Enlightened Masters

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ॐ नमः शिवायः

सात चीजें जो क्वांटम भौतिकी के दृष्टिकोण से आपकी कंपन आवृत्ति को प्रभावित करती हैं।

क्वांटम भौतिकी में कंपन का मतलब है कि सब कुछ ऊर्जा है। हम कुछ निश्चित आवृत्तियों पर जीवंत प्राणी हैं। प्रत्येक कंपन एक भावना के बराबर है और दुनिया में "कंपन", कंपन (Vibrations) की केवल दो प्रजातियां हैं, सकारात्मक और नकारात्मक। कोई भी भावना आपको एक कंपन को प्रसारित करती है जो सकारात्मक या नकारात्

मक हो सकती है।

🌺 1--विचार🌺
प्रत्येक विचार ब्रह्मांड के लिए एक आवृत्ति का उत्सर्जन करता है और यह आवृत्ति वापस मूल में जाती है, इसलिए यदि आपके पास नकारात्मक विचार, हतोत्साह, उदासी, क्रोध, भय है, तो यह सब आपके पास आता है। यही कारण है कि यह इतना महत्वपूर्ण है कि आप अपने विचारों की गुणवत्ता का ध्यान रखें और सीखें कि कैसे अधिक सकारात्मक विचारों की खेती करें।

🌺 2--संगति🌺

आपके आसपास के लोग आपकी कंपन आवृत्ति को सीधे प्रभावित करते हैं। यदि आप खुश, सकारात्मक और दृढ़ लोगों के साथ खुद को घेरते हैं, तो आप इस कंपन में भी प्रवेश करेंगे। अब, अगर आप शिकायत करने वाले, गपशप करने वाले और निराशावादी लोगों से घिरे हैं, तो सावधान हो जाइए! वास्तव में, वे आपकी आवृत्ति को कम कर सकते हैं और इसलिए आपको अपने पक्ष में आकर्षण के कानून का उपयोग करने से रोकते हैं। ( Law of attraction)।

🌺 3--संगीत 🌺
संगीत बहुत शक्तिशाली है। यदि आप केवल संगीत सुनते हैं जो मृत्यु, विश्वासघात, उदासी, परित्याग के बारे में बात करता है, तो यह सब उस चीज़ में हस्तक्षेप करेगा जो आप महसूस कर रहे हैं। आपके द्वारा सुने जाने वाले संगीत के बोलों पर ध्यान दें, यह आपकी कंपन आवृत्ति को कम कर सकता है। और याद रखें: आप अपने जीवन में जैसा महसूस करते हैं वैसा ही आकर्षित करते हैं।

🌺 4--जिन चीजों को आप देखते हैं 🌺
जब आप दुर्भाग्य, मृत, विश्वासघात आदि से निपटने वाले कार्यक्रमों को देखते हैं, तो आपका मस्तिष्क इसे एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है और आपके शरीर में एक संपूर्ण रसायन विज्ञान जारी करता है, जो आपकी कंपन आवृत्ति को प्रभावित करता है। उन चीजों को देखें जो आपको अच्छा लगता है और आपको उच्च आवृत्ति पर कंपन करने में मदद करता है।

🌺 5--माहौल 🌺
चाहे वह घर पर हो या काम पर, अगर आप गंदे और गंदे माहौल में बहुत समय बिताते हैं, तो यह आपकी कंपन आवृत्ति को भी प्रभावित करेगा। अपने परिवेश को सुधारें, अपने परिवेश को व्यवस्थित करें और साफ करें। ब्रह्मांड दिखाओ कि आप अधिक प्राप्त करने के लिए फिट हैं। आपके पास जो पहले से है उसका ख्याल रखें!

🌺 6--शब्द 🌺
यदि आप चीजों और लोगों के बारे में गलत दावा करते हैं या बोलते हैं, तो यह आपकी कंपन आवृत्ति को प्रभावित करता है। अपनी आवृत्ति को उच्च रखने के लिए, दूसरों के बारे में शिकायत और बुरी बात करने की आदत को खत्म करना आवश्यक है। इसलिए नाटक और धमकाने से बचें। अपने जीवन के विकल्पों के लिए अपनी जिम्मेदारी मान लें!

🌺 7-- अहोभाव 🌺
आभार सकारात्मक रूप से आपकी कंपन आवृत्ति को प्रभावित करता है। यह एक ऐसी आदत है जिसे आपको अब अपने जीवन में एकीकृत करना चाहिए। हर चीज के लिए, अच्छी चीजों के लिए और जिसे आप बुरा मानते हैं, उसके लिए धन्यवाद देना शुरू करें, आपके द्वारा अनुभव किए गए सभी अनुभवों के लिए धन्यवाद। कृतज्ञता आपके जीवन में सकारात्मक चीजों के होने का द्वार खोलती है।

26/07/2025
आनन्दरामायणम्〰️〰️🌼🌼〰️〰️श्रीसीतापतये नमःश्रीवाल्मीकि महामुनि कृत शतकोटि रामचरितान्तर्गतं ('ज्योत्स्ना' हृया भाषा टीकयाऽटी...
26/07/2025

आनन्दरामायणम्
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श्रीसीतापतये नमः

श्रीवाल्मीकि महामुनि कृत शतकोटि रामचरितान्तर्गतं ('ज्योत्स्ना' हृया भाषा टीकयाऽटीकितम्)

(सारकाण्डम्)

तृतीय सर्गः

( दशरथ-कौसल्याविवाह तथा ऋष्यशृङ्ग द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ)...(दिन 11)
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वे हाथ जोड़कर इस प्रकार मधुर वाणीमें कहने लगे है गजगामिनी और कमलनयनी सीता तुम धन्य हो ॥ १३८ ॥

सूर्ययशा दशरथपुत्र रामने सभामें धनुष तोड़ डाला। जल्दी उठकर खड़ी हो जाओ ।॥ १३६ ॥

हथिनी पर चढ़कर अभी राम के पास चलना है। वहाँ चलकर आनन्दपूर्वक अभी उनके गले में यह रत्नों की माला (वरमाला) डाल दो ॥ १४० ॥

सीता ने मन्त्रियो के इस वाक्य को सुनकर माताके चरणोंमें नमस्कार किया और सहपं सखियोंके साथ हथिनीकी पीउपर सवार हो गयी ॥ १४१ ॥

