IBC wakil ahmad

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जब सीमा के पति का देहांत हुआ, तब उसके दो छोटे बच्चे और एक अधूरी ज़िंदगी उसके कंधों पर आ गिरी।परिवार और रिश्तेदारों ने शु...
29/08/2025

जब सीमा के पति का देहांत हुआ, तब उसके दो छोटे बच्चे और एक अधूरी ज़िंदगी उसके कंधों पर आ गिरी।
परिवार और रिश्तेदारों ने शुरू में सहानुभूति जताई, लेकिन धीरे-धीरे सबने किनारा कर लिया।

सीमा का पूरा ध्यान अपने बच्चों की पढ़ाई पर था। लेकिन मोहल्ले के एक रिश्तेदार अर्जुन बार-बार कहते,
"लड़की बड़ी हो गई है, जल्दी शादी कर दो, वरना मुश्किल होगी।"

एक दिन अर्जुन ने सीमा को फोन कर कहा—
"बहुत अच्छा रिश्ता है, लड़का देखा है, चलो घर देखकर आते हैं।"

सीमा बच्चों की खातिर चली गई।
लेकिन जब वहाँ पहुँची तो हैरान रह गई।
घर जर्जर था, दीवारें टूटी हुईं। लड़का बेरोजगार था, ऊपर से बात करने का ढंग भी बिगड़ा हुआ।
सीमा ने धीरे से पूछा—"पढ़ाई क्या की है?"
लड़के ने हँसते हुए कहा—"कभी-कभी कॉलेज चला जाता हूँ, वरना खेतों में रहता हूँ।"

सीमा ने वहीं ठान लिया कि यह रिश्ता कभी नहीं होगा।

कुछ दिन बाद अर्जुन ने दबाव बनाया—
"लड़की को पढ़ाकर क्या करना है? शादी के बाद उसे तो चूल्हा-चौका ही करना है।"

सीमा ने गुस्से से जवाब दिया—
"मेरे पति चले गए, इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपनी बेटी का भविष्य अंधेरे में डाल दूं।
मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती है और मैं उसकी राह में दीवार नहीं, सहारा बनूंगी।"

अर्जुन बोला—"देखते हैं कौन उससे शादी करेगा।"
और इस तरह सारे रिश्ते तोड़ लिए।

सालों की मेहनत और संघर्ष के बाद सीमा की बेटी डॉक्टर बनी।
फिर उसकी शादी भी एक पढ़े-लिखे, समझदार इंसान से हुई।

सीमा ने दुनिया को साबित कर दिया कि
👉 औरत अकेली भी अपनी संतान के सपनों को पूरा कर सकती है।
👉 मजबूरियां अगर हिम्मत बन जाएं तो ज़िंदगी सुनहरी हो जाती है।

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✍️ IBC Wakil Ahmad

29/08/2025

🌱 ज़हन की असली आज़ादी

इंसान को ख़ुदा ने सिर्फ़ शरीर नहीं दिया,
बल्कि सोचने-समझने की ताक़त भी बख़्शी।
लेकिन दुख की बात है कि ज़्यादातर लोग
अपनी राय बनाने की जगह
दूसरों की कही बातों को ही सच मान लेते हैं।

कभी धर्म और परंपरा के नाम पर,
कभी राजनीति और सत्ता की आवाज़ में,
कभी किताबों और मीडिया के मायाजाल में।
यही वह लम्हा है जब आदमी अपनी सबसे बड़ी ताक़त
—ख़ुद सोचना—किसी और को सौंप देता है।

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🎋 औरत पर बोझ
मानसिक ग़ुलामी की पहली चोट औरत को सहनी पड़ती है।
उसे बचपन से ही सिखा दिया जाता है—
"तू नाज़ुक है, तेरी दुनिया घर तक सीमित है।"
उसके सपनों को ये कहकर दबा दिया जाता है
कि "औरत का धर्म है सहना और निभाना।"

आज भी अगर औरत नौकरी करे,
तो उसे घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है।
बराबरी मांगने पर उसे बग़ावती कहा जाता है।
ये कैसा समाज है,
जो बराबरी को भी विद्रोह मान लेता है?

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🎋 मर्द की कैद
मर्द को हमेशा घर का कमाने वाला बताया गया।
उसकी थकान, उसके जज़्बात, उसकी चाहतें—
कभी किसी ने नहीं पूछीं।
अगर वह रोए, तो कहा जाता है
"मर्द हो, आंसू अच्छे नहीं लगते।"

असल में यह भी वही मानसिक गुलामी है,
जिसने उसे इंसान नहीं,
बल्कि बोझ ढोने वाली मशीन बना दिया है।

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🎋 बच्चों का दबाव
बच्चे जब मासूमियत से सपने देखते हैं,
उन्हें अंक और सिलेबस की जंजीरों में जकड़ दिया जाता है।
जो बच्चा चित्रकार बनना चाहता है,
उसे इंजीनियर बना दिया जाता है।
जो संगीत में अपना भविष्य देखता है,
उसे डॉक्टर बनने की दौड़ में धकेल दिया जाता है।

यह कैसी शिक्षा है,
जो सपनों को कुचल देती है
और बच्चों को दूसरों की अपेक्षाओं का गुलाम बना देती है?

