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Krishna Madhav Radhe Radhe ♥️
हरे कृष्णा हरे कृष्णा ❤️❤️
कृष्णा कृष्णा हरे हरे ❤️❤️

True Story  #प्रेरक_कहानी
07/10/2024

True Story #प्रेरक_कहानी

02/10/2024

*दान की महिमा अतुलनीय है..*

दान की महिमा निराली है. जरूरतमंद के हाथ पसारने पर भी उसे दुत्कार देने की आदत भगवान को पसंद नहीं. परमार्थी जीव भगवान की पसंद सूची में हैं।

भगवान विविध प्रकार से हमें परखते हैं. तुलसीदास को हनुमानजी ने कोढ़ी के रूप में पहली बार दर्शन दिया था. कण-कण में भगवान की बात कही जाती है. इसे सिर्फ जुमले या कहावत के रूप में नहीं देखना चाहिए।

लोगों में एक आदत होती है किसी भी बात के लिए मना कर देने की. बेशक हममें मना करने की आदत होनी चाहिए लेकिन किस बात के लिए मना करने की आदत हो इसकी परख होनी चाहिए. हर बात के लिए “ना” कहने वाला बहुत ज्यादा नकारात्मक विचारों से भर जाता है।

मना करिए ऐसी चीजों के लिए जो आपके और सामने वाले दोनों के लिए नुकसानदेह हो. देने वाला बड़ा होता है. मांगने वाला तो हमेशा छोटा होता ही है. उसकी नजर झुकी रहती है आपके सामने, दया की याचना करता है आपसे बिलकुल वैसे ही जैसे हम ईश्वर के सामने कर रहे होते हैं।

अगर समर्थवान हैं तो याचक को कुछ न कुछ जरूर दान कर दें. इसका क्या लाभ हो सकता है. एक सुंदर कथा पढिए।

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला. चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए. टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षा मांगने के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते. उसमें कुछ न कुछ जरूर रख लेते हैं।

पूर्णिमा का दिन था. उस दिन लोग दान करते हैं. इसलिए भिखारी को विश्वास था कि आज ईश्वर की कृपा होगी और झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।

वह एक जगह खड़ा होकर भीख मांग रहा था. तभी उसे सामने से उस देश के नगरसेठ की सवारी आती दिखाई दी।

सेठ पूर्णिमा को किया जाने वाला नियमित दान कर रहा था. भिखारी तो खुश हो गया. उसने सोचा, नगर सेठ के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से उसका कई दिनों का काम हो जाएगा।

जैसे-जैसे सेठ की सवारी निकट आती गई,भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई.सेठ का रथ पास रूका और वह उतरकर उसके पास पहुंचे.अब तो भिखारी न जाने क्या-क्या पाने के सपने देखने लगा।

लेकिन यह क्या,बजाय भिखारी को भीख देने के सेठ ने उलटे अपनी कीमती चादर उसके सामने फैला दी.सेठ ने भिखारी से ही कुछ दान मांग लिया।

वह रोज लोगों के सामने झोली फैलाता है.आज उसके सामने किसी ने झोली फैला दी वह भी नगर के सबसे बड़े सेठ ने.भिखारी को समझ नहीं आ रहा था क्या करे.अभी वह सोच ही रहा था कि सेठ ने फिर से याचना की।

भिखारी धर्मसंकट में था.कुछ न कुछ तो देना ही पड़ता.कहां वह मोटा दान पाने की आस लगाए बैठा था, कहां अपने ही माल में से कुछ निकलने वाला था.उसका मन खट्टा हो गया।

भिखारी ने निराश मन से अपनी झोली में हाथ डाला.हमेशा दूसरों से लेने वाला मन आज देने को राजी नहीं हो रहा था।

हमेशा लेने की नीयत रखने वाला क्या देता.जैसे-तैसे करके उसने झोली से जौ के दो दाने निकाले और सेठ की चादर में डाल दिया.सेठ उसे लेकर मुस्कुराता हुआ चला गया।

हालांकि उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली थी.फिर भी उसने जौ के जो दो दाने अपने पास से गंवाए थे,उसका मलाल सारे दिन रहा.
बार-बार यही ख्याल आता कि न जाने क्या हुआ सेठ को देने के बजाय लेकर ही चला गया।

आज सभी भिखारियों को दान दे रहे हैं वह उलटा ले रहा है.कैसा जमाना आ गया है.अच्छा हुआ मैंने जौ के दो ही दाने दिए.मुठ्ठीभर नहीं दिया.यही सब सोचता हुआ वह घर पहुंचा.शाम को जब उसने झोली पलटी तो आश्चर्य की सीमा न रही.जो जौ वह अपने साथ लेकर गया था उसके दो दाने सोने के हो गए थे।

जौ के दाने सोने के कैसे हो गए और हुए भी तो केवल दो ही दाने क्यों, पूरे ही हो जाते तो कंगाली मिट जाती.वह यह सोच ही रखा था कि उसका माथा ठनका.कहीं यह सेठ को दिए दो दानों का प्रभाव तो नहीं है।

भिखारी को समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है।

वह पछताया कि काश!उस सेठ को और बहुत सारी जौ दे दी होती लेकिन नहीं दे सका क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी।

हम ईश्वर से हमेशा पाने की इच्छा रखते हैं,क्या कभी सोचा है कि कुछ दिया भी जा सकता है.इंसान की क्या औकात कि वह ईश्वर को कुछ दे सके.यदि वह उस गरीब का कुछ भला कर दे जो ईश्वर का दंड झेलता कष्टमय जीवन बिता रहा है,वही ईश्वर को देना कहा जाता है।

देने से कोई छोटा नहीं होता. सुपात्र को देने की नीयत रखें.कुपात्र को दिया दान व्यर्थ जाता है.जिनका पेट भरा है उनके मुंह में रसगुल्ले ठूंसने से बेहतर है भूखे को एक बिस्किट का पैकेट पकड़ा दें।

दान से आपके पूर्वजन्मों के दोष कटते हैं.जो ग्रह खराब हो उसका दान करने से उस ग्रह के दोष आपसे निकलते जाते हैं.यदि आप परेशानियों से लगातार जूझ रहे हैं तो सेवा कीजिए जरूरतमंदों की.धन का ही दान हो जरूरी नहीं।

वाणी का दान भी सुंदर दान है. किसी से मधुर वचन कहना वाणी दान कहलाता है.बीमार की सेवा करना,रक्तदान,जलदान और अन्नदान सर्वश्रेष्ठ दान हैं..!!
*🙏🏽🙏🏾🙏🏼जय श्री कृष्ण*🙏🏻🙏🙏🏿
#प्रेरक_कहानी

*राधा-कृष्ण और गोपी की ये कहानी दे रही बड़ी सीख, जरूर पढे....श्यामसुन्दर उस गोपी पर बलिहारी जाते हैं और बोले- तू धन्य है...
30/09/2024

*राधा-कृष्ण और गोपी की ये कहानी दे रही बड़ी सीख, जरूर पढे....