उनके आगे तथा पीछे नाना प्रकारके मनोहर बाजे बजने लगे ॥ १४२ ॥

रङ्ग-विरङ्गी पगड़िये बांधे और हाथ में वेत लिये अन्तःपुरके संकड़ों दरवान हथिनीके आगे-आगे जोरसे बिल्लाते हुए चलने लगे ॥ १४३ ॥

वे रास्ते में सीता को देखने के लिये खड़ी भीड़को छुटा रहे थे। बेश्यायें नाचने लगी। विविध वाद्योंके निनाद होने लगे। भांट स्तुति करने और नट गाने लगे। सीताकी हजारों दासियोंने उन्हें घेर लिया ।। १४४ ॥ १४५ ।।

उनके पीछे अश्वपर सवार तथा सुवर्णभूषित चमर आदि लिये हुए बहुतसी स्त्रिये तथा उनके पीछे घोड़ोंपर सवार सैकड़ों उपमातायें (दाइयाँ) चलीं ॥ १४६ ।।

उनके पीछे शस्त्रवारिणी तथा सोनेको छड़िये लिये हुए सैकड़ों बूढ़ी स्त्रिये चलीं ।उनके बाद जवान स्त्रियें पुरुषका वेष वनाये और हाथमें शस्त्र लिये हुए चलीं। उनके बाद उसी बेषमें मुल ढांके और कुरता पहिने घोड़ोंपर सवार होकर अस्त्र लिये हुए कुछ सुन्दरी स्त्रियें चलीं ॥ १४७॥ १४८ ॥

सबके पीछे विविध वाहनोंपर सवार मन्त्रिगण अपनी-अपनी सेना के द्वारा सीताकी हथिनीको घेरे हुए चले ।। १४९ ।।

सखोगण चंवर तथा पंजे सीताजीपर दुलाने लगीं। नगरकी स्त्रियें गवाक्षमार्गसे उनपर फूल बरसाने लगीं ।। १५० ।।

इस तरह अनेक प्रकारसे सज-धजकर धीरे-धीरे बिजली के सदृश दीप्तिवाली तथा दाहिने हाथमें नवरलोंका हार लिये हुए अपने नेत्रकटाक्षोंसे रामको देखती हुई सीता सभामण्डपके पास जा तथा हथिनी से उतरकर बोरे-धीरे रामके पास गयीं और लज्जापूर्वक अपने हाथोसे उनके गलेमें बहु रत्नोंकी माला डाल दी ॥ १५१-१५३ ॥

तत्पश्चात् रामके चरणोंपर अपना सिर रख तथा नमस्कार करके सभामें लज्जावश कुछ नीचा मुल किये हुए खड़ी हो गयीं ॥ १५४ ॥

उस हार से सुशोभितहृदय राम ने भी सीता की ओर देखा और अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन्होंने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया ॥ १५५ ॥

मुनियों के ईश्वर विश्वामित्र ने राम को आलिङ्गन करके प्रेमसे गोदमें बिठाया और उनका सिर मूषा ॥ १५६ ॥

तव राजा जनकने सीताको भी ले जाकर विश्वामित्रजीकी गोदमें बैठा दिया। उस समय सीता तया रामके सहित विश्वामित्रजी बड़ी ही शोभाको प्राप्त हुए ॥ १५७ ॥

वे मन ही मन अपने जन्मको सफल समझने लगे। तदनन्तर राजा जनकने सभामें विश्वामित्रसे कहा- ॥ १५८ ॥

हे मुनिराज । आपकी कृपासे आज मुझे रामचन्द्र जैसा दामाद प्राप्त हुबा है। मैं अपनेको, अपने माता-पिताको तया अपने कुलको धन्य समझता हूँ ।॥ १५९ ॥

क्रमशः...
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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 〰️〰️🌼〰️🌼〰️🌼〰️〰️ब्राह्मखण्ड (सेतु-महात्म्य)रामेश्वर नामक महालिंगकी महिमा...(भाग 2) 〰️〰️🌼〰️〰...
26/07/2025

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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ब्राह्मखण्ड (सेतु-महात्म्य)

रामेश्वर नामक महालिंगकी महिमा...(भाग 2)
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वही सब वर्णों और सब आश्रमके लोगोंको दर्शनशास्त्रके श्रवणजनित ज्ञानके बिना ही केवल रामेश्वर महालिंगके दर्शनसे ही प्राप्त हो जाती है। योगयुक्त ऊर्ध्वरेता मुनियोंकी जो गति होती है, वही भगवान् रामेश्वरका दर्शन करनेवाले समस्त प्राणियोंकी होती है। जो मनुष्य रामेश्वर शिवके क्षेत्रकी प्रसन्नतापूर्वक यात्रा करते हैं, उन्हें पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका पुण्य प्राप्त होता है। अम्बा-पार्वतीसहित परम दयालु रामेश्वर महालिंगरूप भगवान् शिवमें भक्ति होनी अत्यन्त दुर्लभ है, उनकी पूजाका शुभ अवसर भी दुर्लभ है तथा उनका स्तवन और स्मरण भी अत्यन्त दुर्लभहै। जिसकी बुद्धि निरन्तर रामेश्वर महालिंगका चिन्तन करती है, वही इस पृथ्वीपर धन्यातिधन्य पुरुष है। श्रीरामेश्वर महालिंगका दर्शन करनेवाले पुरुषके दर्शनमात्रसे दूसरे प्राणियोंका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो प्रातः काल उठकर तीन बार रामनाथ (रामेश्वर) शब्दका उच्चारण करता है, उसका पहले दिनका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। यदि प्राणत्यागके समय मनुष्य भगवान् रामेश्वरका स्मरण करे, तो फिर उसका जन्म नहीं होता। 'रामनाथ ! महादेव ! करुणानिधे ! सदा मेरी रक्षा कीजिये।' इस प्रकार जो सदा उच्चारण करता है, वह कलियुगसे पीड़ित नहीं होता। 'रामनाथ! जगन्नाथ ! धूर्जटे ! नीललोहित!' जो इस प्रकार सदा बोलता है, उसे माया नही सताती। 'नीलकण्ठ ! महादेव ! रामेश्वर ! सदाशिव!' सदा ऐसा बोलनेवाला प्राणी कभी कामसे कष्ट नहीं पाता। 'हे रामेश्वर! हे यमराजके शत्रु ! हे कालकूट विषका भक्षण करनेवाले शिव!' प्रतिदिन इस प्रकार उच्चारण करनेवाला पुरुष कभी क्रोधसे पीड़ित नहीं होता। जो स्फटिक आदि भिन्न-भिन्न शिलाओंसे भगवान् रामेश्वरका मन्दिर बनाता है, वह श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान् शिवके लोकको जाता है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक त्रिशूलधारी भगवान् रामेश्वरके स्नानके समयमें रुद्राध्याय, चमक, पुरुषसूक्त, त्रिसुपर्ण, पंचशान्ति तथा पावमानी आदि ऋचाओंको प्रेमपूर्वक जपता है, वह कभी नरकका कष्ट नहीं भोगता है। जो रामेश्वर महालिंगको गायके दूधसे स्नान कराता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके शिवलोकमें पूजित होता है। दहीसे स्नान करानेवाला पुरुष सब पापोंसे छूटकर भगवान् विष्णुके लोकमें प्रतिष्ठित होता है। रामेश्वर शिवको नारियलके जलसे कराया हुआ स्नान ब्रह्महत्या आदि पापोंका नाशक बताया गया है। वस्त्रसे छानकर शुद्ध किये हुए जलके द्वारा रामेश्वर महादेवको स्नान करानेवाला पुरुष वरुणलोकमें जाता है। पुष्पोंके सुगन्धसे वासित जलके द्वारा दयानिधान रामेश्वर महालिंगको स्नान करानेवाला मनुष्य शिवलोकमें पूजित होती है।