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🎋 परिवार और समाज
घर-परिवार में भी यही मानसिकता चलती रहती है।
पति-पत्नी सपनों के साथी नहीं,
बस सामाजिक भूमिकाओं के अभिनेता बन जाते हैं।
पिता बेटे पर अपनी महत्वाकांक्षाएं थोप देता है,
मां बेटी से वही चाहती है,
जो समाज तय कर चुका है।

अगर कोई अलग रास्ता चुन ले,
तो पूरा मोहल्ला कह उठता है—"ये तो बग़ावती है।"
असल में "लोग क्या कहेंगे"
हमारी सोच की सबसे बड़ी कैद बन चुकी है।

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🌿 रास्ता क्या है?

1. हर बात पर सवाल उठाइए।

2. बच्चों को अपनी राह तय करने दीजिए।

3. औरतों को न सिर्फ़ बराबरी, बल्कि आगे बढ़ने का हक़ दीजिए।

4. मर्दों को अपनी भावनाएं खुलकर जीने दीजिए।

5. समय को सबसे बड़ा धन मानिए।

6. मेहनत को इज़्ज़त दीजिए, पैसा सिर्फ़ उसका नतीजा है।

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याद रखिए—
ग़ुलामी की सबसे ख़तरनाक शक्ल वही है
जब इंसान को अपनी ज़ंजीरें भी
आराम और सुरक्षा की लगने लगें।

और असली क्रांति वही है
जब आदमी कहे—
“अब मैं अपनी सोच किसी और को किराए पर नहीं दूंगा।”

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✍️ IBC Wakil Ahmad

आज  सुबह फिर वही मंज़र था…वो काम पर जाने की तैयारी कर रहे थे,और मैं दिल ही दिल में खुद को समझा रही थी कि“यह सिर्फ कुछ घं...
29/08/2025

आज सुबह फिर वही मंज़र था…
वो काम पर जाने की तैयारी कर रहे थे,
और मैं दिल ही दिल में खुद को समझा रही थी कि
“यह सिर्फ कुछ घंटों की दूरी है।”

पर सच तो ये है—
उनके जाते ही घर खाली-खाली लगता है।
कमरे वही, दीवारें वही,
लेकिन उनकी हंसी और बातें न हों तो सब सुनसान हो जाता है।

ज़िंदगी की सच्चाई बड़ी कड़वी है—
रिश्ते दिल से बनते हैं,
पर हालात उन्हें मजबूरी से तोड़-तोड़ कर दूर ले जाते हैं।
वो जाते हैं कमाने,
ताकि हमारा घर रोशनी से भरा रहे,
और मैं हर रोज़ चुपचाप उनकी गैरमौजूदगी की अंधेरी झेलती हूँ।

कहते हैं न—
“मजबूरी इंसान को मजबूत बना देती है।”
लेकिन दिल तो वही है,
जो सिर्फ अपने साथी की धड़कनों से ही पूरा लगता है।

प्यार यही तो है—
उनके बिना अधूरा रहना,
और फिर भी उनके लिए मुस्कुराकर दरवाज़े तक छोड़ आना। ❤️🥹

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#प्यार #मजबूरी #ज़िंदगी

✍️ IBC Wakil Ahmad

 #माँ_का_प्यार_और_त्यागरात के खाने के बाद घर में हल्की-हल्की खामोशी छा गई थी। बेटा, जो अब बड़ा अधिकारी बन चुका था, अपने ...
29/08/2025

#माँ_का_प्यार_और_त्याग

रात के खाने के बाद घर में हल्की-हल्की खामोशी छा गई थी। बेटा, जो अब बड़ा अधिकारी बन चुका था, अपने मोबाइल में बिज़नेस मेल चेक कर रहा था। अचानक माँ ने धीरे से कहा –

“बेटा, एक बात कहूँ… तू नाराज़ तो नहीं होगा?”

बेटा बोला – “अरे माँ, अब क्या चाहिए आपको? आपने तो हमेशा यही कहा कि माँ का क़र्ज़ कभी नहीं उतर सकता। अब प्लीज़ ये डायलॉग मत बोलिए, मैं तंग आ चुका हूँ। बता दीजिए कितना क़र्ज़ है आपका? मैं सब चुका दूँगा। पैसे, जेवर, मकान – जो चाहिए, माँग लीजिए।”

माँ हल्की मुस्कान के साथ बोली –
“बेटा, अगर सच में तू मेरा क़र्ज़ चुकाना चाहता है, तो बस आज रात तू मेरे पास सो जा।”

बेटा हैरान हुआ, लेकिन उसने सोचा – “चलो, इतना ही तो करना है।”

वो माँ के कमरे में सोने आ गया।

थोड़ी देर बाद जैसे ही उसकी आँख लगने लगी, माँ ने पुकारा –
“बेटा, ज़रा पंखा तेज़ कर दे, घुटन हो रही है।”

बेटा उठा, पंखा तेज़ किया और झुंझलाते हुए लेट गया।

कुछ देर बाद माँ ने फिर आवाज़ दी –
“बेटा, मुझे प्यास लगी है… पानी पिला दे।”

बेटा गुस्से में बड़बड़ाता हुआ पानी लाया। लेकिन माँ ने गिलास से आधा पानी बेटे के सोने की जगह पर गिरा दिया।

बेटा चिढ़कर बोला – “माँ! ये क्या कर दिया आपने? अब मैं कैसे सोऊँगा?”

