Ssilsila Kahaniyon Kaa

Ssilsila Kahaniyon Kaa Life is a game and true love is a trophy.

Ek Hawa Ka Jhonka Chu Kar Gaya Mujhe,
Aur De Gaya Teri Meethi Yaadien,

Woh Sabhi Mulakate Woh Sabhi Baatein,
Woh Muskurate Pal,Woh Khilkhilate Lamhe,

Woh Sabhi Ishare,Jo Kabhi Aankhon Se Hue,
To Kabhi Chehre Ke Bhavon Se,

Woh Mera Roothna,Woh Tera Manana,Woh Sharartein,
Woh Ehsaas Jise Main Bayan Nahin Kar Sakta,

Woh Tera Paas Aana,Aur Meri Saanson Ka Ruk Jaana,
Woh Dhadkanon Ka Tez Ho Jaana,

Phir Tere Jaane Se Dil Ke Phool Ka Murjhana,

Main Nahin Jaanta Tu Ab Kahan Hai,
Par Ek Aas Si Hai Dil Mein,Ki Ek Din Tu Vapas Aayegi Jarur,

Aur Kahegi Mujhse Woh Baat,
Jo Main Humesha Se Sunna Chahta Tha,

Ek Hawa Ka Jhonka Chu Kar Gaya Mujhe...!!

08/10/2025

सच्चा प्रेम वह नहीं जो शरीर से जुड़ा हो,
बल्कि वह है जो आत्मा को छू जाए।
राधा और कृष्ण का प्रेम इसी सत्य का प्रतीक है —
जहाँ मिलन शरीर का नहीं, भावनाओं का होता है।
यह कहानी आपको बताएगी कि क्यों राधा-कृष्ण का प्रेम आज भी अमर है,
क्योंकि यह प्रेम समझ से परे, आत्मा से जुड़ा है। 💫

✨ अगर आपको यह कहानी दिल को छू जाए, तो लाइक, शेयर और सब्सक्राइब ज़रूर करें।
💬 अपने विचार कमेंट में बताएं — आपके लिए प्रेम का असली अर्थ क्या है?

:

गुप्ता जी एक सेवानिवृत्त शिक्षक थे । सेवानिवृत्ति के पश्चात वे अपनी पत्नी के साथ गुड़गांव के एक छोटे से फ्लैट में रहते थे...
03/10/2025

गुप्ता जी एक सेवानिवृत्त शिक्षक थे । सेवानिवृत्ति के पश्चात वे अपनी पत्नी के साथ गुड़गांव के एक छोटे से फ्लैट में रहते थे ।

एक बार गर्मियों में उन्होंने पत्नी के साथ कश्मीर घूमने की योजना बनाई। लेकिन उनके इलाके में प्रायः प्रतिदिन चोरी की घटनाएं होती रहती थी जिसके कारण वे अपने घर की सुरक्षा को लेकर बड़े चिंतित थे ।

कश्मीर जाने से पहले गुप्ता जी ने सोचा कि अगर उनकी गैरमौजूदगी में कोई चोर उचक्का घुस गया तो वो घर की सारी अलमारी और बक्से तोड़कर क्षतिग्रस्त कर देगा क्योंकि उसे कोई नकद तो मिलेगा नहीं ।

इसलिए बहुत सोच विचार के बाद उन्होने अपने घर को तहस नहस होने से बचाने के लिए दो हजार का एक नोट चोर के लिए टेबल पर रख दिए।

इसके साथ ही उन्होंने चोर के नाम एक भावनात्मक पत्र को भी वहाँ छोड़ दिया जिसमें लिखा था....." हे परम आदरणीय अनचाहे अथिति जी.... मेरे घर में प्रवेश करने के लिए आपने कड़ी मेहनत की , इसके लिए आपको हार्दिक बधाई , लेकिन बहुत गहरे अफसोस के साथ मुझें ये कहना पड़ रहा है कि हम शुरू से ही एक बेहद साधारण निम्न मध्यम वर्गीय परिवार हैं और हमारा पूरा परिवार पेंशन के थोड़े से पैसे से चलता है। इसलिए हमारे पास कोई अतिरिक्त नकदी नहीं है। मुझे सच में बहुत शर्म आ रही है कि यहाँ आपकी मेहनत और आपका कीमती समय बर्बाद हो रहा है। इसलिए मैंने आपकी पैरों की धूल के सम्मान में अपनी हैसियत के मुताबिक़ थोड़े से पैसे टेबल पर छोड़ दिए हैं। कृपया इसे श्रद्धा के साथ स्वीकार करें । इसके साथ ही मैं आपको आपके जोख़िम भरे व्यवसाय में वृद्धि के लिए कुछ बेहतरीन तरीके बता रहा हूं। आप कोशिश कर सकते हैं। सफलता आपके कदमों को चूमेगी । मेरे फ्लैट के ठीक सामने सातवीं मंजिल पर एक बहुत प्रभावशाली मंत्री जी रहते हैं । नामी प्रॉपर्टी डीलर आठवें माले में रहता है। सहकारी बैंक के अध्यक्ष छठे तल पर रहते हैं। पांचवी मंजिल पर प्रमुख उद्योगपति। चौथी मंजिल पर नामी ठीकेदार हैं व तीसरी मंजिल पर एक भ्रष्ट इंजीनियर है। इन सबका घर गहनों और नकदी से लबालब भरा हुआ है। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि आपकी व्यावसायिक सफलता इनमें से किसी को भी तनिक भी नुकसान नहीं पहुंचाएगी और उनमें से कोई भी संभवतः पुलिस को भी रिपोर्ट नहीं करेगा "......शुभकामनाओं के साथ आपका एक शुभचिंतक "

कश्मीर घूमने के बाद जब गुप्ता जी और उनकी पत्नी वापस लौटे तो उन्हें अपने घर के अंदर टेबल पर एक बैग रखा मिला।

बैग में पाँच लाख रुपए नकद और एक पत्र रखा देखकर वे दोनों बेहद हैरान रह गये।

उस पत्र में लिखा था......" आपके बेहतरीन दिशानिर्देश और मार्गदर्शन के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद गुरुदेव , मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि मैं पहले आपके करीब क्यों नहीं आ पाया। आपके निर्देशानुसार मैंने अपने मिशन को सफलतापूर्वक पूरा किया। आपकी इस बहमूल्य सहायता के बदले मैं गुरुदक्षिणा के तौर पर एक छोटी सी राशि आपके लिए छोड़े जा रहा हूँ । भविष्य में भी मैं इसी तरह आपके आशीर्वाद और मार्गदर्शन की कामना करता हूँ ".........आपका परम आज्ञाकारी चोर ।

02/10/2025

"आशा, तुम दिनभर क्या करती हो? बच्चों के पीछे भागने और घर संभालने के अलावा तुम्हारे पास कोई और पहचान है क्या?"
ये शब्द हर हफ्ते उसके पति अजय की जुबान से निकल ही जाते थे।

आशा पढ़ी-लिखी थी। एम.ए. तक पढ़ाई की थी, लेकिन शादी के बाद दो बच्चों और संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों में उसका करियर कहीं खो गया। अजय एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंटेंट था, ठीक-ठाक वेतन था, मगर बढ़ती महंगाई के सामने अक्सर उसका माथा चिंता से भीग जाता।"

"आशा, अब बच्चे बड़े हो रहे हैं। तेरा दिनभर का टाइम तो यूंही चला जाता है। क्यों न तू भी कुछ काम पकड़ ले? हमारी पड़ोसन सुधा को देख, बैंक में नौकरी करती है, सब उसका सम्मान करते हैं। और तू है कि सारा दिन घर में घिसती रहती है।"
अजय के व्यंग्य तीर बनकर दिल को चुभते।

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आशा चुपचाप सुन लेती। वो जानती थी कि उसका योगदान किसी को दिखता नहीं। सुबह चार बजे उठकर सारा घर संभालना, बच्चों को तैयार करना, सास-ससुर की दवाइयों का ख्याल रखना, घर का खर्च जोड़ना... ये सब कोई काम नहीं मानता।

कभी-कभी अकेले में वो रो लेती। उसे लगता – "क्या सचमुच मेरी कोई पहचान नहीं? क्या मैं केवल बर्तन-झाड़ू और खाना बनाने तक ही सीमित हूँ?"