क्रमशः...
शेष अगले अंक में जारी
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श्रीमहाभारतम् 〰️〰️🌼〰️〰️।। श्रीहरिः ।।* श्रीगणेशाय नमः *।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।(आस्तीकपर्व)द्विचत्वारिंशोऽध्यायःशमीक का ...
26/07/2025

श्रीमहाभारतम्
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।

(आस्तीकपर्व)

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः

शमीक का अपने पुत्र को समझाना और गौरमुख को राजा परीक्षित्‌ के पास भेजना, राजा द्वारा आत्मरक्षा की व्यवस्था तथा तक्षक नाग और काश्यप की बातचीत...(दिन 140)
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तत्र रक्षां कुरुष्वेति पुनः पुनरथाब्रवीत् । तदन्यथा न शक्यं च कर्तुं केनचिदप्युत ।। २१ ।।

इस दशामें आप अपनी रक्षाकी व्यवस्था करें। यह मुनिने बार-बार कहा है। उस शापको कोई भी टाल नहीं सकता ।। २१ ।।

न हि शक्नोति तं यन्तुं पुत्रं कोपसमन्वितम् । ततोऽहं प्रेषितस्तेन तव राजन् हितार्थिना ।। २२ ।।

स्वयं महर्षि भी क्रोधमें भरे हुए अपने पुत्रको शान्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः राजन्! आपके हित की इच्छा से उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है ।। २२ ।।

सौतिरुवाच

इति श्रुत्वा वचो घोरं स राजा कुरुनन्दनः ।
पर्यतप्यत तत् पापं कृत्वा राजा महातपाः ।। २३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं- यह घोर वचन सुनकर कुरुनन्दन राजा परीक्षित् मुनिका अपराध करनेके कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे ।। २३ ।।

तं च मौनव्रतं श्रुत्वा वने मुनिवरं तदा ।
भूय एवाभवद् राजा शोकसंतप्तमानसः ।। २४ ।।

वे श्रेष्ठ महर्षि उस समय वनमें मौन व्रतका पालन कर रहे थे, यह सुनकर राजा परीक्षित्‌का मन और भी शोक एवं संतापमें डूब गया ।। २४ ।।

अनुक्रोशात्मतां तस्य शमीकस्यावधार्य च ।
पर्यतप्यत भूयोऽपि कृत्वा तत् किल्बिषं मुनेः ।। २५ ।।

शमीक मुनिकी दयालुता और अपने द्वारा उनके प्रति किये हुए उस अपराधका विचार करके वे अधिकाधिक संतप्त होने लगे ।। २५ ।।

न हि मृत्युं तथा राजा श्रुत्वा वै सोऽन्वतप्यत ।
अशोचदमरप्रख्यो यथा कृत्वेह कर्म तत् ।। २६ ।।

देवतुल्य राजा परीक्षित्‌को अपनी मृत्युका शाप सुनकर वैसा संताप नहीं हुआ जैसा कि मुनिके प्रति किये हुए अपने उस बर्तावको याद करके वे शोकमग्न हो रहे थे ।। २६ ।।

ततस्तं प्रेषयामास राजा गौरमुखं तदा ।
भूयः प्रसादं भगवान् करोत्विह ममेति वै ।। २७ ।।

तदनन्तर राजाने यह संदेश देकर उस समय गौरमुखको विदा किया कि 'भगवान् शमीक मुनि यहाँ पधारकर पुनः मुझपर कृपा करें' ।। २७ ।।

तस्मिंश्च गतमात्रेऽथ राजा गौरमुखे तदा ।
मन्त्रिभिर्मन्त्रयामास सह संविग्नमानसः ।। २८ ।।

गौरमुखके चले जानेपर राजाने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियोंके साथ गुप्त मन्त्रणा की ।। २८ ।।

सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिश्चैव स तथा मन्त्रतत्त्ववित् ।
प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम् ।। २९ ।।

मन्त्र-तत्त्वके ज्ञाता महाराजने मन्त्रियोंसे सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; जिसमें एक ही खंभा लगा था। वह भवन सब ओरसे सुरक्षित था ।। २९ ।।

रक्षां च विदधे तत्र भिषजश्चौषधानि च ।
ब्राह्मणान् मन्त्रसिद्धांश्च सर्वतो वे न्ययोजयत् ।। ३० ।।

राजाने वहाँ रक्षाके लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकारकी ओषधियाँ जुटा लीं और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणोंको सब ओर नियुक्त कर दिया ।। ३० ।।

राजकार्याणि तत्रस्थः सर्वाण्येवाकरोच्च सः ।
मन्त्रिभिः सह धर्मज्ञः समन्तात् परिरक्षितः ।। ३१ ।।

वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओर से सुरक्षित हो मन्त्रियों के साथ सम्पूर्ण राज-
कार्य की व्यवस्था करने लगे ।। ३१ ।।

