Bihar Wala

Bihar Wala बिहारी बिहारवाला
(2)

14/11/2025

# # #सिवान विधानसभा चुनाव 2025: अवध बिहारी चौधरी की हार का विस्तृत विश्लेषण

सिवान विधानसभा सीट बिहार की एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील सीट रही है, जो हमेशा से जातिगत समीकरणों, अपराध और विकास के मुद्दों पर केंद्रित रहती है। 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के सिटिंग विधायक **अवध बिहारी चौधरी** को भाजपा के मंगल पांडेय से करारी शिकस्त मिली। यह हार न केवल व्यक्तिगत स्तर पर चौधरी के लिए झटका थी, बल्कि महागठबंधन की कमजोर प्रदर्शन का भी प्रतीक बनी। आइए, इस हार के कारणों का विस्तार से विश्लेषण करते हैं। विश्लेषण चुनाव आयोग के आंकड़ों, समाचार स्रोतों और चुनावी गतिशीलता पर आधारित है।

# # # # 1. **चुनाव परिणाम का सारांश**
- **विजेता**: मंगल पांडेय (भाजपा) - **92,379 वोट** (लगभग 49% वोट शेयर)।
- **उपविजेता**: अवध बिहारी चौधरी (आरजेडी) - **83,009 वोट** (लगभग 44% वोट शेयर)।
- **मत差**: 9,370 वोट (2020 की तुलना में काफी बड़ा, जब चौधरी ने मात्र 1,973 वोटों से जीत हासिल की थी)।
- **अन्य उम्मीदवार**:
- मोहम्मद कैफी समशीर (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन - AIMIM): 3,493 वोट।
- इंतेखाब अहमद (जन सुराज पार्टी): 2,543 वोट।
- कुल मतदान: लगभग 1.81 लाख वोट डाले गए, जिसमें वोटर टर्नआउट 59.7% रहा (2020 के 54.4% से बेहतर)।
- यह सीट पहले चरण (6 नवंबर 2025) में गई थी, और गिनती 14 नवंबर को हुई।

सिवान एक सामान्य श्रेणी की सीट है, जो सिवान लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। यहां मुस्लिम-यादव (MY) वोट बैंक करीब 20% है, जो पारंपरिक रूप से आरजेडी का गढ़ रहा है। लेकिन इस बार एनडीए की लहर ने इसे तोड़ दिया।

# # # # 2. **पृष्ठभूमि: चौधरी का राजनीतिक सफर और सिवान की राजनीति**
- अवध बिहारी चौधरी (78 वर्षीय) सिवान से छह बार विधायक रह चुके हैं। वे जनता दल और फिर आरजेडी से जुड़े। 2020 में उन्होंने भाजपा के ओम प्रकाश यादव को कड़ी टक्कर देकर जीत हासिल की थी।
- सिवान की राजनीति हमेशा विवादास्पद रही है - अपराध और जाति का बोलबाला। चौधरी यादव समुदाय से हैं, जो आरजेडी का कोर वोट बैंक है। लेकिन 2025 में उनकी उम्र, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार के पुराने आरोपों ने उनके खिलाफ माहौल बनाया।
- भाजपा ने उम्मीदवार बदलकर मंगल पांडेय (ब्राह्मण) को उतारा, जो बिहार के स्वास्थ्य मंत्री हैं। पांडेय की छवि विकास पुरुष की है, जो कोविड प्रबंधन और स्वास्थ्य योजनाओं से जुड़े हैं।

# # # # 3. **हार के प्रमुख कारण: बहुआयामी विश्लेषण**
चौधरी की हार एकल कारक से नहीं, बल्कि कई परस्पर जुड़े तत्वों से हुई। इन्हें निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

# # # # # **क. एनडीए की समग्र लहर और बिहार-व्यापी कारक**
- **एनडीए का ऐतिहासिक प्रदर्शन**: 2025 चुनाव में एनडीए ने 200+ सीटें जीत लीं, जिसमें भाजपा अकेले 83 सीटें ले आई। आरजेडी मात्र 18 सीटें ही बचा सकी (143 में से)। सिवान में भी यह लहर दिखी - मतदाताओं ने स्थिरता और विकास को प्राथमिकता दी।
- **जंगल राज का भय**: एनडीए ने लालू-राबड़ी काल (1990-2005) के अपराधी राज को फिर से उछाला। सिवान जैसे जिलों में, जहां अपराध की यादें ताजा हैं, यह प्रचार प्रभावी रहा। विपक्ष के कुछ घटनाक्रम (जैसे उपमुख्यमंत्री पर हमले) को एनडीए ने इसका प्रमाण बनाया।
- **महिला मतदाताओं का ध्रुवीकरण**: बिहार में महिलाओं का टर्नआउट पुरुषों से 10-20% ज्यादा रहा। जीविका दीदियों (1.8 लाख स्वयंसहायता समूह) के जरिए एनडीए ने कल्याण योजनाओं (जैसे मुफ्त बिजली, पेंशन) का प्रचार किया। सिवान में भी महिलाओं ने भाजपा को फायदा पहुंचाया।
- **नीतीश कारक**: सीएम नीतीश कुमार की विश्वसनीय छवि ("बिहार का मतलब नीतीश कुमार") ने गठबंधन को मजबूत किया। जेडीयू की पुनरुत्थान ने पिछड़ी जातियों (EBC, कुर्मी) को एकजुट किया। एनडीए का वोट शेयर 49% पहुंचा, जबकि महागठबंधन का 38%।

# # # # # **ख. वोट विभाजन: तीसरे मोर्चे का जाल**
- सिवान मुस्लिम बहुल सीट है (लगभग 20% MY वोट)। आरजेडी का MY फॉर्मूला यहां मजबूत था, लेकिन AIMIM और जन सुराज के उम्मीदवारों ने मुस्लिम वोटों को चूर-चूर कर दिया।
- AIMIM का कैफी समशीर (3,493 वोट) और जन सुराज का इंतेखाब अहमद (2,543 वोट) - कुल 6,036 वोट - मुख्य रूप से मुस्लिम वोट बैंक से आए।
- अगर ये वोट आरजेडी के पास होते, तो चौधरी 89,045 वोटों के साथ जीत जाते (92,379 से ज्यादा)। जन सुराज (प्रशांत किशोर की पार्टी) ने 238 सीटों पर लड़ा लेकिन एक भी नहीं जीती, पर सिवान जैसे सीटों पर वोट कटौती की भूमिका निभाई।
- स्वतंत्र उम्मीदवारों (जैसे देवा कांत मिश्रा, सुनीता देवी) ने भी कुछ वोट छीने, लेकिन मुख्य नुकसान MY विभाजन से हुआ।