श्यामसुन्दर उस गोपी पर बलिहारी जाते हैं और बोले- तू धन्य है गोपी और तेरा प्रेम भी धन्य है। तुम्हारे प्रेम ने तो नन्दभवन में बरसाना दिखा दिया है।

एक बार श्यामसुन्दर अपना श्रृंगार कर रहे थे। तभी श्यामसुन्दर ने कुछ सोचकर नन्दगाँव की गोपियों को बुलाया और कहा कि अभी तुम बरसाना जाओ और ये पता लगाना कि हमारी प्राण प्यारी ने आज कैसे वस्त्र धारण किए हैं।

आज हम भी वैसी ही पोशाक धारण करेंगे। आज तो राधे जैसे ही वस्त्र धारण करके ही निकुंज में जायेंगे और तो हमें देखकर राधा जी अचम्भित हो जायेंगी।
जब नन्द गाँव से गोपियाँ श्री बरसाना पहुँची तो श्री कुछ मंजरियाँ श्री राधा रानी का श्रृंगार कर रही थीं।

कुछ मंजरिया बाहर खड़ी थीं। उन्होंने गोपियों को अन्दर जाने नहीं दिया। गोपियों ने बहुत अनुरोध किया कि सिर्फ एक झलक तो प्यारी की निहारने दो फिर हम यहाँ से चली जाएगीं। मंजरी ने कहा कि एक शर्त है कि कोई एक गोपी ही अन्दर जाएगी।

फिर एक गोपी अन्दर श्रीराधे की झलक के दर्शन करने गयी। गोपी बिना पलकें झपकाए श्रीराधे की झलक के दर्शन करती रही। फिर उस गोपी ने तुरन्त अपने नेत्र बन्द कर लिए और बन्द नेत्रों से ही बाहर आकर दूसरी गोपी को कहा कि अरी सखी ! जल्दी से मुझे नन्दगाँव ले चल। सभी सखियों ने कहा कि पहले श्रीराधे के श्रृंगार का वर्णन तो कर सखी। गोपी ने कहा कि पहले जल्दी से मुझे श्यामसुन्दर के पास ले चलो वहीं पर बताती हूँ।

उस गोपी का हाथ पकडकर सखियाँ नन्दभवन में ले आयीं। जब सखियाँ नंदगाँव पहुँची तो श्यामसुन्दर ने पूछा कि कर लिये मेरी श्रीराधे के दर्शन ? अब जल्दी से मुझे बता कैसे पोषाक धारण किए हैं ? कितनी सुन्दर लग रही थीं मेरी प्यारी ?

तब गोपी ने कहा कि हमारी प्राण प्यारी को बड़े प्रेम से संभाल कर मेरे इन नेत्रों में समा कर लायी हूँ। लो अब मैं नेत्र खोल रही हूँ। आप मेरे नेत्रों में झांक कर प्राण प्यारी का दर्शन करे।

अहा ! कितना अद्भुत भाव है। कितना समर्पित भाव है। ऐसा अद्भुत और समर्पित भाव सिर्फ बृज की गोपिकाएँ ही कर सकती हैं। तब श्यामसुन्दर ने उस गोपी के नयनों में झाँका तो बरसाने में श्रृंगार करती हुई श्रीराधे दिखाई दीं। श्यामसुन्दर अपनी प्राण प्यारी की झलक पाकर उस गोपी के नेत्रों में ही खो गए। अपलक उस गोपी के नेत्रों में ही निहारते रहे।

अपना श्रृंगार करना भी जैसे भूल गए। एक स्तम्भ की तरह जैसे अचेतन हो गए हो। एक गोपी ने श्यामसुन्दर को पुकारा तो चेतनवन्त हुए।
श्यामसुन्दर उस गोपी पर बलिहारी जाते हैं और बोले तू धन्य है गोपी और तेरा प्रेम भी धन्य है। तुम्हारे प्रेम ने तो नन्दभवन में बरसाना दिखा दिया है।

फिर श्यामसुंदर ने श्रीराधे जैसा ही श्रृंगार और पोषाक धारण किए। जिस गोपी के नेत्रों में श्री राधे देखी थी उस कहा कि अब तुम अपने नेत्रों में मेरी छवि को बन्द कर लो। उस गोपी ने श्यामसुन्दर को भी अपलक निहारा और थोडी देर में अपने नेत्रों को बन्द कर दिया।

श्यामसुन्दर ने एक और गोपी से कहा कि इस गोपी को निकुंज में ले जाओ जहाँ श्रीराधे बैठकर मेरा इन्तजार कर रही हैं। वो सखी उसका हाथ पकड़कर निकुंज में ले आयी, जहाँ श्रीराधे अपने श्यामसुन्दर का इन्तजार कर रही थीं।

नन्द गाँव की गोपियों को देखकर उनसे पूछा कि श्यामसुन्दर कहाँ हैं ? जिस गोपी के नेत्र बन्द थे उसने कहा कि श्यामसुन्दर मेरे नेत्रों में समा गए हैं। ऐसा कहकर उस गोपी ने अपने नेत्रों को जैसे ही खोला, तो श्रीराधे भी उसके नेत्रों में झाँककर अचम्भित सी हो गयीं।

उस गोपी के एक नेत्र में श्रृंगार करती हुई बरसाना में श्रीराधे दिखाई दे रही थीं और दूसरे नेत्र में श्रृंगार करते हुए नन्दभवन में श्यामसुन्दर दिखाई दे रहे थे। उस गोपी के दोनों नेत्रों में प्रिया प्रियतम दोनों दिखाई दे रहे थे।

तभी दूर से श्यामसुन्दर अपनी बंसी की मधुर धुन बजाते हुए आते दिखे। दोनों एक दूसरे को देखकर अचम्भित हो रहे हैं क्योंकि जैसा श्रृंगार उस गोपी के नेत्रों में दिखाई दे रहा है वैसा ही श्रृंगार दोनों ने किया है।

राधा जी उस गोपी को अपना हीरा जड़ित हार पहना देती है और आलिंगन करते हुए कहती हैं, तू धन्य है गोपी और तेरा प्रेम भी धन्य हैं। तूने तो अपने दोनों नेत्रों में मुझे और श्यामसुन्दर दोनों को बसा लिया है।

सीख.....मन में पवित्र भावना हो तो किसी को भी अपने नेत्रों में बसाया जा सकता है.
जय जय गोपी जय जय श्यामा श्याम
जय श्री राधेकृष्णा 🙏

कृष्ण-भक्त मीर माधव🙏बहुत समय पहले की बात हैं मुल्तान ( पंजाब ) का रहने वाला एक ब्राह्मण उत्तर भारत में आकर बस गया। जिस घ...
28/09/2024

कृष्ण-भक्त मीर माधव🙏

बहुत समय पहले की बात हैं मुल्तान ( पंजाब ) का रहने वाला एक ब्राह्मण उत्तर भारत में आकर बस गया। जिस घर में वह रहता था उसकी ऊपरी मंजिल में कोई मुग़ल-दरबारी रहता था।

प्रातः नित्य ऐसा संयोग बन जाता की जिस समय ब्राह्मण नीचे गीतगोविन्द के पद गाया करता उसी समय मुग़ल ऊपर से उतरकर दरबार को जाया करता था।

ब्राह्मण के मधुर स्वर तथा गीतगोविन्द की ललित आभा से आकृष्ट होकर वह सीढ़ियों में ही कुछ देर रुककर सुना करता था।

जब ब्राह्मण को इस बात का पता चला तो उसने उस मुग़ल से पूछा की - "सरकार ! आप इन पदों को सुनते हैं पर कुछ समझ में भी आता है ?