न चैनं कश्चिदारूढं लभते राजसत्तमम् ।
वातोऽपि निश्चरंस्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते ।। ३२ ।।

उस समय महलमें बैठे हुए महाराजसे कोई भी मिलने नहीं पाता था। वायुको भी वहाँसे निकल जानेपर पुनः प्रवेशके समय रोका जाता था ।। ३२ ।।

प्राप्ते च दिवसे तस्मिन् सप्तमे द्विजसत्तमः ।
काश्यपोऽभ्यागमद् विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम् ।। ३३ ।।

सातवाँ दिन आनेपर मन्त्रशास्त्रके ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ काश्यप राजाकी चिकित्सा करने के लिये आ रहे थे ।। ३३ ।।

श्रुतं हि तेन तदभूद् यथा तं राजसत्तमम् ।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्यते यमसादनम् ।। ३४ ।।

उन्होंने सुन रखा था कि 'भूपशिरोमणि परीक्षित्‌को आज नागोंमें श्रेष्ठ तक्षक यमलोक पहुँचा देगा' ।। ३४ ।।

तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण करिष्येऽहमपज्वरम् ।
तत्र मेऽर्थश्च धर्मश्च भवितेति विचिन्तयन् ।। ३५ ।।

अतः उन्होंने सोचा कि नागराजके डॅसे हुए महाराजका विष उतारकर मैं उन्हें जीवित कर दूँगा। ऐसा करनेसे वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजाको जिलानेसे धर्म भी होगा ।। ३५ ।।

तं ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षकः काश्यपं पथि ।
गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोऽतिगः ।। ३६ ।।

तमब्रवीत् पन्नगेन्द्रः काश्यपं मुनिपुङ्गवम् ।
क्व भवांस्त्वरितो याति किं च कार्य चिकीर्षति ।। ३७ ।।

मार्गमें नागराज तक्षकने काश्यपको देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुरकी ओर बढ़े जा रहे थे। तब नागराजने बूढ़े ब्राह्मणका वेश बनाकर मुनिवर काश्यपसे पूछा- 'आप कहाँ बड़ी उतावलीके साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?' ।। ३६-३७ ।।

काश्यप उवाच

नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिन्दमम् ।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाद्य प्रधक्ष्यति ।। ३८ ।।

काश्यपने कहा-कुरुकुलमें उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित्‌को आज नागराज तक्षक अपनी विषाग्निसे दग्ध कर देगा ।। ३८ ।।

तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसा ।
पाण्डवानां कुलकरं राजानममितौजसम् ।
गच्छामि त्वरितं सौम्य सद्यः कर्तुमपज्वरम् ।। ३९ ।।

वे राजा पाण्डवोंकी वंशपरम्पराको सुरक्षित रखने वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। अतः सौम्य ! अग्निके समान तेजस्वी नागराजके डॅस लेनेपर उन्हें तत्काल विषरहित करके जीवित कर देनेके लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ ।। ३९ ।।

तक्षक उवाच

अहं स तक्षको ब्रह्मस्तं धक्ष्यामि महीपतिम् ।
निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् ।। ४० ।।

तक्षक बोला- ब्रह्मन् ! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजाको भस्म कर डालूँगा। आप लौट जाइये। मैं जिसे डॅस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते ।। ४० ।।

काश्यप उवाच

अहं तं नृपतिं गत्वा त्वया दष्टमपज्वरम् ।
करिष्यामीति में बुद्धिर्विद्याबलसमन्विता ।। ४१ ।।

काश्यपने कहा- मैं तुम्हारे डॅसे हुए राजाको वहाँ जाकर विषसे रहित कर दूँगा। यह विद्याबलसे सम्पन्न मेरी बुद्धिका निश्चय है ।। ४१ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि काश्यपागमने द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। ४२ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें काश्यपागमनविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ४२ ।।

क्रमशः...
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🟦  श्रीराधाचरितामृतम् --- भाग 88  🟦🔷▶️ उद्धव का दिव्य प्रेमानुभव ◀️🔷🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻मैं उद्धव कितना बन ठन कर आया थ...
26/07/2025

🟦 श्रीराधाचरितामृतम् --- भाग 88 🟦
🔷▶️ उद्धव का दिव्य प्रेमानुभव ◀️🔷
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मैं उद्धव

कितना बन ठन कर आया था मथुरा सेअहंकार था मेरे मन में ज्ञान का अहंकार, देवगुरु का शिष्यत्व प्राप्त था मुझे

ज्ञान के बिना मनुष्य पशु है ज्ञान के बिना मुक्ति कहाँ

अब हँसी आती है मुझे – प्रेम के सम्बन्ध में मैने कभी सोचा भी नही।

हाँ सोचता भी कैसे ? अहंकार प्रेम पर सोचने की इजाज़त कहाँ देता है

“सर्वत्र ब्रह्म का दर्शन करो“और यही है ज्ञान की चरम अवस्था।

मैं देवगुरु का शिष्य होकर भी ज्ञान के चरम पर नही पहुँच पाया था

पर मेरे नाथ ने मुझ पर कृपा करयहाँ भेज दिया ठीक किया वो मेरा हित अनहित सब जानते हैं

अद्भुत है ये श्रीधाम और अद्भुत हैं यहाँ के लोग मेरी सदगुरुदेव श्रीराधारानी हैं हाँ मैने कल से ही उन्हें अपनी गुरु मान लिया है और देवगुरु भी मेरे इस निर्णय से प्रसन्न ही होंगें उन्हें भी कहाँ प्राप्त हुए होंगें ये चारु चरण

श्रीराधारानी के पीछे पीछे चल रहे हैं उद्धव उनके बन रहे चरण चिन्हों को बचाते हुए चल रहे हैं।

मेरे ऊपर कृपा की है मेरी गुरुदेव श्रीराधारानी ने मुझे सम्पूर्ण बृज भूमि के दर्शन करने हैं अब

पर उद्धव एक दो दिन में ये सम्भव नही है सम्पूर्ण बृज की लीलास्थली का दर्शन करना है तो कुछ मास यहीं वास करना पड़ेगा मेरी श्रीराधारानी ने पीछे मुड़कर मुझे कहा था।

अब मुझे जल्दी नही है मुझे जो पाना था उसे मैने पा लिया अब तो मुझे आनन्द से लीला स्थलीयों का दर्शन कर जीवन को प्रेम तत्व में समर्पित कर देना है।

