RAJU ROY

RAJU ROY जिंदगी भगवान का दिया हुआ एक उपहार है। ?

कितनी ही उम्र रही होगी उन दो लड़कियों की — ज्यादा से ज्यादा तेरह या चौदह। स्कूल ड्रेस पहने हुए थीं, कंधे पर बैग टांगे। म...
11/06/2025

कितनी ही उम्र रही होगी उन दो लड़कियों की — ज्यादा से ज्यादा तेरह या चौदह। स्कूल ड्रेस पहने हुए थीं, कंधे पर बैग टांगे। मैं स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर बैठा ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था, और वो दोनों मेरे पीछे ही बैठी थीं। सुबह-सुबह की दो सहेलियाँ थीं और मस्ती से बातचीत में लगी हुईं।

एक सहेली ने कहा,
"मत पूछ, इतनी टेंशन है कि खाने-पीने तक का टाइम नहीं मिलता। मैं तो सच में टेंशन में रहती हूँ।"

इतना सुनकर मुझे लगा कि शायद अगले साल बोर्ड की परीक्षा देने वाली है, इसलिए अभी से पढ़ाई का प्रेशर झेल रही है।

दूसरी सहेली बोली,
"मुझे कोई टेंशन नहीं है। मस्त जी रही हूँ।"

मैं सोचने लगा, दोनों लड़कियाँ कितनी अलग हैं — एक पढ़ाई की टेंशन में घुली जा रही है और दूसरी बिलकुल बिंदास। हमारे स्कूल में भी कुछ छात्र-छात्राएँ हैं, जो पढ़ाई से डरते ही नहीं, और कुछ ऐसे हैं जो परीक्षा के नाम से ही बीमार हो जाते हैं।

फिर पहली लड़की बोली,
"तेरा तो सब अलग है। तेरा तो घर के पास ही रहता है, तुझे क्या टेंशन! जब चाहे मिल लेती है, इधर-उधर घूम भी लेती है। मेरे वाला तो रहता है बहुत दूर।"

"मेरे वाला"?
अब जाकर मुझे समझ आया कि टेंशन पढ़ाई की नहीं, बल्कि बॉयफ्रेंड को लेकर है! मैं अब पूरी तरह सतर्क होकर उनकी बातचीत सुनने लगा — यह तो मज़ेदार होने वाला था।

बिंदास दोस्त बोली,
"दूरी में थोड़ी बहुत टेंशन तो रहती ही है। तू उसको कह, यहीं कहीं कोई अच्छा काम देखे। दिल्ली में रहने की क्या ज़रूरत है? लेकिन इस महीने तेरे लिए अच्छा होगा। परसों तो आ रहा है ना?"

"हाँ, परसों आ रहा है।"

"तो सुन, इस बार हम चारों मिलकर फिल्म देखने चलेंगे। मैं अपने वाले को मना लूंगी। वो वैसे मूवी देखने का शौकीन नहीं है।"

"चल, ठीक है। पहले मेरा वाला आ तो जाए। जब तक नहीं आता, तब तक मेरी टेंशन बनी रहेगी। इस बार फ्लाइट से आ रहा है। विंडो सीट मिली है तो बहुत खुश है। मैं तो मना कर दी थी कि फ्लाइट में खिड़की मत खोलना, और नीचे मत देखना। ऊपर से देखने पर हार्ट फेल हो सकता है।"

यह सुनकर बिंदास दोस्त हँसते हुए बोली,
"धीरे बोल पगली! कोई सुन लेगा तो तेरी इज़्ज़त का सत्यानाश हो जाएगा। फ्लाइट की खिड़कियाँ खुलती ही नहीं।"

"क्या! सच में नहीं खुलती? अरे, कल तो इसी बात पर हमारी बहस हो गई। वो सही कह रहा था तब! ओह! अब तो माफ़ी मांगनी पड़ेगी। लेकिन एक बात बता — जब खुलती ही नहीं, तो खिड़की रखने की ज़रूरत क्या है?"

"तू भी ना! अरे बाप रे, तू इन बातों पर भी झगड़ा करती है?"

"तू उसे जानती नहीं। उसका कोई भरोसा नहीं। एक बार ट्रेन लेट हो गई थी, तो खड़गपुर में उतर कर मालगाड़ी से घर आ गया!"

"क्या! मालगाड़ी से आया? कोई ऐसे भी करता है? क्या दिमाग है!"

"उसका नहीं, वो आइडिया मेरा था। जब उसने फोन पर कहा कि खड़गपुर में ट्रेन खड़ी है और मालगाड़ियाँ निकल रही हैं, तो मैंने ही कहा — 'मालगाड़ी पकड़ ले, जल्दी पहुँच जाएगा।'"

ये सुनकर मैंने अपने कान पकड़े — सोचने लगा कहीं कान से खून तो नहीं निकल रहा। फ्लाइट की खिड़की बंद रखने की बात तक तो ठीक थी, लेकिन कोई सच में मालगाड़ी पकड़ कर घर आता है?

कुछ देर सोचने के बाद, मुझे एक और भावना ने घेर लिया — गुस्सा! और वो भी अपनी बीवी पर!
साउथ ईस्टर्न रेलवे जैसा चल रही है, रोज़ लेट, रोज़ परेशानियाँ — लेकिन जब मैं प्लेटफॉर्म पर ट्रेनों की बजाय मालगाड़ियों को निकलते देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि क्यों न मैं भी मालगाड़ी पकड़ लूँ?

