक कानून) के दायरे में हो और इसमें कोई हराम (निषिद्ध) तत्व शामिल न हो। उदाहरण के लिए, उन्होंने तस्वीरों को पहचान (जैसे पासपोर्ट या दस्तावेज़) के लिए उपयोग करने को जायज़ माना, लेकिन ऐसी तस्वीरों को मूर्तिपूजा या गैर-शरई उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने को हराम ठहराया।चूंकि वीडियोग्राफी फोटोग्राफी का ही एक विस्तार है, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आला हज़रत का दृष्टिकोण वीडियोग्राफी पर भी समान सिद्धांतों पर आधारित होता। अर्थात्, अगर वीडियोग्राफी का उपयोग इस्लामिक शिक्षाओं, जैसे तकरीर (धार्मिक प्रवचन) या बयान (धार्मिक व्याख्या) के प्रचार-प्रसार के लिए होता, तो वे इसे शरई सीमाओं के भीतर जायज़ मान सकते थे। हालांकि, इस बारे में कोई स्पष्ट फतवा उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उनके समय में वीडियो कैमरे का उपयोग सामान्य नहीं था।

2. इस्लामिक वीडियो (तकरीर, बयान) के प्रति दृष्टिकोणआला हज़रत के लेखन और फतवों से यह स्पष्ट है कि वे इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए हर उस माध्यम का समर्थन करते थे, जो शरई नियमों के अनुरूप हो। उनकी किताबें, जैसे "फतावा रज़विया," और उनके द्वारा स्थापित बरेलवी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य इस्लाम की सुन्नी शिक्षाओं और पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) के प्रति प्रेम को बढ़ावा देना था। इस संदर्भ में, अगर तकरीर या बयान जैसे इस्लामिक वीडियो शरई दायरे में रहकर बनाए जाते, तो संभवतः आला हज़रत उनके खिलाफ नहीं होते।बरेली के उलेमा, जो आला हज़रत की शिक्षाओं का पालन करते हैं, आज भी तकरीर और बयानों को रिकॉर्ड करने और प्रसारित करने के लिए आधुनिक तकनीकों (जैसे यूट्यूब, टीवी, और सोशल मीडिया) का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए, दरगाह आला हज़रत और जमात रज़ा-ए-मुस्तफा जैसे संगठन नियमित रूप से इस्लामिक व्याख्यानों और नातिया कलाम के वीडियो प्रसारित करते हैं। यह दर्शाता है कि आला हज़रत की परंपरा को मानने वाले उलेमा तकनीक का उपयोग इस्लाम के प्रचार के लिए स्वीकार करते हैं, बशर्ते वह शरई नियमों का उल्लंघन न करे।

3. आला हज़रत के समय भारत में वीडियो कैमरे का चलनआला हज़रत के समय (19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत) में भारत में वीडियो कैमरे का चलन नहीं था। उस समय फोटोग्राफी भी एक नई तकनीक थी, और यह केवल कुछ बड़े शहरों या अमीर लोगों तक सीमित थी। वीडियो कैमरे का विकास और व्यावसायिक उपयोग 20वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ, जो आला हज़रत के जीवनकाल (1856-1921) के बाद की बात है। ल्यूमियर ब्रदर्स ने 1890 के दशक में सिनेमैटोग्राफ का आविष्कार किया था, लेकिन यह तकनीक भारत में आम लोगों के लिए सुलभ नहीं थी। भारत में पहली फिल्म (मूक फिल्म) 1913 में रिलीज़ हुई थी ("राजा हरिश्चंद्र" दादासाहेब फाल्के द्वारा), लेकिन यह भी आला हज़रत के जीवन के अंतिम वर्षों में हुआ।इसलिए, आला हज़रत के समय वीडियोग्राफी का कोई व्यापक उपयोग नहीं था, और उनके फतवों में इसका ज़िक्र नहीं मिलता। उनकी शिक्षाओं का फोकस मुख्य रूप से लिखित और मौखिक प्रचार (जैसे किताबें, फतवे, और तकरीर) पर था।