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जिंदगी का पहिया ऐसे ही घूम रहा था कि एक दिन अजय ऑफिस से लौटा तो बेहद थका हुआ और खामोश था।
"क्या हुआ जी? तबीयत ठीक नहीं लग रही?" आशा ने पूछा।
अजय ने धीमे स्वर में कहा – "ऑफिस से नोटिस मिला है। कंपनी घाटे में है, और अगले महीने से मेरी नौकरी खतरे में है।"

ये सुनते ही आशा के पैरों तले जमीन खिसक गई। पूरे घर का खर्च, बच्चों की पढ़ाई, किराया – सबकुछ बिखर जाएगा।

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रातभर करवटें बदलने के बाद आशा ने ठान लिया – "अब मुझे अपनी पहचान बनानी ही होगी।"
उसे याद आया कि शादी से पहले वह चित्रकला और डिजाइनिंग में काफी अच्छी थी। कॉलेज के फंक्शन में उसकी पेंटिंग्स की खूब तारीफ होती थी।

अगले दिन उसने पुरानी ड्रॉइंग कॉपियां और रंग ब्रश निकाले।
"ये सब क्यों निकाल रही हो?" सास ने पूछा।
आशा ने मुस्कुराकर जवाब दिया – "माँजी, अब मुझे भी घर की जिम्मेदारी उठानी होगी। बच्चों के लिए, अजय के लिए, और अपने लिए।"

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छोटी शुरुआत...

आशा ने घर से ही हैंडमेड ग्रीटिंग कार्ड और पेंटिंग्स बनाकर पड़ोसियों को बेचना शुरू किया। शुरू में मजाक उड़ाया गया –
"अरे, ये सब से क्या होगा? इससे घर चलेगा क्या?"
पर आशा हार मानने वाली नहीं थी।

धीरे-धीरे उसने सोशल मीडिया पर अपने डिजाइन अपलोड किए। ऑर्डर मिलने लगे। साथ ही उसने बच्चों को शाम को ड्रॉइंग क्लास देना शुरू किया।

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छह महीने में ही उसकी मेहनत रंग लाने लगी। उसे एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से आर्ट टीचर का ऑफर मिला। घर बैठे वह बच्चों को ऑनलाइन क्लास देने लगी। हर महीने उसकी आमदनी 15-20 हजार तक पहुँच गई।

अजय हैरान रह गया।
"आशा, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि तू इतना कर पाएगी। मैं तुझे हमेशा कम समझता रहा।"
आशा ने बस मुस्कुराकर कहा – "औरत को मौका दो, तो वो आसमान छू सकती है।"

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पर किस्मत इतनी जल्दी चैन कहाँ लेने देती है। अजय की नौकरी सचमुच छूट गई। पूरे परिवार का भार आशा पर आ पड़ा। अब वही घर की असली कमाने वाली थी।

शुरुआत में मुश्किल हुई, पर आशा ने हिम्मत नहीं हारी। उसने ऑनलाइन कोर्स किया, डिजिटल आर्ट सीखीं, और बड़े-बड़े प्रोजेक्ट लेने लगी।

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आशा बनी परिवार की ताकत...

तीन साल बीते। आशा अब सिर्फ गृहिणी नहीं थी। वह एक प्रोफेशनल आर्टिस्ट और ऑनलाइन एजुकेटर बन चुकी थी।
उसने अपने ब्रांड के नाम से "Asha’s Creative Studio" खोला।

बच्चे गर्व से कहते – "हमारी मम्मी आर्टिस्ट हैं।"
अजय भी अब उसे सम्मान की नजर से देखता।

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समाज को संदेश...

एक दिन महिला दिवस पर आशा को पास के कॉलेज में बुलाया गया।
उसने मंच से कहा –
"गृहिणी होना कमजोरी नहीं है। हम घर चलाते हैं, परिवार संभालते हैं। पर अगर हालात मजबूर करें, तो हम बाहर निकलकर भी सब संभाल सकते हैं। बेटियों को हमेशा पढ़ाओ, आत्मनिर्भर बनाओ। क्योंकि जिंदगी कब किस मोड़ पर ले आए, कोई नहीं जानता।"

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सीख...

दोस्तों, आत्मनिर्भर महिला केवल घर ही नहीं, समाज का भी सहारा बनती है। आर्थिक स्वतंत्रता से उसका आत्मविश्वास बढ़ता है और सम्मान भी।

👉 इसलिए बेटियों को सिर्फ पढ़ाओ मत, उन्हें आत्मनिर्भर बनाना सिखाओ।
👉 और अगर आप गृहिणी हैं, तो याद रखिए – आपका योगदान अदृश्य जरूर है, लेकिन बेहद कीमती है। और जरूरत पड़ने पर आप किसी भी मुश्किल का सामना कर सकती हैं।

रविवार की सुबह थी। घर में हमेशा की तरह भागदौड़ मची हुई थी। रीना सुबह से ही रसोई में लगी थी। बच्चों का नाश्ता, ससुरजी की ...
09/09/2025

रविवार की सुबह थी। घर में हमेशा की तरह भागदौड़ मची हुई थी। रीना सुबह से ही रसोई में लगी थी। बच्चों का नाश्ता, ससुरजी की दवा और पति अनिल की चाय—सबकुछ संभालते-संभालते उसका सिर चकराने लगा।

इतने में अनिल ऑफिस का लैपटॉप खोलते हुए बोला—
“रीना, आज मेरे बॉस और कुछ क्लाइंट्स घर पर डिनर पर आ रहे हैं। सबकुछ परफेक्ट होना चाहिए, वरना मेरी इमेज खराब हो जाएगी।”

रीना ठिठक गई।
“इतने बड़े मेहमान आ रहे हैं और आप मुझे अभी बता रहे हैं? सामान भी पूरा नहीं है, कैसे तैयारी होगी?”

“अरे, तुम तो गृहिणी हो, दिन भर घर पर ही रहती हो। ये सब तुम्हारे लिए कौन-सा बड़ा काम है? और हां, खुद को सजाने-संवारने की जरूरत नहीं है, समझीं? बस खाना अच्छा बना देना, बाकी मैं संभाल लूंगा।”

रीना का चेहरा उतर गया। अक्सर अनिल उसे यही ताना देता—“गृहिणी हो, कुछ बड़ा तो करती नहीं हो।”

रीना मन ही मन सोच रही थी—क्या सच में गृहिणी होना इतना छोटा काम है?

