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03/07/2024

आत्ममंथन
आज फिर दुखी हूं हाथरस की दुर्घटना को देखकर। इसे दुर्घटना कहूं या आत्मघाती क्रिया, यह भी समझ नहीं आ रहा है।
जिस देश की उन्नत संस्कृति को वेद, उपनिषद, आरण्यक आदि सींचते हों वहां इस प्रकार बाबा, तांत्रिक, ओझा आदि फलाने ढिकाने ढोंगियों के पास जाकर माथा रगड़ना हमारे समाज में कैसे घुस गया।
वर्तमान समय में धर्म के नाम पर ढोंगियों की बाढ़ आई हुई है और यह समस्या लगभग सभी मतों और संप्रदायों में फैल चुकी है। विशेष रूप से महिलाएं जो अपने घरों में बुजुर्गों को पानी तक का नहीं पूछती, बाबाओं के पैरों को जीभ से चाटती नजर आती हैं।
इस सबके पीछे सबसे बड़ा कारण मुझे जो लगता है वो है - बिना संघर्ष किए ऐशो आराम के जीवन की संकल्पना।
बाबाओं के ढोंग और पाखंडी चमत्कारों के माध्यम से लोग विशेष रूप से महिलाएं जीवन के सब सुख पा जाना चाहती हैं और इसीलिए वहां खींची चली जाती हैं।
तो भाइयों मेरा कहना यह है कि इन ढोंगी और पाखंडियों के पीछे मत भागो। कर्तव्यों के प्रति ईमानदार रहो। ढोंग और चमत्कार जीवन में सफलता प्राप्त करने का साधन कतई भी नहीं है। अपनी बुद्धि का प्रयोग करके पुरुषार्थ की राह पकड़ो।
और हां, सरकार को भी धर्म के ठेकेदारों पर नकेल कसनी चाहिए ताकि भविष्य में इस प्रकार की दुर्घटनाओं की पुनरावृति ना हो।
✍️कैलाश भारद्वाज

27/12/2023

आत्ममंथन

मनुष्यता

साथियों नमस्कार
सर्दी का मौसम है। आज भी कितने ही लोग आर्थिक विपन्नता और विवशता में जीवन यापन कर रहे हैं।
उन लोगों का निर्वाह कैसे होता होगा, यह अनुमान लगाना बहुत कठिन है। कहीं फुटपाथ पर कोई जिंदा लाश अपने घुटनों को पेट में गढ़ाए गोल गठरी के रूप में दिख जाए तो अचरज नहीं। कहीं इस प्रकार से कोई मिल जाए तो सहायता अवश्य कर देना। किसी को गर्म कपड़े देकर यदि उसकी जान बचा दी जाए तो दिल को सुकून मिलेगा।

मैथलीशरण गुप्त कि ये पंक्तियां सदैव याद रखना

" विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा जिए वृथा मरे,
मरा नहीं वही कि जो जिया ना आपके लिए।
वही पशु प्रवृति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।"
हां, एक बात का विचार अवश्य करना कि जब भी किसी की सहायता करो तो आत्म संतुष्टि के लिए ही करना कोई दिखावा आदि नहीं करना।