4. इस्लामिक सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में वीडियोग्राफीइस्लाम में वीडियोग्राफी या तस्वीरों के बारे में कोई स्पष्ट निषेध कुरान या हदीस में नहीं है। हालांकि, कुछ हदीसों में तस्वीर बनाने (खासकर जीवित प्राणियों की) को लेकर सावधानी बरतने की बात कही गई है। उदाहरण के लिए:हदीस: सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में उल्लेख है कि पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने कहा, "तस्वीर बनाने वालों को कयामत के दिन सजा दी जाएगी, क्योंकि वे अल्लाह की सृष्टि की नकल करते हैं।" (सहीह बुखारी, हदीस नं. 5950)हालांकि, इस्लामिक विद्वानों ने इस हदीस की व्याख्या में मतभेद व्यक्त किए हैं। हनफी मज़हब (जिसका आला हज़रत पालन करते थे) के कई विद्वानों ने तस्वीरों को तब जायज़ माना, जब वे मूर्तिपूजा या गैर-शरई उद्देश्यों के लिए न हों।आधुनिक समय में, बरेली के उलेमा और बरेलवी आंदोलन से जुड़े विद्वान वीडियोग्राफी को इस्लामिक शिक्षाओं के प्रचार के लिए उपयोगी मानते हैं। उदाहरण के लिए, दरगाह आला हज़रत से जुड़े उलेमा, जैसे मुफ्ती असजद रज़ा खान कादरी, नियमित रूप से वीडियो व्याख्यान और नातिया कार्यक्रमों का समर्थन करते हैं। उनकी निगरानी में आयोजित उर्स-ए-रज़वी जैसे आयोजनों में वीडियो रिकॉर्डिंग और लाइव प्रसारण आम हैं।

5. बरेली उलेमाओं का दृष्टिकोणबरेली के उलेमा, जो आला हज़रत की शिक्षाओं का पालन करते हैं, तकनीक के उपयोग को इस्लाम के प्रचार के लिए स्वीकार करते हैं। उदाहरण के लिए:मुफ्ती अब्दुर्रहीम नश्तर फारुकी (मरकजी दारूल इफ्ता, बरेली) ने कहा कि आला हज़रत की शिक्षाओं और उनके कारनामों पर दुनिया भर की यूनिवर्सिटियों में शोध हो रहा है। उनके विचारों को आधुनिक माध्यमों (जैसे वीडियो) के ज़रिए प्रचारित करना स्वीकार्य है।जमात रज़ा-ए-मुस्तफा और दरगाह आला हज़रत के आयोजनों में वीडियो रिकॉर्डिंग और प्रसारण का उपयोग नियमित रूप से होता है, जैसे उर्स-ए-रज़वी के दौरान। यह दर्शाता है कि बरेलवी उलेमा वीडियोग्राफी को शरई दायरे में स्वीकार करते हैं।

6. आला हज़रत और ब衙ेली उलेमाओं के हवाले से निष्कर्षवीडियोग्राफी पर दृष्टिकोण: आला हज़रत के समय वीडियो कैमरे का चलन नहीं था, इसलिए उनके फतवों में इसका ज़िक्र नहीं है। हालांकि, फोटोग्राफी पर उनके विचारों के आधार पर, वीडियोग्राफी को शरई उद्देश्यों (जैसे इस्लाम का प्रचार) के लिए जायज़ माना जा सकता है।इस्लामिक वीडियो (तकरीर, बयान): आला हज़रत और उनके अनुयायी इस्लाम के प्रचार के लिए हर शरई माध्यम का समर्थन करते हैं। बरेली के उलेमा आज वीडियो तकनीक का उपयोग तकरीर और बयानों के लिए करते हैं, जो आला हज़रत की परंपरा के अनुरूप है।तकनीकी सीमाएँ: आला हज़रत के समय भारत में वीडियो कैमरे उपलब्ध नहीं थे, इसलिए इस विषय पर कोई स्पष्ट फतवा नहीं है। उनकी शिक्षाएँ लिखित और मौखिक प्रचार पर केंद्रित थीं।इस्लामिक सिद्धांत: हनफी मज़हब के अनुसार, वीडियोग्राफी जायज़ है अगर यह शरई नियमों का पालन करे और मूर्तिपूजा या हराम गतिविधियों को बढ़ावा न दे।