लेकिन कभी मेरी बीवी ने मुझसे ऐसा नहीं कहा —
"तुम भी गैलोपिंग मालगाड़ी पकड़कर जल्दी घर आ जाओ!"
अब बताइए, गुस्सा न आए तो क्या आए?
रेलवे तो हमारे बारे में सोचेगा नहीं, लेकिन बीवी तो अपनी होती है, ना?

आप ही बताइए — उस लड़की की कहानी सुनकर बीवी पर गुस्सा आएगा कि नहीं? 😄😄

मोबाइल में रिंग बजते ही, बगल में बैठी अपनी सहेली को इशारे से मोबाइल थमाकर लड़की ने कॉल उठाने को कहा। सहेली ने स्क्रीन पर...
11/06/2025

मोबाइल में रिंग बजते ही, बगल में बैठी अपनी सहेली को इशारे से मोबाइल थमाकर लड़की ने कॉल उठाने को कहा। सहेली ने स्क्रीन पर नज़र डाली और कॉल रिसीव करते ही बोली —

"सुमन, मैं पूजा बोल रही हूँ। बताओ ना तुम ऐसा क्यों करते हो? तुम्हें पता है, दीपा को कितनी तकलीफ़ हुई है? कोई ऐसे बोलता है क्या? तुम्हें पहले भी मना किया था कि दीपा से इस तरह..."

इतना कहकर थोड़ी देर को रुकी, फिर भौंहे सिकोड़कर दीपा के चेहरे की तरफ एक नजर डाली और कह उठी —

"दीपा अभी तुमसे बात नहीं करना चाहती। मैं उसे समझा रही हूँ। थोड़ा समय दो। फिर बात करेगी।"

सुमन ने शायद कुछ कहा उधर से, पूजा फिर बोल पड़ी —

"अरे यार! मुझसे सॉरी बोलने से क्या होगा! जिसे सॉरी बोलना है, उसी से तो बोलो। थोड़ा वक्त दो। जैसे वो टूटी है, अभी तुम कुछ कहो, तो भी असर नहीं होगा। मैं हूँ ना, मैं समझा दूंगी।"

फिर सुमन ने कुछ और कहा होगा, क्योंकि पूजा अब फिर बोली —

"मुझे पता है तुम उसे प्यार करते हो। दीपा भी तुम्हें बहुत प्यार करती है। उसकी आँखें और चेहरा देखे हैं? सूख गया है सब। कैसी हालत हो गई है उसकी, सोच भी सकते हो? मैं उसे जबरदस्ती घर से बाहर लाई हूँ। आज तन्मय सर की ट्यूशन है। उसे समझाया कि घर में बैठी रहेगी तो और ज्यादा उदास होगी। मेरी बात मानकर ही वो पढ़ने जा रही है। तुम जानते हो, कितना रोई है, उसकी आँखें सूज गई हैं।"

जब सुमन ने वीडियो कॉल करने की बात कही, तो पूजा ने फौरन मना कर दिया —

"वीडियो कॉल? बिल्कुल नहीं। वो वीडियो कॉल में नहीं आएगी। वैसे भी तुम्हारा कॉल रिसीव करने को भी नहीं तैयार थी, मैंने ही जबरदस्ती कहा, ‘सुमन को टेंशन मत दो। कम से कम वो तो तुम्हें प्यार करता है।’ सुनो सुमन, वीडियो कॉल मत करो। जानते हो, कल से उसने कुछ खाया भी नहीं है। एक दाना तक पेट में नहीं गया। भूखी है। कितना शॉक लगा है उसे, मैं समझ सकती हूँ। मैं तो उसे समझा रही हूँ कि खाने से नाराज़गी नहीं निकालनी चाहिए। लेकिन वो मान ही नहीं रही। अभी तो ट्रेन में लस्सी बिक रही थी, कितना कहा पी ले, नहीं पी। दीपा बहुत ज़िद्दी है, तुम जानते हो। अगर खाना नहीं खाया, तो बीमार पड़ जाएगी, है ना? तुम आज शाम को कॉल करना। तब वो तुम्हारा फोन ज़रूर उठाएगी। मैं हूँ ना, चिंता मत करो। अब बाय, ठीक है?"

अब ज़रा मेरा हाल सुनिए।
सुमन का फोन रिसीव होने के बाद जो पूरा वार्तालाप हुआ, मैं ध्यान से सुन रहा था। और साथ ही एक बार दीपा के चेहरे की तरफ देख रहा था, एक बार पूजा के चेहरे की तरफ। और देख ही नहीं रहा था, पूरी तरह “हक्का-बक्का” होकर देख रहा था। क्यों देख रहा था, ये बात थोड़ी देर में बताऊंगा।

घटना आज की ही है। दोपहर की डाउन खड़गपुर लोकल ट्रेन। मैं पांशकुड़ा स्टेशन से चढ़ा। ट्रेन में भीड़ नहीं थी। सीट भी मिल गई। सामने देखा, दो लड़कियाँ बैठी हैं — दीपा और पूजा।

इतना सुनकर तो आप भी अंदाज़ा लगा ही चुके होंगे कि सुमन और दीपा के बीच कोई बड़ा झगड़ा हुआ है। सुमन ने कुछ ऐसा बोल दिया है जिससे दीपा बहुत आहत हुई है। रो-रोकर आँखें सूजा ली हैं, खाना-पीना तक छोड़ दिया है। अब आपके मन में सुमन के लिए गुस्सा आ रहा होगा — कि ऐसे भोली, सीधी, शांत स्वभाव की लड़की को कैसे दुख पहुँचा सकता है सुमन?