# # # # # **ग. उम्मीदवार-केंद्रित कारक**
- **अवध बिहारी की कमजोरियां**: 78 वर्ष की उम्र, कई बार विधायक होने से वर्तमानता का अभाव। उनके खिलाफ पुराने भ्रष्टाचार और भूमि विवाद के आरोप फिर उछले। 2020 की संकीर्ण जीत के बाद विकास कार्यों में कमी की शिकायतें रहीं।
- **मंगल पांडेय की मजबूती**: स्वास्थ्य मंत्री के रूप में उनकी दृश्यता (टीकाकरण, अस्पताल निर्माण) ने ऊपरी जातियों (ब्राह्मण, राजपूत) को एकजुट किया। भाजपा ने उन्हें "विकास योद्धा" के रूप में प्रचारित किया, जो सिवान के पुल- सड़क मुद्दों पर फिट बैठा।
- **प्रचार रणनीति**: एनडीए ने डिजिटल और ग्राउंड कैंपेन में भारी निवेश किया। मोदी-नीतीश की रैलियां सिवान पहुंचीं, जबकि तेजस्वी यादव का फोकस अन्य सीटों पर रहा।

# # # # # **घ. स्थानीय और जातिगत समीकरण**
- **जाति गठजोड़**: एनडीए ने ऊपरी जातियों + EBC + दलितों का विस्तार किया। सिवान में ब्राह्मण (15%) और यादव (20%) के अलावा EBC (30%) ने भाजपा को झुकाया। आरजेडी यादव-मुस्लिम पर निर्भर रही, जो विभाजित हो गया।
- **विकास बनाम जातिवाद**: मतदाताओं ने "जाति की राजनीति" से ऊबकर विकास (स्वास्थ्य, शिक्षा) को चुना। सिवान जिले में बाढ़-बुनियादी ढांचे के मुद्दे प्रमुख थे, जहां पांडेय ने वादे किए।
- **कम टर्नआउट का प्रभाव**: हालांकि टर्नआउट बढ़ा, लेकिन MY वोटों का ध्रुवीकरण कम हुआ, जिससे आरजेडी को नुकसान।

# # # # 4. **निष्कर्ष: सबक और भविष्य**
अवध बिहारी चौधरी की हार आरजेडी के लिए चेतावनी है - MY फॉर्मूला अब पर्याप्त नहीं; वोट विभाजन और एनडीए की एकजुटता ने महागठबंधन को पटखनी दी। सिवान जैसे गढ़ों में तीसरे दलों की मौजूदगी ने निर्णायक भूमिका निभाई। कुल मिलाकर, यह हार बिहार की बदलती राजनीति को दर्शाती है, जहां विकास और स्थिरता जाति से ऊपर उठ गई। अगर आरजेडी 2030 तक नहीं चेती, तो ऐसे झटके बढ़ेंगे।

यह विश्लेषण ताजा आंकड़ों पर आधारित है; आगे की रिपोर्ट्स से और स्पष्टता आ सकती है।

बिहार में nda और महागठबंधन बराबरी पर
14/11/2025

बिहार में nda और महागठबंधन बराबरी पर

यह खबर सच्ची है। 14 नवंबर 2025 को लुधियाना पुलिस ने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई (ISI) के समर्थन से संचालित एक बड़े...
13/11/2025

यह खबर सच्ची है। 14 नवंबर 2025 को लुधियाना पुलिस ने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई (ISI) के समर्थन से संचालित एक बड़े ग्रेनेड हमले के मॉड्यूल का भंडाफोड़ किया। यह साजिश पंजाब में अशांति फैलाने और भीड़-भाड़ वाले इलाके में ग्रेनेड फेंककर दहशत मचाने की थी। पुलिस ने 10 संदिग्ध ISI एजेंटों को गिरफ्तार किया, जिनके पास से हथगोले (हैंड ग्रेनेड) बरामद हुए। यह गिरफ्तारियां दिल्ली में हाल ही में हुई एक इसी तरह की साजिश (जिसमें पाकिस्तानी जासूसों का नेटवर्क पकड़ा गया था) के बाद की गई हैं, इसलिए इसे "दिल्ली के बाद लुधियाना" कहा जा रहा है।

# # # साजिश का विस्तार:
- **मुख्य उद्देश्य**: आरोपी पंजाब के किसी आबादी वाले क्षेत्र (जैसे बाजार या सार्वजनिक जगह) में ग्रेनेड हमला करने की योजना बना रहे थे। इसका मकसद राज्य में आतंक फैलाना, सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना और भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव को भड़काना था। प्रारंभिक जांच में पता चला कि यह ISI के निर्देश पर चल रहा था, जो पाकिस्तान से संचालित हो रहा था।
- **नेटवर्क का ढांचा**: आरोपी मलेशिया में बैठे 3 गुर्गों (हैंडलर्स) के जरिए पाकिस्तान के ISI हैंडलर्स से जुड़े हुए थे। मलेशिया वाले गुर्गे ग्रेनेड और अन्य हथियारों को भारत में तस्करी करने का इंतजाम कर रहे थे। गिरफ्तारियों के बाद पुलिस ने मलेशिया और पाकिस्तान के लिंक को ट्रेस किया है।
- **पुलिस कार्रवाई**: लुधियाना कमिश्नरेट पुलिस की स्पेशल टीम ने इंटेलिजेंस इनपुट के आधार पर छापेमारी की। गिरफ्तारियों के दौरान हथगोले, मोबाइल फोन (जिनमें ISI एजेंट्स के नंबर थे) और अन्य सामग्री बरामद हुई। आरोपी पहले से ही जेल में बंद कुछ मामलों से भी जुड़े हैं, जिन्हें प्रोडक्शन वारंट पर लाया गया।
- **पुलिस का बयान**: पंजाब DGP गौरव यादव ने बताया कि पुलिस आतंकवाद और सीमा-पार नेटवर्क को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है। लुधियाना पुलिस कमिश्नर सवपन शर्मा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में विस्तार से जानकारी दी। यह ऑपरेशन पंजाब में शांति बनाए रखने की दिशा में बड़ा कदम है।