कैलाश भारद्वाज

10/12/2023

बूफे: एक गिद्धभोज

एक समय था जब हमारे गाँव देहातों में सामूहिक भोज होते थे। बाँस की बल्लियों के सहारे खड़े टेंट मे बिछी टाट पट्टियाँ और उन पर पाल्थी मार कर बैठे लोग। सामने बिछी पत्तलें जो बनी होती थी हरे हरे पत्तों से। पत्तों के ही बने दोने ,जो कटोरी का काम करते थे। खाने को गिनी चुनी जानी पहचानी कुछ ही रेसिपी होती थीं जैसे आलू मटर, भिंडी, पेठे की सब्जी,भँरवा बैंगन और साथ में सन्नायता यानि बूंदी का रायता। मिठाई में बर्फी, चमचम, गुलाबजामुन या फिर लड्डू और जलेबी।मनुहार करते परोसिए जो आपको भूख से ज़्यादा खिलाये बिना मानते नही थे। रही सही कसर पूरा करता था पड़ोस मे बैठा आपका दोस्त। अरे यार भैया को लड्डू तो और दे।ऐसे मे आपका फ़र्ज़ बन जाता था कि आप भी उसकी पत्तल मे एक्स्ट्रा गुलाबजामुन का इंतज़ाम करें। कुल मिलाकर ये पंगते बेहद आत्मीयता भरी ,शुद्ध ,शांत और पर्यावरण हितैषी व्यवस्था हुआ करती थी। आदमीं का पेट भी भरता था और मन भी।
पर आज के चीख़ते चिल्लाते बेरुख़े गिद्धभोजों को देखिए। डीजे के कानफोडू शोर के बीच डोगों मे रखे छप्पन व्यंजनो से भरी औपचारिक टेबलें और उनके पीछे भावहीन चेहरा लिये खड़े जादूगरों जैसी ड्रेस पहने अपरिचित बंदे। गोलगप्पों के स्टॉल के सामने हाथ फैलाए खड़ी लड़कियां और महिलाएँ। खाने से ज्यादा खाने की प्रदर्शनी। पचासों तरीक़े के खाने और उन पर धक्का मुक्की करती भूक्खड़ भीड़। ऐसे लोग जो आगे पीछे देखे बिना ,बस अपनी प्लेट भर लेना चाहते है।
और फिर सूरतेहाल क्या होती है ? पूड़ियाँ गुलाबजामुन के रस मे तैरती है।गुलाबजामुन झल्ला कर दाल में डूब मरता है। पापड़ प्लेट से कूद कर ख़ुदकुशी करने को मजबूर होता है। गिरता पड़ता सलाद खुद की शक्ल नहीं पहचान पाता और रोटियों को पाँव टिकाने की जगह भी नही मिलती। बूफे के इस महाभारत में प्लेटें आपस में टकराती है।आपके कोट की बाँहें दाल से हाथ मिला लेती हैं। लिट्टी रसमलाई से जोड़ा बना लेती है तो चोखा नाराज होकर पलेट से कूद जाता है। साड़ियाँ चटनियों से और सूट आईसक्रीम से लिथडते हैं। आप आखरी तक तय नही कर पाते कि आप चाहते क्या थे और प्लेट किन चीज़ों से भर लाये हैं। आख़िरकार आप निराश होते है। भरी प्लेट डस्टबिन के हवाले की जाती है। ऐसे में आमतौर पर बंदा या तो ज़्यादा खा जाता है या भूखा ही घर लौट जाता है। मैने तो इस गिद्धभोज में जो महसूस किया वो लिख डाला। यदि आप भी कोई अनुभव इसमें जोड़ना चाहें तो जोड़ सकते हैं।
क्रमशः

प्रस्तुत हैएंटन चेखोव की लघुकथा'कमजोर' का हिंदी रूपांतरण--कुछ दिन पहले की बात है। मैंने अपने बच्चों की गवर्नेस जूलिया को...
19/11/2023

प्रस्तुत है

एंटन चेखोव की लघुकथा
'कमजोर' का हिंदी रूपांतरण--

कुछ दिन पहले की बात है। मैंने अपने बच्चों की गवर्नेस जूलिया को अपने पढ़ने के कमरे में बुलाया और कहा-"बैठो जूलिया।" मैं तुम्हारी तनख्वाह का हिसाब करना चाहता हूँ। मेरे खयाल से तुम्हें पैसों की जरूरत होगी और जितना मैं तुम्हें अब तक जान सका हूँ, मुझे लगता है तुम अपने आप तो कभी पैसे माँगोगी नहीं। इसलिए मैं खुद तुम्हें पैसे देना चाह रहा हूँ। तो बताओ कितनी फीस तय हुई थी। तीस रूबल ना?'

" जी नहीं, चालीस रुबल महीना।" जूलिया ने दबे स्वर में कहा।
" नहीं भाई तीस। मैंने डायरी में नोट कर रखा है। मैं बच्चों की गवर्नेस को हमेशा तीस रुबल महीना ही देता आया हूँ। अच्छा... तो तुम्हें हमारे यहाँ काम करते हुए कितने दिन हुए हैं, दो महीने ही ना?

" जी नहीं, दो महीने पाँच दिन।"

" क्या कह रही हो! ठीक दो महीने हुए हैं। भाई, मैंने डायरी में सब नोट कर रखा है। तो दो महीने के बनते हैं- साठ रुबल। लेकिन साठ रुबल तभी बनेंगे, जब महीने में एक भी नागा न हुआ हो। तुमने इतवार को छुट्टी मनाई है। इतवार-इतवार तुमने काम नहीं किया। इतवार को तुम कोल्या को सिर्फ घुमाने ले गई हो। इसके अलावा तुमने तीन छुट्टियाँ और ली हैं...।"

जूलिया का चेहरा पीला पड़ गया। वह बार-बार अपने ड्रेस की सिकुड़नें दूर करने लगी। बोली एक शब्द भी नहीं।

हाँ तो नौ इतवार और तीन छुट्टियाँ यानी बारह दिन काम नहीं हुआ। मतलब यह कि तुम्हारे बारह रुबल कट गए। उधर कोल्या चार दिन बीमार रहा और तुमने सिर्फ तान्या को ही पढ़ाया। पिछले सप्ताह शायद तीन दिन हमारे दाँतों में दर्द रहा था और मेरी बीबी ने तुम्हें दोपहर बाद छुट्टी दे दी थी। तो इस तरह तुम्हारे कितने नागे हो गए? बारह और सात उन्नीस। तुम्हारा हिसाब कितना बन रहा है? इकतालीस। इकतालीस रुबल। ठीक है न ?

