09/09/2025
पिघलता वज़ूद (कहानी)
शहर का पॉश इलाका,सड़कें चौड़ी और चिकनी थीं, दोनों ओर पेड़ों की कतारें थीं जिनकी हरी-भरी शाखें हल्की हवा में झूम रही थीं। हर कुछ दूरी पर बड़े-बड़े शो-रूम, कॉफी कैफ़े और चमचमाती गाड़ियाँ नज़र आतीं।
इसी इलाके में एक आलीशान कोठी थीसफेद मार्बल से बनी, जिसके सामने की बगिया में विदेशी फूल खिले रहते।
रात को जब बगिया की रंगीन लाइटें जल उठतीं तो पूरा घर किसी सपनों के महल जैसा चमकने लगता।
ये था अभय और माया का घर।अंदर विशाल ड्रॉइंग रूम
था दीवारों पर महंगे पेंटिंग्स, काँच की सेंटर-टेबल, और मुलायम सोफ़े।सभी चीज़ें आधुनिकता की मिसाल थीं, पर इस घर की दीवारों में एक अजीब-सी खामोशी गूँजती थी।
माया अक्सर खिड़की के पास बैठकर बाहर देखती रहती।
नीचे सड़क पर बच्चों की हँसी सुनाई देती, कभी रिक्शे वालों की आवाज़, कभी चाट के ठेले पर भीड़ का शोर।
लेकिन उसके अपने घर के अंदर सिर्फ़ सन्नाटा था।
शाम को जब अभय घर आता, तो दरवाज़े से अंदर आते ही वो अपना बैग एक तरफ रख देता और बिना ज़्यादा बातें किए सीधे अपने कमरे की ओर बढ़ जाता।
माया के हाथों में रखा गर्मागर्म सूप ठंडा पड़ जाता।
रात के डाइनिंग टेबल पर सिर्फ़ चम्मचों की खनक होती—न कोई हँसी, न कोई बात।
माया सोचती,"ये कैसा रिश्ता है? बाहर से सबको लगता है कि हमारी ज़िंदगी परफेक्ट है, लेकिन अंदर से हम कितने दूर हैं।
वो रविवार की सुबह थी। हल्की-हल्की धूप खिड़की के शीशों पर उतर रही थी।माया ने ड्रॉइंग रूम को सजाया था क्योंकि उसकी कॉलेज फ्रेंड रिया आने वाली थी।
रिया के साथ आया उसका कज़िन समीर।समीर जब अंदर आया, तो उसकी मौजूदगी से कमरे का माहौल जैसे बदल गया।उसने हल्की-सी शर्ट और जींस पहनी थी, उसके बाल हवा से बिखरे थे, और चेहरे पर एक खुला, आत्मविश्वास से भरा मुस्कान था।
समीर की नज़रें जब माया पर पड़ीं तो उसने सहजता से कहा,
“वाह भाभी, आप तो रिया से भी ज्यादा खूबसूरत हैं। मुझे तो यकीन ही नहीं हुआ कि ये रिया की कॉलेज फ्रेंड हैं।”
रिया खिलखिलाकर हँस पड़ी, पर माया के गालों पर हल्की-सी लाली आ गई।बरसों बाद किसी ने उसकी खूबसूरती पर इतना सीधा और सहज कॉम्प्लिमेंट दिया था।
ड्रॉइंग रूम में गपशप का माहौल बन गया।बाहर से आती धूप पर्दों के बीच से छनकर कमरे में सुनहरी आभा फैला रही थी।
चाय की खुशबू, हँसी की आवाज़ें और समीर की बातेंमाया को सबकुछ नया और ताज़ा सा महसूस हुआ।
जाते-जाते समीर ने माया की ओर देखते हुए कहा,“भाभी, आप जब मुस्कुराती हैं ना, तो लगता है जैसे पूरा कमरा रोशन हो गया।”उस एक वाक्य ने माया के भीतर बहुत गहरी जगह बना ली।
दिन ढलते गए।दिल्ली की सर्दियाँ आ चुकी थीं।
सुबह की धुंध, हवा में ठंडक और धूप का आलस भरा स्पर्शऐसे में माया को अक्सर अकेलापन और ज्यादा चुभने लगता।
वो खिड़की के पास बैठकर चाय पीती और फोन पर समीर से बातें करती।पहले छोटी-छोटी बातें होतीं,
“कैसी हो?”