# # # गिरफ्तार जासूसों/आरोपियों के नाम:
पुलिस ने 10 लोगों को गिरफ्तार किया है, जिनकी पहचान ISI एजेंट के रूप में हुई है। उनके नाम और पते इस प्रकार हैं (सभी पंजाब और आसपास के इलाकों के निवासी हैं):
1. **सुखजीत सिंह उर्फ सुख बराड़** - निवासी फरीदकोट (मुख्य आरोपी, साजिश का सरगना माना जा रहा है)।
2. **सुखविंदर सिंह** - निवासी फरीदकोट।
3. **करणवीर सिंह उर्फ विक्की** - निवासी श्रीगंगानगर, राजस्थान।
4. **साजन कुमार उर्फ संजू** - निवासी श्री मुक्तसर साहिब।
5. **कुलदीप सिंह** - निवासी श्री मुक्तसर साहिब (पूछताछ में ISI संपर्क का खुलासा किया)।
6. **शेखर सिंह** - निवासी श्री मुक्तसर साहिब।
7. **अजय सिंह उर्फ अजय** - निवासी श्री मुक्तसर साहिब (मलेशिया कनेक्शन का भाई, जेल से प्रोडक्शन पर लाया गया)।
8. **अमरीक सिंह** - मलेशिया से जुड़ा (हैंडलर रिंग का हिस्सा)।
9. **परमिंदर सिंह उर्फ चिरी** - मलेशिया से जुड़ा।
10. **विजय** - मलेशिया-पाकिस्तान लिंक से जुड़ा (विवरण सीमित, लेकिन गिरफ्तार)।

ये नाम विभिन्न न्यूज रिपोर्ट्स से लिए गए हैं, जो एक-दूसरे से मेल खाते हैं। कुछ आरोपी पहले से छोटे-मोटे अपराधों में जेल में थे, लेकिन ISI के लिए जासूसी कर रहे थे।

यह घटना पंजाब में बढ़ते ISI नेटवर्क को रोकने की दिशा में महत्वपूर्ण है। अगर और अपडेट्स आएंगे, तो पुलिस की आधिकारिक स्टेटमेंट पर नजर रखें। स्रोत: दैनिक भास्कर, एनकाउंटर इंडिया, और अन्य विश्वसनीय मीडिया।

 # # # 🚨 बिहार की राजनीति में हलचल: उपमुख्यमंत्री का घर खाली करने का दावा, फाइलें फाड़ने की आशंका! 😱दोस्तों, आज बिहार की...
13/11/2025

# # # 🚨 बिहार की राजनीति में हलचल: उपमुख्यमंत्री का घर खाली करने का दावा, फाइलें फाड़ने की आशंका! 😱

दोस्तों, आज बिहार की सियासत में एक ऐसा बयान सामने आया है जो हर किसी को चौंका देने वाला है। कल पटना में कांग्रेस के दिग्गज नेता और AICC के मीडिया चेयरमैन **पवन खेड़ा** ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जोरदार हमला बोला। उन्होंने दावा किया कि बिहार के एक **उपमुख्यमंत्री** ने अपना सरकारी बंगला खाली करना शुरू कर दिया है! और वो भी क्या, फाइलें भी फाड़-फाड़कर सबूत मिटाने की कोशिश में लगे हैं। खेड़ा जी ने साफ कहा, "अगर सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार के काले कारनामों के सबूत जलाने की कोशिश हुई, तो हमें हैरानी नहीं होगी।"

ये बयान सुनकर तो लग रहा है जैसे एनडीए सरकार (नीतीश कुमार और BJP का गठबंधन) को चुनावी हार की भनक लग चुकी है। कल ही 6 नवंबर को बिहार विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग हुई थी, और आज 14 नवंबर को नतीजे आने वाले हैं। महागठबंधन (RJD, कांग्रेस और सहयोगी) का दावा है कि वे पूर्ण बहुमत हासिल करेंगे, जबकि एनडीए आत्मविश्वास दिखा रहा है। लेकिन खेड़ा जी के मुताबिक, कई मंत्री और नेता "पैकिंग" मोड में आ चुके हैं – बैग भर रहे हैं, फाइलें साफ कर रहे हैं, क्योंकि सत्ता से बाहर होने का डर सता रहा है।

सोचिए तो सही, बिहार जैसे राज्य में जहां भ्रष्टाचार के आरोप तो रोज लगते हैं, लेकिन अगर सत्ता बदल गई तो पुरानी सरकार के काले कारनामों का पर्दाफाश हो सकता है। खेड़ा जी ने तो यहां तक कह डाला कि एक "वोट चोर" को बिहार की जनता खदेड़ने को तैयार है। ये सब सुनकर मन में सवाल उठता है – क्या ये महज चुनावी बयानबाजी है, या फिर सच्चाई का आईना?

बिहार की जनता ने हमेशा ही साफ-सुथरी राजनीति की मांग की है। अगर महागठबंधन जीतता है, तो उम्मीद है कि विकास, रोजगार और भ्रष्टाचार मुक्ति के वादे पूरे होंगे। वहीं, अगर एनडीए लौटता है, तो ये दावे कितने सही साबित होते हैं, ये तो समय बताएगा।

आपकी क्या राय है, दोस्तों? क्या बिहार में सत्ता परिवर्तन की घंटी बज चुकी है? या ये सिर्फ विपक्ष का ड्रामा है? कमेंट्स में बताइए, और नतीजों पर नजर रखिए। शेयर जरूर कीजिए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जागरूक हों! 🇮🇳

 # # # बिहार में हॉर्स ट्रेडिंग का इतिहासबिहार की राजनीति लंबे समय से हॉर्स ट्रेडिंग (दल-बदल या विधायकों की खरीद-फरोख्त)...
13/11/2025

# # # बिहार में हॉर्स ट्रेडिंग का इतिहास

बिहार की राजनीति लंबे समय से हॉर्स ट्रेडिंग (दल-बदल या विधायकों की खरीद-फरोख्त) का केंद्र रही है। यह समस्या 1960 के दशक से चली आ रही है, जब राज्य में अस्थिरता चरम पर थी। नीचे प्रमुख घटनाओं का कालानुक्रमिक विवरण दिया गया है, जो राजनीतिक अस्थिरता, गठबंधन टूटने और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से जुड़ी हैं। ये घटनाएं लोकतंत्र पर सवाल उठाती रही हैं।