माँ धीमी आवाज़ में बोली –
“अरे बेटा, गलती हो गई… सूख जाएगा, सो जा।”

बेटा मजबूरी में गीले बिस्तर पर लेट गया। लेकिन जैसे ही नींद आँखों में भरने लगी, माँ ने फिर कहा –
“बेटा, कंबल दे दे… ठंड लग रही है।”

बेटा झल्ला उठा और बोला –
“बस माँ! बहुत हो गया। मैं आपके साथ और नहीं सो सकता। एक रात भी नहीं निभा पा रहा हूँ। ये कोई तरीका है?”

माँ ने धीरे से बेटे का हाथ पकड़ा और कहा –
“बेटा, तू तो सिर्फ एक रात मेरे पास सोकर हार मान गया। लेकिन जब तू छोटा था, तो तूने मेरे सालों ऐसे काटे थे। तू पेशाब करके मेरा बिस्तर गीला करता था, तो मैं गीले पर सो जाती थी और तुझे सूखे पर लिटाती थी। तू बार-बार दूध और पानी मांगता था, तो मैं रातभर जागकर तुझे पिलाती थी। तू बीमार पड़ता था, तो मैं सारी रात तुझे गोद में उठाकर घर के आँगन में झूलती रहती थी।”

माँ की आँखें भर आईं –
“तू कहता है माँ का क़र्ज़ चुकाना है? बेटा, एक जन्म तो क्या… सात जन्म भी लगे, तो भी माँ-बाप का क़र्ज़ नहीं उतर सकता।”

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📌 सीख:
माँ-बाप का प्यार और त्याग कभी भी पैसों से नहीं चुकाया जा सकता। उनका क़र्ज़ सिर्फ़ सम्मान, सेवा और सच्चे लगाव से ही आंशिक रूप से उतारा जा सकता है

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✍️ IBC wakil ahmad

कहानी: "दो बहुओं की सीख"कड़कड़ाती ठंड की सुबह थी। शादी का शोरगुल थम चुका था, बस घर में रिश्तेदारों की खटपट और आलस पसरा ह...
29/08/2025

कहानी: "दो बहुओं की सीख"

कड़कड़ाती ठंड की सुबह थी। शादी का शोरगुल थम चुका था, बस घर में रिश्तेदारों की खटपट और आलस पसरा हुआ था।
कहीं कोई खर्राटे मारकर सो रहा था, तो कहीं औरतें रजाई में दुबक कर चाय पीते-पीते बातें कर रही थीं।

घर की दोनों बहुएं — राधा और शांति सुबह-सुबह से ही काम में जुटी हुई थीं।
किसी को चाय चाहिए, किसी को गर्म पानी।
शादी के थकान भरे माहौल में भी दोनों बहुएं दौड़-दौड़ कर सबका काम कर रही थीं।

इतने में रसोई में सासु माँ अन्नपूर्णा देवी आईं और बोलीं –
“अरे बहुओ! बैठकर चाय पी रही हो? काम पड़ा है ढेर सारा। जल्दी-जल्दी मेहमानों के लिए लिफाफे और मिठाई के पैकेट तैयार करो। याद रखना, तीन अलग-अलग तरह से।”

शांति हतप्रभ रह गई –
“तीन तरह क्यों अम्मा जी?”

अन्नपूर्णा देवी ने आँखें तरेरते हुए कहा –
“अरे चुप रह छोटी बहू! कुछ पता नहीं तुझे। बड़ी बहू राधा से पूछ ले। उसे सब आता है। पिछली बार उसी ने काम किया था।”

इतना कहकर अम्मा जी तो रजाई में दुबक गईं, पर शांति की जिज्ञासा और बढ़ गई।

राधा ने मुस्कुराते हुए कहा –
“चल, कोठरी में चलते हैं। सब समझा दूंगी।”

कोठरी में तीन अलग-अलग साइज़ के डिब्बे रखे थे।
राधा ने दिखाया –
“देख, बड़े वाले डिब्बे में 10 लड्डू और 10 मठरी, मध्यम वाले में 5-5, और छोटे वाले में सिर्फ 2-2।”

शांति ने हैरानी से पूछा –
“पर ऐसा क्यों?”

राधा ने गहरी सांस लेते हुए कहा –
“ये डिब्बे रिश्तों के हिसाब से बनते हैं।
जो खास मेहमान हों उन्हें बड़ा डिब्बा,
दोस्तों और परिचितों को मध्यम,
और जो सालों बाद याद आएँ, उन्हें छोटा।”

शांति ने तंज कसते हुए कहा –
“मतलब रिश्तों की भी गिनती मिठाई से तौली जाती है?”