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शाम का समय

रीना सुबह से ही दौड़भाग कर रही थी। बाजार से सामान लाना, बच्चों को संभालना, सास-ससुर की देखभाल, घर की सफाई—सबकुछ उसने अकेले कर लिया। आखिरकार तरह-तरह के पकवानों की खुशबू से पूरा घर महक उठा।

अनिल के बॉस और क्लाइंट्स आए तो डाइनिंग टेबल पर सब बैठ गए।

“वाह! खाना तो कमाल का है। आपकी पत्नी तो बहुत टैलेंटेड हैं, अनिल जी।” बॉस ने मुस्कुराते हुए कहा।

अनिल हंसते हुए बोला—
“जी, पर टैलेंटेड कहां! ये तो बस गृहिणी हैं, जिनका काम है घर और रसोई तक सीमित रहना। असली काम तो हम बाहर ऑफिस में करते हैं।”

रीना चुपचाप पानी परोस रही थी। मगर आज उसकी चुप्पी टूट गई।

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“माफ़ कीजिएगा, क्या मैं कुछ कह सकती हूँ?” रीना ने हल्की लेकिन दृढ़ आवाज़ में पूछा।

सभी की नज़रें उसकी ओर उठीं।

“जी, मैं गृहिणी हूँ। पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने नौकरी नहीं की, क्योंकि इस घर को, बच्चों को, और बुज़ुर्गों को मेरी ज़रूरत थी। लेकिन क्या आपको पता है, गृहिणी का मतलब क्या होता है?

गृहिणी घर का सिर्फ खाना बनाने वाली नहीं होती, बल्कि पूरे परिवार की धुरी होती है। वो बच्चे की पहली टीचर होती है, पति की सबसे बड़ी सहयोगी, और माता-पिता की देखभाल करने वाली भी।

अगर पति बाहर ऑफिस में सफल होता है, तो उसके पीछे गृहिणी का योगदान होता है, जो घर की हर जिम्मेदारी निभाती है।

एक नौकरानी खाना बना सकती है, लेकिन वो पति के पसंद का स्वाद नहीं जान सकती। ट्यूशन पढ़ाने वाला बच्चों को पढ़ा सकता है, लेकिन वो मां जैसी धैर्य और ममता नहीं दे सकता।

और सबसे बड़ी बात, गृहिणी तनख्वाह नहीं लेती—क्योंकि उसका काम पैसों से नहीं, रिश्तों और प्यार से चलता है।”

रीना की आंखें चमक रही थीं।

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सभी मेहमान कुछ देर तक चुप रहे। फिर अनिल का बॉस बोला—
“शानदार! मिसेज रीना, आपने गृहिणी की जो परिभाषा बताई, वो हम जैसे पढ़े-लिखे लोग भी नहीं सोच पाए। सच कहूं, अनिल, तुम बहुत भाग्यशाली हो कि तुम्हें इतनी समझदार और समर्पित पत्नी मिली।”

बाकी क्लाइंट्स भी सहमति में सिर हिलाने लगे।

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अनिल का चेहरा लाल पड़ गया। उसे लगा जैसे उसकी सारी अकड़ और घमंड उसके ही मेहमानों के सामने टूटकर गिर गया हो।

वो धीमी आवाज़ में बोला—
“रीना, आज तक मैंने तुम्हारी कद्र नहीं की। हमेशा यही समझता रहा कि तुम बस घर तक सीमित हो। लेकिन आज एहसास हुआ, अगर तुम न होती तो मेरी सारी सफलता अधूरी होती। माफ़ करना।”

रीना ने हल्की मुस्कान दी और बोली—
“माफ़ी की जरूरत नहीं, बस आगे से मुझे ‘सिर्फ गृहिणी’ मत कहना।”

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संदेश

गृहिणी होना कोई छोटा काम नहीं, बल्कि परिवार की सबसे बड़ी ताक़त है। उसकी मेहनत, त्याग और समर्पण की वजह से ही घर घर कहलाता है।

"पितृदोष....अचानक फोन की डिस्प्ले पर बेटे का फोन नम्बर नाम सहित देखकर राधिका चोंकी....फोन...हां फोन से ही तो उसने अपने ब...
09/09/2025

"पितृदोष....
अचानक फोन की डिस्प्ले पर बेटे का फोन नम्बर नाम सहित देखकर राधिका चोंकी....

फोन...हां फोन से ही तो उसने अपने बेटे होने की खानापूर्ति की जब उसके बाबूजी बीमारियों से अस्पताल मे जीवन मृत्यु के बीच झूल रहे थे...और उनके निधन पर भी फोन से ही....
खैर....

हैलो....
हैलो मां कैसी हो
मे ठीक हूं तुम कैसे हो दीपक बेटा...ठीक हो

अरे कहाँ मां.....सब....

मां ये पितृदोष कया होता है
पितृदोष.... तुझे लंदन में पितृदोष का ध्यान कैसे आया वहां कौन से पंडित जी मिलते है...

ओफ्फो मां....तुम वहीं की वही पडी हो....आवाज मे तल्खी लिए दीपक बोला...

हां...सच कहा ...तुम जैसा छोड गये थे मे उसी घेरे में ही हूं...

खैर ये पितृदोष का ख्याल क्यों आया तुम्हें...

मां.....जब से पिताजी दुनिया छोड़ कर गये है यहां बिजनेस मे घाटा ही घाटा हो रहा है घर मे बच्चों का पढाई मे रिजल्ट भी अच्छा नहीं आ रहा...और भी बहुत परेशान रहता हूँ..

तो इंटरनेट पर पंडित जी से बातचीत की तो उन्होंने पितृदोष बताया....

उपाय हरिद्वार में होगा...पंडित जी से बातचीत में बडा बिल आया....

आप ही बता दो पितृदोष और उसका उपाय...

दीपक बेटा ये पितृदोष उन पिता की वजह से होता है जो दिनरात अपने बच्चों की फरमाइश उनकी जरुरतों के लिए खुद को खत्म कर देते है ये सोचकर की वो बच्चे बुढापे मे जब वह चल नही पा रहे होगे तो उनकी लाठी बनेंगे उनके अकेलेपन के साथी बनेगे जैसे वो बचपन में उनकी फरमाइश जिदे पूरी कर रहे है वो बुढापे मे उनकी......

मगर समय और संस्कार नही दे पाने के परिणाम स्वरूप वही बच्चे बडे होकर उसी पिता को आँखे दिखाते हैं उन्हें बीमारी मे अकेले मरता छोड जाते है यहां तक जिन कंधों पर बैठकर वो बच्चे दुनिया देखते है अंत समय में उन्हें कंधा देने भी नही आते...

और अंजान कंधों पर अपनी अंतिम यात्रा पर चले जाते है...

कहकर चुप हो गई....
दोनों और एकदम सन्नाटा सा हो गया....

माँ....माँ....माँ

हां बेटा....और इसका उपाय तुझे क्या बताऊं बेटा...बस अपने बच्चों को समय और संस्कार जरूर देना वरना वो भी एकदिन पितृदोष के अपराधी बन जाएंगे....कहकर सुबक पडी....

वहीं दूसरी ओर भी रोने की आवाजें आ रही थी शायद देर से ही सही दीपक को आज पिता की अहमियत का एहसास उनके खोने के बाद हो गया था....!!