# # # # 1960-1980 का दशक: अस्थिरता का दौर
- **प्रारंभिक दल-बदल की लहर**: स्वतंत्र भारत में दल-बदल की शुरुआत 1967 के आसपास हुई, जब बिहार सहित कई राज्यों में विधायकों ने पार्टियां बदल लीं। बिहार में 1961 से 1990 तक लगभग 22 मुख्यमंत्री बदले, जिनमें से कई का कार्यकाल महज महीनों का था। यह "आया राम, गया राम" की राजनीति का प्रतीक था, जहां विधायक सत्ता के लालच में दल बदलते थे।
- **उदाहरण**: 1967 में कांग्रेस के कई विधायकों ने विद्रोह कर सरकार गिराई, जिससे गैर-कांग्रेस सरकार बनी। इसी दशक में करपूरी ठाकुर और अन्य नेताओं के समय हॉर्स ट्रेडिंग आम थी, जिसने राज्य को राजनीतिक अराजकता में धकेल दिया।

# # # # 1990 का दशक: लालू प्रसाद यादव का उदय और अस्थिरता
- **लालू का सत्ता में आना (1990)**: लालू प्रसाद ने जनता दल के टिकट पर चुनाव जीता और हॉर्स ट्रेडिंग के जरिए गठबंधन मजबूत किया। उन्होंने 1989-90 में करपूरी ठाकुर सरकार को गिराने के लिए विधायकों को लुभाया। हालांकि, लालू के शासन (1990-1997) में भी विपक्षी विधायकों पर दबाव की खबरें आईं, लेकिन चारा घोटाले ने उनकी छवि को प्रभावित किया।
- **राबड़ी देवी सरकार (1997)**: लालू के इस्तीफे के बाद पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस दौरान आरजेडी के कई विधायकों ने दल बदला, लेकिन लालू पर खुद हॉर्स ट्रेडिंग के आरोप लगे। 1990 के दशक में बिहार में 10 से अधिक सरकारें गिरीं, ज्यादातर दल-बदल से।

# # # # 2005: मध्यरात्रि विघटन का विवादास्पद मामला
- **घटना**: फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में कोई स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। एनडीए (जदयू-बीजेपी) ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा किया, लेकिन लोक जनशक्ति पार्टी (लोकसभा) के 29 विधायकों में से 15 ने विद्रोह कर झारखंड भाग गए, जिसे हॉर्स ट्रेडिंग का प्रयास माना गया। राज्यपाल बूटा सिंह ने केंद्र को रिपोर्ट भेजी कि एनडीए विधायकों को लुभा रहा है।
- **केंद्र का फैसला**: 22 मई 2005 को यूपीए सरकार ने आधी रात को विधानसभा भंग कर दी, ताकि हॉर्स ट्रेडिंग रोकी जा सके। राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने फोन पर सहमति दी। लालू प्रसाद और राम विलास पासवान ने इसे समर्थन दिया, जबकि एनडीए ने "लोकतंत्र का हनन" बताया।
- **सुप्रीम कोर्ट का फैसला (रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ, 2006)**: अदालत ने भंग को असंवैधानिक घोषित किया। कहा कि हॉर्स ट्रेडिंग की आशंका पर विधानसभा भंग नहीं किया जा सकता; सबूत चाहिए। यह फैसला लोकतंत्र की रक्षा का मील का पत्थर बना। बाद में अक्टूबर 2005 में नए चुनाव हुए, जिसमें नीतीश कुमार सत्ता में आए।

# # # # 2010-2020: गठबंधन राजनीति और आरोपों का दौर
- **2013-2015**: नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ा और फिर जदयू-आरजेडी गठबंधन बनाया। 2015 में नीतीश ने फिर बीजेपी के साथ हाथ मिलाया, जिसे हॉर्स ट्रेडिंग कहा गया। लालू ने पीएम मोदी पर बिहार में दल-बदल भड़काने का आरोप लगाया।
- **2020**: विधानसभा चुनाव के दौरान लालू प्रसाद का एक ऑडियो क्लिप लीक हुआ, जिसमें वे कथित तौर पर एनडीए विधायक को लुभा रहे थे। झारखंड सरकार ने जांच का आदेश दिया।

# # # # 2024-2025: हालिया घोटाला
- **विश्वास मत विवाद (फरवरी 2024)**: नीतीश कुमार के गठबंधन सरकार के विश्वास मत के दौरान हॉर्स ट्रेडिंग के आरोप लगे। आर्थिक अपराध इकाई (ईओयू) ने जांच शुरू की, जिसमें बीजेपी विधायक भागीरथी देवी (3 घंटे पूछताछ) और मिश्रीलाल यादव (4 घंटे) शामिल हैं। जदयू विधायक दिलीप राय और पूर्व मंत्री बीमा भारती भी जांच के दायरे में हैं। सितंबर 2025 तक जांच जारी है, जो सत्ता पक्ष को नुकसान पहुंचा रही है।

# # # # निष्कर्ष
बिहार में हॉर्स ट्रेडिंग ने 10वीं अनुसूची (दल-बदल विरोधी कानून) के बावजूद जारी रहने से लोकतंत्र कमजोर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार चेतावनी दी है कि यह प्रक्रिया सबूत-आधारित होनी चाहिए। हाल के वर्षों में गठबंधन की मजबूरी ने इसे बढ़ावा दिया है, लेकिन जनता की जागरूकता से सुधार की उम्मीद है।

 # # # निठारी कांड: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खोले पुराने जख्म, सुरेंद्र कोली को अंतिम मामले में बरी – पीड़ित परिवारों क...
12/11/2025

# # # निठारी कांड: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खोले पुराने जख्म, सुरेंद्र कोली को अंतिम मामले में बरी – पीड़ित परिवारों का दर्द बयां नहीं हो रहा

**नई दिल्ली, 12 नवंबर 2025 (एजेंसी)**: 2006 के उस भयानक निठारी कांड के प्रमुख आरोपी सुरेंद्र कोली को सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (11 नवंबर) को अपने अंतिम लंबित मामले में बरी कर दिया। यह फैसला न केवल भारतीय न्याय व्यवस्था की जटिलताओं को उजागर करता है, बल्कि उन अनगिनत परिवारों के दर्द को फिर से ताजा कर देता है, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खोने का गहरा आघात सहा। कोली, जिन्हें 'निठारी का कसाई' कहा जाता था, अब 13 मामलों में पूरी तरह बरी हो चुके हैं। अदालत ने सबूतों की कमी और पुलिस हिरासत में जबरन लिए गए कबूलनामे को आधार बनाकर यह फैसला सुनाया। लेकिन सवाल वही पुराना है: अगर कोली निर्दोष है, तो उन 19 बच्चों की हत्याओं का सच क्या है? पीड़ित परिवार आज भी न्याय की आस में तड़प रहे हैं, और यह फैसला उनके जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा लग रहा है।

