11/02/2025
हंसी के नाम पर…"
कभी हंसी में थी सादगी,
ठहाके भी गूंजते थे शराफत में।
अब मज़ाक बिकता है,
बेहयाई की हिफ़ाज़त में।
जोकर बने थे कभी,
दिलों को हंसाने के लिए,
अब मंच पर आते हैं,
गालियां सुनाने के लिए।
हंसी के नाम पर अब,
नंगई परोसी जाती है,
अभिव्यक्ति की आड़ में,
शर्मो-हया बेची जाती है।
कभी बाप पर, कभी माँ पर,
बेहूदा जोक सुनाते हैं,
संस्कृति की चिता जलाकर,
तालियां बजवाते हैं।
संस्कृति का मज़ाक उड़ाकर,
दौलत तो कमाओगे,
पर याद रखना,
अपने बच्चों को क्या सिखाओगे?
कभी फिर लौटेगी,
हंसी वो साफ़-सुथरी,
जहाँ ठहाके गूंजेंगे,
न होगी कोई गंदगी!
- दिवेश झा