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पिघलता वज़ूद (कहानी)  शहर का पॉश इलाका,सड़कें चौड़ी और चिकनी थीं, दोनों ओर पेड़ों की कतारें थीं जिनकी हरी-भरी शाखें हल्क...
09/09/2025

पिघलता वज़ूद (कहानी)

शहर का पॉश इलाका,सड़कें चौड़ी और चिकनी थीं, दोनों ओर पेड़ों की कतारें थीं जिनकी हरी-भरी शाखें हल्की हवा में झूम रही थीं। हर कुछ दूरी पर बड़े-बड़े शो-रूम, कॉफी कैफ़े और चमचमाती गाड़ियाँ नज़र आतीं।

इसी इलाके में एक आलीशान कोठी थीसफेद मार्बल से बनी, जिसके सामने की बगिया में विदेशी फूल खिले रहते।
रात को जब बगिया की रंगीन लाइटें जल उठतीं तो पूरा घर किसी सपनों के महल जैसा चमकने लगता।

ये था अभय और माया का घर।अंदर विशाल ड्रॉइंग रूम
था दीवारों पर महंगे पेंटिंग्स, काँच की सेंटर-टेबल, और मुलायम सोफ़े।सभी चीज़ें आधुनिकता की मिसाल थीं, पर इस घर की दीवारों में एक अजीब-सी खामोशी गूँजती थी।

माया अक्सर खिड़की के पास बैठकर बाहर देखती रहती।
नीचे सड़क पर बच्चों की हँसी सुनाई देती, कभी रिक्शे वालों की आवाज़, कभी चाट के ठेले पर भीड़ का शोर।
लेकिन उसके अपने घर के अंदर सिर्फ़ सन्नाटा था।

शाम को जब अभय घर आता, तो दरवाज़े से अंदर आते ही वो अपना बैग एक तरफ रख देता और बिना ज़्यादा बातें किए सीधे अपने कमरे की ओर बढ़ जाता।
माया के हाथों में रखा गर्मागर्म सूप ठंडा पड़ जाता।
रात के डाइनिंग टेबल पर सिर्फ़ चम्मचों की खनक होती—न कोई हँसी, न कोई बात।

माया सोचती,"ये कैसा रिश्ता है? बाहर से सबको लगता है कि हमारी ज़िंदगी परफेक्ट है, लेकिन अंदर से हम कितने दूर हैं।

वो रविवार की सुबह थी। हल्की-हल्की धूप खिड़की के शीशों पर उतर रही थी।माया ने ड्रॉइंग रूम को सजाया था क्योंकि उसकी कॉलेज फ्रेंड रिया आने वाली थी।

रिया के साथ आया उसका कज़िन समीर।समीर जब अंदर आया, तो उसकी मौजूदगी से कमरे का माहौल जैसे बदल गया।उसने हल्की-सी शर्ट और जींस पहनी थी, उसके बाल हवा से बिखरे थे, और चेहरे पर एक खुला, आत्मविश्वास से भरा मुस्कान था।

समीर की नज़रें जब माया पर पड़ीं तो उसने सहजता से कहा,
“वाह भाभी, आप तो रिया से भी ज्यादा खूबसूरत हैं। मुझे तो यकीन ही नहीं हुआ कि ये रिया की कॉलेज फ्रेंड हैं।”

रिया खिलखिलाकर हँस पड़ी, पर माया के गालों पर हल्की-सी लाली आ गई।बरसों बाद किसी ने उसकी खूबसूरती पर इतना सीधा और सहज कॉम्प्लिमेंट दिया था।

ड्रॉइंग रूम में गपशप का माहौल बन गया।बाहर से आती धूप पर्दों के बीच से छनकर कमरे में सुनहरी आभा फैला रही थी।
चाय की खुशबू, हँसी की आवाज़ें और समीर की बातेंमाया को सबकुछ नया और ताज़ा सा महसूस हुआ।

जाते-जाते समीर ने माया की ओर देखते हुए कहा,“भाभी, आप जब मुस्कुराती हैं ना, तो लगता है जैसे पूरा कमरा रोशन हो गया।”उस एक वाक्य ने माया के भीतर बहुत गहरी जगह बना ली।

दिन ढलते गए।दिल्ली की सर्दियाँ आ चुकी थीं।
सुबह की धुंध, हवा में ठंडक और धूप का आलस भरा स्पर्शऐसे में माया को अक्सर अकेलापन और ज्यादा चुभने लगता।

वो खिड़की के पास बैठकर चाय पीती और फोन पर समीर से बातें करती।पहले छोटी-छोटी बातें होतीं,
“कैसी हो?”
“क्या कर रही हो?”

धीरे-धीरे बातें लंबी हो गईं।
समीर उसे हँसाता, उसकी बातें सुनता, उसके मन की खाली जगह भरता।

एक शाम, जब बाहर हल्की बारिश हो रही थी और खिड़की पर बूंदें गिर रही थीं, समीर ने फोन पर कहा,“माया, तुम जानती हो, तुम्हारी आवाज़ सुनकर लगता है जैसे बारिश की बूंदें कानों में संगीत बनकर उतर रही हों।”माया ने पल भर को आँखें बंद कर लीं।बरसों से उसे ऐसा अपनापन किसी ने नहीं दिया था।

सर्दियाँ अपने चरम पर थीं।सुबह के धुँधलके में हवा इतनी ठंडी थी कि खिड़की के शीशे पर धुंध जम जाती।माया अक्सर खिड़की पर उँगलियों से गोल घेरा बनाकर बाहर झाँकती—बच्चे ऊनी टोपी पहनकर स्कूल जाते, सड़क किनारे चाय की दुकान पर लोग हाथ सेकते, और दूर से आती भाप वाली चाय की खुशबू पूरे गली-कूचों में फैल जाती।

घर के अंदर हीटर जरूर था, लेकिन रिश्तों की ठंडक को कोई हीटर नहीं पिघला पा रहा था।अभय सुबह निकलता, रात को थका-हारा लौटता और बस इतना कहता,“खाना लगा दो, माया… बहुत काम था आज।”

डाइनिंग टेबल पर महंगे बर्तन सजे रहते, लेकिन उनमें वो गर्माहट नहीं थी, जो एक परिवार के साथ खाने में होती है।
माया प्लेट में खाना डालती और चुपचाप देखती रहती कि अभय फोन पर बिज़नेस मेल्स में खोया हुआ है।

इन्हीं दिनों एक दिन समीर का फोन आया।
“माया, मौसम कितना सुहाना हैचलो कॉफी पीने चलते हैं।”

माया ने पहले मना किया“नहीं समीर, ये ठीक नहीं है।”
लेकिन खिड़की से गिरती धुंध की चादर, ठंडी हवा और भीतर का खालीपन उसे खींच रहा था। आख़िरकार उसने हामी भर दी।

वो कॉफी शॉप शहर के सबसे खूबसूरत कोनों में से एक थी।
बड़े काँच की दीवारों से बाहर का नज़ारा साफ दिख रहा
था !पेड़ों की शाखों पर ओस की बूंदें, लोग गर्म कपड़ों में लिपटे, और ट्रैफिक की धीमी आवाज़।

अंदर हल्की पीली रोशनी थी, कॉफी मशीन की चूँ-चूँ की आवाज़ और चारों ओर फैली कॉफी की सुगंध।लकड़ी की मेज़ पर दो मग रखे थे, जिनसे भाप उठ रही थी।

समीर ने माया की ओर झुकते हुए कहा,“तुम्हें पता है, इस शहर की भीड़ में भी तुम अलग लगती हो। तुम्हारी आँखों में कुछ ऐसा है, जो सीधे दिल में उतर जाता है।”

माया ने हल्के से नज़रें झुका लीं।वो जानती थी कि ये बातें उसे सुननी नहीं चाहिएं… पर दिल जैसे सबकुछ सुनना चाहता था।

घर लौटते वक्त माया की गाड़ी ट्रैफिक में फँसी थी।
बाहर हल्की फुहार हो रही थी और सड़क पर गाड़ियों की लाइटें धुंध में जैसे टिमटिमा रही थीं।वो खुद से लड़ रही थी—
"मैं क्या कर रही हूँ? ये गलत है, पर क्यों लगता है कि मैं ज़िंदा हूँ सिर्फ तभी जब समीर के साथ होती हूँ?"