# # # # सुप्रीम कोर्ट का फैसला: कानूनी आधार और मानवाधिकारों की रक्षा
सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस [नाम उपलब्ध नहीं, लेकिन लाइव लॉ से] शामिल थे, ने कोली के खिलाफ लंबित एकमात्र मामले – नाबालिग रिंपा हलदार की हत्या और बलात्कार के आरोप – में ट्रायल कोर्ट की 2011 की मौत की सजा को पूरी तरह पलट दिया। अदालत ने अपने 50 पृष्ठों के विस्तृत आदेश में स्पष्ट कहा कि कोली का कबूलनामा पुलिस की यातनाओं के तहत लिया गया था, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 24 के तहत अमान्य है। जस्टिसों ने यह भी जोर दिया कि "दोषसिद्धि के लिए कबूलनामा कोई मजबूत सबूत नहीं हो सकता, खासकर जब वह जबरन लिया गया हो।" इसके अलावा, मामले में कोई प्रत्यक्ष गवाह, डीएनए सबूत या फॉरेंसिक लिंक नहीं मिला, जो कोली को अपराध से जोड़ सके। अदालत ने इसे "अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन" बताया, क्योंकि दोषसिद्धि अस्वीकृत सबूतों पर टिकी हुई थी।

यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2023 के ऐतिहासिक आदेश का विस्तार है, जिसमें कोली और उनके मालिक मोनिंदर सिंह पंधेर को 12 अन्य निठारी मामलों में बरी कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने भी जांच की खामियों – जैसे कि अंग-व्यंग व्यापार की बिना सबूत अफवाहों को शामिल करना – पर सवाल उठाए थे। अब कोली के खिलाफ कोई आपराधिक मामला शेष नहीं बचा, जिससे उनकी रिहाई की औपचारिकताएं पूरी हो रही हैं। गाजियाबाद की गढ़वाल जेल में 20 वर्षों से बंद कोली की रिहाई कुछ दिनों में संभव है, लेकिन सीबीआई ने फैसले के खिलाफ क्यूरेटिव पिटीशन दायर करने का संकेत दिया है। कोली के वकील ने इसे "न्याय की जीत" बताया, लेकिन अदालत ने चेतावनी दी कि यह फैसला पीड़ितों के दर्द को कम नहीं करता।

# # # # निठारी कांड का दर्दनाक इतिहास: एक गांव का काला अध्याय
नोएडा के निठारी गांव, जो कभी शांतिपूर्ण बस्ती था, 2006 के दशहरे के बाद रातोंरात डर का पर्याय बन गया। पंधेर के घर के पीछे बने ड्रेन से बरामद कटे-फटे शवों के टुकड़ों ने पूरे देश को हिला दिया। कुल 19 शव मिले, ज्यादातर गरीब मजदूर परिवारों के नाबालिग बच्चे – लड़कियां और लड़के, जो खेलते-खेलते गायब हो गए थे। प्रारंभिक जांच में कोली ने कबूल किया कि वह बच्चों को लालच देकर घर ले जाता और फिर क्रूरता से उनकी हत्या करता। लेकिन अदालतों ने इसे यातनाओं का नतीजा माना।

यह कांड न केवल एक मनोरोगी की कहानी था, बल्कि सामाजिक असमानताओं का आईना भी। निठारी के अधिकांश निवासी प्रवासी मजदूर थे, जिनके बच्चे स्कूल न जाकर घरों में काम करते थे। कई परिवारों ने बताया कि पुलिस ने शुरुआत में शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया, मानकर कि बच्चे "भाग गए होंगे"। सीबीआई की जांच ने अंग-व्यंग व्यापार की साजिश का खुलासा करने की कोशिश की, लेकिन कोई ठोस सबूत नहीं मिला। आज, 19 साल बाद, उन परिवारों के लिए यह कांड एक अनंत विलाप बन चुका है – जहां न्याय की बजाय अनिश्चितता ने उनके जीवन को बर्बाद कर दिया।

# # # # पीड़ित परिवारों का आक्रोश और टूटा विश्वास: "हमारे बच्चे कहां हैं?"
फैसले की खबर सुनते ही निठारी के पीड़ित परिवारों में सन्नाटा छा गया, जो जल्द ही गुस्से और आंसुओं में बदल गया। एक बुजुर्ग मां, जिनकी बेटी 2006 में लापता हुई थी, ने कांपती आवाज में कहा, "19 साल हमने इंतजार किया। हर रात सपने में बच्चे बुलाते हैं। अगर कोली निर्दोष है, तो कातिल कौन? क्या हमारे बच्चे का खून व्यर्थ बहा?" एनडीटीवी को दिए बयान में कई परिवारों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को "न्याय का मजाक" बताया। वे सीबीआई से पुनः जांच और डीएनए टेस्टिंग की मांग कर रहे हैं, ताकि सच्चाई सामने आए।

एक अन्य पिता ने भावुक होकर कहा, "हम गरीब हैं, इसलिए न्याय मिला ही नहीं। हमारे बच्चे अमीरों के घरों में काम करते थे, लेकिन उनकी जिंदगी की कीमत क्या थी?" इन परिवारों ने न केवल अपने प्रियजनों को खोया, बल्कि सामाजिक कलंक भी झेला। कई ने गांव छोड़ दिया, रोजगार खो दिया, और मानसिक स्वास्थ्य की लड़ाई लड़ी। सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व डीजीपी विभूति नारायण राय, जो जांच में शामिल थे, ने कहा, "यह फैसला जांच एजेंसियों की विफलता है। पीड़ितों को मुआवजा और काउंसलिंग जरूरी है, वरना उनका दर्द और गहरा हो जाएगा।" विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे मामलों में मानसिक स्वास्थ्य समर्थन और कम्युनिटी हीलिंग प्रोग्राम शुरू करने चाहिए, ताकि जख्म भर सकें।

