26/07/2025
#सम्पूर्ण_श्रीमद्भागवत_महापुराण #पोस्ट_109 🕉 पञ्चम स्कन्ध: 🕉 द्वादश अध्यायः 🕉
🟦 श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध:
द्वादश अध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद 🟦
▶️ "रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान" ◀️
राजा रहूगण ने कहा ;- भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत् का उद्धार करने के लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर! अपने परमानन्दमयस्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूल शरीर से उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमयस्वरूप को जनसाधारण की दृष्टि से ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।
ब्रह्मन्! जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमानरूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं।
देव! मैं आपसे अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसी को सरल करके समझाइये, उसे समझने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।
योगेश्वर! आपने जो यह कहा कि भार उठाने की क्रिया तथा उससे जो श्रमफल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होने पर भी केवल व्यवहार मूल के ही हैं, वास्तव में सत्य नहीं है-वे तत्त्व विचार के सामने कुछ भी नहीं ठहरते-सो इस विषय में मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथन का मर्म मेरी समझ में नहीं आया रहा है।
जड भरत ने कहा ;- पृथ्वीपते! यह देह पृथ्वी का विकार है, पाषाणादि से इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारण से पृथ्वी पर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्षःस्थल, गर्दन और कंधे आदि अंग हैं। कंधों के ऊपर लकड़ी की पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नाम का एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करने से तुम ‘मैं सिन्धु देश का राजा हूँ’ इस प्रबल मद से अंधे हो रहे हो। किन्तु इसी से तुम्हारी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तव में तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुःखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करने वाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी में ही लीन होते हैं, अतः उनके क्रियाभेद के कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं-बताओ तो, उनके सिवा व्यवहार का और क्या मूल है?
🟦 श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध:
द्वादश अध्यायः श्लोक 9-16 का हिन्दी अनुवाद 🟦
इस प्रकार ‘पृथ्वी’ शब्द का व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादान कारण सूक्ष्म परमाणुओं में लीन हो जाती है और जिनके मिलने से पृथ्वीरूप कार्य की सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मन से ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तव में उनकी भी सत्ता नहीं है। इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणों से युक्त द्वैत-प्रपंच है-उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामों वाली भगवान् की माया का ही कार्य समझो।
विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसी का नाम ‘भगवान्’ है और उसी को पण्डितजन ‘वासुदेव’ कहते हैं।
रहूगण! महापुरुषों के चरणों की धूलि से अपने को नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादि के दान, अतिथि सेवा, दीन सेवा आदि गृहस्थोचित, धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि या सूर्य की उपासना आदि किसी भी साधन से यह परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि महापुरुषों के समाज में सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणों की चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती और जब भगवत्कथा का नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकांक्षी पुरुष की शुद्ध बुद्धि को भगवान् वासुदेव में लगा देती है।
पूर्वजन्म में मैं भरत नाम का राजा था। एहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों से विरक्त होकर भगवान् की आराधना में ही लगा रहता था, तो भी एक मृग में आसक्ति हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में मृग बनना पड़ा। किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृगयोनि में भी मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसी से अब मैं जनसंसर्ग से डरकर सर्वदा असंग भाव से गुप्तरूप से ही विचरता रहता हूँ। सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोह बन्धन को काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत्स्मृति बनी रहने के कारण वह सुगमता से ही संसारमार्ग को पार करके भगवान् को प्राप्त कर सकता है।
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🕉🆑🕉ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🕉🆑🕉
🕉 नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि 🕉
🕉 प्रधुम्नायनिरुध्धाय नमः संकर्षणाय च 🕉
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