उस रात उसने करवटें बदलते हुए नींद में डूबने की कोशिश की, लेकिन अभय की खर्राटों के बीच समीर की बातें उसके कानों में गूंजती रहीं।

बसंत आने वाला था।ठंडी हवाओं की जगह अब हल्की-हल्की गर्माहट घुलने लगी थी।पेड़ों पर नई पत्तियाँ झाँकने लगीं, बगिया के गुलाब फिर से महक उठे।
लेकिन माया की ज़िंदगी में मौसम जैसा कोई बदलाव नहीं आया था।उसके घर की खामोशी पहले जैसी ही ठंडी और बेरंग थी।

अभय के लिए दिन और रात सिर्फ काम थे।
बैठकें, मीटिंग्स, फोन कॉल्स…यहाँ तक कि कभी माया तैयार होकर उसके पास बैठती, तो वो बस एक सरसरी नज़र डालकर कह देता,“अच्छा लग रहा है… अब सोने दो, बहुत थक गया हूँ।”

उसके भीतर की औरत, जो स्नेह और अपनापन चाहती थी, अब धीरे-धीरे बिखरने लगी थी।

“माया, मैं तुम्हारे घर के पास ही हूँ। चलो, थोड़ी देर गाड़ी में घूमते हैं।”

माया ने खिड़की से बाहर देखा।सूरज ढल रहा था, आसमान लाल और सुनहरा हो रहा था।सड़क पर पीली स्ट्रीट लाइटें जलने लगी थीं।
दिल ने कहा,जाना चाहिए।
दिमाग ने कहा—नहीं, ये गलत है।
लेकिन उसकी उँगलियाँ खुद-ब-खुद फोन पर हाँ टाइप कर चुकी थीं। उसने अभय को फोन किया कि वह काम से बाजार जा रही है, घर आओ तो उसका इंतजार करना।

समीर की काली कार सड़क किनारे खड़ी थी।जैसे ही माया उसमें बैठी, गाड़ी के अंदर सुगंधित परफ्यूम की महक फैली हुई थी।बाहर ट्रैफिक का शोर था, लेकिन गाड़ी के अंदर एक अलग ही सन्नाटा—एक अजीब-सा खिंचाव।

समीर ने धीरे-धीरे गाड़ी चलाई।रेडियो पर धीमा रोमांटिक गाना बज रहा था।माया खिड़की से बाहर देख रही थी।सड़क की रोशनियाँ, चहल-पहल, और उसके भीतर उमड़ते सवाल।

“माया…” – समीर ने अचानक उसकी तरफ देखा, “तुम्हें पता है, जब तुम मेरे साथ होती हो तो लगता है ज़िंदगी पूरी है। वरना सब अधूरा लगता है।”

माया की आँखें भर आईं,उसने धीमी आवाज़ में कहा,
“समीर, ये सब गलत है… हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।”

समीर ने उसका हाथ पकड़ लिया।
उसका स्पर्श गरम था, जैसे दिल की धड़कन सीधे माया की नसों में उतर रही हो।
“गलत क्या है माया? प्यार गलत नहीं होता। तुम अकेली हो, और मैं तुम्हारे साथ हूँ। बस इतना ही सच है।”

गाड़ी एक सुनसान सड़क पर रुकी।
चारों ओर अंधेरा था, बस दूर से आती स्ट्रीट लाइट की रोशनी और पेड़ों से टकराती हवा की सरसराहट।

माया ने समीर की आँखों में देखा।वो पल ऐसा था, जिसमें शब्द खो गए और सिर्फ़ खामोशियाँ बोलने लगीं।उसने चाहकर भी हाथ नहीं छुड़ाया।समीर झुका और माया ने अपनी आँखें बंद कर लीं।
वो पल… जिसने दोनों के बीच की सीमा मिटा दी।

घर लौटते वक्त माया का दिल तेज़-तेज़ धड़क रहा था।
सड़क पर गाड़ियाँ भाग रही थीं, लोग अपने-अपने घरों की ओर लौट रहे थे।लेकिन माया को लग रहा था जैसे सब उसे घूर रहे हों, जैसे सब उसकी गलती जानते हों।

घर पहुँचकर जब अभय ने दरवाज़ा खोला, तो उसके चेहरे पर वही थकान थी।
“डिनर लगा दो माया, मीटिंग बहुत लंबी थी।”

माया का दिल डूब गया।
वो चाह रही थी कि अभय उसे एक बार देखे, पूछे कि वो कैसी है…लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
उस रात माया ने करवट लेकर आँसुओं में खुद को समेट लिया।
एक बार जो मर्यादा की सीमा पार हुई तो फिर होती गई। दोनों अब पहले से ज्यादा मिलने लगे।
गर्मी का मौसम आ चुका था ,धूप चुभने लगी थी, हवा में तपिश थी और बगिया के फूल मुरझाने लगे थे।माया के भीतर भी कुछ वैसा ही हो रहा था — जो रिश्ता कभी सुगंधित फूलों जैसा महका था, अब मुरझाने लगा था।

अभय ने पिछले कुछ हफ़्तों से माया में बदलाव महसूस किया था।
उसकी आँखें थकी रहतीं, हँसी बनावटी लगती और कभी-कभी वो घंटों कमरे में बंद रहकर फोन पर बात करती।एक शाम उसने सीधे पूछ ही लिया,

“माया, क्या बात है? तुम मुझसे दूर होती जा रही हो।
क्या तुम्हारी ज़िंदगी में कोई और है?”

यह सवाल सुनकर माया का चेहरा स्याह पड़ गया।
गला सूख गया, शब्द जैसे होंठों तक पहुँचकर जम गए।
उसने सिर झुका लिया।

अभय की आँखों में आंसू थे।
“मैंने तुम्हें सबकुछ देने की कोशिश की…
लेकिन शायद वो नहीं दे पाया जिसकी तुम्हें सबसे ज्यादा ज़रूरत थी — समय और अपनापन।”

उस रात माया अपने कमरे में अकेली बैठी रही।बाहर गर्म हवा खिड़की से टकरा रही थी।पंखा चल रहा था लेकिन फिर भी घुटन बढ़ रही थी।

उसके सामने दो रास्ते थे,एक ओर समीर, जिसने उसे मोहब्बत और नज़दीकी दी थी।दूसरी ओर अभय, जिसने उसे सम्मान और घर दिया था।

माया ने आईने में खुद को देखा,चेहरे पर थकान, आँखों में ग्लानि और होंठों पर चुप्पी।
“क्या यही चाहा था मैंने?
किसी और की बाँहों में सुकून ढूँढकर अपना घर उजाड़ देना?”