फिर ठीक है श्रीराधारानी ने कहा और अपनें महल की सीढ़ियों में चढ़नें लगीं थीं।

मुझे रोमांच हो रहा था उन महल की सीढ़ी चढ़ते हुए।

“ये बरसाना है“मेरी स्वामिनी बोलीं थीं

ओह ये बरसाना है मैं उन सीढ़ियों पर ही लेटकर प्रणाम करनें लगा यहाँ के कण कण से “राधा राधा राधा” यही नाम गूँज रहा था।

हे वज्रनाभ उद्धव जी बरसाना आगये थे अब उन्हें सम्पूर्ण बृज मण्डल भ्रमण करना था जो जो लीलाएं , जहाँ जहाँ की हैं उनके प्राणधन नें उन स्थलियों के दर्शन करने थे सो श्रीराधा जी और उनकी सखियाँ उद्धव को बरसाना ले आई थीं।

महल के ही अत्यन्त निकट एक बाग थाश्रीराधा बाग।

ये बाग श्रीराधारानी की क्रीड़ास्थली थी यमुना यहीं से बहती थीं बड़े सुन्दर सुन्दर वृक्ष थे , लताएँ थीं वहाँ रँग विरंगें पक्षी भी थे

उस बाग के मध्य में एक सुन्दर सा भवन था मेरे ऊपर कितनी कृपा की थीं इन आल्हादिनी स्वामिनी ने उसी भवन में मुझे ठहराया

“ये कृष्ण सखा हैं“

श्रीराधारानी के माता पिता वो भी मुझ से मिलनें आगये थे बाग़ में हीतब मेरा परिचय दिया था श्रीजी ने

मैनें उठकर उनके चरण छूनें चाहे पर कहाँ मुझे चरण छूनें देते।

उन्होंने मुझे उठाकर अपनें हृदय से लगा लिया थाश्री बृषभान जी ने।

बिल्कुल कन्हाई जैसा है ना ? माँ कीर्ति रानी का कहना था।

कब आएगा कन्हाई ? आएगा ना ? कीर्तिरानी भावुक हो गयीं थीं।

बेचारे नन्दराय बेचारी यशोदा जीजी उनका दुःख अब हमसे देखा नही जाता दिन भर बस रोती रहती हैं माखन ही निकालती रहती है कहती है मेरा कन्हाई आएगा।

कीर्तिरानी ये सब कह रही थीं कि तभी श्रीराधारानी के सुबुकने की आवाज पर सब शान्त हो गए थे

धीरे से बोलीं कीर्तिरानी – कृष्ण सखा किसके दुःख को गाऊँ घर में हमारी लाली दिन भर रोती रहती है उन्माद चढ़ा रहता है पर श्रीराधा रानी को सामनें देखते ही कीर्तिरानी चुप हो गयीं।

थक गए होगे कृष्ण सखे ये भोजन है कुछ खा कर सो जाओ।

ललिता सखी भोजन ले आई थींबृषभान जी ने भोजन करके विश्राम करने को कहाउद्धव से विदा लेकर महल में चले गए थे।

श्रीराधारानी के साथ अष्टसखियाँ भी थींउन्होंनें भोजन कराया उद्धव कोश्रीराधारानी देखती रहींहाथ धुलाकर सखियाँ जानें लगीं तो श्रीराधारानी नें कहा उद्धव यही बरसाना है मैं जब नन्दगाँव नही जाती थी तो वो यहाँ आजाते थे।

उधर देखो उस यमुना के घाट पर नित्य शाम को हम मिलते थे

वो देखो साँकरी खोर

मैने बहुत जिद्द की थी कि मैं माखन बेचनें जाऊँगीमेरे बाबा और मेरी मैया नही मानेंउनका कहना था कि बरसानें के अधिपति बृषभान कि बेटी माखन बेचनें जायेगी पर मेरे भैया श्रीदामा नें मेरा बहुत साथ दिया उन्होंने ही मेरे मैया और बाबा को समझा कर मुझे माखन बेचनें जानें कि आज्ञा दे दीमैं बहुत खुश थी मेरा प्रयोजन माखन बेचना थोड़े ही था मुझे तो नित्य श्याम सुन्दर के दर्शन करनें थे पर ये कहते हुए श्रीराधारानी हँसी खूब हँसी साँकरी खोर इसी साँकरी खोर में प्रथम दिन ही मेरी मटकी फोड़ दी थी उसनें मेरी सब सखियाँ बहुत दुःखी हो गयीं थीं बस मैं ही बहुत प्रसन्न थी मैं उस दिन बहुत आनन्दित रही फिर तो – नित्य का ही ये नियम ही बन गया था श्याम सुन्दर को देखे बिना चैन कहाँ मिलता।

उद्धव पहली बार जब मैने उन्हें देखा था ना उन्मादिनी तो मैं तभी हो गयी थीमैं शुरू से ही ऐसी पगली हूँएक दिन कुञ्जों में हम दोनों बैठे थे मैं उनके बाहों में थी वो मुझे निहारते ही जा रहे थेपर पता नही मुझे क्या हुआ मैं चिल्ला पड़ी हे श्याम सुन्दर कहाँ गए ? मेरे बाँहों में वो थे पर मुझे लग रहा था कि वो मुझ से दूर चले गएपर आज?

श्रीराधारानी कहती हैं – आज मुझे लगता है वो मेरे पास हैं वो मेरी बाँहों में हैं

अब चलें स्वामिनी जू ललिता सखी ने श्रीराधा से कहा।

उद्धव मेरा उन्माद इन मेरी प्यारी सखियों को कितना कष्ट देता होगा ये बहुत स्नेह मयी हैं मेरे लिये वन वन में भटकती रहती हैं मेरे साथ अँधेरी रात में भी कहीं भी चल देती हैं रात रात भर सोती नही हैं मेरा ख्याल रखती हैं ओह मैं इन्हें क्या सुख दे पाऊँगी मैने इन्हें भी सदैव कष्ट ही दिया है मैने सब को कष्ट ही तो दिया है तभी मुझे छोड़कर चले गए मेरे कृष्ण बहुत मानिनी हो गयी थी मैं अपनें श्याम सुन्दर को भी मैने बहुत दुःखी किया मैं जिद्दी वो सरल कितना हा हा खाते थे मेरे पाँव तक दवाते थे वे ओह ठीक किया उन्होंने जो मुझ जैसी को छोड़कर चले गए