राधा की आँखें भर आईं। उसने धीरे से कहा –
“हाँ। और इसी गिनती में मैंने एक गलती कर दी थी। मेरी शादी में अम्मा जी ने मेरे मायके वालों को छोटा डिब्बा देने को कहा था। पर मैं शर्मिंदा हुई और अपनी तरफ से बड़ा डिब्बा पकड़ा दिया।
बस उसी दिन से अम्मा जी मुझे ‘लापरवाह बहू’ कहती हैं।”

शांति ने राधा का हाथ पकड़ते हुए कहा –
“गलती तो नहीं की थी जीजी, आपने तो रिश्ते निभाए थे।”

इसी बीच, मेहमानों को विदाई का समय आ गया।
अम्मा जी पलंग पर बैठी-बैठी मिठाई और लिफाफे बाँट रही थीं।
हर रिश्तेदार को हिसाब से डिब्बे मिल रहे थे।

अचानक राधा के मायके वाले विदा होने लगे।
अम्मा जी ने इशारा किया –
“छोटी बहू! छोटा डिब्बा ले आ।”

लेकिन शांति इस बार चुप नहीं रही।
वह चार बड़े डिब्बे और विदाई का थाल उठाकर लाई।
उसने सबके सामने कहा –
“अम्मा जी! जीजी शायद भूल गई हों, पर मैं नहीं भूलूँगी।
हमारे ससुराल की इज्ज़त भी तभी रहती है जब हम बहुओं के मायके का मान रखते हैं। जीजी के भाई-भाभी हमारे घर के सम्मानित मेहमान हैं। ये डिब्बे और कपड़े उनकी विदाई का हक हैं।”

सारा माहौल सन्नाटे में डूब गया।
राधा की आँखें भर आईं।
अन्नपूर्णा देवी गुस्से से काँप रही थीं, पर सब रिश्तेदार और ससुर जी छोटी बहू शांति की समझदारी पर गर्व कर रहे थे।

उस दिन पहली बार बड़ी बहू राधा ने महसूस किया कि—
कभी-कभी सास को नहीं, बल्कि अपनी बहन जैसी देवरानी को ढाल बनाकर भी इज्ज़त बचाई जाती है।

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✍️ मौलिक एवं स्वरचित
लेखक – IBC Wakil Ahmad

✍️ सपनों की उड़ानबड़े से ऑडिटोरियम में सैकड़ों उम्मीदवार एक-एक कर मंच पर आकर अपनी प्रतिभा दिखा रहे थे।किसी ने शानदार अंग...
28/08/2025

✍️ सपनों की उड़ान

बड़े से ऑडिटोरियम में सैकड़ों उम्मीदवार एक-एक कर मंच पर आकर अपनी प्रतिभा दिखा रहे थे।
किसी ने शानदार अंग्रेज़ी में स्पीच दी, किसी ने प्रेज़ेंटेशन, तो किसी ने अपने रिज़्यूमे के ढेर सारे सर्टिफिकेट दिखाए।

आख़िर में, नंबर आया आर्या का।

छोटे क़द की, पोलियो से पीड़ित आर्या व्हीलचेयर पर धीरे-धीरे स्टेज तक पहुँची।
सभी के चेहरे पर हल्की-सी दया की झलक थी—
"बेचारी, यह क्या कर पाएगी?"

आर्या ने माइक पकड़ा, पल भर को मुस्कुराई और बोली—
"मुझे बार-बार कहा गया कि मैं खड़ी नहीं हो सकती, तो किसी लायक नहीं हूँ।
लेकिन मैंने ठान लिया कि अगर पैरों से खड़े नहीं हो सकती, तो अपने काबिलियत से पूरी दुनिया को झुका दूँगी।"

पूरा हॉल सन्नाटा... फिर तालियाँ।

आर्या ने अपने आइडियाज़ और प्रोजेक्ट्स ऐसे पेश किए कि हर किसी की आँखें चमक उठीं।
लेकिन निर्णायक मंडल के एक मेंबर ने बीच में टोका—
"मैडम, आप दिव्यांग हैं। इस पद के लिए आपको बहुत दौड़-भाग करनी होगी। आपको लगता है कि आप संभाल पाएँगी?"

आर्या ने एकदम दृढ़ आवाज़ में कहा—
"सर, मैं रोज़ अपने हालात से लड़ती हूँ।
अगर मैं अपने शरीर की सीमाओं को संभाल सकती हूँ, तो कंपनी की चुनौतियों को क्यों नहीं?"

ये कहते हुए उसकी आँखों में बिजली-सी चमक थी।

मंच पर बैठे मुख्य जज धीरे से उठे और बोले—
"आर्या, आज से तुम सिर्फ़ जॉब की उम्मीदवार नहीं, बल्कि इस पूरे प्रोजेक्ट की हेड हो।
क्योंकि हमें काम करने वाले हाथ नहीं, सोचने वाला दिमाग और कभी हार न मानने वाला दिल चाहिए।"

पूरा ऑडिटोरियम खड़ा होकर तालियाँ बजाने लगा।
आर्या की आँखों से आँसू बह निकले, लेकिन इस बार ये आँसू हार के नहीं, जीत के थे।

उसने हाथ उठाकर बस इतना कहा—
"अब दुनिया देखेगी, व्हीलचेयर नहीं, मेरी सपनों की उड़ान।"

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🌸 कहानी – “एक माँ का सहारा” 🌸एक छोटे-से गाँव में सीमा नाम की विधवा रहती थी। उसका एक ही बेटा था – आदित्य।सीमा ने पूरी ज़ि...
28/08/2025