मुग़ल, समझ में तो एक लफ्ज (अक्षर) भी नही आता पर न जाने क्यों उन्हें सुनकर मेरा दिल गिरफ्त हो जाता है। तबियत होती है की खड़े खड़े इन्हें ही सुनता रहूं ।आखिर किस किताब में से आप इन्हें गाया करते है ?

ब्राह्मण, सरकार ! "गीतगोविन्द" के पद है ये, यदि आप पढ़ना चाहे तो मैं आपको पढ़ा दूंगा।

इस प्रस्ताब को मुग़ल ने स्वीकार कर लिया और कुछ ही दिन में उन्हें सीखकर स्वयं उन्हें गाने लग गया।

एक दिन ब्राह्मण ने उन्हें कहा, आप गाते तो है लेकिन हर किसी जगह इन पदों को नही गाना चाहिये,आप इन अद्भुत अष्टापदियो के रहस्य को नही जानते।क्योकि जहाँ कहीं ये गाये जाते है भगवान श्रीकृष्ण वहाँ स्वयं उपस्थित रहते है। इसलिए आप एक काम करिये। जब कभी भी आप इन्हें गाये तो श्याम सुन्दर के लिए एक अलग आसान बिछा दिया करे।

मुग़ल ने कहा - वह तो बहुत मुश्किल है, बात ये है की हम लोग दूसरे के नौकर है, और अक्सर ऐसा होता है की दरबार से वक्त वेवक्त बुलावा आ जाता है, और हमको जाना पड़ता है।

ब्राह्मण - तो ऐसा करिये जब आपका सरकारी काम ख़त्म हो जाया करे तब आप इन्हें एकांत में गाया करिये।

मुग़ल - यह भी नही हो सकता आदत जो पड़ गयी है ! और रही घर बैठकर गाने की बात सो कभी तो ऐसा होता है की दो दो - तीन तीन दिन और रात भी हमे घोड़े की पीठ पर बैठकर गुजारनी पड़ती है।

ब्राह्मण - अच्छा तो फिर ऐसा किया जा सकता हैं कि घोड़े की जीन के आगे एक बिछौना श्यामसुंदर के विराजने के लिए बिछा लिया करे और यह भावना मन में रख ले की आपके पद सुनने के लिए श्यामसुंदर वहाँ आकर बैठे हुए है। मुग़ल ने स्वीकार कर यहीं नियम बना लिया और घर पर न रहने की हालात में घोड़े पर चलता हुआ ही गीतगोविन्द के पद गुनगुनाया करता।

एक दिन अपने अफसर के हुकुम से उसे जैसा खड़ा था उसी हालात में घोड़े पर सवार होकर कहीं जाना पड़ा, वह घोड़े की जीन के आगे बिछाने के लिए बिछौना भी साथ नही ले जा सका।

रास्ते में चलते चलते वह आदत के अनुसार पदों का गायन करने लगा।गायन करते करते अचानक उसे लगा की घोड़े के पीछे पीछे घुंघरुओं ( नूपुर ) की झनकार आ रही है।

पहले तो वह समझा की वहम हुआ है, लेकिन जब उस झंकार में लय का आभास हुआ तो घोडा रोक लिया और उतर कर देखने लगा।

तत्क्षण श्यामसुंदर ने प्रकट होकर पूछा - 'सरदार' ! आप घोड़े से क्यों उतर पड़े ? और आपने इतना सुन्दर गायन बीच में ही क्यों बंद कर दिया ?

मुग़ल तो हक्का -बक्का होकर सामने खड़ा देखता ही रह गया।
भगवान की रूपमाधुरी को देखकर वह इतना विहल हो गया की मुँह से आवाज ही नही निकलती थी।

आखिर बोला - आप संसार के मालिक होकर भी मुझ मुग़ल के घोड़े के पीछे पीछे क्यों भाग रहे थे ?

भगवान् ने मुस्कुराते हुए कहा - भाग नही रहा। मैं तो आपके पीछे पीछे नाचता हुआ आ रहा हूं। क्या तुम जानते नही हो की जिन पदों को तुम गा रहे थे वो कोई साधारण काव्य नही है। तुम आज मेरे लिए घोड़े पे गद्दी बिछाना भूल गए तो क्या मैं भी नाचना भूल जाऊ क्या ?

मुग़ल को अब मालूम हुआ की मुझसे अब कितना भारी अपराध बन गया है। यह सब इसलिए हुआ की वह पराधीन था। दूसरे दिन प्रातः ही उसने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और वैराग्य लेकर श्यामसुंदर के भजन में लग गया।

सही है एक बार उन महाप्रभु की रूप माधुरी को देख लेने के बाद संसार में ओर क्या शेष रह जाता है।
यहीं मुग़ल भक्त बाद में प्रभु कृपा से ' मीर माधव ' नाम से विख्यात हुए।

🙏❣❣जब ठाकुर जी ने मोदक भोग लगायो ❣❣🙏एक थे गवारियां बाबा। वृन्दावन में ही रहते थे। बिहारी जी को अपना यार कहते थे। सिर्फ क...
28/09/2024

🙏❣❣जब ठाकुर जी ने मोदक भोग लगायो ❣❣🙏

एक थे गवारियां बाबा। वृन्दावन में ही रहते थे। बिहारी जी को अपना यार कहते थे। सिर्फ कहते नहीं, मानते भी थे। नियम था बिहारी जी को नित्य सायं शयन करवाने जाते थे। एक बार शयन आरती करवाने जा रहे थे। बिहारी जी की गली में बढ़िया मोदक बन रहें थे। अच्छी खुशबू आ रही थी। चार मोदक मांग लिए बिहारी जी के लिए ! वृन्दावन के लोग बिहारी जी के भक्तो का बड़ा आदर करते है। उन्होंने मना नहीं किया। एक डोने में बांध दियो साथ में। बाबा भीतर गए तो बिहारी जी के भोग के पट आ चुके थे।