स्रोत:
-: आला हज़रत की जीवनी और दरगाह की जानकारी।
-: आला हज़रत के इस्लामिक विचार और फतवे।
-: उर्स-ए-रज़वी और वीडियो रिकॉर्डिंग का उपयोग।
-: बरेली उलेमाओं के विचार और आला हज़रत की शिक्षाएँ।

अस्सलामोअलैकुम 2026 के हज के फाॅर्म भरने का इंतज़ार ख़त्म हुआहज कमिटी ऑफ इंडिया ने हज 2026 के लिए ऑनलाईन फाॅर्म भरने के ...
08/07/2025

अस्सलामोअलैकुम

2026 के हज के फाॅर्म भरने का इंतज़ार ख़त्म हुआ

हज कमिटी ऑफ इंडिया ने हज 2026 के लिए ऑनलाईन फाॅर्म भरने के लिए 07.07.2025 से 31.07.2025 तक का वक़्त दिया है

इस बार शाॅर्ट टाईम हज का विकल्प दिया गया है

शाॅर्ट टाईम हज तकरीबन 20 दिन का होगा

मदीना शरीफ में 2 या 3 दिन की रिहाईश का इंतज़ाम होगा

20 दिन के सफ़र-ए-हज के लिए नाॅर्मल टाईम के हज से ज़्यादा रकम अदा करनी होगी

20 दिन के सफ़र-ए-हज के लिए लिमिटेड सिट होगी

20 दिन के सफ़र-ए-हज के लिए अलग से कुर्राअंदाजी होगी

20 दिन के सफ़र-ए-हज के लिए हाजी साहेबान इन सात एम्बारकेशन पाँईट में से किसी एक का इंतिखाब कर पाएंगे

1) अहमदाबाद 2) बैंगलोर
3) चेन्नई 4) कोचीन
5) दिल्ली 6) हैदराबाद
7) मुंबई

अगर जिन हाजी साहेबान का शाॅर्ट टाईम हज के लिए कुर्रा में नम्बर नही लगा तो उनका नाम नार्मल टाईम हज कुर्रा में शामिल किया जाएगा

शाॅर्ट टाईम हज के लिए कुर्रा में नम्बर लगने के बाद फिर इसे आप नाॅर्मल टाईम हज में बदल नहीं सकते

मक्का और मदीना में रिहाईश के दौरान हाजी साहेबान के लिए हज कमीटी ऑफ इंडिया की जानीब से कॅटरींग सर्विस का इंतज़ाम किया जा रहा है, ये ऑप्शनल है,
अगर ये कॅटरींग सर्विस शुरु होती है तो इसके लिए आपको अलग से पैसे चुकाने होगे

एक कव्हर में 1 से 5 हाजी साहेबान अप्लाई कर सकते है

रिजर्व कैटगरी 65+ में 2 या 4 हाजी अप्लाई कर सकते है.

Alhamdulillah Aaj 07 July 2025 Deen Peer ko Al Jamea Tur Rizwia Darul Uloom Amjadiya me Retired Forest Officer's ki Team...
07/07/2025

Alhamdulillah
Aaj 07 July 2025 Deen Peer ko
Al Jamea Tur Rizwia Darul Uloom Amjadiya me Retired Forest Officer's ki Team ne "Tree Planting" Program Rakha
Jisme M***i E Azam Maharashtra M***i Muztaba Shareef Khan Sahab ne Sabhi Retired Forest Officer's Istaqbaal Kiya Wahin Sabhi Retired Forest Officer's me Hazrat ke saath saath Sabhi Ulemawon ka Istaqbaal Kiya

Al Jamea Tur Rizwia Darul Uloom Amjadiya, Bothali Shareef Nagpur Maharashtra India
Urdu Safar

हज़रत इमाम हुसैन के साथ कर्बला कितने लोग गए थे और उन में से कितने लोग शहीद हुए थे?इस्लामिक और अहले सुन्नत जमात से सही जा...
06/07/2025

