20/07/2025
पिता के जाने के बाद
घर में कुछ भी नहीं बदला —
घड़ी अब भी चलती थी,
अलमारी में उनके कपड़े अब भी वैसे ही तह थे,
चाय अब भी उसी प्याले में उबलती थी,
और दीवार पर टँगी उनकी तस्वीर
अब भी ठीक उन्हें ही देखती थी
जैसे वो कभी गए ही नहीं।
पर फिर भी...
सब कुछ बदल गया था।
सबसे पहले
आसमान ने रंग बदल लिया।
वो नीला नहीं रहा।
अब वो बस एक बेरंग चादर है —
जिस पर न धूप ठहरती है,
न बादल बरसते हैं।
बस एक अजीब-सी सफ़ेदी फैली रहती है,
जैसे आँसू पोंछ देने के बाद
आँखें बस सूखकर रह गई हों।
पिता की मृत्यु कोई शोर नहीं थी,
वो एक धीमा विसर्जन था।
जैसे नदी से एक नाम खो जाए,
जैसे रोटी से कोई स्वाद चला जाए,
जैसे कमरे की हवा में कोई ख़ुशबू अब लौटकर न आए।
मैं रोज़ छत पर जाता हूँ —
जैसे कोई आहट ढूँढ रहा हो
किसी बहुत पुराने ख्वाब की।
वहाँ आकाश दिखता है,
पर नीला नहीं।
अब उसमें
कोई रंग नहीं रहता,
सिर्फ़ एक मौन लहराता है —
पिता का मौन।
अब जब सूरज निकलता है,
तो उजाला होता है,
पर रौशनी नहीं लगती।
अब जब बारिश आती है,
तो भीगता शरीर नहीं,
भीतर कुछ टपकता है —
एक पुरानी आवाज़,
एक थकी हुई हँसी,
एक "बेटा…"
जो अब कभी नहीं लौटेगा।
मैंने जाना —
कि पिता के चले जाने का मतलब
बस एक इंसान का चला जाना नहीं है।
वो पूरा एक आकाश ले जाते हैं साथ में —
हमारे ऊपर का,
और हमारे भीतर का भी।
अब जब मैं ऊपर देखता हूँ,
तो मुझे नीला आसमान नहीं दिखता —
मुझे उनकी ख़ाली जगह दिखती है।
और उस ख़ाली जगह को
मैं रोज़ थोड़ा-थोड़ा भरने की कोशिश करता हूँ —
अपनी साँसों से,
अपने शब्दों से,
अपनी मौन प्रार्थनाओं से।
पर वो कभी नहीं भरती।
क्योंकि पिता —
आकाश जैसे नहीं थे।
वो सच में आकाश थे।
और आकाश का जाना
कभी पूरा समझ में नहीं आता।
बस महसूस होता है —
हर उस जगह,
जहाँ अब कुछ भी कहने लायक नहीं बचा।
- एक थी तमन्ना