17/09/2025
बिहार में सैकड़ों लोग ऐसे होंगे जिनमें राजनीतिक कौशल, धन बल और जन बल होगा। निःसंदेह वो कोशिश कर भी रहे होंगे कि उनकी राज्य की राजनीति में एक बड़ी भूमिका हो।
लेकिन राजनीति में "चेहरा" बनना कई संयोगों को मिला कर होता है। आपके और हमारे हाथ में सब कुछ नहीं होता है। व्यक्तिगत कर्म, संगठन और जनता की आकांक्षा के साथ साथ परिस्थिति, इन चार प्रमुख तत्वों के संयोजनों के बीच से जो छवि आकार लेती है, उसी से "राजनीतिक चेहरा" का निर्माण होता है। यदि यह संयोग मिल गया तो सफलता अपरिहार्य हो जाती है। ... मुख्यतः व्यक्तिगत कर्म, संगठन और जनता की आकांक्षाओं के संयोजन से भी आप परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर लेते हैं।
इसे जरा और सरलता से समझिए। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के पास राजनीति के कद्दावर लोग थे, लेकिन उसके पास लोहिया जैसा चेहरा नहीं था। तब लोहिया ने समाजवादी आंदोलन को लीड किया। ...कोई रोक नहीं सका।
पिछले कई दशक से कांग्रेस के पास एक चेहरा नहीं था। सड़क पर तप कर राहुल गांधी कांग्रेस का चेहरा बन गए हैं। सत्ता पक्ष के पास मोदी को छोड़ दें तो अब चेहरे का संकट है।
थोड़ा बिहार के एक और उदाहरण पर गौर कीजिए। दो दल हुआ करते थे, समता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड। समता पार्टी का चेहरा नीतीश कुमार थे और जनता दल यूनाइटेड के पास नेता शरद यादव थे लेकिन वे बिहार के लिए "चेहरा" नहीं थे। दोनों दलों का विलय हुआ, फिर नीतीश जी आगे बढ़ चले।
नीतीश जी के रास्ते में कई कांटे बिछे थे। जार्ज फर्नांडिस और दिग्विजय सिंह, उनके साथ अरुण कुमार, प्रभुनाथ सिंह..एक बार संभवतः साल 2000 में ऐसी चर्चा होने लगी कि नीतीश जी को समता पार्टी से ही बाहर होना पड़ सकता है। लेकिन अंततः क्या हुआ, सबने देखा। तब समता पार्टी में "राजनीतिक चेहरा" नीतीश कुमार थे, उनके बिना कुछ भी दम नहीं था।
कोई भी राजनीतिक दल किसी भी व्यक्ति को जबरजस्ती पेश कर पद और ताकत तो दे सकता है, लेकिन चेहरा नहीं बना सकता है। वह तो राजनीति में दुर्लभ चीज है। इसी जनता दल यूनाइटेड से निकले उपेन्द्र कुशवाहा "राजनीतिक चेहरा" बन गए, लेकिन आरसीपी सिंह "चे" तक नहीं बन सके। बिहार बीजेपी में अभी तक कोई भी नेता "राजनीतिक चेहरा" नहीं बन सका है; शाहनवाज हुसैन का बतौर उद्योग मंत्री उभार हो रहा था, लेकिन उनका सफर अधूरा रह गया।
राजनीति में कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो सत्ता के नेता होते हैं। वे जब तक सत्ता में होते हैं, तब तक बड़ी शक्तिशाली दिखाई देते हैं, लेकिन "राजनीतिक चेहरा" नहीं बन पाते हैं। ऐसे लोग किसी भी राजनीतिक जमात का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं होते हैं। हमारा मानना है कि सबके हिस्से में संघर्ष होना ही चाहिए अन्यथा वह अपने लोगों की पहचान कैसे कर सकेगा?
सोने की चम्मच ले कर पैदा हुआ व्यक्ति किसी महतो जी का दर्द कैसे समझ सकेगा? युद्ध लड़े बिना शत्रुओं की पहचान कैसे होगी? आप घाव सहे बिना दवा की कीमत कैसे जानेंगे?