लेकिन यकीन मानिए, मुझे सुमन पर बिल्कुल गुस्सा नहीं आ रहा। क्यों नहीं आ रहा, ये बात बाद में बताता हूँ। पहले वो बात बताता हूँ कि मैं दीपा और पूजा को देखकर “हक्का-बक्का” क्यों रह गया था।

हुआ यूँ कि जैसे ही मैं ट्रेन में चढ़ा और उनके सामने बैठा, मैंने देखा कि दोनों के हाथ में है पांशकुड़ा का गरम गरम चॉप। दोनों मज़े से खा रही थीं। दीपा बोली, "पांशकुड़ा का चॉप मतलब सबसे बेस्ट। क्या टेस्टी है! दो खाकर भी मन नहीं भर रहा। अगली बार लाऊंगी तो मोचा (कच्चा केला) का चॉप भी लाऊंगी।" पूजा बोली, "तो एकसाथ ही ले लेती ना।"

इतने में घुगनी वाला भैया आया। दोनों ने दो प्लेट घुगनी ली। ऊपर से सलाद, ककड़ी, गाजर, हरी मिर्च, प्याज़। खा-खाकर दोनों ने ऐसे होंठ चाटे और रुमाल से ऐसे मुँह पोंछा, जैसे हमारे घर की कामवाली दीदी फर्श पोछती हैं — पहले गीले कपड़े से पोछतीं फिर सूखे से रगड़-रगड़कर साफ़ करतीं।

घुगनी खत्म हुई, तभी दही लस्सी वाला आया। दोनों ने पाइप से इतनी तेज़ी से पीया कि ऐसा लगा जैसे मुँह में मोटर फिट है। मैं देखता रहा — अब और क्या खाएँगी ये लोग?

इतने में ट्रेन मेचेदा में घुसी। वहाँ से ठंडा पानी लिया। गटक गटक पीया। फिर सोच रहा था अब क्या खाएंगी, तभी कोलाघाट से नींबू छोले वाला आया। दीपा बोली, "पूजा, नींबू छोले खाएगी? नींबू डालकर बहुत टेस्टी लगता है।" पूजा बोली, "नहीं, एसिडिटी हो जाएगी। पापड़ खाते हैं, वो सब हजम करवा देता है।"

क्या बात है! जैसे ही मुँह से निकला, पापड़ वाला आ गया। दो पैकेट लिए और कुरकुराते हुए खाने लगीं।

तभी सुमन का फोन आ गया। दीपा तो पापड़ में व्यस्त थी, फोन पकड़ाया पूजा को। पूजा भी कोई मामूली लड़की नहीं। ढप का चॉप, झोल, अंबल — सब में माहिर। लेकिन "गृहिणी" कहना सही नहीं होगा। सही शब्द है — मैनेजर! जिस तरह उसने सुमन को मैनेज किया, उसे सुनकर आप समझ ही गए होंगे।

अब दीपा? जो कि कल से "एक दाना" तक मुँह में नहीं डाली है — उसने पंद्रह मिनट में चॉप, घुगनी, लस्सी, और पापड़ खा लिए। और जिसके "सूजी हुई आँखों" की बात हो रही थी — उन आँखों पर देख रहा था — सुंदर सा आईलाइनर लगा हुआ है। यकीन कर सकते हैं?

अब मैं क्या सोच रहा हूँ? मैं दीपा और पूजा की नहीं, सुमन की सोच रहा हूँ! कैसा भोला है बेचारा! किस ढप के चॉप के चक्कर में पड़ गया है! और ये जो कहा गया कि दीपा तन्मय सर की ट्यूशन में जा रही है — ढप का चॉप ऐसे ही नहीं कहा! जा रही है बगनान के कसमो बाज़ार। क्यों? खरीदारी के लिए नहीं — वहाँ अनिमेष आया है, उससे मिलने।

और जैसे ही पापड़ खत्म हुए, पूजा के मोबाइल पर कॉल आया। दीपा तो बिना देखे ही बोली, "शर्त लगा लो, अनिमेष दा का फोन है।" पूजा ने कॉल उठाया और बोली —

"अभी पहुँचे ही हैं बाबू। बस पाँच मिनट और।"

अनिमेष कौन? कौन होगा! पूजा उर्फ "मैनेजर" का बॉयफ्रेंड।

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माँ का आख़िरी ख़तएक छोटे से गाँव में, कच्ची सड़क के किनारे फूस की छत वाली एक छोटी-सी झोपड़ी में रहती थीं राधिका देवी। उन...
10/06/2025

माँ का आख़िरी ख़त

एक छोटे से गाँव में, कच्ची सड़क के किनारे फूस की छत वाली एक छोटी-सी झोपड़ी में रहती थीं राधिका देवी। उनका एकमात्र सहारा था उनका बेटा — अर्णव। उसी के भविष्य को सँवारने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी समर्पित कर दी थी।

पति को उन्होंने बहुत पहले खो दिया था, तब अर्णव की उम्र मात्र छह साल थी। तभी से राधिका देवी का हर दिन दूसरों के घरों में काम करने से शुरू होता और हर रात अपने आँचल से बेटे को हवा देते हुए खत्म होती। जब अर्णव की स्कूल की फीस भरनी होती, तो वह अपनी नई साड़ी की चाह को दिल में ही दबा लेतीं।