“क्या कर रही हो?”
धीरे-धीरे बातें लंबी हो गईं।
समीर उसे हँसाता, उसकी बातें सुनता, उसके मन की खाली जगह भरता।
एक शाम, जब बाहर हल्की बारिश हो रही थी और खिड़की पर बूंदें गिर रही थीं, समीर ने फोन पर कहा,“माया, तुम जानती हो, तुम्हारी आवाज़ सुनकर लगता है जैसे बारिश की बूंदें कानों में संगीत बनकर उतर रही हों।”माया ने पल भर को आँखें बंद कर लीं।बरसों से उसे ऐसा अपनापन किसी ने नहीं दिया था।
सर्दियाँ अपने चरम पर थीं।सुबह के धुँधलके में हवा इतनी ठंडी थी कि खिड़की के शीशे पर धुंध जम जाती।माया अक्सर खिड़की पर उँगलियों से गोल घेरा बनाकर बाहर झाँकती—बच्चे ऊनी टोपी पहनकर स्कूल जाते, सड़क किनारे चाय की दुकान पर लोग हाथ सेकते, और दूर से आती भाप वाली चाय की खुशबू पूरे गली-कूचों में फैल जाती।
घर के अंदर हीटर जरूर था, लेकिन रिश्तों की ठंडक को कोई हीटर नहीं पिघला पा रहा था।अभय सुबह निकलता, रात को थका-हारा लौटता और बस इतना कहता,“खाना लगा दो, माया… बहुत काम था आज।”
डाइनिंग टेबल पर महंगे बर्तन सजे रहते, लेकिन उनमें वो गर्माहट नहीं थी, जो एक परिवार के साथ खाने में होती है।
माया प्लेट में खाना डालती और चुपचाप देखती रहती कि अभय फोन पर बिज़नेस मेल्स में खोया हुआ है।
इन्हीं दिनों एक दिन समीर का फोन आया।
“माया, मौसम कितना सुहाना हैचलो कॉफी पीने चलते हैं।”
माया ने पहले मना किया“नहीं समीर, ये ठीक नहीं है।”
लेकिन खिड़की से गिरती धुंध की चादर, ठंडी हवा और भीतर का खालीपन उसे खींच रहा था। आख़िरकार उसने हामी भर दी।
वो कॉफी शॉप शहर के सबसे खूबसूरत कोनों में से एक थी।
बड़े काँच की दीवारों से बाहर का नज़ारा साफ दिख रहा
था !पेड़ों की शाखों पर ओस की बूंदें, लोग गर्म कपड़ों में लिपटे, और ट्रैफिक की धीमी आवाज़।
अंदर हल्की पीली रोशनी थी, कॉफी मशीन की चूँ-चूँ की आवाज़ और चारों ओर फैली कॉफी की सुगंध।लकड़ी की मेज़ पर दो मग रखे थे, जिनसे भाप उठ रही थी।
समीर ने माया की ओर झुकते हुए कहा,“तुम्हें पता है, इस शहर की भीड़ में भी तुम अलग लगती हो। तुम्हारी आँखों में कुछ ऐसा है, जो सीधे दिल में उतर जाता है।”
माया ने हल्के से नज़रें झुका लीं।वो जानती थी कि ये बातें उसे सुननी नहीं चाहिएं… पर दिल जैसे सबकुछ सुनना चाहता था।
घर लौटते वक्त माया की गाड़ी ट्रैफिक में फँसी थी।
बाहर हल्की फुहार हो रही थी और सड़क पर गाड़ियों की लाइटें धुंध में जैसे टिमटिमा रही थीं।वो खुद से लड़ रही थी—
"मैं क्या कर रही हूँ? ये गलत है, पर क्यों लगता है कि मैं ज़िंदा हूँ सिर्फ तभी जब समीर के साथ होती हूँ?"