गवारिया बाबा जी ने वही बैठकर अपना कम्बल बिछाया और उस पर बैठकर अपने मन के भाव में खो गए। वहां बिहारी जी की आरती का समय हुआ तो श्री गौसाई जी बड़ा प्रयास कर रहे हैं लेकिन ठाकुर जी के मंदिर का पट नहीं खुल रहा। बड़े हैरान इधर उधर देख रहें। एक संत कोने में बैठे सब दृश्य आरंभ से देख रहें थे। पुजारी जी ने लाचारी से देखा तो संत बोले उधर गवारिया बाबा बैठे हैं उनसे पूछो वो बता देंगे।

गौसाईं जी ने बाबा से कहा, रे बाबा तेरे यार तो दरवाजा ही न खोल रहियो ? बाबा हड़बड़ा कर उठे। रोम रोम पुलकित हो रहा था बाबा का। बाबा ने कहा जय जय ! अब जाओ ! और बाबा ने पुजारी से कहा अब खोलो। पुजारी जी ने तब खोला और दरवाजा खोलने का प्रयास किया। लेकिन हल्का सा छूते ही दरवाजा खुल गया। पुजारी जी ने आरती की और बिहारी जी को शयन करवा दिया। लेकिन आज पुजारी जी के मन में यह बात लगी है की आज मैं प्रयास करके हार गयो लेकिन दरवाजा नहीं खुला। लेकिन बाबा ने कहा और दरवाजा खुल गया। पुजारी जी गवारिया बाबा के पास गए और कहा , बाबा आज तुझे तेरे यार की सौगंध है। साँची साँची कह दें , आज तेरे यार ने क्या खेल खेलो।
गवारिया बाबा हंस दिए। कहते जय जय ! जब आप भोग के लिए दरवाजा खोल रहे थे। तब बिहारी जी मेरे पास मोदक खा रहे थे। अभी मैंने उनका मुंह भी नहीं धुलाया था की आपने आवाज दे दी। उनका मुंह साफ कर देना। जाईये उनका मुख तो धुला दीजिये उनके मुख पर जूठन लगी है। गौसाईं जी ने स्नान किया मंदिर में गए तो देखा की ठाकुर जी के मुख पर तो लड्डू का जूठन लगी थी।
सच में रहस्य रस है ठाकुर जी की सेवा में ! अधिकार रखिये श्री ठाकुर जी पर। सर्वस नौशावर करके उनकी सेवा सुख मिलता है। अनहोनी होती है फिर सेवा की कृपा से। इसे सिर्फ श्री कृष्ण भक्त ही समझ सकते हैं। दुसरो को ऐसी बातें समझ नहीं आती। कृष्ण भक्त तो ठाकुर जी की हरेक कथा को अपने मन की आँखों से साक्षात् देख लेते है। उसी में आनंद लेते है। फिर दुनिया की भी परवाह नहीं करते। ठाकुर जी की तरफ जो सच्चे मन से बढ़ता है फिर ठाकुर जी भी उसके जीवन में ऐसा खेल खेलते है की जिसे वो अपना समझता है और ज़िंदगी भर अपना समझना चाहता है। जल्दी ही उसकी सारी पोल खोल देतें हैं। और सच में जो सच्चे मन सेठकुर जी की शरण आ गयो उसे फिर संसार की चिंता नहीं रहती। उसकी चिंता फिर ठाकुर जी स्वयं करते है।

🙏🌹🌹जय जय श्री राधे कृष्ण जी🌹🌹🙏

 #प्रेरक_कहानी                          😇 सन्त की वाणी 😇किसी नगर में एक बूढ़ा चोर रहता था। सोलह वर्षीय उसका एक लड़का भी था...
23/09/2024

#प्रेरक_कहानी
😇 सन्त की वाणी 😇

किसी नगर में एक बूढ़ा चोर रहता था। सोलह वर्षीय उसका एक लड़का भी था। चोर जब ज्यादा बूढ़ा हो गया तो अपने बेटे को चोरी की विद्या सिखाने लगा। कुछ ही दिनों में वह लड़का भी चोरी करने में प्रवीण हो गया। दोनों बाप-बेटा आराम से जीवन व्यतीत करने लगे। एक दिन चोर ने अपने बेटे से कहा--- पुत्र ! साधु-संतों की बात कभी नहीं सुननी चाहिए। अगर कहीं कोई महात्मा उपदेश देता हो तो अपने कानों में ऊँगली डालकर वहाँ से भाग जाना चाहिये।

हाँ पिताजी ! समझ गया। एक दिन लड़के ने सोचा क्यों न आज राजा के घर पर ही हाथ साफ कर दूँ। ऐसा सोचकर उधर ही चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा कि रास्ते में कुछ लोग एकत्र होकर खड़े हैं। उसने एक आते हुए व्यक्ति से पूछा, उस स्थान पर इतने लोग क्यों एकत्र हुए हैं ?

उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, वहाँ एक महात्मा उपदेश दे रहे हैं। यह सुनकर उसका माथा ठनका। इसका उपदेश नहीं सुनूँगा। ऐसा सोचकर वह अपने कानों में ऊँगली डालकर वहाँ से भाग निकला। जैसे ही वह भीड़ के निकट पहुँचा एक पत्थर से ठोकर लगी और वह गिर गया। उस समय महात्मा जी कह रहे थे। कि कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। जिसका नमक खाए उसका कभी बुरा नहीं सोचना चाहिये। ऐसा करनेवाले को भगवान् सदा सुखी बनाए रखते हैं। ये दो बातें उसके कान में पड़ीं। वह झटपट उठा और कान बन्द करके राजा के महल की ओर चल दिया। वहाँ पहुँचकर जैसे ही अन्दर जाना चाहा कि उसे वहाँ बैठे पहरेदार ने टोका---अरे ! कहाँ जाते हो ? तुम कौन हो ?
उसे महात्मा का उपदेश याद आया झूठ नहीं बोलना चाहिए। चोर ने सोचा, आज सच ही बोल कर देखें। उसने उत्तर दिया मैं चोर हूँ चोरी करने जा रहा हूँ।

अच्छा जाओ उसने सोचा राजमहल का कोई नौकर होगा। मजाक कर रहा है। चोर सच बोलकर राजमहल में प्रवेश कर गया। एक कमरे में घुसा। वहाँ ढेर सारा पैसा तथा जेवर देख उसका मन खुशी से भर गया। एक थैले में सब धन भर लिया और दूसरे कमरे में घुसा। वहाँ रसोई घर था। अनेक प्रकार का भोजन वहाँ रखा था। वह खाना खाने लगा। खाना खाने के बाद वह थैला उठाकर चलने लगा कि तभी फिर महात्मा का उपदेश याद आया जिसका नमक खाओ उसका बुरा मत सोचो। उसने अपने मन में कहा---मैनें जो खाना खाया उसमें नमक भी था। इसका बुरा नहीं सोचना चाहिये। इतना सोचकर थैला वहीं रख वह वापस चल पड़ा। पहरेदार ने फिर पूछा क्या हुआ चोरी क्यों नहीं की ? चोर बोला---
देखिए ! जिसका नमक खाया है, उसका बुरा नहीं सोचना चाहिये। मैंने राजा का नमक खाया है, इसलिए चोरी का माल नहीं लाया। वहीं रसोई घर में छोड़ आया। इतना कहकर वह वहाँ से चल पड़ा।