अर्णव बड़ा हुआ, पढ़ाई में अच्छा किया और शहर के एक नामी कॉलेज में दाखिला पा गया। तब भी माँ ने मुस्कराकर कहा था— “तू बस पढ़, बाकी मैं संभाल लूँगी।”

इस "देख लूंगी" का मतलब था — खुद आधा पेट खाकर बेटे को दूध भेजना, अपनी दवाइयों को छोड़कर उसकी किताबों के लिए पैसे जुटाना।

शहर जाकर अर्णव धीरे-धीरे माँ से दूर होता चला गया। पहले रोज़ फ़ोन करता, फिर हफ्ते में एक बार, फिर महीने में। माँ की बातों से कभी-कभी चिढ़ जाता और कहता— “माँ, इतनी चिंता मत किया कर, मैं बड़ा आदमी बनकर तुझे राजसी जीवन दूँगा।”

राधिका देवी बस मुस्कराकर कहतीं— “तू अच्छा रहे, यही मेरा राज है।”

वक़्त बीतता गया। एक दिन अचानक अर्णव को फ़ोन आया— “आपकी माँ अस्पताल में भर्ती हैं, हालत बहुत नाज़ुक है।”

अर्णव सब कुछ छोड़-छाड़कर भागा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

सफेद चादर में लिपटी माँ शांत चेहरा लिए लेटी थीं। ऐसा लग रहा था जैसे बस सोई हुई हों — बिल्कुल वैसे ही, जैसे बचपन में अर्णव उनकी गोद में सोता था।

डॉक्टर ने जब दवाइयों की पर्ची दिखाते हुए कहा, "बहुत बुरी हालत में लाई गई थीं — कुपोषण, पुरानी दमा की दवाइयाँ भी बंद हो गई थीं", तब अर्णव फर्श पर बैठकर फूट-फूटकर रो पड़ा।

तभी एक नर्स एक चिट्ठी लेकर आई— “ये आपकी माँ ने आपके लिए छोड़ी थी। पूरी लिख नहीं पाई थीं। मौत से कुछ पहले आपको देने को कहा था।”

काँपते हाथों से अर्णव ने चिट्ठी खोली—

“बाबा,

जानती हूँ, तू बहुत व्यस्त रहता है... इसलिए तेरा समय बर्बाद नहीं करना चाहती। दिन के बाद दिन तुझे देखे बिना खुद को समझा लेती थी — ‘मेरा बेटा ठीक है, तभी तो फोन नहीं आया।’

कभी-कभी आधी रात को नींद खुल जाती थी, बस तेरी आवाज़ सुनने का मन करता था। लेकिन तुझे परेशान नहीं किया, डरती थी कि कहीं बोझ न लग जाऊँ।

अब शरीर साथ नहीं देता। चलना मुश्किल होता है, आँखें धुंधली दिखती हैं। सीने में भारीपन रहता है, साँस लेने में तकलीफ होती है।

बहुत कुछ कहना चाहती हूँ तुझसे, बहुत कुछ। लेकिन कहाँ से शुरू करूँ, समझ नहीं पाती। तू अब बड़ा हो गया है, अपनी दुनिया में खो गया है।

बस इतना कहूँगी, बाबा — तू मेरे लिए नहीं, अपने लिए जी। अपनी माँ को...”

चिट्ठी यहीं अधूरी छूट गई थी। नीचे कुछ भी लिखा नहीं था।

अर्णव रो रहा था, फूट-फूटकर। उस चिट्ठी को अपने सीने से लगाकर बस इतना ही कह पाया— “माँ… काश एक बार कह पाता — मैं तुमसे प्यार करता हूँ... मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है... माँ…”

अस्पताल का कमरा बिल्कुल शांत था।

चिट्ठी अधूरी थी, लेकिन माँ का प्यार उसमें पूरे जीवन भर के लिए लिखा हुआ था।

कहानी से सीख:
माँ सब कुछ दे सकती हैं, लेकिन बदले में कुछ नहीं माँगतीं। उनका प्यार शब्दों में नहीं, दिल में लिखा होता है — उम्र भर के लिए।

#माँ #प्रेरणादायककहानी

कहानी: "पलायनसोनम रघुवंशी – एक सुंदर, पढ़ी-लिखी, मध्यमवर्गीय लड़कीअमित शुक्ला – सोनम का पति, एक सफल व्यापारीनीलेश – सोनम...
09/06/2025

कहानी: "पलायन
सोनम रघुवंशी – एक सुंदर, पढ़ी-लिखी, मध्यमवर्गीय लड़की

अमित शुक्ला – सोनम का पति, एक सफल व्यापारी

नीलेश – सोनम का प्रेमी, मजदूरी करता है सोनम के पिता की पुरानी फैक्ट्री में

अमित की माँ – सोनम की सास

पुलिस इंस्पेक्टर राकेश यादव – जो मामले की जाँच करता है

भाग 1: विवाह या छल?
सोनम रघुवंशी की शादी एक अच्छे और वेल-सेटल व्यवसायी अमित शुक्ला से हुई। अमित का अपना घर था, गाड़ी थी, और सबसे बड़ी बात – एक आदर्श परिवार।

शादी के कुछ ही दिनों में सोनम को हर तरह का आराम मिलने लगा। लेकिन भीतर ही भीतर वह किसी और के लिए धड़क रही थी – नीलेश, जो उसके पुराने मोहल्ले में रहता था और मजदूरी करता था। नीलेश पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन ग़रीबी के बावजूद उसमें सोनम को "बोल्ड फिल्मी हीरो" जैसा कुछ महसूस होता था। शायद यह उसके ज़िंदगी से भागने की चाह थी, या फिर उस खतरनाक प्रेम का नशा।