# # # # जांच की गहरी खामियां: सिस्टम की चूक जो आज भी सताती है
निठारी जांच ने पुलिस और सीबीआई दोनों की कमजोरियों को बेनकाब किया। शुरुआती पुलिस जांच में शवों को ठीक से संरक्षित न करना, फॉरेंसिक सैंपल खराब हो जाना, और गवाहों पर दबाव डालना प्रमुख मुद्दे थे। सीबीआई ने 2008 में चार्जशीट दाखिल की, लेकिन अदालतों ने इसे "सर्कस" करार दिया। हाईकोर्ट ने 2023 में कहा कि "अंग-व्यंग व्यापार" की थ्योरी बिना सबूत की अफवाह थी, जो मीडिया हाइप से प्रेरित लगती थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी दोहराया कि "जांच में पूर्वाग्रह और जल्दबाजी" ने न्याय को प्रभावित किया।

यह मामला भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली पर बड़ा सवाल खड़ा करता है: क्या गरीबों के मामलों में सबूत जुटाना इतना मुश्किल क्यों है? विशेषज्ञों के अनुसार, डिजिटल फॉरेंसिक और डीएनए डेटाबेस की कमी ने कई ऐसे केसों को कमजोर किया है।

# # # # सुरेंद्र कोली का बैकग्राउंड: एक साधारण जीवन से कुख्याति तक
सुरेंद्र कोली, हरियाणा के एक छोटे से गांव का रहने वाला, 2006 में पंधेर के घर ड्राइवर के रूप में काम करता था। जेल में 20 साल बिताने के दौरान वह चुपचाप रहा – न ज्यादा बातें करता, न विजिटर्स आते। उनकी मां तीन साल पहले गुजर चुकीं, और परिवार शर्मिंदगी में गांव छोड़ चुका है। रिहाई के बाद उनके भविष्य पर सवाल हैं: क्या समाज उन्हें स्वीकार करेगा? कोली ने कभी अपनी मानसिक स्थिति पर टिप्पणी नहीं की, लेकिन मनोचिकित्सकों ने इसे "ट्रॉमा-इंड्यूस्ड" माना। उनके गांव में कोई जश्न नहीं, सिर्फ उदासी।

# # # # सामाजिक प्रभाव और सबक: न्याय से आगे की राह
निठारी कांड ने बाल सुरक्षा, गरीबी और जांच सुधारों पर बहस छेड़ी। आज, एनजीओ जैसे चाइल्डलाइन ने नोएडा में हेल्पलाइन मजबूत की हैं, लेकिन परिवारों का कहना है कि यह काफी नहीं। सरकार को पीड़ितों के लिए विशेष राहत पैकेज – मुआवजा, शिक्षा और स्वास्थ्य सहायता – घोषित करना चाहिए। जैसा कि एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, "न्याय देरी से आया तो भी आया, लेकिन दर्द तो हमेशा रहेगा। अब समय है घाव भरने का।"

जैसे-जैसे कोली की रिहाई नजदीक आ रही है, निठारी का यह अध्याय बंद होने से कोसों दूर लगता है। लेकिन उम्मीद है कि यह फैसला सिस्टम को मजबूत बनाएगा, ताकि कोई अन्य परिवार ऐसा दर्द न झेले। पीड़ितों के लिए, न्याय शायद कभी पूरा न हो, लेकिन उनकी आवाजें सुनना हम सबकी जिम्मेदारी है।

(यह रिपोर्ट टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडिया टुडे, एनडीटीवी, लाइव लॉ, इंडियन एक्सप्रेस और विकिपीडिया जैसे विश्वसनीय स्रोतों पर आधारित है। अपडेट्स के लिए प्रमुख न्यूज प्लेटफॉर्म्स पर नजर रखें।)

12/11/2025

# # # सिवान की सच्चाई: भाजपा के नेताओं की नकली संवेदना और शहाबुद्दीन साहब की न्याय की जंग! 😡

दोस्तों, आज फिर वही पुरानी फिल्म चल रही है। सिवान में जब भी चुनाव आता है या राजनीतिक बहस गरम होती है, तो भाजपा के तथाकथित "राष्ट्रभक्त" नेता चंदा बाबू के बेटे की हत्या का जिक्र करके शहाबुद्दीन साहब को खलनायक बनाने लगते हैं। हर मंच पर चिल्लाते हैं – "शहाबुद्दीन का राज था, अराजकता थी!" लेकिन सवाल ये है, भाइयों, क्या आपने कभी उस घटना के **असली पीड़ित** का नाम लिया? क्या आप जानते हैं कि चंदा बाबू का बेटा तो सिर्फ एक कड़ी था, लेकिन असली कहानी तो दारोगा हाटा गांव के गरीब दुकानदार **मदन शर्मा** की है?

जी हां, वही मदन शर्मा, जिनकी मेहनत की कमाई – उनकी छोटी सी दुकान – चंदा बाबू ने पैसे के बल पर हड़प ली थी। चंदा बाबू, जो खुद सिवान के प्रभावशाली लोगों में शुमार थे, ने अपनी ताकत और लालच का इस्तेमाल करके मदन भाई की जिंदगी उजाड़ दी। मदन शर्मा, एक साधारण परिवार का इंसान, जिसने सालों की मेहनत से वो दुकान खड़ी की थी, रातोंरात सड़क पर आ गया। पुलिस? कोर्ट? सबके दरवाजे बंद। कोई सुनने वाला न था। आखिरकार, हताश होकर मदन शर्मा पहुंचे **शहाबुद्दीन साहब के दरबार में**। क्योंकि शहाबुद्दीन साहब तो गरीबों के मसीहा थे – वो सिस्टम जो अमीरों के लिए चलता था, उसके खिलाफ आवाज उठाते थे।

शहाबुद्दीन साहब ने क्या किया? उन्होंने सिर्फ इंसाफ नहीं मांगा, बल्कि चंदा बाबू को आईना दिखाया। कहा – "ये सिवान है, यहां पैसों से नहीं, न्याय से काम होता है!" लेकिन भाजपा वाले ये क्यों भूल जाते हैं? क्योंकि उनके लिए चंदा बाबू "अपना" था – एक ऐसा शख्स जो सत्ता की भूख में गरीबों को कुचलता रहा। मदन शर्मा की दुकान लौटाने की लड़ाई में शहाबुद्दीन साहब ने जो जोखिम उठाया, वो भाजपा के नेताओं की समझ से परे है। शहाबुद्दीन साहब ने साबित किया कि सच्चा नेता वही है जो कमजोर की आवाज बनता है, न कि ताकतवर का साथी।