इतना कहते हुये हा कृष्ण ये शब्द श्रीराधारानी के मुँह से निकला और वो मूर्छित ही हो गयीं।

सखियों ने उन्हें सम्भालाऔर महल में ले गयीं थीं।

श्रीराधारानी के चरण की धूल उद्धव नें अपनें माथे से लगा यमुना किनारे आकर बैठ गए थे रात्रि घनी हो रही है।

चिन्तन करते हैं उद्धव – प्रेम का साकार रूप हैं श्रीराधारानी

उनके मुखारविन्द से जो भी प्रकट होता है वो प्रेम के सूत्र हैं – सिद्धान्त हैं आहा प्रेम उद्धव रात्रि में बरसानें यमुना के किनारे बैठकर चिन्तन कर रहे हैं

यहाँ के परमाणु में बहुत कुछ है प्रेम सहज है यहाँ के वातावरण में।

संयोग में वियोग, और वियोग में संयोग ये अनुभूति प्रेम कि है।

उद्धव चिन्तन करते हैं जो जो श्रीराधारानी अभी कहकर गयीं हैं

“जब श्याम मेरे बाँहों में थे तब लगता था कि वो कहीं चले न जाएँ आज वो चले गए तब लगता है यहीं कहीं हैं “

ये अभी अभी कहकर गयीं श्रीराधिका जी

प्रेम की स्थिति विलक्षण हैप्रेम को इतना सरल नही है समझना मैं उद्धव जितना सरल समझता हूँ उतना सरल है कहाँ?

ज्ञान कठिन है प्रेम सरल है यही सोच थी मेरी

पर यहाँ आकर पता चलाकि प्रेम सबसे कठिन मार्ग है।

अपनें आपको बर्बाद करके चलना पड़ता है इस मार्ग मेंअपनें “मैं” को बिना मिटाये इस मार्ग में पैर भी रखना मना है।

इस प्रेम गली में वही आसकता हैजो मान अपमान को खूंटे में लटकाकर चलता है

यमुना बह रही हैंयमुना नही उद्धव को ऐसा लगता है मानों कृष्ण ही स्वयं बह रहे हैं इस यमुना में तो।

उद्धव पूरी रात बरसानें में यमुना के तट पर बैठे रहे प्रेम नें उन्हें छू लिया है और बदल दिया है।

हे वज्रनाभ उद्धव छ महिनें तक वृन्दावन में ही रहे कभी बरसानें रहे कभी नन्दगाँव , कभी गोवर्धन इस तरह से पूर्ण प्रेमी उद्धव बन गए थे प्रेम है ही ऐसा तत्व।

🌼
क्रमशः हरिशरणजी, ज्ञानजी, राधे राधे जी

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🕉🆑🕉ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🕉🆑🕉
🕉 नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि 🕉
🕉 प्रधुम्नायनिरुध्धाय नमः संकर्षणाय च 🕉
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 #सम्पूर्ण_श्रीमद्भागवत_महापुराण  #पोस्ट_109                           🕉 पञ्चम स्कन्ध: 🕉 द्वादश अध्यायः 🕉🟦 श्रीमद्भागवत ...
26/07/2025

#सम्पूर्ण_श्रीमद्भागवत_महापुराण #पोस्ट_109 🕉 पञ्चम स्कन्ध: 🕉 द्वादश अध्यायः 🕉

🟦 श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध:
द्वादश अध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद 🟦

▶️ "रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान" ◀️

राजा रहूगण ने कहा ;- भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत् का उद्धार करने के लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर! अपने परमानन्दमयस्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूल शरीर से उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमयस्वरूप को जनसाधारण की दृष्टि से ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

ब्रह्मन्! जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमानरूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं।

देव! मैं आपसे अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसी को सरल करके समझाइये, उसे समझने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।

योगेश्वर! आपने जो यह कहा कि भार उठाने की क्रिया तथा उससे जो श्रमफल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होने पर भी केवल व्यवहार मूल के ही हैं, वास्तव में सत्य नहीं है-वे तत्त्व विचार के सामने कुछ भी नहीं ठहरते-सो इस विषय में मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथन का मर्म मेरी समझ में नहीं आया रहा है।

जड भरत ने कहा ;- पृथ्वीपते! यह देह पृथ्वी का विकार है, पाषाणादि से इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारण से पृथ्वी पर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्षःस्थल, गर्दन और कंधे आदि अंग हैं। कंधों के ऊपर लकड़ी की पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नाम का एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करने से तुम ‘मैं सिन्धु देश का राजा हूँ’ इस प्रबल मद से अंधे हो रहे हो। किन्तु इसी से तुम्हारी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तव में तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुःखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करने वाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी में ही लीन होते हैं, अतः उनके क्रियाभेद के कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं-बताओ तो, उनके सिवा व्यवहार का और क्या मूल है?

🟦 श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध:
द्वादश अध्यायः श्लोक 9-16 का हिन्दी अनुवाद 🟦

इस प्रकार ‘पृथ्वी’ शब्द का व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादान कारण सूक्ष्म परमाणुओं में लीन हो जाती है और जिनके मिलने से पृथ्वीरूप कार्य की सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मन से ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तव में उनकी भी सत्ता नहीं है। इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणों से युक्त द्वैत-प्रपंच है-उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामों वाली भगवान् की माया का ही कार्य समझो।

विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसी का नाम ‘भगवान्’ है और उसी को पण्डितजन ‘वासुदेव’ कहते हैं।

रहूगण! महापुरुषों के चरणों की धूलि से अपने को नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादि के दान, अतिथि सेवा, दीन सेवा आदि गृहस्थोचित, धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि या सूर्य की उपासना आदि किसी भी साधन से यह परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि महापुरुषों के समाज में सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणों की चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती और जब भगवत्कथा का नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकांक्षी पुरुष की शुद्ध बुद्धि को भगवान् वासुदेव में लगा देती है।

पूर्वजन्म में मैं भरत नाम का राजा था। एहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों से विरक्त होकर भगवान् की आराधना में ही लगा रहता था, तो भी एक मृग में आसक्ति हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में मृग बनना पड़ा। किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृगयोनि में भी मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसी से अब मैं जनसंसर्ग से डरकर सर्वदा असंग भाव से गुप्तरूप से ही विचरता रहता हूँ। सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोह बन्धन को काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत्स्मृति बनी रहने के कारण वह सुगमता से ही संसारमार्ग को पार करके भगवान् को प्राप्त कर सकता है।