भाग 2: साजिश की बुनियाद
शादी के कुछ ही हफ्तों में सोनम ने अपने मायके जाना शुरू किया, बार-बार बहाने बनाने लगी। उसने धीरे-धीरे ससुराल के गहनों की नकल तैयार करवाई और कुछ असली जेवर गायब करना शुरू कर दिए।

एक दिन वह बोली –

> “माँ, मुझे दो दिन के लिए मायके जाना है, पापा की तबीयत ठीक नहीं।”

अमित ने कोई शक नहीं किया।

लेकिन असलियत में वो अपने प्रेमी नीलेश के साथ नेपाल भागने की योजना बना चुकी थी – जहाँ पहचान छुपाकर नया जीवन शुरू करने की तैयारी थी।

भाग 3: पर्दाफाश
दो दिन बीते, फिर चार... फिर एक हफ्ता। जब सोनम ना लौटी तो अमित ने मायके में फोन किया – जवाब मिला, "वो तो तुम्हारे यहाँ से गई थी, हमारे यहाँ नहीं आई।"

अमित को गहरा झटका लगा। पुलिस में रिपोर्ट हुई। कॉल डिटेल्स निकाली गईं। पता चला कि सोनम एक बर्नर फोन से लगातार नेपाल बॉर्डर के पास बात कर रही थी।

सीसीटीवी में सोनम एक अज्ञात युवक के साथ बस में देखी गई।

इंस्पेक्टर राकेश यादव की टीम ने सटीक लोकेशन ट्रेस की – सोनम और नीलेश को नेपाल में एक सस्ते लॉज से गिरफ्तार किया गया।

भाग 4: अंत जो सबक बन गया
जब सोनम से पूछताछ हुई, उसने रोते हुए बताया –

> "मैं बस आज़ाद होना चाहती थी… अमित बहुत अच्छा था, लेकिन वो मेरा नहीं था… मेरा दिल कहीं और था।"

पुलिस ने उसके पास से गहने और नकद बरामद किए।

अमित ने तलाक का केस दायर कर दिया। सोनम पर चोरी और धोखा देने का मुकदमा चला।

सीख:

> किसी के साथ धोखा करके आप सच्चा प्रेम नहीं पा सकते।

यह कहानी एक सामाजिक सच्चाई को उजागर करती है:

प्रेम अगर सच्चा हो, तो छल नहीं करता।

विवाह सिर्फ एक समझौता नहीं, एक जिम्मेदारी होती है।

और किसी के सपनों के साथ खेलना अपराध से कम नहीं।

सुन रहे हो? बाबू बहुत रो रहा है।– ठीक से दूध पिलाओ, सो जाएगा।– मैं दिनभर एक पल नहीं बैठ पाती, और अब रात में भी ये सब!तुम...
09/06/2025

सुन रहे हो? बाबू बहुत रो रहा है।
– ठीक से दूध पिलाओ, सो जाएगा।
– मैं दिनभर एक पल नहीं बैठ पाती, और अब रात में भी ये सब!
तुम तो कम से कम…

– तुम्हें क्या लगता है? मैं ऑफिस में मौज करता हूँ? तुम्हें पता है, कितना मेहनत करनी पड़ती है! फिर भी जो बन पाता है करता हूँ, लेकिन रात को मुझे नींद चाहिए। अगर तुम सुला सकती हो तो ठीक, नहीं तो उसे लेकर बाहर चली जाओ।

– तुम्हारा बेटा है, और सारी ज़िम्मेदारी मेरी?

– पैसे की फिक्र तो कभी करने नहीं देता, बाकी चीज़ों के लिए तुम थोड़ा ज़्यादा सोचो। लाइट बंद कर दो।

और कुछ नहीं बोली ओइषी। बात फिर पैसे पर आकर ही खत्म हुई, और हमेशा की तरह उसे ही चुप रह जाना पड़ा। क्यों न रहे? आज के ज़माने में अगर कोई घर चलाने के लिए एक पैसा भी न कमा पाए, तो क्या वो कोई छोटा अपराध नहीं?
ऋक की घर-गृहस्थी सँभालने के लिए उसने नौकरी छोड़ी थी, और आज उसी त्याग की कोई कीमत ही नहीं बची ऋक की नजरों में।

– बहू… इतनी रात को बालकनी में?
– माँ… वो…
– अरे! दादू भाई अब तक सोया नहीं?

– नहीं माँ… आप तो जानती ही हैं, रात को बहुत तंग करता है। आपके बेटे की नींद खराब न हो इसलिए बाहर आ गई…

– नींद खराब? अगर पिता बनने के फर्ज निभाने से नींद खराब हो तो शर्म आनी चाहिए।
– …
– समझ गई, वो अब तक पूरा पिता नहीं बन पाया है। बहू, सुबह होते ही बाबू को यहाँ छोड़कर मायके चली जाना। फिर मैं देख लूंगी।

– क्या!! माँ, इतनी छोटी सी जान को छोड़कर…

– मुझ पर भरोसा रखो।

अगली सुबह...

– ओइषी… ओइषी… आज मुझे उठाया क्यों नहीं? कितनी देर हो गई!
– सुबह-सुबह साँड़ की तरह चिल्ला क्यों रहा है?

– माँ… ओइषी कहाँ है? आज तो उठाया ही नहीं उसने!