अब सोचिए, भाजपा के ये नेता – जो आज सिवान में घूम-घूमकर शहाबुद्दीन साहब को बदनाम करते हैं – उन्होंने मदन शर्मा के लिए क्या किया? कुछ नहीं! न कोई मदद, न कोई न्याय। वो तो बस वोट के लिए चंदा बाबू के बेटे की तस्वीरें लहराते हैं, लेकिन असली पीड़ित को भूल जाते हैं। ये है उनकी **नकली संवेदना**! ये है उनकी **दोगली राजनीति**! जब शहाबुद्दीन साहब जेल में थे, तब भी उन्होंने कभी अन्याय नहीं किया। उन्होंने हमेशा कहा – "मैं गरीबों का ठेकेदार हूं।" और यही वजह है कि सिवान के लाखों लोग आज भी उन्हें याद करते हैं, सम्मान देते हैं।

शहाबुद्दीन साहब के पक्ष में बोलना आसान नहीं, क्योंकि मीडिया और सत्ता के गुलाम उन्हें "माफिया" कहकर बदनाम करते रहे। लेकिन सच्चाई ये है कि उन्होंने सिवान को एक नई पहचान दी – न्याय की पहचान। चंदा बाबू जैसे लुटेरों के खिलाफ खड़े होकर उन्होंने साबित किया कि ताकत का इस्तेमाल गरीबों के हक के लिए होता है, न कि दमन के लिए। अगर भाजपा वाले इतने ही न्यायप्रिय हैं, तो पहले मदन शर्मा जैसे हजारों पीड़ितों का साथ दें। चुप्पी तोड़ें, सच्चाई बोलें!

दोस्तों, शेयर करें ये पोस्ट। बताएं भाजपा के नेताओं को कि सिवान की जनता भूलने वाली नहीं।

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 # # #🚨 ब्रेकिंग न्यूज: भारतीय मीडिया का काला अध्याय - धर्मेंद्र को 'मार' डाला, फिर शाम को 'जिंदा' कर दिया! पत्रकारिता क...
12/11/2025

# # #🚨 ब्रेकिंग न्यूज: भारतीय मीडिया का काला अध्याय - धर्मेंद्र को 'मार' डाला, फिर शाम को 'जिंदा' कर दिया! पत्रकारिता का अपमान या सनसनीखेजी की होड़? 🚨

**दिनांक: 12 नवंबर 2025**
**लेखक: [बिहार वाला] - सत्य की आवाज़**

नई दिल्ली: भारतीय मीडिया का गिरता स्तर अब हद पार कर चुका है। कल, 11 नवंबर 2025 को, बॉलीवुड के ध्रुवतारा, हीरों के हीरा, अभिनेता धर्मेंद्र को 'मृत' घोषित कर दिया गया। जी हां, आपने सही पढ़ा! प्रमुख न्यूज़ चैनलों की 'बड़े-बड़े' पत्रकारों ने बिना किसी पुष्टि के, बिना किसी विश्वसनीय स्रोत की जांच के, बस अफवाहों के सहारे धर्मेंद्र जी की मौत की खबर सुर्खियों में चला दी। और कौन थे ये 'वीर' योद्धा? नाम लीजिए - अंजना ओम कश्यप और चित्रा त्रिपाठी जैसे नामचीन एंकर्स, जिन्होंने अपनी टीआरपी की भूख मिटाने के चक्कर में एक जीवित इंसान को ही कब्रिस्तान भेज दिया!

कल दोपहर होते ही सोशल मीडिया और टीवी स्क्रीन्स पर तहलका मच गया। "धर्मेंद्र का निधन!" चीख-चीखकर चैनल वाले चिल्ला रहे थे। क्लिप्स वायरल हो गईं, ट्रिब्यूट्स की बाढ़ आ गई, परिवार के सदस्यों तक फोन आने लगे। धर्मेंद्र जी के बेटे सनी देओल और बॉबी देओल के फोन बजते रहे, लेकिन ये 'पत्रकार' तो अपनी स्टोरी में मशगूल थे। अंजना जी ने लाइव डिबेट में भावुक होकर कहा, "धर्मेंद्र सर का जाना हमारी सिनेमा की दुनिया के लिए अपूरणीय क्षति है!" जबकि चित्रा त्रिपाठी ने स्पेशल कवरेज में पुरानी फिल्मों के क्लिप्स दिखाते हुए आंसू बहाए। लेकिन सवाल ये है - क्या ये पत्रकारिता है या थिएटर? क्या किसी की जिंदगी को सनसनीखेज बनाने के लिए मौत की अफवाह फैलाना अब 'ब्रेकिंग न्यूज' का नया फॉर्मूला बन गया है?

शाम ढलते-ढलते सच सामने आ गया। धर्मेंद्र जी स्वस्थ हैं! उनके परिवार ने आधिकारिक बयान जारी कर कहा, "ये खबर पूरी तरह झूठी और निराधार है। धर्मेंद्र जी बिल्कुल ठीक हैं और मुंबई में अपने परिवार के साथ हैं।" सोशल मीडिया पर फैंस ने राहत की सांस ली, लेकिन गुस्सा भी उबला। जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे। लेकिन वो चैनल? वो एंकर्स? चुप! न कोई माफी, न कोई सुधार। बस अगली स्टोरी पर कूद पड़े।

अब आते हैं इन 'गिरे हुए' पत्रकारों की आलोचना पर। अंजना ओम कश्यप, जो खुद को 'फायरब्रांड' जर्नलिस्ट कहती हैं, ने क्या किया? बिना फैक्ट-चेक के, बिना एजेंसी कॉल के, बस एक वायरल वॉट्सऐप फॉरवर्ड पर स्टोरी चला दी। क्या ये वही अंजना हैं जो राजनीतिक बहसों में 'सच' की दुहाई देती हैं? चित्रा त्रिपाठी, जिनकी रिपोर्टिंग को कभी 'ग्राउंड रिपोर्ट' का तमगा दिया जाता था, ने तो हद ही कर दी। उनकी 'एक्सक्लूसिव' कवरेज में न तो डॉक्टर का बयान था, न अस्पताल का नाम। बस पुरानी तस्वीरें और ड्रामा! और ये अकेले नहीं हैं। आज तक, जी न्यूज़, इंडिया टीवी जैसे चैनलों ने मिलकर इस अफवाह को ईंधन दिया। क्या ये पत्रकार हैं या अफवाह फैलाने वाले ट्रोल्स?