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▶️ काली कमली का रहस्य ◀️         एक बार श्याम सुन्दर को नजर लग गई। अब मैया बहुत परेशान कि ये नजर कैसे दूर हो। बहुत उपाय ...
26/07/2025

▶️ काली कमली का रहस्य ◀️

एक बार श्याम सुन्दर को नजर लग गई। अब मैया बहुत परेशान कि ये नजर कैसे दूर हो। बहुत उपाय किया पर लाला की नजर ना उतरी। तो नंदगांव की पूर्णमासी पुरोहतानी ने कहा अगर बरसाने की राधा का पुराना कपड़ा इसे पहना दिया जाए तो तेरे लाला को नजर नही लगेगी। मैया चल पड़ी बरसाना ये नही सोचा कि सर्दी का मौसम है सुबह जाऊंगी, ना ना लाला को नजर ना लगे वो काम तो पहले करना है।

बरसाने पहुंचकर राधे रानी की मां कीर्ति जी से यशोदा मैया बोली... मेरे लाला को नजर बहुत लगे है। पूर्णमासी पुरोहताईन ने कहा है कि अगर आपकी लाली का कोई पुराना कपड़ा मिल जाए तो मेरे लाला को नजर नही लगेगी। यशोदा मैया की बात सुनकर कीर्ति जी बोली... हाय-हाय ये आप क्या कह रही है, नंद बाबा हमारे राजा है। हम अपनी बेटी का पुराना कपड़ा आपको कैसे दें?

भीतर खड़ी राधा रानी सब सुन रही थी। वो बाहर आकर बोली.. श्याम सुन्दर को नजर ना लगे उसके लिए मैं पुराना कपडा तो क्या अपने प्राण भी दे सकती हूँ..। और सर्दी के कारण राधा रानी ने जो काली कमली ओढ़ रखी थी वही उतारकर यशोदा मैया को दे दी।

तब से हमारा कन्हैया काली कमली ओढ़ कर रखता है। उसे नजर लगती है वो बात नही है.. राधा रानी की प्रसादी काली कमली कभी अपने से अलग नही करते।

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श्रावण मास महात्म्य (सोलहवां अध्याय) 〰️〰️🌸〰️〰️🌸🌸〰️〰️🌸〰️〰️शीतलासप्तमी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथाईश्वर बोले – हे सनत्कुमार...
26/07/2025

श्रावण मास महात्म्य (सोलहवां अध्याय)
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शीतलासप्तमी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं शीतला सप्तमी व्रत को कहूँगा. श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को यह व्रत करना चाहिए. सबसे पहले दीवार पर एक वापी का आकार बनाकर अशरीरी संज्ञक दिव्य रूप वाले सात जल देवताओं, दो बालकों से युक्त पुरुषसंज्ञक नारी, एक घोड़ा, एक वृषभ तथा नर वाहन सहित एक पालकी भी उस पर बना दे. इसके बाद सोलह उपचारों से सातों जल देवताओं की पूजा होनी चाहिए. इस व्रत के साधन में ककड़ी और दधि-ओदन का नैवेद्य अर्पित करना चाहिए. उसके बाद नैवेद्य के पदार्थों में से ब्राह्मण को वायन देना चाहिए. इस प्रकार सात वर्ष तक इस व्रत को करने के बाद उद्यापन करना चाहिए।

इस व्रत में प्रत्येक वर्ष सात सुवासिनियों को भोजन कराना चाहिए. जलदेवताओं की प्रतिमाएं एक सुवर्ण पात्र में रखकर बालकों सहित एक दिन पहले सांयकाल में भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए. प्रातःकाल पहले ग्रह होम करके देवताओं के निमित्त चरु से होम करना चाहिए. जिसने पहले इस व्रत को किया और उसे जो फल प्राप्त हुआ उसे आप सुनें।

सौराष्ट्र देश में शोभन नामक एक नगर था, उसमे सभी धर्मों के प्रति निष्ठां रखने वाला एक साहूकार रहता था. उसने जलरहित एक अत्यंत निर्जन वन में बहुत पैसा खर्च करके शुभ तथा मनोहर सीढ़ियों से युक्त, पशुओं को जल पिलाने के लिए, सरलता से उतरने-चढ़ने योग्य, दृढ पत्थरों से बंधी हुई तथा लंबे समय तक टिकने वाली एक बावली बनवाई. उस बावली के चारों ओर थके राहगीरों के विश्राम के लिए अनेक प्रकार के वृक्षों से शोभायमान एक बाग़ लगवाया लेकिन वह बावली सूखी ही रह गई और उसमे एक बून्द पानी नहीं आया. साहूकार सोचने लगा कि मेरा प्रयास व्यर्थ हो गया और व्यर्थ ही धन खर्च किया. इसी चिंता में विचार करता हुआ वह साहूकार रात में वहीँ सो गया तब रात्रि में उसके स्वप्न में जल देवता आए और उन्होंने कहा कि “हे धनद ! जल के आने का उपाय तुम सुनो, यदि तुम हम लोगों के लिए आदरपूर्वक अपने पौत्र की बलि दो तो उसी समय तुम्हारी यह बावली जल से भर जाएगी.”
यह सपना देख साहूकार ने सुबह अपने पुत्र को बताया. उसके पुत्र का नाम द्रविण था और वह भी धर्म-कर्म में आस्था रखने वाला था. वह कहने लगा – “आप मुझ जैसे पुत्र के पिता है, यह धर्म का कार्य है. इसमें आपको ज्यादा विचार ही नहीं करना चाहिए. यह धर्म ही है जो स्थिर रहेगा और पुत्र आदि सब नश्वर है. अल्प मूल्य से महान वस्तु प्राप्त हो रही है अतः यह क्रय अति दुर्लभ है, इसमें लाभ ही लाभ है. शीतांशु और चण्डाशु ये मेरे दो पुत्र है. इनमें शीतांशु नामक जो ज्येष्ठ पुत्र है उसकी बलि बिना कुछ विचार किए आप दे दे लेकिन पिताजी ! घर की स्त्रियों को यह रहस्य कभी ज्ञात नहीं होना चाहिए. उसका उपाय ये है कि इस समय मेरी पत्नी गर्भ से है और उसका प्रसवकाल भी निकट है जिसके लिए वह अपने पिता के घर जाने वाली है. छोटा पुत्र भी उसके साथ जाएगा. हे तात ! उस समय यह कार्य निर्विघ्न रूप से संपन्न हो जाएगा. पुत्र की यह बात सुनकर पिता उस पर अत्यधिक प्रसन्न हुए और बोले – हे पुत्र ! तुम धन्य हो और मैं भी धन्य हूँ जो कि तुम जैसे पुत्र का मैं पिता बना।