– क्यों? तू दूध पीता बच्चा है क्या, जो तुझे जगाना पड़ेगा?

– नहीं… मतलब ऑफिस के लिए देर हो रही है।

– बहू को मायके जाना था, कुछ ज़रूरी काम था। सुबह-सुबह निकल गई। तुझे ऑफिस नहीं जाना आज, बाबू को यहीं छोड़ गई है। और मेरी ये घुटनों की तकलीफ़… मैं सब अकेले नहीं कर सकती।

– इतनी छोटी सी जान को अकेला छोड़ गई? कितनी गैर-ज़िम्मेदार है ये लड़की!

– अकेला कहाँ छोड़ा? अपने बाप के भरोसे छोड़ा है। अब मुँह धो और काम में लग जा।

– चुप हो जा रे… कितना लाड़ करू तुझसे!!

– लाड़ पाने के लिए रो रहा है क्या?

– बोल नहीं सकता, कैसे समझूँ क्यों रो रहा है?

– भूख लगी है। जा, दूध गर्म करके ला।

– मैं?

– तो क्या मैं?

– हाँ हाँ… ला रहा हूँ।

– उफ़! दूध कहाँ रखा है ओइषी ने!! ये शायद… हाँ यही है।

– ये लो माँ, ले आया। पिला दो।

– मैं? ये मेरे पास दूध नहीं पीता। तेरा बेटा है, तू पिला।

– माँ, ये सब मैंने कभी नहीं किया…

– बहू ने भी नहीं किया था, फिर भी सीख गई। तू कौन सा राजा हरिश्चंद्र है?

– अरे बाबू… खाना चढ़ा ना, दोपहर हो चला।

– हाँ… तुम्हारा नाती तो चुप ही नहीं हो रहा।

– तो खाना नहीं बनेगा? दोपहर को भूखा रखोगे सबको?

– पर उसे छोड़कर…

– क्यों छोड़कर? गोद में लेके बना खाना।
– क्या!! गोद में लेके?

– हाँ, बहू रोज़ यही करती है।

– माँ, मेरी ओइषी से तुलना मत करो।

– क्यों? उसके दो हाथ-पाँव ज़्यादा हैं क्या?

– नहीं, असल में… जा रहा हूँ।

– चुप हो जा रे… इतना क्यूँ रोता है? तेरी माँ कैसे सम्भालती है तुझे… इतना सब करने के बाद अब तुझे सुलाना भी है… सो जा न बाबू…

– इस तरह बोलने से बच्चे सोते हैं क्या? झूला दे।

– वो कैसे देते हैं?

– हे भगवान!! चल, एक काम कर, जूठे बर्तन पड़े हैं, धो दे। मैं सुला देती हूँ।

– फिर बर्तन!!

– उफ़!! आख़िरकार सब काम निपटा ही लिए… एक दिन में ही ये हाल!! मेरा ऑफिस वाला काम तो बहुत ही आरामदायक था। नहीं नहीं, एक दिन और नहीं झेल सकता। ओइषी को कल ही लेकर आऊँगा।

– बाबू रे… देख, कितने अच्छे से तूने सब काम कर लिया! बहू तो यूँ ही भाव खाती है जैसे सब कुछ उसी से चलता है… उसे क्या पता मेरा बेटा क्या चीज़ है! बाहर की दुनिया संभालता है, घर के कुछ काम उसके लिए तो कुछ नहीं…

– नहीं माँ, ओइषी को ऐसे मत कहो। मैंने गलत किया… एक दिन में ही मेरा ये हाल हो गया… और वो तो ये सब रोज़ करती है। एक ऐसा काम जिसका ना वेतन है, ना छुट्टी, ना क़द्र… फिर भी वो सब करती है बिना शिकायत के… और मैंने आज तक उसकी कदर ही नहीं की।

– उसके काम को क़ीमत मिलनी चाहिए, ऐसा मानता है तू?

– बिल्कुल मानता हूँ।

– अच्छा, देख, तेरा बेटा फिर से रो रहा है…

– फिर उठ गया? छोटे बच्चों की आँखों में भगवान क्या नींद नहीं देते?

– उठ गया बाबू… ओइषी तुम…

– बच्चे को अकेले छोड़कर कोई जाता है क्या? एक कोने में बिस्तर रख दिया था, गिर ही जाता…

– सॉरी, इतने सब बातों का ध्यान नहीं रहा।

– होता है। अरे! मेरे पति देव का क्या हाल बना है!! बहुत थक गए हो?

– वो तो कहो! एक और दिन अगर ऐसे सब करना पड़ता तो मैं तो ख़त्म ही हो जाता।

– हाहाहा! क्या तुम सच में वही ऋक हो जो रात को सिर्फ लाइट बंद करता था?

– ओइषी, कल से बच्चे की जिम्मेदारी हम बाँट लेंगे। आधी रात तक मैं देखूँगा, फिर तुम…

– पागल हो क्या? दिन भर ऑफिस करके…

– तुम्हारी तुलना में मैं कुछ भी नहीं करता। कम से कम इतना कर लूं तो लगेगा कुछ किया।

– वाह! एक दिन में ही मेरे पति इतने ज़िम्मेदार हो गए!

– अब तो हमारे बेटे को भी आदत डालनी होगी सोने की। बाबा इतनी ममता से झूला नहीं दे पाएगा रोज़।

– नहीं दिया तो माँ है ना! बस यही तो चाहा था तुमसे। शुक्र है माँ…

– माँ? माँ ने अब क्या किया?