उस रात उसने करवटें बदलते हुए नींद में डूबने की कोशिश की, लेकिन अभय की खर्राटों के बीच समीर की बातें उसके कानों में गूंजती रहीं।
बसंत आने वाला था।ठंडी हवाओं की जगह अब हल्की-हल्की गर्माहट घुलने लगी थी।पेड़ों पर नई पत्तियाँ झाँकने लगीं, बगिया के गुलाब फिर से महक उठे।
लेकिन माया की ज़िंदगी में मौसम जैसा कोई बदलाव नहीं आया था।उसके घर की खामोशी पहले जैसी ही ठंडी और बेरंग थी।
अभय के लिए दिन और रात सिर्फ काम थे।
बैठकें, मीटिंग्स, फोन कॉल्स…यहाँ तक कि कभी माया तैयार होकर उसके पास बैठती, तो वो बस एक सरसरी नज़र डालकर कह देता,“अच्छा लग रहा है… अब सोने दो, बहुत थक गया हूँ।”
उसके भीतर की औरत, जो स्नेह और अपनापन चाहती थी, अब धीरे-धीरे बिखरने लगी थी।
“माया, मैं तुम्हारे घर के पास ही हूँ। चलो, थोड़ी देर गाड़ी में घूमते हैं।”
माया ने खिड़की से बाहर देखा।सूरज ढल रहा था, आसमान लाल और सुनहरा हो रहा था।सड़क पर पीली स्ट्रीट लाइटें जलने लगी थीं।
दिल ने कहा,जाना चाहिए।
दिमाग ने कहा—नहीं, ये गलत है।
लेकिन उसकी उँगलियाँ खुद-ब-खुद फोन पर हाँ टाइप कर चुकी थीं। उसने अभय को फोन किया कि वह काम से बाजार जा रही है, घर आओ तो उसका इंतजार करना।
समीर की काली कार सड़क किनारे खड़ी थी।जैसे ही माया उसमें बैठी, गाड़ी के अंदर सुगंधित परफ्यूम की महक फैली हुई थी।बाहर ट्रैफिक का शोर था, लेकिन गाड़ी के अंदर एक अलग ही सन्नाटा—एक अजीब-सा खिंचाव।
समीर ने धीरे-धीरे गाड़ी चलाई।रेडियो पर धीमा रोमांटिक गाना बज रहा था।माया खिड़की से बाहर देख रही थी।सड़क की रोशनियाँ, चहल-पहल, और उसके भीतर उमड़ते सवाल।
“माया…” – समीर ने अचानक उसकी तरफ देखा, “तुम्हें पता है, जब तुम मेरे साथ होती हो तो लगता है ज़िंदगी पूरी है। वरना सब अधूरा लगता है।”
माया की आँखें भर आईं,उसने धीमी आवाज़ में कहा,
“समीर, ये सब गलत है… हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।”
समीर ने उसका हाथ पकड़ लिया।
उसका स्पर्श गरम था, जैसे दिल की धड़कन सीधे माया की नसों में उतर रही हो।
“गलत क्या है माया? प्यार गलत नहीं होता। तुम अकेली हो, और मैं तुम्हारे साथ हूँ। बस इतना ही सच है।”
गाड़ी एक सुनसान सड़क पर रुकी।
चारों ओर अंधेरा था, बस दूर से आती स्ट्रीट लाइट की रोशनी और पेड़ों से टकराती हवा की सरसराहट।
माया ने समीर की आँखों में देखा।वो पल ऐसा था, जिसमें शब्द खो गए और सिर्फ़ खामोशियाँ बोलने लगीं।उसने चाहकर भी हाथ नहीं छुड़ाया।समीर झुका और माया ने अपनी आँखें बंद कर लीं।
वो पल… जिसने दोनों के बीच की सीमा मिटा दी।
घर लौटते वक्त माया का दिल तेज़-तेज़ धड़क रहा था।
सड़क पर गाड़ियाँ भाग रही थीं, लोग अपने-अपने घरों की ओर लौट रहे थे।लेकिन माया को लग रहा था जैसे सब उसे घूर रहे हों, जैसे सब उसकी गलती जानते हों।
घर पहुँचकर जब अभय ने दरवाज़ा खोला, तो उसके चेहरे पर वही थकान थी।
“डिनर लगा दो माया, मीटिंग बहुत लंबी थी।”
माया का दिल डूब गया।
वो चाह रही थी कि अभय उसे एक बार देखे, पूछे कि वो कैसी है…लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
उस रात माया ने करवट लेकर आँसुओं में खुद को समेट लिया।
एक बार जो मर्यादा की सीमा पार हुई तो फिर होती गई। दोनों अब पहले से ज्यादा मिलने लगे।
गर्मी का मौसम आ चुका था ,धूप चुभने लगी थी, हवा में तपिश थी और बगिया के फूल मुरझाने लगे थे।माया के भीतर भी कुछ वैसा ही हो रहा था — जो रिश्ता कभी सुगंधित फूलों जैसा महका था, अब मुरझाने लगा था।
अभय ने पिछले कुछ हफ़्तों से माया में बदलाव महसूस किया था।
उसकी आँखें थकी रहतीं, हँसी बनावटी लगती और कभी-कभी वो घंटों कमरे में बंद रहकर फोन पर बात करती।एक शाम उसने सीधे पूछ ही लिया,
“माया, क्या बात है? तुम मुझसे दूर होती जा रही हो।
क्या तुम्हारी ज़िंदगी में कोई और है?”