जूलिया की आँखों में आँसू छलछला आए। वह धीरे से खाँसी। उसके बाद अपनी नाक पोंछी, लेकिन उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला।

हाँ एक बात तो मैं भूल गया था' मैंने डायरी पर नजर डालते हुए कहा - 'पहली जनवरी को तुमने चाय की प्लेट और प्याली तोड़ डाली थी। प्याली का दाम तुम्हें पता भी है? मेरी किस्मत में तो हमेशा नुकसान उठाना ही लिखा है। चलो, मैं उसके दो रुबल ही काटूँगा। अब देखो, तुम्हें अपने काम पर ठीक से ध्यान देना चाहिए न? उस दिन तुमने ध्यान नहीं रखा और तुम्हारी नजर बचाकर कोल्या पेड़ पर चढ़ गया और वहाँ उलझकर उसकी जैकेट फट गई। उसकी भरपाई कौन करेगा? तो दस रुबल उसके कट गए। तुम्हारी इसी लापरवाही के कारण हमारी नौकरानी ने तान्या के नए जूते चुरा लिए। अब देखो भाई, तुम्हारा काम बच्चों की देखभाल करना है। इसी काम के तो तुम्हें पैसे मिलते हैं। तुम अपने काम में ढील दोगी तो पैसे तो काटना ही पड़ेंगे। मैं कोई गलत तो नहीं कर रहा हूँ न?

तो जूतों के पाँच रुबल और कट गए और हाँ, दस जनवरी को मैंने तुम्हें दस रुबल दिए थे...।'
' जी नहीं, आपने मुझे कुछ नहीं दिया...।'
जूलिया ने दबी जुबान से कहना चाहा।
' अरे तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? मैं डायरी में हर चीज नोट कर लेता हूँ। तुम्हें यकीन न हो तो दिखाऊँ डायरी?
' जी नहीं। आप कह रहे हैं, तो आपने दिए ही होंगे।'
' दिए ही होंगे नहीं, दिए हैं।'
मैं कठोर स्वर में बोला।
' तो ठीक है, घटाओ सत्ताइस इकतालीस में से... बचे चौदह.... क्यों हिसाब ठीक है न?
उसकी आँखें आँसुओं से भर उठीं। उसके शणीर पर पसीना छलछला आया। उसकी आवाज काँपने लगी। वह धीरे से बोली - 'मुझे अभी तक एक ही बार कुछ पैसे मिले थे और वे भी आपकी पत्नी ने दिए थे। सिर्फ तीन रुबल। ज्यादा नहीं।'

' अच्छा' मैंने आश्चर्य के स्वर में पूछा और इतनी बड़ी बात तुमने मुझे बताई भी नहीं? और न ही तुम्हारी मा‍लकिन ने मुझे बताई। देखो, हो जाता न अनर्थ। खैर, मैं इसे भी डायरी में नोट कर लेता हूँ। हाँ तो चौदह में से तीन और घटा दो। इस तरह तुम्हारे बचते हैं ग्यारह रुबल। बोलो भाई, ये रही तुम्हारी तनख्‍वाह...? ये ग्यारह रुबल। देख लो, ठीक है न?

जूलिया ने काँपते हाथों से ग्यारह रुबल ले लिए और अपने जेब टटोलकर किसी तरह उन्हें उसमें ठूँस लिया और धीरे से विनीत स्वर में बोली - 'जी धन्यवाद।'
मैं गुस्से से आगबबूला होने लगा। कमरे में टहलते हुए मैंने क्रोधित स्वर में उससे कहा -
' धन्यवाद किस बात का?'
' आपने मुझे पैसे दिए - इसके लिए धन्यवाद।'
अब मुझसे नहीं रहा गया। मैंने ऊँचे स्वर में लगभग चिल्लाते हुए कहा, 'तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो, जबकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैंने तुम्हें ठग लिया है। तुम्हें धोखा दिया है। तुम्हारे पैसे हड़पकर तुम्हारे साथ अन्याय किया है। इसके बावजूद तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो।'