– मतलब… माँ ने तुम्हें थोड़ा संभाल लिया, नहीं तो…

– यही बोलो।

(दरवाज़े के पीछे से मुस्कराते हुए शांति से ओइषी की सास ने दोनों को चुप करा दिया। सास–बहू की बातें क्या हर किसी को बताई जाती हैं? थोड़ी-सी तो निजता चाहिए ना…)

– समाप्त –

गुलजारीलाल नंदा — एक साधारण जीवन में छिपा असाधारण पुरुष94 वर्षीय एक वृद्ध व्यक्ति, झुकी हुई पीठ, कांपते हाथ और थके हुए प...
09/06/2025

गुलजारीलाल नंदा — एक साधारण जीवन में छिपा असाधारण पुरुष

94 वर्षीय एक वृद्ध व्यक्ति, झुकी हुई पीठ, कांपते हाथ और थके हुए पाँवों के साथ, अपने किराए के मकान से बाहर निकाला जा रहा था। वजह — वो किराया नहीं दे सके। उनके पास सिर्फ एक पुराना बिस्तर, कुछ एल्यूमिनियम के बर्तन, एक प्लास्टिक की बाल्टी और एक मग था।

वो गिड़गिड़ाते रहे, मकान मालिक से कुछ समय की मोहलत मांगी। मोहल्ले वालों ने भी बीच-बचाव किया। आखिरकार, मकान मालिक ने अनिच्छा से कुछ दिन की मोहलत दे दी। बूढ़ा आदमी फिर से अंदर गया।

सड़क पर खड़े एक पत्रकार ने यह दृश्य देखा। वह ठिठक गया। उसने सोचा — "यह तो एक शानदार रिपोर्ट बनेगी, ‘क्रूर मकान मालिक ने एक बुज़ुर्ग को किराया न दे पाने पर घर से निकाला।’" वह तस्वीरें खींचने लगा।

जब वह वापस दफ्तर गया और रिपोर्ट संपादक को दिखाई, तो संपादक की आँखें तस्वीरों पर जम गईं। उन्होंने एक पल देखा, फिर पत्रकार से पूछा — "क्या तुम जानते हो ये बुज़ुर्ग कौन हैं?"

"नहीं," पत्रकार ने जवाब दिया।

अगले दिन, अख़बार की पहली पंक्ति में एक विस्फोटक हेडलाइन छपी —
"भारत के पूर्व प्रधानमंत्री गुलजारीलाल नंदा, एक दयनीय जीवन जीने को मजबूर!"

शब्दों से ज्यादा तस्वीरें बोल रही थीं।
देश भर में खलबली मच गई।
जिस व्यक्ति ने दो बार देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनने का दायित्व निभाया —
जो स्वतंत्रता संग्राम में जेल गया,
जिसने सिंचाई, श्रम और योजना मंत्रालयों में कई ऐतिहासिक कार्य किए —
वो आज किराया नहीं दे पा रहा है?

असल में, श्री गुलजारीलाल नंदा को स्वतंत्रता सेनानी भत्ता मिलता था, केवल ₹500 प्रति माह। लेकिन उन्होंने वह भी यह कहकर ठुकरा दिया —
"मैंने स्वतंत्रता संग्राम में कोई भत्ता पाने के लिए हिस्सा नहीं लिया था।"
बाद में जब जीवन यापन असंभव हो गया, तो मित्रों के दबाव में उन्होंने वह भत्ता स्वीकार किया।

जब यह खबर तत्कालीन प्रधानमंत्री तक पहुँची, तो सरकारी काफिले के साथ अधिकारी और मंत्री उन्हें लेने पहुंचे। मकान मालिक स्तब्ध था — उसे यह नहीं मालूम था कि उसका किरायेदार, एक पूर्व प्रधानमंत्री था।

गुलजारीलाल नंदा से जब सरकारी आवास और सुविधाओं की पेशकश की गई —
तो उन्होंने सादगी से मना कर दिया।

"इस जीवन के अंतिम पड़ाव में अब और क्या चाहिए?"
उन्होंने कहा —
"मैं एक सामान्य नागरिक की तरह जीता रहा हूँ, वैसे ही अंतिम सांस तक जीना चाहता हूँ।"

वह भारत रत्न थे, व्यवहार से भी और सम्मान से भी।

1997 में अटल बिहारी वाजपेयी और एच.डी. देवेगौड़ा के प्रयासों से उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
1998 में उनका देहांत हुआ — एक किराए के छोटे से मकान में, बिना शोर, बिना तामझाम के।

🙏 27वीं पुण्यतिथि पर, राष्ट्र की ओर से एक सच्चे कर्मयोगी को नमन।

गुलजारीलाल नंदा — एक नाम नहीं, एक प्रेरणा हैं।

"एक और माँ"मजबूरी में माँ को शहर बुलाना पड़ा। WBCS ऑफिसर बीवी मौ ने इस बार कोई अड़ंगा नहीं ডाला, जरूरत इस बार उसकी ज्याद...
08/06/2025

"एक और माँ"
मजबूरी में माँ को शहर बुलाना पड़ा। WBCS ऑफिसर बीवी मौ ने इस बार कोई अड़ंगा नहीं ডाला, जरूरत इस बार उसकी ज्यादा थी। बेटे का लंबा इलाज चलना था। किसी अपने का साथ होना ज़रूरी था। कई कामवाली बदलकर देख ली थी, कोई मन मुताबिक़ नहीं निकली।
आख़िर जब मैंने माँ को बुलाने की बात की, मौ ने कुछ नहीं कहा।