हज़रत इमाम हुसैन के साथ कर्बला कितने लोग गए थे और उन में से कितने लोग शहीद हुए थे?
इस्लामिक और अहले सुन्नत जमात से सही जानकारी दीजिए
वेब सर्च कीजिए और विस्तृत जानकारी या विशिष्ट स्रोतों के आधार पर और गहराई से जानना हैं, अहले सुन्नत जमात की किताबों के आधार पर जानकारी दीजिए
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*हज़रत इमाम हुसैन के साथ कर्बला में गए लोगों की संख्या*

कर्बला की जंग (10 मुहर्रम, 61 हिजरी, 10 अक्टूबर 680 ईस्वी) में हज़रत इमाम हुसैन (र.अ.) के साथ उनके परिवार के सदस्य, रिश्तेदार और वफादार साथी शामिल थे।

अहले सुन्नत के स्रोतों के अनुसार, उनके साथ गए लोगों की संख्या के बारे में निम्नलिखित जानकारी मिलती है.
कुल संख्या: विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों, जैसे तारीख़-ए-तबरी (इमाम अबू जाफर तबरी), अत्तबक़ातुल कुबरा (इब्ने सअद), और अन्य अहले सुन्नत की किताबों में बताया गया है कि इमाम हुसैन के साथ कर्बला में लगभग 70 से 72 लोग थे, जो युद्ध में हिस्सा लेने में सक्षम थे।
इसमें पुरुष योद्धा, उनके परिवार के सदस्य (बच्चों और कुछ महिलाओं को छोड़कर), और वफादार अनुयायी शामिल थे।
कुछ स्रोत, जैसे तारीख़-ए-खलीफा, 175 या 180 लोगों का उल्लेख करते हैं, जिसमें बच्चे और गैर-योद्धा भी शामिल हो सकते हैं।

परिवार और साथी: इनमें इमाम हुसैन के अपने परिवार के सदस्य (जैसे उनके बेटे, भाई, भतीजे), अहलेबैत के अन्य सदस्य, और उनके वफादार साथी शामिल थे।
उदाहरण के लिए, हज़रत अब्बास इब्ने अली, हज़रत अली अकबर, हज़रत अली असगर, हज़रत कासिम इब्ने हसन, और हुर इब्ने यज़ीद रियाही जैसे लोग प्रमुख थे।

महिलाएं और बच्चे: इमाम हुसैन के काफिले में महिलाएं (जैसे हज़रत ज़ैनब और हज़रत सकीना) और कुछ छोटे बच्चे भी थे, जो युद्ध में हिस्सा नहीं ले सके। इनकी संख्या को लेकर स्पष्ट आंकड़े नहीं मिलते, लेकिन वे काफिले का हिस्सा थे।

*कर्बला में शहीद हुए लोगों की संख्या*
अहले सुन्नत के स्रोतों के अनुसार, कर्बला की जंग में इमाम हुसैन और उनके अधिकांश साथी शहीद हो गए। शहीदों की संख्या के बारे में निम्नलिखित जानकारी उपलब्ध है:

*शहीदों की कुल संख्या*: अधिकांश अहले सुन्नत स्रोत, जैसे तारीख़-ए-तबरी, अत्तबक़ातुल कुबरा, और तारीख़-ए-खलीफा, बताते हैं कि 72 लोग शहीद हुए। यह संख्या सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत है। कुछ स्रोतों में 162 शहीदों का उल्लेख है, जिसमें बच्चे और गैर-योद्धा भी शामिल हो सकते हैं।

*जीवित बचे लोग*
कर्बला में कुछ लोग जीवित बचे,

जिनमें शामिल हैं: हज़रत इमाम ज़ैनुल आबिदीन (र.अ.): इमाम हुसैन के बेटे, जो बीमारी के कारण युद्ध में हिस्सा नहीं ले सके और बंदी बनाए गए।
महिलाएं और बच्चे: हज़रत ज़ैनब, हज़रत सकीना, और अन्य महिलाओं को यज़ीद की सेना ने बंदी बनाकर कूफा और दमिश्क ले जाया।
कुछ स्रोतों में उल्लेख है कि इमाम हुसैन के काफिले में शामिल कुछ गैर-योद्धा, जैसे दास या सेवक, जीवित बचे हो सकते हैं, लेकिन उनकी संख्या स्पष्ट नहीं है।