🌸 कहानी – “एक माँ का सहारा” 🌸

एक छोटे-से गाँव में सीमा नाम की विधवा रहती थी। उसका एक ही बेटा था – आदित्य।
सीमा ने पूरी ज़िंदगी बेटे को पालने-पोसने में लगा दी। खेत में मज़दूरी करती, कभी दूसरों के घर काम करती, लेकिन बेटे की पढ़ाई कभी नहीं रुकने दी।

एक दिन आदित्य ने माँ से कहा –

आदित्य: माँ, मुझे शहर में अच्छी नौकरी मिल गई है। अब हमारी गरीबी खत्म हो जाएगी।
सीमा (मुस्कुराते हुए): बेटा, ये तो बड़ी खुशी की बात है, पर तू अकेला कैसे रहेगा?
आदित्य: माँ, कुछ दिन बाद तुम्हें भी साथ ले जाऊँगा।

सीमा की आँखें भर आईं। वह जानती थी – बेटा अब बड़ा हो गया है।

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शहर जाकर आदित्य ने मेहनत से काम करना शुरू किया।
हर हफ़्ते माँ से मिलने आता और पैसे देता।
कुछ साल बाद उसकी शादी काव्या से हो गई।

शुरू-शुरू में काव्या बहुत अच्छी थी।
सीमा उसे बेटी की तरह मानती थी।
लेकिन धीरे-धीरे उसका मन गाँव की गरीबी और सास की मौजूदगी से उचटने लगा।

काव्या (पति से): आदित्य, मैं गाँव में नहीं रह सकती। या तो तुम माँ को गाँव छोड़ दो या मुझे मेरे मायके पहुँचा दो।
आदित्य: काव्या! कैसी बातें कर रही हो? माँ मेरी ज़िम्मेदारी हैं।
काव्या: तो फिर मैं यहाँ नहीं रुक सकती।

सीमा ने बेटे की आँखों में दर्द देखा और बोली –
“बेटा, मुझे यहीं छोड़ दो, मैं अकेली जी लूँगी।”

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आदित्य माँ को छोड़कर शहर चला गया।
पर काव्या का मन तब भी नहीं भरा।
वह अक्सर आदित्य को ताने देती –
“तुम्हारी माँ के कारण हमारी ज़िंदगी कभी खुश नहीं हो सकती।”

आदित्य बहुत दुखी रहने लगा।

एक दिन काव्या ने चाल चली।
वह सीमा के पास आई और बोली –
“माँजी, मेरे एक रिश्तेदार बुजुर्गों को तीर्थ यात्रा पर ले जाते हैं। आपके लिए मौका अच्छा है। मैंने पैसे भी जमा कर दिए हैं। आप शाम को उनके साथ चलिए।”

सीमा ने कहा –
“बेटी, आदित्य से पूछ लूँ?”
काव्या: “नहीं माँजी, वह आपको जाने नहीं देंगे।”

सीमा भोलेपन में चली गई।

---

जब आदित्य घर आया और माँ को न पाया तो बेचैन हो उठा।
काव्या ने झूठ कहा –
“माँजी तीर्थ यात्रा पर चली गई हैं।”

दिन बीतते गए, माँ का कोई पता न चला।
आदित्य बीमार पड़ने लगा।

तभी गाँव से खबर आई –
“सीमा अपने गाँव के मंदिर में रोज़ देखी जाती हैं।”

आदित्य भागा-भागा गाँव पहुँचा।
वहाँ माँ मंदिर के बाहर प्रसाद बाँट रही थी।
उसे देखते ही माँ रो पड़ी –

सीमा: बेटा, बहु ने मुझे धोखे से भिजवाया। मैं रास्ते में भटक गई और फिर यहीं रहने लगी।
आदित्य: माँ! मैंने तुम्हें खोया समझ लिया था।

काव्या भी वहाँ आ गई।
उसने माँ के चरण पकड़ लिए –
“माँजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैं अपनी दुनिया सँवारने के चक्कर में आपका संसार उजाड़ने चली थी। अब कभी आपको अकेला नहीं छोड़ूँगी।”

---

सीमा ने बेटी कहकर बहु को गले से लगा लिया।
बेटा, माँ और बहु – तीनों फिर साथ रहने लगे।

सीमा: बेटा, शहर की दौलत से बड़ा सुख अपनों का साथ है।
आदित्य ने उसी दिन ठान लिया – अब गाँव में ही काम करेगा और माँ को कभी अकेला नहीं छोड़ेगा।

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🌹 सीख 🌹

👉 माँ को छोड़कर सुख कभी पूरा नहीं होता।
👉 बहु अगर सास को माँ माने, तो घर कभी उजड़ता नहीं।
👉 रिश्तों की डोर पैसे से नहीं, दिल से बँधी रहती है।

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✍️ ओरिजिनल कहानी | IBC wakil ahmad

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 #कहानी – “बड़ी बहन की बातें”घर में हमेशा शोर-शराबा उसी की वजह से होता था।बड़ी बहन राधा हर समय बोलती ही रहती थी –“ये ऐसे...
28/08/2025

#कहानी – “बड़ी बहन की बातें”

घर में हमेशा शोर-शराबा उसी की वजह से होता था।
बड़ी बहन राधा हर समय बोलती ही रहती थी –
“ये ऐसे क्यों रखा है? वो ऐसे क्यों किया? तुमने ये क्यों कहा?”