उधर रसोइए ने शोर मचाया, पकड़ो- पकड़ो चोर भागा जा रहा है। पहरेदारों ने चोर को पकड़कर दरबार में उपस्थित किया।

राजा के पूछने पर उसने बताया कि एक महात्मा के द्वारा दिए गए उपदेश के अनुसार मैंने पहरेदार के पूछने पर अपने को चोर बताया क्योंकि मैं चोरी करने आया था। आपका धन चुराया लेकिन आपका भोजन भी खाया, जिसमें नमक मिला था। इसीलिए आपके प्रति बुरा व्यवहार नहीं किया और धन छोड़कर भागा। उसके उत्तर पर राजा बहुत खुश हुआ और उसे अपने दरबार में नौकरी दे दी। वह दो-चार दिन घर नहीं गया तो उसके बाप को चिन्ता हुई कि बेटा पकड़ लिया गया-लेकिन चार दिन के बाद लड़का आया तो बाप अचम्भित रह गया अपने बेटे को अच्छे वस्त्रों में देखकर। लड़का बोला--पिताजी ! आप तो कहते थे कि किसी साधु-संत की बात मत सुनो। लेकिन मैंने एक महात्मा की बात सुनी और उसी के मुताबिक काम किया तो देखिए सच्चाई का फल, मुझे राजमहल में अच्छी नौकरी मिल गई। यह सुनकर उसका पिता अपने जीवन के किये हुए चोरी के कर्म पर बहुत ही लज्जित हुआ। और जब तक जीवित रहा तब तक पश्चाताप करता रहा।जय श्री राधे कृष्णा

आज की अमृत कथा                               🌻 तीन गुरु 🌻बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में एक बेहद प्रभावशाली महंत र...
20/09/2024

आज की अमृत कथा
🌻 तीन गुरु 🌻

बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में एक बेहद प्रभावशाली महंत रहते थे । उन के पास शिक्षा लेने हेतु कई शिष्य आते थे। एक दिन एक शिष्य ने महंत से सवाल किया, स्वामीजी आपके गुरु कौन है? आपने किस गुरु से शिक्षा प्राप्त की है?” महंत शिष्य का सवाल सुन मुस्कुराए और बोले, मेरे हजारो गुरु हैं! यदि मै उनके नाम गिनाने बैठ जाऊ तो शायद महीनो लग जाए। लेकिन फिर भी मै अपने तीन गुरुओ के बारे मे तुम्हे जरुर बताऊंगा।

एक था चोर।
एक बार में रास्ता भटक गया था और जब दूर किसी गाव में पंहुचा तो बहुत देर हो गयी थी। सब दुकाने और घर बंद हो चुके थे। लेकिन आख़िरकार मुझे एक आदमी मिला जो एक दीवार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा था। मैने उससे पूछा कि मै कहा ठहर सकता हूं, तो वह बोला की आधी रात गए इस समय आपको कहीं आसरा मिलना बहुत मुश्किल होंगा, लेकिन आप चाहे तो मेरे साथ ठहर सकते हो। मै एक चोर हु और अगर एक चोर के साथ रहने में आपको कोई परेशानी नहीं होंगी तो आप मेरे साथ रह सकते है।

वह इतना प्यारा आदमी था कि मै उसके साथ एक महीने तक रह गया! वह हर रात मुझे कहता कि मै अपने काम पर जाता हूं, आप आराम करो, प्रार्थना करो। जब वह काम से आता तो मै उससे पूछता की कुछ मिला तुम्हे? तो वह कहता की आज तो कुछ नहीं मिला पर अगर भगवान ने चाहा तो जल्द ही जरुर कुछ मिलेगा। वह कभी निराश और उदास नहीं होता था, हमेशा मस्त रहता था।

जब मुझे ध्यान करते हुए सालों-साल बीत गए थे और कुछ भी हो नहीं रहा था तो कई बार ऐसे क्षण आते थे कि मैं बिलकुल हताश और निराश होकर साधना-वाधना छोड़ लेने की ठान लेता था। और तब अचानक मुझे उस चोर की याद आती जो रोज कहता था कि भगवान ने चाहा तो जल्द ही कुछ जरुर मिलेगा।

और मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था।
एक बहुत गर्मी वाले दिन मै बहुत प्यासा था और पानी के तलाश में घूम रहा था कि एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया। वह भी प्यासा था। पास ही एक नदी थी। उस कुत्ते ने आगे जाकर नदी में झांका तो उसे एक और कुत्ता पानी में नजर आया जो की उसकी अपनी परछाई थी। कुत्ता उसे देख बहुत डर गया। वह परछाई को देखकर भौकता और पीछे हट जाता, लेकिन बहुत प्यास लगने के कारण वह वापस पानी के पास लौट आता। अंततः, अपने डर के बावजूद वह नदी में कूद पड़ा और उसके कूदते ही वह परछाई भी गायब हो गई। उस कुत्ते के इस साहस को देख मुझे एक बहुत बड़ी सिख मिल गई। अपने डर के बावजूद व्यक्ति को छलांग लगा लेनी होती है। सफलता उसे ही मिलती है जो व्यक्ति डर का साहस से मुकाबला करता है।

और मेरा तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा है।
मै एक गांव से गुजर रहा था कि मैंने देखा एक छोटा बच्चा एक जलती हुई मोमबत्ती ले जा रहा था। वह पास के किसी गिरजाघर में मोमबत्ती रखने जा रहा था। मजाक में ही मैंने उससे पूछा की क्या यह मोमबत्ती तुमने जलाई है? वह बोला, जी मैंने ही जलाई है। तो मैंने उससे कहा की एक क्षण था जब यह मोमबत्ती बुझी हुई थी और फिर एक क्षण आया जब यह मोमबत्ती जल गई। क्या तुम मुझे वह स्त्रोत दिखा सकते हो जहा से वह ज्योति आई?

वह बच्चा हँसा और मोमबत्ती को फूंख मारकर बुझाते हुए बोला, अब आपने ज्योति को जाते हुए देखा है। कहा गई वह? आप ही मुझे बताइए।

मेरा अहंकार चकनाचूर हो गया, मेरा ज्ञान जाता रहा। और उस क्षण मुझे अपनी ही मूढ़ता का एहसास हुआ। तब से मैंने कोरे ज्ञान से हाथ धो लिए।

मित्रो, शिष्य होने का अर्थ क्या है? शिष्य होने का अर्थ है पुरे अस्तित्व के प्रति खुले होना। हर समय हर ओर से सीखने को तैयार रहना। जीवन का हर क्षण, हमें कुछ न कुछ सीखने का मौका देता है। हमें जीवन में हमेशा एक शिष्य बनकर अच्छी बातो को सीखते रहना चाहिए। यह जीवन हमें आये दिन किसी न किसी रूप में किसी गुरु से मिलाता रहता है, यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उस महंत की तरह एक शिष्य बनकर उस गुरु से मिलने वाली शिक्षा को ग्रहण कर पा रहे हैं की नहीं!