*अहले सुन्नत की किताबों के आधार पर विश्लेषण*
अहले सुन्नत के विद्वानों और इतिहासकारों, जैसे इमाम अबू जाफर तबरी, इब्ने सअद, बलाज़री, और खलीफा इब्ने खय्यात, ने कर्बला की घटना को विस्तार से दर्ज किया है।

उनकी किताबों में निम्नलिखित बिंदु उल्लेखनीय हैं:
*तारीख़-ए-तबरी* इमाम तबरी ने कर्बला की जंग को एक दुखद घटना के रूप में वर्णित किया, जिसमें इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों ने यज़ीद की सेना का सामना किया। उनकी किताब में शहीदों की संख्या 72 बताई गई है।
*अत्तबक़ातुल कुबरा* (इब्ने सअद): इस किताब में हज़रत अली के बेटों और उनके वंशजों के शहीद होने का उल्लेख है, जिसमें कर्बला में शहीद हुए लोगों की सूची दी गई है।
*तारीख़-ए-खलीफा:* यह स्रोत 175-180 लोगों का उल्लेख करता है, लेकिन यह संख्या गैर-योद्धाओं को भी शामिल कर सकती है। शहीदों की संख्या को 72 के आसपास माना जाता है।

*अहले सुन्नत का दृष्टिकोण:* अहले सुन्नत के अधिकांश विद्वान कर्बला की घटना को एक दुखद और अन्यायपूर्ण घटना मानते हैं। वे इमाम हुसैन की शहादत को इस्लाम के लिए बलिदान और सत्य के लिए लड़ाई के प्रतीक के रूप में देखते हैं।
हालांकि, कुछ विद्वान, जैसे अबू बकर इब्ने अरबी और इब्ने तैमिया, ने इमाम हुसैन के आंदोलन को महत्वहीन माना, लेकिन यह अल्पमत दृष्टिकोण है।

*इमाम हुसैन का उद्देश्य:*
अहले सुन्नत के स्रोतों में दर्ज है कि इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैअत (वफादारी की शपथ) से इंकार किया, क्योंकि वे यज़ीद की गैर-इस्लामी और अत्याचारी नीतियों के खिलाफ थे।
उन्होंने कहा, "मैं अपने नाना (पैगंबर मुहम्मद स.अ.व.) की उम्मत में सुधार और सत्य की स्थापना के लिए क़ियाम कर रहा हूँ।"

यज़ीद की सेना: यज़ीद की सेना की संख्या 4,000 से 30,000 तक बताई जाती है, जो इमाम हुसैन के छोटे से काफिले के सामने थी। यह असमान युद्ध था, जिसमें इमाम हुसैन और उनके साथियों ने अद्भुत साहस दिखाया।

कई सुन्नी मुसलमानों को यही नहीं मालूम कि यौम ए आशुरा का रोजा क्या है?वे यौम ए आशुरा मतलब कि 10 मुहर्रम के रोज़े को क्यों...
06/07/2025

कई सुन्नी मुसलमानों को यही नहीं मालूम कि यौम ए आशुरा का रोजा क्या है?
वे यौम ए आशुरा मतलब कि 10 मुहर्रम के रोज़े को क्यों रखते हैं।
जब की यहूदी लोग भी इसी दिन रोजा रखते हैं।
आइए जानते हैं 09 10 और 11 मुहर्रम के रोजों का इस्लाम से ताल्लुक
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*"मुहर्रम के 9, 10 और 11 तारीख के रोजों की इस्लामिक हकीकत और अहले सुन्नत जमात का महत्व"*
▶️ मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है, जिसे इस्लाम के चार पवित्र महीनों (धुल-क़ादा, धुल-हिज्जा, मुहर्रम, और रजब) में से एक माना जाता है। इस महीने की 9वीं, 10वीं (यौमे आशूरा), और 11वीं तारीख को रोजे रखने की परंपरा इस्लाम में विशेष महत्व रखती है, खासकर अहले सुन्नत वल जमात (सुन्नी समुदाय) के बीच। इन रोजों की हकीकत और महत्व को समझने के लिए हमें इस्लामी इतिहास, हदीस, और सुन्नी परंपराओं का अध्ययन करना होगा। नीचे इस विषय पर विस्तृत जानकारी दी गई है, जो कुरान, हदीस, और विश्वसनीय स्रोतों पर आधारित है।