कभी-कभी छोटे भाई-बहन चिढ़ जाते और कहते –
“दीदी, आप थोड़ी चुप नहीं रह सकतीं? हर वक़्त बोलना ज़रूरी है क्या?”

राधा मुस्कुरा देती, लेकिन उसके अंदर एक गुप्त दर्द था।
वो जानती थी कि अगर वो चुप रह जाए तो घर बिखर जाएगा।

👩‍👧‍👦 जब पापा नाराज़ होते, वही थी जो कहती –
“अरे रहने दीजिए पापा, छोटा है, गलती हो जाती है।”

👩‍❤️‍👨 जब माँ चुपके से रोतीं, वही थी जो उनका हाथ पकड़कर कहती –
“माँ, आप परेशान मत होइए, सब ठीक हो जाएगा।”

👫 जब भाई उदास होता, वही ज़िद करती –
“चलो बाहर, चाय पिलाती हूँ, तुम्हारा मूड ठीक कर दूँगी।”

👭 जब बहन चुप रहती, वही खींचकर कहती –
“बोल न पगली, तेरे बिना ये घर खाली-खाली लगता है।”

उसकी ज़्यादा बोलने की आदत ही वो धागा थी, जो सबको बाँधकर रखती थी।
वो चुप हो जाती, तो घर भी चुप हो जाता…
और घर की चुप्पी से बड़ा कोई बोझ नहीं होता।

सालों बाद जब राधा की शादी हो गई,
तो उस घर की दीवारें अजीब-सी खामोशी से गूंजने लगीं।
अब न कोई ज़िद करने वाला था,
न डाँटकर प्यार जताने वाला।

तब सबको एहसास हुआ –
“बड़ी बहन ज़्यादा बोलती नहीं थी,
वो तो सबको जोड़ने वाली रस्सी थी।
उसके बिना घर सिर्फ़ मकान रह जाता है।”

---

🌸 सीख –
बड़ी बहन की डाँट, नसीहत और बातें हमें उस वक़्त बोझ लगती हैं,
लेकिन असल में वही घर का सबसे बड़ा सहारा होती है।

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✍️ – ओरिजिनल कहानी | IBC Wakil Ahmad

 #कहानी – "छोटी बहन का ताना"सुबह का समय था। नीरा सबके लिए नाश्ता बनाकर जैसे ही थकी-थकी सी बैठी, तभी उसकी ननद पायल हंसते ...
28/08/2025

#कहानी – "छोटी बहन का ताना"

सुबह का समय था। नीरा सबके लिए नाश्ता बनाकर जैसे ही थकी-थकी सी बैठी, तभी उसकी ननद पायल हंसते हुए कमरे में आई और बोली –

“वाह भाभी, आप तो बड़ी मज़े में हो! बस रसोई में बैठकर तीन लोगों का खाना बनाओ और दिनभर आराम करो। हमारे जैसी नौकरीपेशा औरतें होतीं तो असली मुश्किल समझ आती।”

नीरा ने मुस्कुराकर कुछ नहीं कहा। मगर दिल के अंदर टीस उठी। क्या सच में घर का काम आराम है?

पायल को लगता था कि घर पर रहने वाली औरतों को कोई दिक़्क़त नहीं होती।
लेकिन नीरा जानती थी कि सुबह पाँच बजे से लेकर रात ग्यारह बजे तक उसका एक-एक पल काम में ही गुजरता है।

👩‍🍳 सुबह से बच्चों का टिफ़िन, पति की डिब्बा, सास-ससुर की दवाई, कपड़े धोना, घर समेटना…
👶 फिर बच्चे स्कूल से लौटें तो होमवर्क में मदद, खेल-कूद की देखभाल।
🛏️ रात को सब सो जाएँ तो भी अगले दिन की तैयारी।

उसके हिस्से का आराम तो कब का कहीं खो गया था।

उसी दिन दोपहर को पायल की तबियत अचानक बिगड़ गई। सिर दर्द, थकान और चक्कर की शिकायत। डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी।

अगले ही दिन नीरा ने सोचा – "चलो, पायल को आराम करने दो।"
सारे काम उसने खुद किए। मगर शाम होते-होते जब पायल ने देखा कि नीरा अब भी दौड़-दौड़कर सब संभाल रही है, वो अवाक रह गई।

पायल के मुंह से अचानक निकला –
“भाभी… मैं ग़लत थी। ये काम आसान नहीं, ये तो पूरे वक़्त की नौकरी है। ऑफिस में तो आठ घंटे बाद छुट्टी मिल जाती है, मगर आपके पास तो कभी छुट्टी ही नहीं।”

नीरा ने धीरे से कहा –
“पायल… घर की औरत को तनख्वाह नहीं मिलती, न ही छुट्टी। पर वही घर की असली धुरी होती है। अगर वो रुक जाए, तो पूरा घर ठहर जाता है।”

उस दिन के बाद पायल जब भी अपने दोस्तों से मिलती, हमेशा कहती –
“अगर दुनिया में सबसे मुश्किल काम है, तो वो है घर संभालना। जो बहुएँ, माएँ, बहनें चुपचाप करती रहती हैं… हमें उनकी क़दर करनी चाहिए।”