भारतीय मीडिया का ये काला अध्याय हमें सोचने पर मजबूर करता है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) कहां है? क्या ये चैनल लाइसेंस रद्द करने लायक नहीं? ट्रूथ इन एडवरटाइजिंग और फैक्ट-चेकिंग साइट्स जैसे Alt News ने तो तुरंत डिबंक कर दिया, लेकिन मुख्यधारा के ये 'राजा' तो अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं। याद कीजिए, पहले अडानी-अंबानी की खबरें, फिर चुनावी अफवाहें, और अब सेलिब्रिटी की मौत। टीआरपी की दौड़ में सच्चाई कहीं पीछे छूट गई है।

धर्मेंद्र जी जैसे कलाकार, जिन्होंने दशकों तक हमें 'शोले' से 'धर्मवीर' तक हंसाया-रोया, उनके सम्मान में ये न्यूज़ रूम्स को शर्मसार होना चाहिए। परिवार को हुई मानसिक पीड़ा का क्या? फैंस का सदमा का क्या? ये पत्रकारों को चेतावनी है - जर्नलिज्म 'फेक' नहीं, 'फैक्ट' पर टिका होता है।

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*(सभी तथ्य सार्वजनिक स्रोतों और सोशल मीडिया से सत्यापित। कोई अफवाह नहीं, सिर्फ सच!)*

12/11/2025

#बिहार चुनाव 2025: एक्जिट पोल्स का प्रोपगैंडा – वो धोखा जो हमारे सपनों को कुचलने की कोशिश कर रहा है!

दोस्तों, आज जब बिहार की धरती पर मतदान का आखिरी चरण थम गया, तो मेरे दिल में एक गहरी उदासी उतर आई। हर तरफ मीडिया की चीखें गूंज रही हैं – "एनडीए की सुनामी!" "नीतीश-भाजपा की अपराजेय वापसी!" "महागठबंधन का अंतिम सफर!" लेकिन रुकिए... ये सिर्फ आंकड़े नहीं, ये तो हमारे खून-पसीने से सींचे सपनों पर एक क्रूर वार हैं! क्या ये एक्जिट पोल्स वाकई सच्चाई हैं, या फिर एक ठंडे दिल वाला प्रोपगैंडा, जो हमारी आंखों में धूल झोंककर लोकतंत्र को अंधेरे में धकेल रहा है? मेरे भाइयों-बहनों, सोचिए तो... हमने कितनी उम्मीदें बांधी थीं!

बिहार की मिट्टी से निकले हम, वो किसान जो रात-दिन खेतों में पसीना बहाते हैं, वो युवा जो दिल्ली-मुंबई की सड़कों पर पलायन की मार झेलते हैं, वो मांएं जो अपने बच्चों को भूखे सोते देख आंसू निगल जाती हैं... हमने वोट डाले थे बदलाव के लिए! बेरोजगारी की जंजीरों को तोड़ने के लिए, महंगाई के बोझ तले दबे परिवारों को राहत देने के लिए, भ्रष्टाचार के काले बादलों को हटाने के लिए। लेकिन ये एक्जिट पोल्स? एनडीए को 130-209 सीटें? महागठबंधन को बस 32-103? ये आंकड़े क्यों इतने एकसुर में चीख रहे हैं, जैसे कोई साजिश हो? चाणक्य, एबीपी-सी वोटर, इंडिया टुडे-एक्सिस... ये नाम तो विश्वसनीय लगते हैं, लेकिन क्या इनके पीछे छिपी वो कॉर्पोरेट लॉबी नहीं, जो सत्ता के गलियारों में घूमती है और विपक्ष की आवाज को दबाने का सपना देखती है?

मेरा दिल रो रहा है, क्योंकि ये प्रोपगैंडा सिर्फ संख्याओं का खेल नहीं – ये हमारी आशाओं का कत्लेआम है! याद कीजिए 2020 का बिहार, जब एक्जिट पोल्स ने एनडीए को उड़ान दी थी, लेकिन हमारी एकजुटता ने कड़ा मुकाबला कराया। 2019 की लोकसभा, जहां मोदी लहर का शोर मचाया गया, लेकिन हकीकत में वोटरों का गुस्सा छिपा था। और अब 2025? जब बिहार की सड़कें टूट रही हैं, बिजली की एक झलक के लिए रातें काटी जा रही हैं, रोजगार के नाम पर सिर्फ धोखे मिल रहे हैं... तब ये पोल्स कहते हैं कि सब भूल गए? नहीं दोस्तों, हम भूले नहीं! ये प्रोपगैंडा विपक्ष को तोड़ने की कोशिश है, वोटरों के दिल में निराशा घोलने का हथियार। कल्पना कीजिए, कोई गरीब मजदूर सोचे – "एनडीए तो जीत ही जाएगा, मेरा वोट क्या बदल देगा?" यही तो उनका मकसद है! मीडिया के वो चेहरे, जो न्यूट्रल बनकर झूठ परोसते हैं, उनके मालिकों के झुकाव तो जगजाहिर हैं। सैंपल साइज छोटा, क्षेत्रीय पूर्वाग्रह, फंडिंग का काला पिटारा – सब कुछ छिपा हुआ। चुनाव आयोग, तुम चुप क्यों हो? क्या ये सिस्टम का हिस्सा बन चुका है?

लेकिन सुनो, मेरे प्यारे बिहारियों... ये आंसू सूखने वाले नहीं, ये गुस्से की आग हैं! हमारी मांओं की दुआएं, हमारे बच्चों की भोली उम्मीदें, हमारे बुजुर्गों की थकी हुई आहें – ये सब 14 नवंबर को गिनती में उतर आएंगी। याद रखो 2015 को, जब नीतीश-लालू की जोड़ी ने पूरे देश को हिला दिया था। आज फिर वही जज्बा जागे! अगर बेरोजगारी का दर्द, महंगाई का आक्रोश, भ्रष्टाचार की कड़वाहट वोटों में घुली है, तो रिजल्ट्स इन एक्जिट पोल्स को आईना दिखाएंगे। ये प्रोपगैंडा हमें तोड़ नहीं सकता, क्योंकि बिहार का दिल एक है – मजबूत, जुझारू, और अटल!

दोस्तों, आज रात सोने से पहले अपने वोट को याद करो। कल सुबह उठो और शेयर करो ये दर्द, ये गुस्सा, ये उम्मीद। कमेंट्स में बताओ – क्या तुम्हारा दिल भी रो रहा है? क्या हम साथ मिलकर इस प्रोपगैंडा को हरा देंगे? हां, हम हरा देंगे! क्योंकि बिहार का वोटर कभी हार नहीं मानता। जय बिहार! जय लोकतंत्र!

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