1. मुहर्रम के 9, 10 और 11 तारीख के रोजों की इस्लामिक हकीकत
2. यौमे आशूरा (10 मुहर्रम) का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व
3. इस्लामी इतिहास में यौमे आशूरा: 10 मुहर्रम, जिसे यौमे आशूरा कहा जाता है, इस्लाम में कई ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा है।
4. सुन्नी मुसलमानों के लिए यह दिन मुख्य रूप से हजरत मूसा (अलैहिस्सलाम) और उनकी कौम (बनी इसराइल) को फिरऔन के अत्याचार से निजात मिलने की याद में मनाया जाता है। हदीस के अनुसार, जब पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीना पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि यहूदी आशूरा के दिन रोजा रखते थे, क्योंकि इस दिन हजरत मूसा और उनकी कौम को लाल सागर के चमत्कार के माध्यम से बचाया गया था। पैगंबर (सल्ल.) ने कहा, "हम मूसा के ज्यादा हकदार हैं," और मुसलमानों को इस दिन रोजा रखने की सलाह दी।
हदीस में उल्लेख: सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में हजरत इब्न अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि पैगंबर (सल्ल.) ने फरमाया: "आशूरा (10 मुहर्रम) का रोजा रखो और यहूदियों के साथ (केवल 10 तारीख को रोजा रखने में) समानता करने से बचो। इसके लिए 9 तारीख या 11 तारीख को भी रोजा रखो।" (सहीह मुस्लिम: 1134)

अन्य ऐतिहासिक घटनाएं: कुछ हदीसों में उल्लेख है कि 10 मुहर्रम को कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं
▶️जैसे:हजरत नूह (अलैहिस्सलाम) का जहाज बाढ़ से बचकर एक पहाड़ पर ठहरा।
▶️हजरत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) को "खलीलुल्लाह" की उपाधि मिली।हजरत यूसुफ (अलैहिस्सलाम) कैद से रिहा हुए।

आशूरा का रोजा और पुण्य: पैगंबर (सल्ल.) ने फरमाया कि आशूरा के रोजे का सवाब यह है कि पिछले एक साल के गुनाह माफ हो जाते हैं। (सहीह मुस्लिम: 1162) यह रोजा रमजान के रोजों के बाद सबसे अधिक पुण्य देने वाला माना जाता है।

*"9 और 11 मुहर्रम के रोजे9 और 10 या 10 और 11 का रोजा"*

▶️पैगंबर (सल्ल.) ने यहूदियों से अलग पहचान बनाने के लिए मुसलमानों को 9 और 10 या 10 और 11 मुहर्रम को रोजा रखने की सलाह दी।
▶️सहीह मुस्लिम (हदीस: 1134) में पैगंबर (सल्ल.) ने कहा, "अगर मैं अगले साल जिंदा रहा, तो 9वीं को भी रोजा रखूंगा ताकि यहूदियों से अंतर हो।"
क्यों 9 और 11?: यह परंपरा यहूदियों के केवल 10 तारीख को रोजा रखने की प्रथा से अलग होने के लिए शुरू की गई।
सुन्नी समुदाय में इसे सुन्नत-ए-मुक्कदा (अत्यधिक प्रोत्साहित सुन्नत) माना जाता है।
कुछ विद्वानों के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति 9 और 10 दोनों दिन रोजा रखने में असमर्थ हो, तो कम से कम 10 तारीख को रोजा रखना चाहिए।

रोजा स्वैच्छिक है: मुहर्रम के रोजे फर्ज (अनिवार्य) नहीं हैं, बल्कि नफ्ल (स्वैच्छिक) हैं, लेकिन इनका सवाब बहुत अधिक है।

▶️ सुन्नी समुदाय: सुन्नी मुसलमान आशूरा को हजरत मूसा की निजात और अन्य ऐतिहासिक घटनाओं के लिए रोजा रखते हैं। वे इस दिन को शोक के बजाय पुण्य और इबादत के दिन के रूप में देखते हैं।

उर्दू सफ़र

06/07/2025

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