03/09/2025
मां का दर्द। देखिए एक मां अपने बेटे को कैसे पलती है और वही बेटा बड़े होकर कैसे मां को भूल जाते है। दर्द भरी कहानी एक बार जरूर सुनिए
गाँव का दृश्य
गाँव के किनारे एक पुराना घर था। मिट्टी से लिपा आँगन, तुलसी का चौरा, और छप्पर की छत। बरसों पहले जब यह घर बना था, तब इसमें हँसी-खुशी की गूँज थी। आज वही घर, समय की मार से थका-सा, खामोश खड़ा था।
उस घर में रहती थीं सुभद्रा देवी। उम्र पचपन के आस-पास, चेहरा झुर्रियों से भरा, लेकिन आँखों में ममता का समंदर। पति का साया बहुत पहले उठ चुका था, और दो बेटों को अकेले ही पाल-पोसकर बड़ा किया था।
बेटे और बहुएँ
बड़े बेटे का नाम था अमर और छोटे का विजय। दोनों मेहनती और पढ़ाई में अच्छे निकले। सुभद्रा देवी ने जान तोड़ मेहनत की—कभी खेत में हल खींचा, कभी दूसरों के घरों में मजदूरी की।
“मेरे लाल पढ़-लिख लें, तो मेरी सारी तकलीफ सफल हो जाएगी।” वह अक्सर भगवान से यही मन्नत माँगतीं।
समय बीता, दोनों जवान हुए। शादी भी कर दी। अमर की पत्नी का नाम था रेखा—शहर में पली-बढ़ी, आधुनिक सोच वाली। विजय की पत्नी थी कविता—गाँव की लड़की, शांत और सीधी-सादी।
शुरुआती खुशियाँ
शादी के बाद कुछ साल घर में खूब रौनक रही। सुबह रेखा और कविता आँगन में मिलकर चूल्हा जलातीं, माँ तुलसी चौरे पर दिया जलातीं, और बच्चे आँगन में खेलते।
रात को सब मिलकर चौपाल में बैठते। अमर हँसकर कहता— “अम्मा, देखो, अब तो घर पूरा हो गया। आप अकेली नहीं रहीं।”
सुभद्रा देवी मुस्कुरातीं और कहतीं— “हाँ बेटा, अब मेरा आँगन सचमुच घर जैसा लगने लगा है।”
लेकिन सुख के ये दिन ज्यादा लंबे नहीं रहे।
पहला मोड़
अमर को शहर में नौकरी मिल गई। तनख्वाह अच्छी थी। रेखा ने कहा— “गाँव में रहकर क्या होगा? बच्चों की पढ़ाई, हमारी ज़िंदगी… सब रुक जाएगी। हमें शहर जाना चाहिए।”
अमर को भी शहर का आकर्षण खींच रहा था। लेकिन माँ को छोड़ना उसके लिए आसान नहीं था।
एक शाम उसने माँ से बात की। “अम्मा… नौकरी अब पक्की हो गई है। शायद हमें शहर रहना पड़े।”
सुभद्रा देवी चौंकीं— “बेटा, पर यहाँ खेत-खलिहान हैं, घर है… मैं भी तो हूँ।”
अमर धीरे से बोला— “अम्मा, हम हर महीने पैसे भेज देंगे। आपको कोई कमी नहीं होगी।”
माँ की आँखों में आँसू आ गए। “बेटा, पेट पैसे से भर जाएगा, लेकिन आँगन की सूनी दीवारें किससे बोलेंगी?”