यह सवाल सुनकर माया का चेहरा स्याह पड़ गया।
गला सूख गया, शब्द जैसे होंठों तक पहुँचकर जम गए।
उसने सिर झुका लिया।
अभय की आँखों में आंसू थे।
“मैंने तुम्हें सबकुछ देने की कोशिश की…
लेकिन शायद वो नहीं दे पाया जिसकी तुम्हें सबसे ज्यादा ज़रूरत थी — समय और अपनापन।”
उस रात माया अपने कमरे में अकेली बैठी रही।बाहर गर्म हवा खिड़की से टकरा रही थी।पंखा चल रहा था लेकिन फिर भी घुटन बढ़ रही थी।
उसके सामने दो रास्ते थे,एक ओर समीर, जिसने उसे मोहब्बत और नज़दीकी दी थी।दूसरी ओर अभय, जिसने उसे सम्मान और घर दिया था।
माया ने आईने में खुद को देखा,चेहरे पर थकान, आँखों में ग्लानि और होंठों पर चुप्पी।
“क्या यही चाहा था मैंने?
किसी और की बाँहों में सुकून ढूँढकर अपना घर उजाड़ देना?”
अगले दिन माया ने समीर को बुलाया।
वे दोनों उसी पार्क में मिले, जहाँ कभी पहली बार घंटों बातें की थीं।पेड़ों की छाँव में बैठते ही माया ने गहरी साँस ली और बोली,
“समीर, अब ये रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता।
ये मोहब्बत नहीं, पलायन है।
मैं अपने पति को, अपने घर को और खुद को खो रही हूँ।”
समीर की आँखें लाल हो गईं।
“माया, मैं तुम्हारे बिना कैसे जीऊँगा?”
माया ने आँसू पोंछते हुए कहा,
“तुम्हें जीना ही होगा… जैसे मुझे जीना है।
प्यार सिर्फ पाने का नाम नहीं, कभी-कभी छोड़ देने का नाम भी होता है।”
उसने हाथ छुड़ा लिया और धीरे-धीरे चली गई।
समीर बहुत देर तक वहीं बैठा रहा, जैसे किसी ने उसकी दुनिया छीन ली हो।
रात को माया ने अभय के सामने सबकुछ कबूल कर लिया।
उसने रोते-रोते कहा,
“हाँ, मुझसे गलती हुई… मैंने तुम्हारा विश्वास तोड़ा।लेकिन मैं अब और झूठ में नहीं जी सकती।अगर चाहो तो ये रिश्ता यहीं ख़त्म कर दो।”
अभय ने चुपचाप उसकी बातें सुनीं।
फिर धीरे से बोला,“माया, मैं तुम्हें सज़ा दे सकता हूँ, पर खुद को कैसे माफ़ करूँ?अगर मैंने तुम्हें वक्त दिया होता, तो शायद आज ये दिन न देखना पड़ता।”
दोनों के बीच लम्बी खामोशी छा गई।
लेकिन उस खामोशी में टूटन से ज्यादा एक थका हुआ अपनापन था।
समय बीतता गया।माया और अभय ने साथ रहना जारी रखा, लेकिन उनके रिश्ते में पहले जैसी सहजता कभी नहीं लौटी।
घर का वातावरण अब बोझिल नहीं था, पर उसमें खालीपन था।
माया अक्सर बरामदे में बैठकर आसमान देखती।
नीले आकाश में उड़ते पक्षी उसे याद दिलाते कि इंसान चाहे जितना भी उड़ ले, अंत में उसे अपने बसेरे में लौटना ही पड़ता है।
उसने खुद से वादा किया “अब मैं फिर कभी अपनी डोर नहीं तोड़ूँगी।गलती से मिली सीख को जीवनभर साथ रखूँगी।”
राशि सिंह
मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
(मौलिक कहानी)