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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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वृन्दावन की सत्य कथा                           🍂 इत्र की शीशी 🍂एक व्यक्ति लाहौर से कीमती रूहानी इत्र लेकर आये थे। क्योंक...
19/09/2024

वृन्दावन की सत्य कथा
🍂 इत्र की शीशी 🍂

एक व्यक्ति लाहौर से कीमती रूहानी इत्र लेकर आये थे। क्योंकि उन्होंने सन्त श्री हरिदास जी महाराज और बांके बिहारी के बारे में सुना हुआ था। उनके मन में आये की मैं बिहारी जी को ये इत्र भेंट करूँ। इस इत्र की खासियत ये होती है की अगर बोतल को उल्टा कर देंगे तो भी इत्र धीरे धीरे गिरेगा और इसकी खुशबु लाजवाब होती है।

ये व्यक्ति वृन्दावन पहुँचा। उस समय सन्त जी एक भाव में डूबे हुए थे। सन्त देखते है की राधा-कृष्ण दोनों होली खेल रहे हैं। जब उस व्यक्ति ने देखा की ये तो ध्यान में हैं तो उसने वह इत्र की शीशी उनके पास में रख दी और पास में बैठकर सन्त की समाधी खुलने का इंतजार करने लगा।

तभी सन्त देखते हैं की राधा जी और कृष्ण जी एक दूसरे पर रंग डाल रहे हैं। पहले कृष्ण जी ने रंग से भरी पिचकारी राधा जी के ऊपर मारी। और राधा रानी सिर से लेकर पैर तक रंग में रंग गई। अब जब राधा जी रंग डालने लगी तो उनकी कमोरी (छोटा घड़ा) खाली थी। सन्त को लगा की राधा जी तो रंग डाल ही नहीं पा रही हैं, क्योंकि उनका रंग खत्म हो गया है।

तभी सन्त ने तुरन्त वह इत्र की शीशी खोली और राधा जी की कमोरी में डाल दी और तुरन्त राधा जी ने कृष्ण जी पर रंग डाल दिया। हरिदास जी ने सांसारिक दृष्टि में वो इत्र भले ही रेत में डाला। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि में वो राधा रानी की कमोरी में डाला।

उस भक्त ने देखा की इन सन्त ने सारा इत्र जमीन पर गिरा दिया। उसने सोचा में इतने दूर से इतना महंगा इत्र लेकर आया था पर इन्होंने तो इसे बिना देखे ही सारा का सारा रेत में गिरा दिया। मैंने तो इन सन्त के बारे में बहुत कुछ सुना था। लेकिन इन्होने मेरे इतने महंगे इत्र को मिट्टी में मिला दिया।

वह कुछ भी ना बोल सका। थोड़ी देर बाद सन्त ने आँखें खोली उस व्यक्ति ने सन्त को अनमने मन से प्रणाम किया। अब वो व्यक्ति जाने लगा। तभी सन्त ने कहा- ”आप अन्दर जाकर बिहारी जी के दर्शन कर आएँ।”

उस व्यक्ति ने सोचा कि अब दर्शन करें या ना करें क्या लाभ। इन सन्त के बारे में जितना सुना था सब उसका उल्टा ही पाया है। फिर भी चलो चलते समय दर्शन कर लेता हूँ। क्या पता अब कभी आना हो या ना हो। ऐसा सोचकर वह व्यक्ति बांके बिहारी के मन्दिर में अन्दर गया तो क्या देखता है की सारे मन्दिर में वही इत्र महक रहा है और जब उसने बिहारी जी को देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ बिहारी जी सिर से लेकर पैर तक इत्र में नहाए हुए थे।

उसकी आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे और वह सारी लीला समझ गया तुरन्त बाहर आकर सन्त के चरणों मे गिर पड़ा और उन्हें बार-बार प्रणाम करने लगा। और कहता है सन्त जी मुझे माफ़ कर दीजिये। मैंने आप पर अविश्वास दिखाया। सन्त ने उसे माफ कर दिया और कहा कि भैया तुम भगवान को भी सांसारिक दृष्टि से देखते हो लेकिन मैं संसार को भी आध्यात्मिक दृष्टि से देखता हूँ।

"जय जय श्री बाँकेबिहारी लाल की"
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Radhe Radhe❤❤❤
19/09/2024

Radhe Radhe❤❤❤

💎💥💥ब्रह्मज्ञान क्या है?*🙏एक दिन भगवान् कृष्ण के पास नारद जी आये. बोले- ‘‘भगवन्! मैं ब्रह्मज्ञान की बात पूछने आया हूँ। क्...
10/09/2024

💎💥💥ब्रह्मज्ञान क्या है?*🙏

एक दिन भगवान् कृष्ण के पास नारद जी आये. बोले- ‘‘भगवन्! मैं ब्रह्मज्ञान की बात पूछने आया हूँ। क्या है वह ब्रह्मज्ञान? क्यों हम ब्रह्म का दर्शन नहीं कर पाते