इसी बीच सुशीला के घर से उसके पिता का बुलावा आ गया और वह जाने लगी तब उसके ससुर तथा पति ने कहा कि यह ज्येष्ठ पुत्र हमारे पास ही रहेगा, तुम इस छोटे पुत्र को ले जाओ. इस पर उसने ऐसा ही किया, उसके चले जाने के बाद पिता-पुत्र ने उस बालक के शरीर में तेल का लेप किया और अच्छी प्रकार स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत करके पूर्वाषाढ़ा तथा शतभिषा नक्षत्र में उसे प्रसन्नतापूर्वक बावली के तट पर खड़ा किया और कहा कि बावली के जलदेवता इस बालक के बलिदान से आप प्रसन्न हों. उसी समय वह बावली अमृततुल्य जल से भर गई. वे दोनों पिता-पुत्र शोक व हर्ष से युक्त होकर घर की ओर चले गए।

सुशीला ने अपने घर में तीसरे पुत्र को जन्म दिया और तीन महीने बाद अपने घर जाने को निकल पड़ी. मार्ग में आते समय वह बावली के पास पहुँची और उस बावली को जल से भरा हुआ देखा तो वह बहुत ही आश्चर्य में पड़ गई. उसने उस बावली में स्नान किया और कहने लगी कि मेरे ससुर का परिश्रम व धन का व्यय सफल हुआ. उस दिन श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि थी और सुशीला ने शीतला सप्तमी नामक शुभ व्रत रखा हुआ था. उसने वहीँ पर चावल पकाए और दही भी ले आई. इसके बाद जलदेवताओं का विधिवत पूजन करके दही, भात तथा ककड़ी फल का नैवेद्य अर्पण किया तथा ब्राह्मणों को वायन देकर साथ के लोगों के साथ मिलकर उसी नैवेद्य अन्न का भोजन किया।

उस स्थान से सुशीला का ग्राम एक योजन की दूरी पर स्थित था. कुछ समय बाद वह सुन्दर पालकी में बैठ दोनों पुत्रों के साथ वहाँ से चल पड़ी तब वे जलदेवता कहने लगे कि हमें इसका पुत्र जीवित करके इसे वापिस करना चाहिए क्योंकि इसने हमारा व्रत किया है, साथ ही यह उत्तम बुद्धि रखने वाली स्त्री है. इस व्रत के प्रभाव से इसे नूतन पुत्र देना चाहिए. पहले उत्पन्न पुत्र को यदि हम ग्रहण किए रह गए तब हमारी प्रसन्नता का फल ही क्या? आपस में ऐसा कहकर उन दयालु जलदेवताओं ने बावली में से उसके पुत्र को बाहर निकालकर माता को दिखा दिया और फिर उसे विदा किया।

बाहर निकलकर वह पुत्र “माता-माता” पुकारता हुआ अपनी माता के पीछे दौड़ पड़ा. अपने पुत्र का शब्द सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा वहाँ अपने पुत्र को देखकर वह मन ही मन बहुत चकित हुई. उसे अपनी गोद में बिठाकर उसने उसका माथा सूँघा किन्तु यह डर जाएगा इस विचार से उसने पुत्र से कुछ नहीं पूछा. वह अपने मन में सोचने लगी कि यदि इसे चोर उठा लाए तो यह आभूषणों से युक्त कैसे हो सकता है और यदि पिशाचों ने इसे पकड़ लिया था तो दुबारा छोड़ क्यों दिया? घर में संबंधी जन तो चिंता के समुद्र में डूबे होंगे।

इस प्रकार सुशीला सोचती हुई वह नगर के द्वार पर आ गई तब लोग कहने लगे कि सुशीला आई है. यह सुनकर वे पिता-पुत्र अत्यंत चिंता में पड़ गए कि वह ना जाने क्या कहेगी और उसके पुत्र के बारे में हम क्या जवाब देंगे? इसी बीच वह तीनों पुत्रों के साथ आ गई तब ज्येष्ठ बालक को देखकर सुशीला के ससुर तथा पति घोर आश्चर्य में पड़ गए और साथ ही बहुत आनंदित भी हुए.
वे कहने लगे – हे शुचिस्मिते ! तुमने कौन सा पुण्य कर्म किया अथवा व्रत किया था. हे भामिनि ! तुम पतिव्रता हो, धन्य हो और पुण्यवती हो. इस शिशु को मरे हुए दो माह बीत चुके हैं और तुमने इसे फिर से प्राप्त कर लिया और वह बावली भी जल से परिपूर्ण है. तुम एक पुत्र के साथ अपने पिता के घर गई थी लेकिन वापिस तीनों पुत्रो के साथ आई हो. हे सुभ्रु ! तुमने तो कुल का उद्धार कर दिया. हे शुभानने ! मैं तुम्हारी कितनी प्रशंसा करू. इस प्रकार ससुर ने उसकी प्रशंसा की, पति ने उसे प्रेमपूर्वक देखा और सास ने उसे आनंदित किया. उसके बाद उसने मार्ग के पुण्य का समस्त वृत्तांत सुनाया. अंत में उन सभी ने मनोवांछित सुखों का उपभोग करके बहुत आनंद प्राप्त किया।

हे वत्स ! मैंने इस शीतला सप्तमी व्रत को आपसे कह दिया है. इस व्रत में दधि-ओदन शीतल, ककड़ी का फल शीतल और बावली का जल भी शीतल होता है तथा इसके देवता भी शीतल होते हैं. अतः शीतला-सप्तमी का व्रत करने वाले तीनों प्रकार के तापों के संताप से शीतल हो जाते हैं. इसी कारण से यह सप्तमी “शीतला-सप्तमी” इस यथार्थ नाम वाली है।

|| इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में “शीतला सप्तमी व्रत” कथन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ||
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