30/10/2024
गोरख वाणी
बसती न सुन्यम , सुन्यम न बसती अगम अगोचर ऐसा !
गगन सिषर महिं बालक बोलै ताका नाँव धरहुगे कैसा !! १ !!
परमतत्व तक किसी की पहुँच नहीं है वह अगम है ! वह इन्द्रियों का विषय नहीं , वह तो अगोचर है ! वह ऐसा है कि उसे हम न बस्ती कह सकते हैं और न ही शुन्य ! न यह कह सकते हैं की वह कुछ है और न यह की वह कुछ नहीं है ! वह भाव और अभाव, सत और असत दोनों से परे है ! वह तो आकाश मंडल में बोलने वाला बालक है , आकाश मंडल में बोलने वाला इसलिए कहा गया है क्यूंकि आकाशमंडल को शुन्य , आकाश या ब्रह्मरंध्र कहा गया है और यही ब्रह्म का निवास माना जाता है , वही पहुँचने पर ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है ! बालक इसलिए कहा गया है क्यूंकि जिस प्रकार बालक पाप और पुण्य से रहता है ठीक उसकी प्रकार परमात्मा भी निर्लेप है !
अदेषी देषिबा देषि बिचारिबा अदि सिटि राषिबा चीया !
पाताल की गंगा ब्रह्मंड चढ़ाइबा , तहां बिमल बिमल जल पीया !!२ !!
न देखे जा सकने वाले परब्रम्ह को देखना चाहिए और देखकर उस पर विचार करना चाहिए ! जो आँखों से देखा नहीं जा सकता उसे चित्त में रखना चाहिए ! पाताल जो मूलाधार चक्र हैं वहाँ की गंगा अर्थात कुण्डलिनी शक्ति को ब्रम्हाण्ड ( सहस्त्रार ) में प्रेरित करना चाहिए , वहीँ पहुँच कर योगी साक्षात्कार करता है अर्थात अमृत पान करता है !
इहाँ ही आछै इहाँ ही आलोप ! इहाँ ही रचिलै तीनि त्रिलोक !
आछै संगै रहै जू वा ! ता कारणी अनन्त सिधा जोगेस्वर हूवा !!३!!
परब्रम्ह सहस्त्रार या ब्रम्हरन्ध्र में ही है , यही वह अलोप है ! तीनो लोको की रचना यहीं से हुई ! यह ब्रम्हाण्ड ब्रह्म का ही व्यक्त स्वरुप है , ब्रम्हरंध्र से ही उसने अपना सर्वाधिक पसारा किया है , ऐसा अक्षय परब्रहम जो सर्वदा हमारे साथ रहता है , उसी के कारण उसी को प्राप्त करने के लिए अनंत सिद्ध योग मार्ग में प्रवेश कर योगेश्वर हो जाते हैं !
वेद कतेब न षानी बाणी ! सब ढंकी तलि आणी !
गगनि सिषर महि सबद प्रकास्या ! तहं बूझै अलष बिनाणी !!४!!
वेद आदि भी परब्रम्ह का ठीक ठीक निर्वचन नहीं कर पाए हैं, न किताबी धर्मो की पुस्तकें और न ही चार खानि की वाणी , बल्कि इन्होने तो सत्य को प्रकट करने के बदले उसके ऊपर आवरण डाल दिया ! यदि ब्रम्ह स्वरुप का यथार्थ ज्ञान अभीष्ट हो तो ब्रम्ह्रंध्र यानी गगन शिखर में समाधि द्वारा जो शब्द प्रकाश में आता है, उसमे विज्ञान रूप अलक्ष्य का ज्ञान प्राप्त करो!
अलश बिनाणी दोई दीपक रचिलै तीन भवन इक जोती !
तास बिचारत त्रिभवन सूझै चूनिल्यो माणिक मोती !!५!!
उस अलक्ष्यपुरुष परब्रम्ह ने ही दो दीपकों की रचन की है जो सविकल्प और निर्विकल्प समाधि है , उन दोनों दीपकों में उस अलक्ष्य का ही प्रकाश है ! उसी एक ज्योति से तीनो लोक व्याप्त हैं ! उस ज्योति पर विचार करने से तीनो लोक सूझने लगते हैं अर्थात त्रिलोकदर्शिता आती है और हंस स्वरूपी आत्मा ज्ञान रुपी मोतियों को चुगने लगता है तथा उसे माणिक्य रूप कैवल्य की अनुभूति प्राप्त करता है !