सबके हिस्से में रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां आनी चाहिए...
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मीडिया ट्रायल के तहत बार-बार यह सवाल उठता है कि जेडीयू खत्म हो जाएगी। हम जैसे लोग यह समझते हैं कि बीजेपी के उकसावे पर ही ट्रायल साल 2015 से हो रहा है। बीजेपी की आकांक्षा है कि वह जदयू के वोटरों को नीतीश जी के बाद अपने पाले में कर ले। लेकिन यह दिवास्वप्न है। ऐसा नहीं हो सकता है, यह संभव नहीं है। क्योंकि 20 साल तक सत्ता के शीर्ष क्रम पर रहने के बाद उसके समर्थकों में स्वतंत्र अस्तित्व की भावना जोर पर है। यदि जदयू को खत्म करना है तो उस वर्ग की आकांक्षाओं को खत्म करना होगा...यह कैसे होगा, शायद बीजेपी को यह मालूम नहीं है।
एक चर्चा होती है कि अमुक नेता जदयू को खत्म कर देंगे, बीजेपी में विलय करा देंगे। ऐसी मूर्खतापूर्ण सोच रखने वाले को 2020 याद करना चाहिए। जब 2020 में तीन तरफ से हमले अर्थात चिराग, RCP का छल और उपेंद्र कुशवाहा के सेंध के बावजूद भी जदयू सत्ता में बना हुआ है तो अब कैसे संभव है। याद रखें कि जो भी ऐसा करेंगे, उनका हाल उनके पूर्ववर्ती गद्दारों की तरह होगा।
इस पूरे बिहार में जदयू के लिए सोचने, विचारने वाले लगभग 2000 लोगों की जमात है। ये लोग राजद में भी हैं, बीजेपी में भी, जदयू में भी और जनता में भी है। ये लोग जेडीयू का अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं। ऐसे में किसी नेता की गद्दारी जदयू को खत्म कर दें, यह संभव नहीं है।
हां, यह मानना चाहिए कि विश्वासघात से जेडीयू कमजोर हो सकता है, मजबूत हो सकता है। लेकिन खत्म होने की बात बकवास है। बिहार की लगभग सैकड़ों जातियों में जेडीयू की पैठ है। उन जातियों के आकांक्षाओं की पार्टी जनता दल यूनाइटेड है। जब तक इनकी उम्मीदें रहेंगी, तब तक जनता दल यूनाइटेड का अस्तित्व रहेगा।
एक सवाल बार-बार जनता दल यूनाइटेड के नेता का उभरता है। नीतीश जी के बाद कौन का सवाल बेचैन करता है। लेकिन आप 1989 में संसद में दिए गए नीतीश जी के भाषणों को देखिए। तब नीतीश जी क्या तेजस्वी नेता दिखाई देते हैं! लेकिन वो तब तक बड़े फलक पर नहीं आए जब तक कि 1994 में दस लाख लोगों ने गांधी मैदान में उनका जयघोष नहीं किया। उसके बाद से नीतीश जी ने कभी पीछे नहीं देखा।
अर्थात्, यह जनता तय करती है कि नेता कौन होगा। बिहार में नेता की घोषणा जनता स्वतः स्फूर्त हो कर करती है। अभी नीतीश जी है, जब नहीं होंगे तब जनता ही निर्णय लेगी। किसी व्यक्ति के उपहास और घात से कुछ बिगड़ता तो कौवे की शाप से दुनिया की सारी गाय मर गई होती। याद रखें कि लाशें नोंचते-नोंचते भारत से गिद्ध विलुप्त हो गए।
जब तक हम और आप जैसे सोचने-विचारने वाले 2000 लोग इस बिहार में हैं, तब तक जदयू कभी खत्म नहीं होगा। भरोसा रखिए कि अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा।
~दुर्गेश कुमार