नीरा के चेहरे पर उस दिन पहली बार संतोष की मुस्कान आई।
क्योंकि किसी ने तो उसके संघर्ष को समझा।

---

🌸 सीख –
घर की औरत कभी "आराम" नहीं करती, वो परिवार के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित करती है।
अगर आपकी माँ, बहन, पत्नी या भाभी चुपचाप सब संभाल रही है, तो उसका मज़ाक मत उड़ाइए, उसकी क़दर कीजिए।

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✍️ – ओरिजिनल कहानी

यादों का खज़ाना...😌 एक दौर था जब...स्कूल पैदल जाते थे, रास्ते में दोस्तों के साथ हंसी-मज़ाक ही सबसे बड़ा सुख था।😁 टिफिन ...
28/08/2025

यादों का खज़ाना...

😌 एक दौर था जब...
स्कूल पैदल जाते थे, रास्ते में दोस्तों के साथ हंसी-मज़ाक ही सबसे बड़ा सुख था।

😁 टिफिन में सिर्फ दो रोटी और नमक-मिर्च होता था,
लेकिन दोस्तों के साथ बाँटकर खाना किसी दावत से कम नहीं लगता था।

🤣 मास्टर जी की डांट और डंडा भी हमें प्यारा लगता था,
क्योंकि उसमें सुधारने का भाव होता था, अपमान का नहीं।

😋 पाँच पैसे की आइसकैंडी, दो पैसे की टॉफी...
बस इतना ही काफी था खुश हो जाने के लिए।

🥱 गर्मियों की छुट्टियाँ मतलब दादी-नानी का घर,
आम, कहानियाँ और छत पर चाँद को देखते हुए सोना...

😎 क्रिकेट खेलने के लिए न बल्ला चाहिए था न बॉल,
लकड़ी की पट्टी और कपड़े की गेंद से भी वर्ल्डकप का मज़ा आता था।

🥹 मोहल्ले ही परिवार हुआ करते थे,
दुख-सुख सबमें हर कोई साथ खड़ा होता था।

💔 तब हमें यह नहीं पता था कि...
वो दोस्त एक दिन बिछड़ जाएंगे।
वो मोहल्ला सिर्फ याद बनकर रह जाएगा।
और वो बेफ़िक्र बचपन कभी लौटकर नहीं आएगा।

आज सबकुछ है... मोबाइल, पैसा, सोशल मीडिया...
पर वो अपनापन, वो मासूमियत, वो सुकून... कहीं खो गया है।

🙏 हम अच्छे थे या बुरे, नहीं मालूम...
पर हमारा भी एक जमाना था ❤️

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🌸 "आख़िरी निवाला" 🌸सुबह के 6 बजे थे।रीना ने आँखें खोली ही थीं कि सास की आवाज़ आई –"अरे बहू, जल्दी उठ, दूध वाला दरवाज़े प...
28/08/2025

🌸 "आख़िरी निवाला" 🌸

सुबह के 6 बजे थे।
रीना ने आँखें खोली ही थीं कि सास की आवाज़ आई –
"अरे बहू, जल्दी उठ, दूध वाला दरवाज़े पर खड़ा है!"

वो भागकर दरवाज़ा खोलती है, दूध लेती है, फिर सीधे रसोई की ओर।
गैस जलते ही उसकी ज़िंदगी की जंग शुरू हो जाती है –
नाश्ता, बच्चों का टिफ़िन, ससुर जी की चाय, पति के कपड़े प्रेस, सास का पूजा के लिए भोग तैयार करना…
वो खुद कहाँ थी इसमें? कहीं भी नहीं।

दो बार चाय बनाई, पर जब तक पीने बैठती, उतने में कोई आवाज़ लगा देता।
"बहू… जरा ये कर दो!"
"मम्मी… जरा मेरी कॉपी देख लो!"
"रीना… मेरी शर्ट कहाँ है?"

रीना हर आवाज़ पर दौड़ती रही।
ग्यारह बजते-बजते उसकी सांस फूलने लगी।
सारा घर नाश्ता कर चुका था।
वो चुपचाप प्लेट लेकर बैठी, तो देखा – सब्ज़ी खत्म।
उसने सोचा – "चलो, पराठा और अचार ही सही।"

लेकिन तभी पति ने आते ही प्लेट उठा ली –
"अरे, ये दो पराठे रख दो मेरे लिए, ऑफिस जाते वक्त खा लूँगा, वरना भूखा रह जाऊँगा।"
रीना ने मुस्कुराकर हाँ कह दी… पर खुद के लिए क्या बचा? कुछ भी नहीं।

उसका गला सूख गया।
उसने सोचा – "थोड़ा दूध ही पी लूँगी।"
पर दूध से सास का भोग बन चुका था, बच्चों ने शेक पी लिया था और बाकी कल के लिए रख दिया गया था।

भूख से सिर भारी हो गया।
रीना बैठी-बैठी ही झपकी लेने लगी।
अचानक चक्कर आया और ज़मीन पर गिर गई।

घर में हड़कंप मच गया।
सास भागी आईं – "क्या हुआ बहू को?"
पति चिल्लाया – "पानी लाओ, जल्दी!"