अगले दिन माया ने समीर को बुलाया।
वे दोनों उसी पार्क में मिले, जहाँ कभी पहली बार घंटों बातें की थीं।पेड़ों की छाँव में बैठते ही माया ने गहरी साँस ली और बोली,
“समीर, अब ये रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता।
ये मोहब्बत नहीं, पलायन है।
मैं अपने पति को, अपने घर को और खुद को खो रही हूँ।”

समीर की आँखें लाल हो गईं।
“माया, मैं तुम्हारे बिना कैसे जीऊँगा?”

माया ने आँसू पोंछते हुए कहा,
“तुम्हें जीना ही होगा… जैसे मुझे जीना है।
प्यार सिर्फ पाने का नाम नहीं, कभी-कभी छोड़ देने का नाम भी होता है।”

उसने हाथ छुड़ा लिया और धीरे-धीरे चली गई।
समीर बहुत देर तक वहीं बैठा रहा, जैसे किसी ने उसकी दुनिया छीन ली हो।

रात को माया ने अभय के सामने सबकुछ कबूल कर लिया।
उसने रोते-रोते कहा,
“हाँ, मुझसे गलती हुई… मैंने तुम्हारा विश्वास तोड़ा।लेकिन मैं अब और झूठ में नहीं जी सकती।अगर चाहो तो ये रिश्ता यहीं ख़त्म कर दो।”

अभय ने चुपचाप उसकी बातें सुनीं।
फिर धीरे से बोला,“माया, मैं तुम्हें सज़ा दे सकता हूँ, पर खुद को कैसे माफ़ करूँ?अगर मैंने तुम्हें वक्त दिया होता, तो शायद आज ये दिन न देखना पड़ता।”

दोनों के बीच लम्बी खामोशी छा गई।
लेकिन उस खामोशी में टूटन से ज्यादा एक थका हुआ अपनापन था।

समय बीतता गया।माया और अभय ने साथ रहना जारी रखा, लेकिन उनके रिश्ते में पहले जैसी सहजता कभी नहीं लौटी।
घर का वातावरण अब बोझिल नहीं था, पर उसमें खालीपन था।

माया अक्सर बरामदे में बैठकर आसमान देखती।
नीले आकाश में उड़ते पक्षी उसे याद दिलाते कि इंसान चाहे जितना भी उड़ ले, अंत में उसे अपने बसेरे में लौटना ही पड़ता है।

उसने खुद से वादा किया “अब मैं फिर कभी अपनी डोर नहीं तोड़ूँगी।गलती से मिली सीख को जीवनभर साथ रखूँगी।”

राशि सिंह
मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
(मौलिक कहानी)

मेरी माँ के देहांत के बाद, मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली। उस समय मैं 15 साल की थी। नई माँ का नाम रीना था। लोग कहते थे वह...
09/09/2025

मेरी माँ के देहांत के बाद, मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली। उस समय मैं 15 साल की थी। नई माँ का नाम रीना था। लोग कहते थे वह सुंदर और सलीकेदार है, लेकिन मुझे उनके चेहरे की मुस्कान हमेशा बनावटी लगती थी।

रीना अपने साथ एक बेटा लाई थी—अर्णव, उम्र 10 साल। मुझे लगा था कि शायद भाई जैसा रिश्ता बनेगा, पर जल्द ही समझ आ गया कि वह मुझसे अलग था।

घर की हर चीज़ पर उसका हक़ सबसे पहले होता। पापा उसके लिए खिलौने, नए जूते, और मोबाइल लाते। और मेरे हिस्से में बचता—“तुम बड़ी हो, समझदारी दिखाओ।”
मैंने कई बार पापा से कहा, “आपको लगता है मैं आपकी नहीं हूँ?”
वह बस थककर कहते: “रीना को एडजस्ट करना है, थोड़ा सब्र रख।”

लेकिन सब्र की भी हद होती है।
17 साल की उम्र में, एक दिन जब रीना ने मेरी किताबें खिड़की से बाहर फेंक दीं—क्योंकि उसमें किसी लड़के की लिखी पंक्ति मिली थी—तो मैंने घर छोड़ दिया।

---

मैं ट्रेन पकड़कर मुंबई पहुँच गई। वहाँ शुरू हुआ संघर्ष—पहले होटल में बर्तन धोने का काम, फिर एक टेलरिंग शॉप पर इंटर्न, और धीरे-धीरे मेहनत से मैंने अपना रास्ता बना लिया। कपड़ों की डिज़ाइनिंग में दिलचस्पी थी, तो वहीं से आगे बढ़ी।

बीस साल गुजर गए।
मैंने अपनी छोटी-सी फैक्ट्री खोल ली, कुछ कारीगर काम करते थे। ज़िंदगी स्थिर थी, लेकिन दिल में एक कोना हमेशा खाली रहा—घर का।

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एक सुबह फ़ोन आया।
पापा का देहांत हो गया था।
मैं जैसे जड़ हो गई। भीगे मन से लखनऊ लौटी।

पुराना घर देखा—बड़ा दरवाज़ा अब जर्जर हो चुका था। अंदर कदम रखते ही हवा भारी लगी। मोहल्लेवालों से पता चला—पापा के बाद रीना और अर्णव की हालत बुरी हो गई।

अर्णव ने बिज़नेस शुरू करने के लिए कर्ज़ लिया था। साझेदार ने धोखा दिया, सब पैसा डूब गया। साहूकार रोज़ धमकी देते आते। रीना लोगों के सामने हाथ जोड़ती—पर कोई सुनता नहीं।

---

मैं घर के आँगन में पहुँची।
रीना वहीं थीं—सफेद साड़ी में, चेहरे की चमक गायब, आँखें सूजी हुईं। वही रीना, जिसने कभी मुझे तिरस्कृत नज़रों से देखा था, अब टूटी हुई और अकेली खड़ी थीं।

साहूकार चिल्ला रहे थे:
“पैसे दो, वरना ये घर बेच देंगे!”

मैंने भीड़ में कदम रखा।
“रुकिए। यह घर बिकेगा नहीं। कर्ज़ मैं चुकाऊँगी।”

सबके चेहरे पलट गए।
रीना की आँखों में अविश्वास और काँपते होंठ थे।

---

रात को, हम चूल्हे पर चाय के सामने बैठे।
रीना बोलीं:
“तुम्हें शायद याद हो, मैंने तुम्हारे साथ अच्छा नहीं किया। मैं चाहती थी कि अर्णव आगे बढ़े। सोचा था, तुम बड़ी हो, संभाल लोगी। लेकिन वही बेटा… मेरी सबसे बड़ी सज़ा बन गया। अब मैं अकेली रह गई हूँ।”

मैंने लंबे समय तक कुछ नहीं कहा।
फिर बोली:
“रीना जी, अतीत नहीं बदल सकता। लेकिन हम दोनों के पास आज है। आज से अगर आप मुझे बेटी मानें, तो मैं आपको माँ मानने की कोशिश करूँगी।”

उनकी आँखों से आँसू ढलके। उन्होंने धीरे से मेरी हथेली थामी:
“माँ तो मैं पहले ही नहीं बन पाई… शायद अब दोस्त बन जाऊँ।”

---

अगली सुबह मैं उन्हें लेकर बैंक गई। कर्ज़ की फाइलों की समीक्षा करवाई, साहूकार की धमकियों की शिकायत दर्ज कराई। मैंने अपने बिज़नेस से कुछ पैसे डाले और बाक़ी किस्तों का हिसाब बनाया।