श्री कृष्ण जी ने कहा-‘‘अभी आये हो। थोड़ी देर बैठो, प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा।’’
नारद जी बैठे, विश्राम कियाऋ बोले-‘‘अब दे मेरे प्रश्न का उत्तर।’’
श्री कृष्ण ने कहा-‘‘आओ, जंगल में घूमने चलें, वहाँ बातें करेंगे।’’
दोनों निकल पड़े सैर को। घूमते-घूमते नारद जी काफ़ी थक गये। प्यास भी सताने लगी। श्री कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘नारद जी! आपको शायद प्यास लगी है, मुझे हूँ।’’
आगे गये तो उन्हें एक कुआँ मिला, जिसपर कुछ स्त्रियाँ पानी भर रही थीं। नारद जीने पानी माँगा। एक युवती ने अपने घड़े से पानी पिला दिया। नारद जी पानी पी रहे थे ओर उसकी ओर देख रहे थे। देखते-देखते मन में मोह जाग उठा।
पानी पी लिया तो एक ओर खड़े हो गये। वह लड़की घड़े को लेकरक अपने घर को चली तो नारद जी भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े। उसके घर पहुँचे तो लड़की के पिता ने उन्हें पहचानकर कहा-‘‘आइये नारद जी! मेरे सौभाग्य कि आपके दर्शन हुए। अब भोजन किये बिना जाने न दूँगा।’’
नारद जी भी यही चाहते थेऋ बोले-‘‘भूख तो लगी है।’’
भोजन कर चुके तो बोले-‘‘हम कुछ दिन तुम्हारे घर में रहें तो क्या हो?’’
लड़की के पिता ने कहा-‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है।’’
नारद जी वहीं टिक गये। उस लड़की के रूप का मोह उन्हें पागल किये देता था। मन में जो गिरावट आ गई थी, वह और भी नीचे लिये जाती थी। एक दिन लड़की के पिता से बोले-‘‘मैं चाहता हूँ कि इस कन्या का विवाह मेरे साथ हो जाय।’’
लड़की के पिना ने कहा-‘‘महाराज! कन्या तो पराया धन है। मुझे उसका विवाह तो करना ही हे। आपसे अच्छा वर उसे कहाँ मिलेगा? मैं विवाह कर दूँगा अवश्य, परन्तु मेरी एक शर्त भी माननी होगी और शर्त यह है कि विवाह के पश्चात् आप मेरे ही घर पर रहें, कहीं जायें नहीं।’’
नादरजी को और क्या चाहिए था! रमते राम का कोई घर-घाट था नहीं। चिन्ता कर रहे थे कि पत्नी को लेकर कहाँ जायेंगे? बना-बनाया घर मिल गया। शर्त स्वीकार हो गई। विवाह भी हो गया। नारद जी अपने-आपको भूलकर ससुरालवालों के पशु चराते, उनके खेतों में काम करते। उन्हीं के घर में रहने लगे।
इस प्रकार कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये। गृहस्थी नारद के दो-तीन बच्चे भी हो गये। तभी एक दिन मूसलाधार वर्षा होने लगी। एक दिन, दो दिन, कई दिन होती रही। सब ओर जल-थल एक हो गया। शेष लोग कहाँ-कहाँ गये, यह नारद जी ने नहीं देखा। वह तो अपनी पन्त और बच्चों को लेकर मकान की दूसरी मंज़िल में चले गये। वहांँ भी पानी पहुँचा तो छत पर चले गये।
परन्तु बाढ़ तो रुकी नहीं। पानी जब छत के निकट पहुँचा तो नारद जी ने समझा कि मकान अब बचेगा नहीं। पत्नी और बच्चों सहित पानी में कूद पड़े कि किसी ऊँचे स्थान पर जाकर प्राण बचायें। परन्तु ऐसा करते ही दो बच्चे डूब गए। पत्नी रोने लगी तो नारद बोले-‘‘भागवान, रोती क्यों है? तू भी है, मैं भी हूँ, बच्चे ओर हो जायेंगे।’’
परन्तु तभी तीसरा बच्चा भी डूब गया। उसे ढूँढने के लिए नारद जी हाथ-पाँव मार ही रहे थे कि पानी का एक और रेला आया, पत्नी भी डूब गई। बड़ी कठिनता से नारद जी एक ऊँचे स्थान पर पहुँचे। वहांँ भी पानी था। थक बहुत गये थे। तैरने का अब प्रश्न उत्पन्न नहीं होता था, परन्तु धन्यवाद किया कि खड़े हो सकते हैं।
पानी छाती तक था। तभी पानी ऊपर बढ़ा, कन्धों तक पहुँच गया, फिर ठोडी भी डूब गई। पानी होठों के पास पहुँचा तो नारद जी चिल्ला उठे-‘‘हे भगवन्, मुझे बचाओ!’’
तभी याद आया कि वे तो भगवान् कृष्ण के लिए पानी लेने आये थे। रोकर बोले-‘‘क्षमा करो भगवन्!’’
और तब कहानी है कि आँख खुल गई। नारद जी ने देखा कि कहीं कुछ भी नहीं है। वे जंगल में पड़े हैं। सामने खड़े श्री कृष्ण मुस्करा रहे हैं। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा-‘‘नारद जी! आपके प्रश्न का उत्तर मिल गया है या नहीं?’’
प्रकृति की वास्तविकता को समझकर इससे छुटकारा पा लेना ही ब्रह्मज्ञान है। इससे मुक्ति पाये बिना ब्रह्मदर्शन नहीं होता।
परन्तु यह प्रकृति माया इतनी लुभाने वाली है कि इसके जाल में फँसा व्यक्ति तभी समझता है, जब नाक तक पानी आ जाता है।
पूर्ण मदः, पूर्ण मिदं, पूर्णात, पूर्ण मुदचत्ये।
पूर्णस्य, पूर्ण मादाये, पूर्ण मेवावशिश्यते॥
हरे कृष्ण।