अमर चुप हो गया। आखिरकार रेखा की ज़िद और हालात के आगे झुक गया। कुछ ही दिनों में सामान बाँधकर वह परिवार सहित शहर चला गया।
दूसरा मोड़
अब घर में केवल विजय और कविता रह गए। माँ को थोड़ी राहत मिली। कविता उनकी खूब सेवा करती। सुबह उठकर उनके पैर दबाती और कहती— “अम्मा, आप अब अकेली नहीं हैं। हम यहीं रहेंगे।”
लेकिन जब विजय को भी शहर में नौकरी का अवसर मिला, तो कविता का मन भी डोल गया। “सुनो, अमर भैया लोग कितने अच्छे से रह रहे हैं। बच्चों का भविष्य भी वहीं है। हमें भी वहीं जाना चाहिए।”
विजय ने माँ की ओर देखा। “अम्मा, क्या करूँ? एक ओर आप हैं, दूसरी ओर बच्चों का भविष्य।”
माँ ने भारी स्वर में कहा— “जा बेटा… माँ की चिंता मत कर। माँ का जीवन तो इसी लिए है—बच्चों के सपनों की बलि चढ़ाने के लिए।”
विजय रो पड़ा, लेकिन अंत में पत्नी के साथ वह भी शहर चला गया।
सूना घर
अब घर खाली हो गया। सुबह का चूल्हा खुद माँ जलातीं। खेत का काम मजदूरों से करवा लेतीं।
शाम को जब सूरज ढलता तो आँगन सुनसान लगता। कभी तुलसी चौरे से बातें करतीं, कभी दरवाजे की चौखट से।
गाँव की औरतें ताने देतीं— “देखो, कितनी मेहनत से पाला था बेटों को। अब देखो, अकेली रह गईं।”
सुभद्रा देवी बस मुस्कुरा देतीं— “बच्चे तो परिंदे होते हैं बहन, बड़े होते ही उड़ जाते हैं। माँ का दर्भ यही है कि अपने पंख काटकर भी उन्हें उड़ाना पड़ता है।”
त्यौहारों का दर्द
दशहरा, दिवाली, होली—हर त्यौहार पर घर सूना रहता। पहले अमर और विजय मिलकर घर सजाते, बहुएँ पकवान बनातीं, बच्चे पटाखे छोड़ते।
अब सुभद्रा देवी अकेली पकवान बनातीं और थाली में रख देतीं। “अगर बच्चे होते तो ये लड्डू उन पर लुटाती।”
लेकिन वही लड्डू बासी होकर जानवरों को दे दिए जाते।
बीमारी और तन्हाई
एक बार सर्दियों में तेज बुखार आ गया। तीन दिन तक कोई पूछने वाला नहीं। पड़ोस की गंगा ताई ने देखा तो बोलीं— “अरी सुभद्रा, बेटों को खबर क्यों नहीं की?”
सुभद्रा देवी ने धीमे स्वर में कहा— “क्या करेंगे आकर? उनके काम रुक जाएँगे। माँ का दर्भ यही है गंगा… अपने दुख से भी बच्चों को बचाए रखना।”
गाँव वालों ने ही इलाज कराया। बेटे खबर सुनकर आए, लेकिन दो-चार दिन बाद वापस लौट गए।
माँ का पत्र
एक दिन उन्होंने बेटों को पत्र लिखा—
“बेटा अमर और विजय,
तुम्हें दूर देख मेरा मन तड़पता है, पर शिकायत नहीं करती। तुम जहाँ भी रहो, खुश रहो।
घर अब सूना है, पर आँगन अब भी तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। त्योहारों पर, गर्मी की छुट्टियों में, या किसी भी बहाने—कभी लौट आना।
याद रखना, माँ का दर्भ यही है कि वह बच्चों को जाने देती है, पर उनकी राह देखना कभी नहीं छोड़ती।”
अंतिम दृश्य
साल गुजरते गए। सुभद्रा देवी बूढ़ी हो गईं। आँखें धुंधली, हाथ काँपने लगे। फिर भी दरवाजे पर बैठकर राह देखतीं।
गाँव के लोग कहते— “ये घर माँ के आँसुओं से भीगा रहता है।”
और सच में, माँ का दर्भ यही था— अपने बेटों को उनके सपनों के लिए खो देना, पर उनके लौटने की उम्मीद कभी न छोड़ना।
निष्कर्ष
यह कहानी सिर्फ सुभद्रा देवी की नहीं, बल्कि हर उस माँ की है जिसने अपने बच्चों को पाला-पोसा, बड़ा किया और फिर अकेलेपन का बोझ सहा। माँ का दर्भ यही है— 👉 त्याग में सुख ढूँढना 👉 और अकेलेपन में भी हौसला रखना।