अर्णव भी आया—काँपता हुआ। उसने कहा, “दीदी, मैंने बहुत ग़लती की। पर अब मैं भागना नहीं चाहता।”
मैंने उसकी तरफ़ देखा, और सख़्ती से कहा:
“अगर सुधारना है, तो ईमानदारी से काम करना होगा। वरना कोई रिश्ता नहीं बचेगा।”

वह चुपचाप सिर झुकाकर राज़ी हो गया।

---

शाम को रीना ने पहली बार मेरे लिए अपने हाथों से खाना बनाया। सादा दाल और चपाती।
परोसते हुए बोलीं:
“अगर चाहो तो मुझे ‘रीना’ कह सकती हो। माँ कहलाने का हक़ शायद खो चुकी हूँ।”

मैंने मुस्कुराकर कहा:
“नाम से नहीं, काम से रिश्ता बदलता है। देखेंगे, आगे क्या होता है।”

आँगन में नीम का पेड़ झूम रहा था। बहुत साल बाद घर में चूल्हे की महक आई थी।

---

उस रात, मैंने पापा की तस्वीर के सामने दीपक रखा।
धीरे से कहा:
“आपका घर टूटा था, पर मैं उसे जोड़ने आई हूँ। शायद देर से, पर इस बार पूरा करके जाऊँगी।”

धीरे-धीरे भीतर का बोझ हल्का होता गया।
मुझे एहसास हुआ—नफ़रत से ज़्यादा भारी बोझ माफ़ी न देने का होता है।

---यह जिंदगी है कब किस मोड पर आ जाए कुछ भी नहीं कह सकते हैं इसलिए आज को संवारने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

🌼 उस दिन के बाद, मैंने वहीं रहने का निर्णय लिया—न अतीत भूलने के लिए, बल्कि उसे सुधारने के लिए।🙏

रचना ने करीब 5 साल पहले हंसी-खुशी से ससुराल में अपने शुभ कदम रखे। ससुराल पक्ष में पति के अलावा ससुर, जेठ, जेठानी और उनका...
08/09/2025

रचना ने करीब 5 साल पहले हंसी-खुशी से ससुराल में अपने शुभ कदम रखे। ससुराल पक्ष में पति के अलावा ससुर, जेठ, जेठानी और उनका एक बेटा था। पति किसी निजी कंपनी में इंजीनियर थे और जेठ जी का खुद का अच्छा कारोबार था। ससुर जी भी जेठ जी के कारोबार में उनका हाथ बंटवाते थे। कुल मिलाकर परिवार समृद्ध था और घर में सभी प्रकार की आधुनिक सुख-सुविधाएं थीं।
रचना की मुंह दिखाई की रस्म के बाद अब उसकी असली परीक्षा की घड़ी आ चुकी थी, क्योंकि आज उसे पहली बार रसोईघर में सबके लिए खाना बनाने की रस्म निभानी थी। एक बहू की असली परीक्षा रसोईघर की निपुणता से ही देखी जाती है।
यूं तो रचना रसोईघर के काम बखूबी संभाल लेती थी, क्योंकि मायके में भी उसकी मम्मी की तबीयत थोड़ी खराब रहती थी, तो अक्सर रचना ही रसोई संभालती थी। लेकिन नए घर में उसे थोड़ी घबराहट हो रही थी, क्योंकि वह नए परिवार के लोगों की पसंद और उनके तौर-तरीकों से वाकिफ नहीं थी।
रचना यह सब सोच ही रही थी कि तभी सासु मां रसोईघर में आईं और सबकी पसंद के खाने की लिस्ट बता कर चली गईं। ना तो सासु मां और ना ही जेठानी जी रचना की मदद के लिए आईं।
लेकिन रचना ने बिना किसी मदद के सबकी फरमाइश पर लजीज खाना बनाया और डाइनिंग टेबल पर सजा दिया। अब तक परिवार के सभी लोग डाइनिंग टेबल पर आ चुके थे। सभी ने खाना शुरू किया, और स्वाद लेते ही सास-ससुर कहने लगे —
"भई, इतना अच्छा खाना तो आज बहुत दिनों बाद नसीब हुआ है। रचना तो बहुत ही मास्टर शेफ निकली!"
पति शरद ने भी झट से अपने मम्मी-पापा की हां में हां मिलाई। तभी ससुर जी ने झट से नेक के पैसे निकाल कर रचना को दिए। रचना ने सभी के पैर छूकर आशीर्वाद लिया।
लेकिन तभी जेठ और जेठानी मुंह बनाते हुए बीच में ही खाना छोड़कर उठ खड़े हुए और अपने कमरे में चले गए। किसी को समझ नहीं आया कि आखिर यह सब हो क्या रहा है।
दूसरे दिन तड़के उठते ही जेठानी जी रसोईघर में आईं और अपना तथा जेठ जी का खाना बनाकर अपने कमरे में ले गईं। उन्होंने किसी से बात भी नहीं की।
तभी रचना की सासु मां बड़ी बहू के कमरे में जाकर पूछने लगीं —
"क्या बात हो गई बड़ी बहू, तुम अपना खाना अलग क्यों बना रही हो?"
जेठानी जी झट से बोलीं —
"क्योंकि मम्मी जी, आपके बेटे को रात का बना खाना अच्छा नहीं लगा और ज्यादा मसालेदार खाने से उनकी तबीयत भी खराब हो गई। इसलिए मैं अब अपना खाना अलग ही बनाऊंगी। आप लोग ही खाइए अपनी छोटी बहू के हाथों से बना लजीज खाना।"
सासु मां भी जेठानी जी की बात सुनकर हैरान सी रह गईं और बोलीं —
"लेकिन छोटी बहू ने जो खाना बनाया था, वह तो एकदम परफेक्ट था और ना ही ज्यादा मसालेदार था। पता नहीं तुम लोगों को क्या परेशानी हुई। अगर तुम लोग अलग से बनाना चाहते हो, तो बेशक बना सकते हो।
मुझे तो लगता है शायद तुम्हें कल आई छोटी बहू की इतनी सी भी तारीफ सहन नहीं हुई। आगे चलकर तुम लोग क्या खाक निभाओगे? मैंने तो बड़ी बहू, हमेशा तुम्हारे अच्छे कामों की भी तारीफ की है और यथा संभव घर के कामों में तुम्हारी मदद भी करवाई है।
और रही बात छोटी बहू की, तो कान खोलकर सुन लो — मैं उसे भी प्यार से ही रखूंगी। जितना मान-सम्मान इस घर में तुम्हें मिला है, उतना ही छोटी बहू को भी मिलेगा, क्योंकि ये उसका अधिकार भी है और हक भी।
अगर तुम्हें यह सब स्वीकार नहीं है, तो बेशक अलग हो जाओ। एक दिन की बहू को लेकर ही तुम्हारे अंदर इतनी ईर्ष्या की भावना है, तो आगे चलकर निभाना तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होगा।"
इतना कहकर सासु मां फटाफट उनके कमरे से बाहर आ गईं।
सासु मां की बातें सुनकर जेठ जी और जेठानी एकदम से चुप हो गए।
रचना ने उनकी सभी बातें सुन ली थीं और वह थोड़ी भावुक हो गई। सासु मां को भी पता चल गया था कि छोटी बहू ने उनकी सारी बातें सुन ली हैं, इसलिए वे रचना के पास आकर उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं —
"तुम चिंता मत करो छोटी बहू, तुम्हारा यहां पूरा ख्याल रखा जाएगा। चाहे जो हो जाए, इस घर में हमेशा सही न्याय हुआ है और आगे भी ऐसा ही होगा। किसी की भी गलत बात यहां बर्दाश्त नहीं की जाएगी। तुम्हारी इसमें कोई गलती नहीं है। तुमने अकेले इतना अच्छा खाना बनाकर मेरा तो दिल जीत लिया है और तुम तारीफ के योग्य हो। इसलिए अपने चांद से मुखड़े पर पड़ी ये चिंता की लकीरें मिटा दो और सदा खुश रहो।"
रचना की सासु मां ने घर में आए नए सदस्य की गृहकार्य-दक्षता देखकर उसकी प्रशंसा की और उसका मनोबल बढ़ाया।
आशा करती हूं दोस्तों, आपको हमारी कहानी जरूर अच्छी लगी होगी। धन्यवाद।