' जी हाँ, इससे पहले मैंने जहाँ-जहाँ काम किया, उन लोगों ने तो मुझे एक पैसा तक नहीं दिया। आप कम से कम कुछ तो दे रहे हैं।' उसने मेरे क्रोध पर ठंडे पानी का छींटा मारते हुए कहा।

' उन लोगों ने तुम्हें एक पैसा भी नहीं दिया। जूलिया! मुझे यह बात सुनकर तनिक भी अचरज नहीं हो रहा है। मैंने कहा। फिर स्वर धीमा करके मैं बोला - जूलिया, मुझे इस बात के लिए माफ कर देना कि मैंने तुम्हारे साथ एक छोटा-सा क्रूर मजाक किया। पर मैं तुम्हें सबक सिखाना चाहता था। देखो जूलिया, मैं तुम्हारा एक पैसा भी नहीं काटूँगा।

देखो, यह तुम्हारे अस्सी रुबल रखे हैं। मैं अभी तुम्हें देता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं तुमसे कुछ पूछना चाहूँगा।

जूलिया! क्या जरूरी है कि इंसान भला कहलाए जाने के लिए इतना दब्बू और बोदा बन जाए कि उसके साथ जो अन्याय हो रहा है, उसका विरोध तक न करे? बस चुपचाप सारी ज्यादतियाँ सहता जाए? नहीं जूलिया, यह अच्छी बात नहीं है। इस तरह खामोश रहने से काम नहीं चलेगा। अपने आप को बनाए रखने के लिए तुम्हें इस संसार से लड़ना होगा। मत भूलो कि इस संसार में बिना अपनी बात कहे कुछ नहीं मिलता...।

जूलिया ने यह सबकुछ सुना व फिर चुपचाप चली गई। मैंने उसे जाते हुए देखा और सोचा - 'इस दुनिया में कमजोर लोगों को डरा लेना कितना आसान है।

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03/11/2023

*🌷विश्वशान्ति केवल वेदों की शिक्षा द्वारा सम्भव🌷*

आइये वेद मन्त्रों के माध्यम से वेदों की भावना का अवलोकन करें:-

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय।-(ऋग्वेद ५/६०/५)

अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा। तुम सब भाई-भाई हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो।
ईश्वर ने इस मन्त्र में मनुष्य-मात्र की समानता का उपदेश दिया है।

अथर्ववेद के तीसरे काण्ड़ के तीसवें सूक्त में विश्व में शान्ति स्थापना के लिए जो उपदेश दिये गये हैं वे अद्भूत हैं। ऐसे उपदेश विश्व के अन्य धार्मिक साहित्य में ढूँढने से भी नहीं मिलते।

वेद उपदेश देता है-

सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।-(अथर्व० ३/३०/१)

अर्थ:-मैं तुम्हें एक दूसरे के लिए सहृदय, एक समान तथा द्वेषरहित मन वाले करता हूं। एक-दूसरे को तुम सब उसी प्रकार की प्रीति से चाहो जिस प्रकार अवध्या गौ अपने उत्पन्न हुए बछड़े को प्यार करती है।

वेद एकता का उपदेश देते हुए कहता है-

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः ।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि।।-(अथर्व० ३/३०/५)

अर्थ:-बड़ों का मान रखने वाले,उत्तम चित्त वाले,समृद्धि करते हुए और एक धुरा होकर चलते हुए तुम लोग अलग-अलग न हो। तुम एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक बोलते हुए एक दूसरे के पास आओ। मैं तुमको साथ-साथ चलने वाले और एक जैसा मन वाले करता( बनाता )हूं।

और देखिये-

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-(ऋ० १०/१९१/२)

अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो।तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें।जिस प्रकार पूर्वविद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो।

इस मन्त्र में वैचारिक और मानसिक एकता की बात कहकर वेद सन्देश देता हैँ-

समानी व आकूतिः समाना ह्रदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।-(ऋ०१०/१९१/४)

अर्थ:-हे मनुष्यों ! तुम्हारे संकल्प समान हों,तुम्हारे ह्रदय परस्पर मिले हुए हों,तुम्हारे मन समान हों जिससे तुम लोग परस्पर मिलकर रहो।

ऊपर वर्णित उदाहरण यह बता देने के लिए पर्याप्त हैं कि वेद से ही विश्व शान्ति संभव है।
वसुधैवकुटुंबकम् को आदर्श मानकर जीवित और अक्षुण्ण रही भारतीय सनातन संस्कृति के आधार वेदों के सन्देश में जातीय संकीर्णता, घृणा, भेदभाव या पक्षपात और साम्प्रदायिकता का कोई स्थान नहीं है।

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