09/08/2025
संभोग की कमी रिश्तों में दूरी ही नहीं बल्कि बगावत भी पैदा करती है
शादी की पहली रात थी। बाहर अमावस की चांदनी अंधेरे से आंखमिचौली कर रही थी, और कमरे में हल्के गुलाब के फूलों की ख़ुशबू बसी हुई थी। लेकिन वह कमरा एक बाग़ नहीं था, न ही उसमें कोयल की कूजन थी — वहां तो बस एक अजनबीपन की चादर तनी हुई थी।
लड़की पलंग के किनारे बैठी थी — आँखे झुकी हुई, मन उलझा हुआ। तभी लड़का भीतर आया, हाथ में दूध का गिलास। उसका चेहरा शांत, चाल में न आग्रह था, न अधिकार। वह जैसे कोई मेहमान हो जो जल्द लौट जाने की तैयारी में हो।
लड़की ने पहली ही बात में तीर चला दिया — “अगर एक पत्नी की मर्ज़ी के बिना पति उसे छुए, तो क्या वो अधिकार कहलाता है या अपराध?”
लड़के ने उसकी आँखों में झाँककर कहा — “आपके सवाल में जो गहराई है, उसका जवाब मेरे शब्दों में नहीं, मेरे व्यवहार में होगा। ये दूध आपके लिए है। शुभरात्रि।”
और वह धीरे से लौट गया।
लड़की अचकचा गई। यह प्रत्युत्तर नहीं था, बल्कि धड़कनों को जड़ कर देने वाला धैर्य था। उसे लगा था कि बहस होगी, तकरार होगी, और फिर वह इस रिश्ते से निकलने की कोई राह बना पाएगी। पर सामने जो खड़ा था, वह कोई गंवार युवक नहीं, बल्कि सलीके और संस्कार से गढ़ा हुआ मनुष्य था।
दिन गुजरते गए।
लड़की हर रोज़ स्कूटी लेकर निकलती — दरअसल, अपने उस प्रेमी से मिलने, जिसके साथ वो शादी से पहले मोहब्बत के बंधन में थी। अब वो प्रेमी भी बदल गया था। मिलने पर अब गीत नहीं गाता, कहता — “थोड़े पैसे लाओ... कुछ गहने... इश्क़ सिर्फ़ जज़्बात से नहीं चलता।”
अब वो लड़की भी समझने लगी थी — जिस रिश्ते को वह सहेजना चाहती थी, उसमें प्रेम नहीं, सिर्फ़ स्वार्थ पल रहा था।
उधर उसका पति — वही शांतचित्त पुरुष — हर शाम चुपचाप बैठकर डायरी लिखता, मां की दवाई लाता, सब्ज़ी काटता और घर के कामों में हाथ बँटाता।
एक दिन लड़की ने घर छोड़ने का मन बनाया — एक झगड़े का बहाना तलाशा, ताकि जा सके। रात को वह चुपचाप अलमारी के पास पहुँची। पर अलमारी खोली तो वहाँ भावनाओं का खज़ाना रखा था:
वो सारे रुपये, जो शादी में मिले थे — ज्यों के त्यों सहेजकर।
ज़ेवरों की रसीदें — सिर्फ़ लड़की के नाम।
और एक डायरी — जिसने कहानी का रुख ही बदल दिया।
डायरी में लिखा था —
> “मैं जानता हूँ तुम मुझसे प्रेम नहीं करती। तुम्हारे पिताजी ने मेरी माँ की जान बचाई थी। जब उन्होंने रिश्ता माँगा, तब तुम्हारे उस प्रेमी की सच्चाई भी बताई।
मैंने तुम्हारे नाम पर सारा दहेज दान कर दिया। पति तो अच्छा न बन सका, पर शायद इंसान बनने की कोशिश कर रहा हूँ।
ये तलाक़ के कागज़ात हैं — जब चाहो, बिना डर के साइन कर जाना। तुम्हारी आज़ादी में ही मेरी मोहब्बत है।”
लड़की फूट-फूटकर रो पड़ी।
जिसे उसने “सीधा-सादा गंवार” समझा था, वो तो सबसे बड़ा सज्जन पुरुष निकला — प्रेम का असली अर्थ उसी ने समझाया।
सुबह, वही लड़की जो सिंदूर को छिपा कर लगाती थी, अब पूरे माथे पर एक लंबी रेखा खींचे रसोई में खड़ी थी। सास को स्कूटी पर बैठाकर ऑफिस पहुँची — उसी ऑफिस में जहाँ उसका पति कार्य करता था।
वहाँ सबने ताली बजाई।
और वह लड़का — जो अब भी चुप ही था — बस मुस्कुरा रहा था। वह मुस्कान किसी विजय की नहीं थी, वह तो त्याग और प्रेम का प्रमाण थी।
> “प्रेम वह नहीं जो अधिकार जताए,
प्रेम वह है जो अधिकार होते हुए भी मौन रहे,
और मौन में भी तुम्हारी आज़ादी को दुआ देता रहे।”
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कि प्रेम दिखावे से नहीं, समझ और त्याग से जीवित रहता है।