#श्रीहरिदास

Radhe Radhe 🙏🙏🙏
09/09/2024

Radhe Radhe 🙏🙏🙏

08/09/2024

#श्रीहरिदास।
श्री हरिदास ठाकुर जी अब बहुत वृद्ध हो गए हैं, तो भी नित्य तीन लाख नाम जाप करते है।
एक दिन गोबिंद हरिदास जी को श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद देने गए, तो देखा कि वे लेटे- लेटे धीरे-धीरे हरिनाम कर रहे है।
गोबिंद ने कहा- “हरिदास, उठो, प्रसाद लो।”
हरिदास जी उठे, उठकर बोले- "मेरी नाम संख्या अभी तक पूरी नहीं हुई है।”
इतना कहकर उन्होंने प्रसाद की उपेक्षा न हो, इसलिए एक चावल प्रसाद का दाना मुख में डाला और लेट गये।
हरिदास जी की ऐसी अवस्था सुन दूसरे दिन श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने आकर पूछा- “हरिदास, स्वस्थ तो हो?”
हरिदास जी बोले – प्रभु, शरीर तो स्वस्थ है, पर मन स्वस्थ नहीं, क्योकि वृद्ध अवस्था के कारण नाम जप संख्या पूरी नहीं कर पाता हूँ।
यह सुनकर महाप्रभु का हृदय द्रवित हो गया, पर मन का भाव छिपाते हुए उन्होंने कहा -"हरिदास तुम तो सिद्ध हो, लोक कल्याण के लिए तुम्हारा अवतार हुआ है।
अब वृद्ध हो गए हो तो जप की संख्या कुछ कम कर दो।"
अपनी प्रशंसा सुनकर हरिदास जी प्रभु के चरणों में गिर पड़े और बोले- "प्रभु मै अति नीच हूँ, आपकी प्रशंसा पाने के योग्य नहीं हूँ।"
चैतन्य महाप्रभु हरिदास जी की दीन वाणी सुनकर हरिदास के विषादपूर्ण मुख की ओर छल-छलाते नेत्रो से देर तक देखते रहे।
हरिदास जी ने चैतन्य महाप्रभु जी से कहा- "प्रभु मेरा एक निवेदन है, यदि आप मुझसे प्रसन्न है, तो आप मुझसे पहले नही, मै आपसे पहले देह त्याग कर जाना चाहता हूँ, प्रभु मैं आपका विरह सहन नहीं कर पाऊंगा।"
यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु का हृदय दुखी हो गया अश्रुपूर्ण नेत्रों से रुधे कंठ से बोले-“हरिदास, तुम चले जाओगे तो मै कैसे रहूंगा?
क्यों अपने संग सुख से मुझे वंचित करना चाहते हो, तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा कौन है?"
हरिदास जी ने कहा - “प्रभु, कोटि-कोटि महापुरुष तुम्हारी लीला के सहायक है।
मेरे जैसे शुद्र जीव के मर जाने से तुम्हारी क्या हानि होगी?"
इतना कह रोते-रोते हरिदास जी ने महाप्रभु के श्री चरण पकड़ लिए।
श्री चरणों में सिर देकर कम्पित स्वर से हरिदास जी बोले- "मैं जाना चाहता हूँ आपके चरण कमल अपने वक्ष स्थल पर धारणकर ओर आपका श्रीमुख देखते-देखते, मधुर नाम लेते लेते, बोलो प्रभु, यह वर दे रहे हो न?”
महाप्रभु ने एक गहरी साँस ली और धीरे से बोले- “हरिदास, तुम जो भी इच्छा करोंगे, श्री कृष्ण उसे पूर्ण किये बिना न रह सकेंगे, पर मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगा।"
इतना कह चैतन्य महाप्रभु जी चुप हो गए...
थोड़ी देर में उच्च स्वर से ‘हरिदास, हरिदास, कह उनसे लिपट कर रोने लगे, चैतन्य महाप्रभु जी के नयन जल से हरिदास जी का वक्ष स्थल भीग गया ओर स्पर्श से सर्वांग पुलकित हो उठा।
हरिदास जी आश्वस्त होकर महाप्रभु से बोले- "कल प्रात: जगन्नाथ जी के दर्शन कर इस अधम को दर्शन देने की कृपा करे।"
महाप्रभु समझ गए कि हरिदास चाहते हैं कल ही उनकी इच्छा पूर्ण हो।
दूसरे दिन प्रात:काल चैतन्य महाप्रभु श्री जगन्नाथ जी के दर्शन कर स्वरुप दामोदर, राय रामानंद ,सार्वभोम भट्टाचार्य, वक्रेश्वर पंडित आदि प्रमुख भक्तों को साथ ले हरिदास जी की कुटिया में आये।
भक्तों ने सोचा आज महाप्रभु हरिदास जी के पास जा रहे हें, अवश्य कोई विशेष लीला होनी है।
कुटिया में पहुँचते ही महाप्रभु ने कहा -"हरिदास, क्या समाचार है?”
हरिदास जी ने उत्तर दिया- “दास प्रस्तुत है।”
कहते-कहते हरिदास जी ने महाप्रभु और भक्तों को प्रणाम किया।
हरिदास जी दुर्बलता के कारण खड़े नहीं रह सकते थे, चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें बैठाकर भक्तों सहित उनके चारों और नृत्य और हरिनाम संकीर्तन किया।
नृत्य कर रहे है स्वरुप, व्रकेश्वर और स्वयम महाप्रभु, रामानंद और सार्वभोम गान करने लगे।
हरिदास जी उनकी चरणधूलि लेकर अपने सर्वांग में मल रहे है।
हरिदास जी वहाँ धीरे-धीरे लेट गए और धीरे-धीरे महाप्रभु के चरण कमल अपने हृदय पर धारण किये।
महाप्रभु के चरणकमल हाथ से पकड़े हुए हरिदास जी ने अपने दोनों नेत्र प्रभु के मुख चन्द्र पर अर्पित किये और नेत्रों से प्रेमाश्रु विसर्जन करते-करते ‘हा गौरांग, ” कहकर प्राण त्यागे....
भक्तगण हरिदास जी का इस प्रकार निर्याण देखकर अवाक रह गए।
पहले किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि हरिदास जी ने स्वेच्छा से शरीर त्याग किया है।
मृत्यु पर भक्त की विजय और उसकी महिमा में वृद्धि देख महाप्रभु के हृदय में आनंद नहीं समां रहा और साथ ही जिस भक्त पर वे इतना गर्व करते थे, जिसके दर्शन कर वे तृप्ती अनुभव करते थे उनके संग से सहसा वंचित हो जाने के कारण अत्यंत दुखी भी थे।
आनंद एंवम विषाद के बीच महाप्रभु ने हरिदास जी के मृत शरीर को गोद में लेकर नृत्य आरम्भ किया उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे।
भक्त ही उनके सब कुछ है, प्रत्येक भक्त के लिए उनका प्रेम अनंत है।
नृत्य समाप्त कर महाप्रभु ने हरिदास जी का गुणगान कर अपने हृदय की व्यथा को शांत किया।
थोड़ी देर बाद हरिदास जी के शरीर को समुद्र की ओर ले चले।
चैतन्य महाप्रभु आगे नृत्य करते जा रहे है, पीछे-पीछे भक्तवृन्द जा रहे है।
प्रभु ने समुद्र तट पर जाकर हरिदास की देह को स्नान कराया ओर महाप्रभु बोले- “आज से यह समुद्र महातीर्थ हुआ।”
तब समुद्र तीर पर बालुका में हरिदास जी को समाधि दी।
हरिदास जी को माला ओर चंदन अर्पण कर उनका चरणोदक पीकर भक्तों ने उनके शरीर को समाधि में शयन कराया।
महाप्रभु ने अपने हाथ से समाधि में बालुका दी।
भक्तों सहित ‘हरि बोल, हरि बोल” की ध्वनि के साथ समाधि की परिक्रमा करते हुए नृत्य कीर्तन किया तथा उसके पश्चात सबने समुद्र स्नान किया ओर पुन: समाधि की परिक्रमा कर कीर्तन करते हुए श्री जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार पर पंसारियो की जो दुकानें है उनसे महाप्रभु ने भिक्षा देने को कहा।
पंसारी डलिया भर-भर कर भिक्षा देने लगे।
महाप्रभु को स्वयं भिक्षा करते देख भक्त बहुत दुखी हुए, उन्होंने महाप्रभु से हाथ जोड़कर निवेदन किया "प्रभु आप अपने स्थान पर चले हम भिक्षा लेकर आते है।"
महाप्रभु स्वरुप गोस्वामी के मुख की ओर देखकर उच्च स्वर से रो पड़े मानो कह रहे हो अपने प्रिय हरिदास के उत्सव के लिए भिक्षा करने को मना कर तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो।
प्रभु को दुखी मन से अपने स्थान जाना पड़ा।
विराट महोत्सव हुआ, महाप्रभु ने अपने हाथ से
महाप्रसाद परोसना आरम्भ किया।
फिर भक्तों के साथ महाप्रभु प्रसाद पा रहे है ओर उच्च स्वर में हरिदास जी के गुणों का कीर्तन कर रहे है।
महोत्सव समाप्त होने पर महाप्रभु ने सबको वरदान देते हुए कहा- “हरिदास के निर्याण का जिन्होंने दर्शन किया, नृत्य कीर्तन किया, उनकी समाधी में बालू दी ओर जिन्होंने उनके महोत्सव में महाप्रसाद पाया उन सबको जल्दी ही श्री कृष्ण की प्राप्ति होगी।”
'जय श्री कृष्ण' 'जय श्री चैतन्य हरिदास'

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