20/06/2025
उस दिन की धूप कुछ ज्यादा ही सुनहरी थी, मानो हर किरण ने बच्चों की हँसी समेट रखी हो। घने पेड़ों की छाँव में तीन मित्र एक दूसरे से लड़खड़ाते वन की पत्तियों पर दौड़ रहे थे। हाथ में छोटी सी रबरबैंड वाली गुलेल, आँखों में आस पास उड़े चिड़ियों का मंजर, और दिल में मानो दुनिया जीत लेने का उत्साह — यही तो था बचपन का अनमोल खजाना।
पहला दोस्त, पीली टी-शर्ट में छपाक से गुलेल बँधाता, कांच के गोले को निशाना बनाकर चुपचाप सोचता कि क्या आज गिरेंगे तो सब देखकर दंग रहेंगे। दूसरा, नारंगी शर्ट पहने, अपने मित्र की ऊँची उछल कोटि की तारीफ़ करता, “और ज़रा दाएं से चलाओ!” कहते हुए उत्साह से उंगलियाँ चमका देता। और तीसरा, नीली टी-शर्ट में बैठकर, मुट्ठी में गोले दबाए, जब तक बारी उसका न हो, नींदे साँस लेता हुआ, दूर तलक उड़ते पंछियों को निहारा करता।
पेड़ों की हल्की सरसराहट, घास की नरम गंध, दूर भूरे मिट्टी के ताजा रंग — सब कुछ आज भी कलसी घड़ी की तरह मेरी यादों में बजता है। हम न जाने कितनी बार गिरकर फिर संभलते थे, न एक खरोंच को खतरनाक समझते, न एक असफ़लता को मायूसी की दुहाई देते। हर गिरकर उठना, हर हँसी का फूटना, हर दोस्त का साथ — यही तो बचपन था।
अब जब इन पलों को याद करता हूँ, तो लगता है जैसे समय ने रेत की तरह हाथों से फिसलते हुए हर एक हँसी-ठहाके को अमृत बना दिया हो। वे दिन लौटकर नहीं आते, पर ये यादें आज भी ज़िन्दगी को सौगात देती हैं—बेफिक्र, निःस्वार्थ और बेहद खुशनुमा।