रीना की आँखें खुलीं तो उसने धीमे स्वर में कहा –
"सुबह से… कुछ नहीं खाया।"

कमरे में सन्नाटा छा गया।
पति के हाथ से गिलास छूट गया।
सास पहली बार बोलीं –
"हाय राम! हम सब खा-पीकर बैठे थे, और ये बेचारी भूखी रह गई।"

पति के दिल में अजीब-सा दर्द उठा।
वो सोचने लगा –
"घर की नींव को ही भूखा रखकर हम किस घर की दीवारें खड़ी कर रहे थे?"

डॉक्टर को दिखाया गया।
रिपोर्ट आई – खून की कमी, कमजोरी, लो BP।
डॉक्टर ने कहा –
"इन्हें खाना समय पर और सबसे पहले चाहिए। वरना ये बुरी तरह बीमार पड़ जाएँगी।"

पति की आँखें भर आईं।
उसने रीना का हाथ पकड़ा –
"मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हें कभी अपने बराबर समझा ही नहीं।
आज से तुम्हारा हिस्सा सबसे पहले तय होगा।
तुम्हारे बिना ये घर, ये हम सब… अधूरे हैं।"

रीना की आँखों से आँसू बह निकले।
वो मुस्कुराई, लेकिन दिल के भीतर एक कसक रही –
"क्या सच में औरत का निवाला इतना हल्का है कि सबके बीच उसका हिस्सा हमेशा आख़िर में ही याद आता है?"

💔
इस पोस्ट को पढ़ने वाली हर महिला को एक बात याद रखनी चाहिए –
अपना हक़ खुद तय करो।
क्योंकि अगर तुम खुद को भूला दोगी, तो दुनिया तुम्हें कभी याद नहीं दिलाएगी।

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✍ IBC Wakil Ahmad

एक दौर वो भी था...😌 जब सुबह मुर्गे की बाँग सुनकर उठते थे...⏰ घड़ी घर में एक ही होती थी और उसकी टिक-टिक सुनकर ही वक्त का ...
28/08/2025

एक दौर वो भी था...

😌 जब सुबह मुर्गे की बाँग सुनकर उठते थे...
⏰ घड़ी घर में एक ही होती थी और उसकी टिक-टिक सुनकर ही वक्त का अंदाज़ा लगाते थे...

😁 जब स्कूल जाने से पहले माँ के हाथ की दो रोटियाँ और नमक-मिर्च सबसे बड़ा टिफिन लगता था...
🥹 और जो टिफिन कभी दोस्तों के साथ शेयर हो जाता तो लगता जैसे दावत खा ली...

🤪 जब कॉपी-किताबें थैली में रखकर पैदल ही स्कूल निकल पड़ते थे...
🚲 किसी-किसी को साइकिल मिलती थी तो मोहल्ले के आधे बच्चे उसी के साथ स्कूल जाते थे...

🥱 जब क्लास में पीछे बैठकर चुपके से पेंसिल की नोक तोड़ना और फिर दोस्त से "छुरपन" मांगना ही सबसे बड़ा एडवेंचर होता था...

🤣 जब मास्टर जी की डांट और डंडा हमारे लिए रोज़ का आशीर्वाद होता था...
लेकिन उस डांट में भी छुपा था उनका प्यार और सुधारने का प्रयास...

🥲 जब परीक्षा में पास होना ही जिंदगी की सबसे बड़ी जीत होती थी...
और फेल होने पर भी घर जाकर बहाने बनाने में मासूमियत होती थी...

😁 जब गर्मियों की छुट्टियाँ मतलब दादी-नानी के घर जाना...
आम के बगीचों में खेलना, कच्चे आम पर नमक मिर्च छिड़ककर खाना और रात को छत पर चाँद को निहारते हुए सो जाना...

😋 जब पाँच पैसे की आइसकैंडी और दो पैसे की टॉफी से ज्यादा की ख्वाहिश ही नहीं होती थी...
और उस छोटी-सी खुशी से दिल झूम उठता था...

😎 जब क्रिकेट खेलने के लिए बल्ला न हो तो लकड़ी की पट्टी और बॉल न हो तो कपड़े की गेंद ही काफी होती थी...
और फिर भी खेल का मज़ा वैसा आता था जैसा आज लाखों के क्रिकेट किट से भी नहीं आता...

🥹 जब पड़ोस ही परिवार होता था...
किसी के घर मिठाई बनती तो आधे मोहल्ले में बाँटी जाती थी...
किसी के घर दुख आता तो पूरा मोहल्ला साथ खड़ा हो जाता था...

😇 वो जमाना शायद साधारण था, लेकिन असली था...
वो रिश्ते सच्चे थे, वो खुशियाँ छोटी थीं लेकिन गहरी थीं...

आज सब कुछ है – मोबाइल है, सोशल मीडिया है, पैसे हैं, सुविधाएँ हैं...
लेकिन उस दौर की मासूमियत, अपनापन और सुकून कहीं खो गया है...

🙏 इसीलिए दिल से कहता हूँ –
हम अच्छे थे या बुरे थे, ये तो पता नहीं...
पर हमारा भी एक सुनहरा दौर था...
जिसे याद करके आज भी आँखें भर आती हैं
ये पोस्ट पढ़ कर
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