11/12/2025
ईश्वर की निकटता...✍️🧿
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जब लोग ईश्वर को खोजते हैं, तो अक्सर सोचते हैं कि उन्हें मंदिरों, तीर्थों या दूरस्थ स्थानों पर जाना होगा। लेकिन सच्चाई यह है कि ईश्वर पहले से ही हमारे भीतर मौजूद है। “ईश्वर तुम्हारी आँखों की दृष्टि में है।” इसका अर्थ है कि जब तुम सचमुच देखते हो, जब तुम ध्यान से अनुभव करते हो, तो ईश्वर उसी क्षण तुम्हारे साथ है। खोजने का भाव ही ईश्वर से मिलन है।
ईश्वर कहीं दूर नहीं है। वह तुम्हारे श्वास से भी निकट है, तुम्हारे विचारों से भी अधिक अंतरंग है, तुम्हारी स्मृतियों से भी अधिक सजीव है।
बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं
“बाहर जाने की ज़रूरत नहीं है।” यह हमें याद दिलाती है कि ईश्वर को पाने के लिए बाहरी यात्राओं या भौतिक उपलब्धियों की आवश्यकता नहीं। हम अक्सर सोचते हैं कि धन, प्रसिद्धि या विशेष स्थान हमें ईश्वर तक पहुँचाएँगे। लेकिन सच्चा अनुभव भीतर की शांति में ही मिलता है।
पिघलती बर्फ का रूपक
“पिघलती बर्फ बनो।” बर्फ कठोर और जमी हुई होती है, जैसे हमारा अहंकार। जब वह पिघलती है, तो जल बनकर प्रवाहित होती है—कोमल, पारदर्शी और जीवनदायी। इसका अर्थ है कि हमें अपने भीतर की कठोरता, जिद और भय को छोड़कर विनम्र और सहज बनना चाहिए।
हम सबके भीतर कुछ जमी हुई परतें होती हैं—पुराने दुख, अहंकार, डर। जब वे पिघलती हैं, तो हम प्रवाह में आ जाते हैं, जीवन के साथ बहने लगते हैं। यही आत्मिक परिवर्तन है।
स्वयं से धुलना
“अपने आप से स्वयं को धो लो।” यह आत्मिक शुद्धि का संदेश है। यहाँ “स्वयं” का अर्थ है अहंकार, इच्छाएँ और भ्रम। जब हम इन्हें धोते हैं, तो भीतर की सच्चाई प्रकट होती है।
हम अक्सर अपने को उपलब्धियों, वस्तुओं या दूसरों की राय से परिभाषित करते हैं। लेकिन ये सब अस्थायी हैं। स्वयं से धुलना मतलब इन परतों को हटाना और सरल, स्पष्ट, सच्चा बनना।
श्वेत पुष्प की शांति
“शांति में एक श्वेत पुष्प खिलता है।” यह बहुत सुंदर प्रतीक है। श्वेत पुष्प निर्मलता, मासूमियत और दिव्यता का प्रतीक है। यह शोर या अशांति में नहीं, बल्कि मौन और स्थिरता में खिलता है।
जब मन शांत होता है, जब इच्छाएँ और अहंकार मिट जाते हैं, तो भीतर से एक प्राकृतिक सुंदरता प्रकट होती है। यह पुष्प किसी प्रयास से नहीं, बल्कि मौन की मिट्टी में स्वयं खिलता है।
वाणी को पुष्प बनाना
“अपनी जीभ को पुष्प बना दो।” इसका अर्थ है कि हमारी वाणी भी पवित्र हो। जीभ अक्सर क्रोध, झूठ या अहंकार का साधन बन जाती है। लेकिन जब वह पुष्प बनती है, तो शब्द सुगंधित हो जाते हैं—सत्य, करुणा और प्रेम से भरे हुए।वाणी को पुष्प बनाना मतलब है कि हमारे शब्द दूसरों को शांति दें, उन्हें चोट न पहुँचाएँ। जैसे फूल बिना माँगे अपनी सुंदरता और सुगंध देता है, वैसे ही हमारी वाणी भी उपहार बने।
आत्मिक यात्रा
- शुरुआत में हम ईश्वर को बाहर खोजते हैं।
- फिर समझते हैं कि ईश्वर भीतर ही है।
- हम कठोरता छोड़कर पिघलते हैं।
- अहंकार से धुलते हैं।
- मौन में श्वेत पुष्प खिलता है।
- और अंत में हमारी वाणी उस पुष्प जैसी हो जाती है।
यह यात्रा खोज से मिलन तक, कठोरता से कोमलता तक, अहंकार से निर्मलता तक,मौन से पवित्र वाणी तक ले जाती है। रोज़मर्रा की भागदौड़ में भी हम रुकें और देखें कि ईश्वर हमारी दृष्टि, हमारे विचार और हमारे श्वास में ही है।हम मौन को अपनाएँ, ताकि भीतर का पुष्प खिल सके। और इसका अर्थ है कि हमारी वाणी दूसरों के लिए शांति और प्रेम का स्रोत बने।
मैं रीति‑रिवाजों की बात नहीं कर रही। यह हमें सिखाती है कि ईश्वर बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर है। वह हमारी आँखों में, हमारे विचारों में, हमारे मौन में और हमारी वाणी में है।
ईश्वर को पाने के लिए हमें बाहर नहीं जाना चाहिए,बल्कि भीतर पिघलना, धुलना, शांत होना और खिलना है। जब हमारी वाणी पुष्प बन जाती है, तब हमारा जीवन स्वयं एक बगीचा बन जाता है। 🧿✍️✍️✍️