"अरे बहू, ज़रा वो दवा का डिब्बा तो पकड़ाना… आँखों में बहुत जलन हो रही है।"सुनीता देवी ने खाट पर लेटे-लेटे आवाज़ दी।"जी म...
07/09/2025

"अरे बहू, ज़रा वो दवा का डिब्बा तो पकड़ाना… आँखों में बहुत जलन हो रही है।"
सुनीता देवी ने खाट पर लेटे-लेटे आवाज़ दी।

"जी मम्मी जी, अभी लाई।"
नेहा जल्दी से भागकर आई और दवा पकड़ा दी।

सुनीता देवी इस घर की सबसे बड़ी सदस्य थीं। दो बेटे – अमन और करण। अमन की पत्नी नेहा, और करण की पत्नी स्वाति।

नेहा शादी के बाद से ही अमन के साथ मायके से दूर, छोटे गांव में रहने आ गई थी। वहीं स्वाति और करण शहर में रहते थे। लेकिन माँ का दिल हमेशा बड़े बेटे अमन के घर ही खिंचता था।

---

एक दिन स्वाति ने फोन मिलाया –
"माँ जी, आप कब हमारे पास आ रही हैं? करण बहुत दिन से कह रहे हैं कि माँ को यहाँ बुला लाओ।"

सुनीता देवी ने बहाना बना दिया –
"बिटिया, अभी तो डॉक्टर ने आराम करने को कहा है। ठीक होते ही देखूँगी।"

पास बैठी नेहा सब सुन रही थी। उसे लगा माँ जी झूठ बोल रही हैं।

रात को जब वह रसोई में खाना परोस रही थी तो उसने धीरे से पूछा –
"माँ जी, आपको क्यों मन नहीं करता छोटे बेटे के घर जाने का?"

सुनीता देवी ने गहरी साँस ली और बोलीं –
"नेहा बहू, तू ही बता… क्या मेरी उम्र है जो मैं छोटे-छोटे बच्चों को सँभालूँ, ऊपर से हर बात पर ताने सुनूँ? स्वाति बिटिया बहुत तेज़ है, लेकिन मुझे बस काम वाली समझती है। जब भी जाती हूँ, बच्चों को मेरे ऊपर छोड़ खुद घंटों बाहर रहती है। खाना तक समय पर नहीं देती। और ऊपर से करण को ये दिखाती है कि 'माँ को मैं कितना मान देती हूँ'। अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ, बहू, हर बार अपमान सहना नहीं होता।"

नेहा चुप हो गई। उसे याद आया, माँ जी जब स्वाति के घर से लौटती थीं तो अक्सर बीमार हो जाती थीं।

---

नेहा का निर्णय

नेहा ने सोचा – अगर माँ जी को स्वाति भाभी से शिकायत है, तो क्यों ना इस बार मैं खुद बीच में पड़ूँ? लेकिन सीधे भाभी को कुछ कहूँगी तो उल्टा बिगड़ जाएगा। बेहतर है उन्हें प्यार से समझाया जाए।

अगले दिन उसने स्वाति को फोन किया –
"भाभी, नमस्ते! कल माँ जी आपके बनाए छोले की तारीफ़ कर रही थीं। कह रही थीं स्वाति बिटिया तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती है। रेसिपी भेज दो ना, मैं भी सीख लूँ। वैसे माँ जी की तबियत अभी थोड़ी ढीली है, डॉक्टर ने कहा है समय पर खाना देना बहुत ज़रूरी है। सोचा, आपका बनाया स्वाद उन्हें और अच्छा लगेगा।"

स्वाति को अजीब लगा। माँ जी तो कभी तारीफ़ नहीं करतीं, ये अचानक क्या बात है?
लेकिन दिल में उसे अच्छा भी लगा कि कोई उसकी प्रशंसा कर रहा है।

---

दो हफ़्तों बाद करण ज़िद कर माँ को अपने घर ले आया।

इस बार हालात अलग थे।
सुनीता देवी हैरान थीं –
"अरे! आज तो खाने की प्लेट पहले से सजाकर रखी है… और ये मेरे लिए दलिया भी बना रखा है!"

स्वाति मुस्कुराई –
"माँ जी, डॉक्टर ने कहा था आपको हल्का खाना देना है। तो मैंने सोचा समय से ही सब तैयार कर दूँ।"

करन ऑफिस चला गया, बच्चे स्कूल।
स्वाति बोली –
"माँ जी, मैं थोड़ी देर सहेली से मिलने जा रही हूँ, पर अंश को दूध पिला दिया है और खाना भी रख दिया है। आप आराम कीजिए, मैं दो घंटे में आ जाऊँगी।"

सुनीता देवी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये वही स्वाति है।

---

रात को उन्होंने नेहा को फोन किया –
"बहू, ये तो चमत्कार हो गया। स्वाति बिटिया तो बहुत बदल गई है। अब तो समय पर खाना देती है, मेरे आराम का भी ध्यान रखती है।"

नेहा हल्के से मुस्कुरा दी –
"माँ, चमत्कार नहीं… बस थोड़ा प्यार और सही बात पहुँचानी थी। भाभी को कभी पता ही नहीं चला कि आप अंदर से कितना आहत होती हैं। उन्हें लगा आप खुश हैं। मैंने बस ये ध्यान रखा कि आपके मन की बात बिना शिकायत के उनके तक पहुँचे।"

सुनीता देवी की आँखें भर आईं –
"सच कहूँ नेहा बहू, तूने दोनों घरों का मान रख लिया। अगर तू सीधे स्वाति से कह देती तो शायद मनमुटाव बढ़ जाता। अब देख, मैं अपने ही घर में चैन से हूँ।"

---

कुछ दिन बाद जब सुनीता देवी वापस अमन के घर लौटीं तो दोनों बहुओं को एक साथ बैठाकर बोलीं –

"बहुएँ दो हों तो ज़रूरी नहीं कि आपस में जलन हो। अगर एक बहू समझदारी दिखा दे, तो सारा घर सँवर जाता है। आज मुझे गर्व है कि मेरी दोनों बहुएँ अलग होते हुए भी मेरे लिए एक जैसी हैं।"

नेहा और स्वाति एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराईं।

---

🌸 सीख:
जब परिवार में एक से अधिक बहुएँ होती हैं तो अक्सर तुलना, शिकायत और जलन रिश्तों में खटास ला देती है। लेकिन अगर कोई शिकायत न करके थोड़ा समझदारी और प्यार से बात सँभाले तो रिश्तों में दूरी के बजाय अपनापन बढ़ सकता है।

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