हम थक चुके थे। दो महीने में तीन बार चेन्नई गए, एक बार कोलकाता के नर्सिंग होम में भर्ती भी कराया। आखिरकार बीमारी का पता चला, लेकिन इलाज लंबा चलेगा।

मैं मल्टीनैशनल कंपनी में काम करता हूँ, रोज़ 12-13 घंटे। मौ भी अपने काम के सिलसिले में इधर-उधर दौड़ती रहती है। बहुत जिम्मेदारियाँ हैं उस पर।
ऐसे में माँ को बुलाना ही पड़ा, हालांकि मौ गांव के किसी को पसंद नहीं करती। कहती है वहाँ के सब लोग गंवार और बदसूरत होते हैं।

सबसे बड़ी दिक्कत थी — माँ को रखें कहाँ?
तीन बेडरूम का फ्लैट — एक में बेटा, एक में मौ, और एक में मैं।
मेरी आदत है 8 बजे खाना, 10 बजे सोना। बेटे की आदत 10 बजे खाना, 12 बजे सोना। मौ 12 बजे खाती है और 2 बजे सोती है — बिना एक घंटा किताब पढ़े नींद नहीं आती।
बेटा बुरी हालत में भी किसी के साथ बिस्तर शेयर नहीं करता। मौ को भी अकेले सोने की आदत।

बच गया मेरा कमरा। लेकिन अगर माँ ने देखा कि मैं पत्नी के साथ नहीं सोता — तो झगड़ा तय है। माँ अब भी थप्पड़ मार देती है, कुछ दिन पहले ही बड़े भैया को पोते-पोतियों के सामने चाँटा जड़ दिया।

मौ जानती है ये सब, इस बात पर कई बार मुझे सुनाया भी है। लेकिन अभी चुप है, तनाव में है। मुझे भी लग रहा था — कुछ ही दिनों में महाभारत शुरू होगा।

माँ जब आने वाली थी, तब नहीं आई। तारीख बदली, फिर भी नहीं आई। तीसरी बार कहा, ट्रेन छूट गई।
उस दिन मौ ने मुझे घेर लिया — "देखा? काम के समय कोई आता है? आएगी ही नहीं।"

लेकिन अगली सुबह माँ आ गई — बिना बताए। तीन बैग के साथ।
आते ही माँ ने रात का खाना बनाया — सिर्फ़ माछेर झोल और आलू भुजिया।
मौ और बेटा दोनों इतने खुश हुए कि पूछो मत। खाना लाजवाब था।

कुछ दिन बाद माँ ने मौ से पूछा — "तुम लोग अलग-अलग क्यों रहते हो?"
फिर बेटे के बारे में बोली — "बिगड़ गया है, दो-दो तरह की सिगरेट रखता है। जरूर किसी डायन के साथ घूमता है।"

दिन बीतते गए — माँ के शब्द मौ के कान में ज़हर घोलते रहे। मैं डर के मारे कुछ नहीं कह पाता। कब थप्पड़ मारेगी, पता नहीं।

मौ समझदार है। एक रात अचानक लोटा-कंबल लेकर मेरे कमरे में आई।
हंस रही थी — एक ऐसी मुस्कान जो वर्षों से उसके चेहरे से ग़ायब थी।
मेरे पास लेटी, किताब पढ़ने लगी। दिल खुश हो गया।

तभी माँ आई — हाथ में किताब। मौ की किताब लेकर उसकी जगह “शरतचंद्र की ‘दत्ता’” थमा दी।
मौ खुशी से चौंक गई — “आप किताबें पढ़ती हैं?”
माँ ने जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ एक मुस्कान दी और कहा —
"एक छत के नीचे तीन-तीन परिवार नहीं चल सकते!"

बात खत्म होते ही बेटा कमरे में आया —
हाथ में तकिया लेकर बोला,
"ठाकुमा कहती है — मम्मी-पापा के बीच सोऊंगा तो जल्दी ठीक हो जाऊँगा।"

मैं हैरान रह गया। जो बेटा किसी के साथ बिस्तर शेयर नहीं करता था,
आज खुद चलकर आ गया।
मेरी आँखों से आँसू बह निकले — कितने दिनों बाद महसूस हुआ कि हम एक परिवार हैं।

माँ दूसरे कमरे में चली गई थी। बेटा मेरे सीने से लगकर सो रहा था।
मौ किताब एक तरफ रखकर आँसू पोंछ रही थी।
अचानक ज़ोर से रो पड़ी —
"जानते हो? तुम्हारी माँ इस घर में एक और माँ छोड़ गई है... एक और माँ!" 🥺❤️

“गैलोपिंग मालगाड़ी और टेंशन फ्री लव”कितनी ही उम्र रही होगी उन दो लड़कियों की — ज़्यादा से ज़्यादा तेरह या चौदह साल। स्कू...
08/06/2025

“गैलोपिंग मालगाड़ी और टेंशन फ्री लव”

कितनी ही उम्र रही होगी उन दो लड़कियों की — ज़्यादा से ज़्यादा तेरह या चौदह साल। स्कूल की ड्रेस में थीं, कंधे पर बैग। मैं प्लेटफॉर्म पर बैठा था ट्रेन पकड़ने के इंतज़ार में, वो दोनों मेरी पीठ की ओर बैठी थीं। सुबह-सुबह दो सहेलियाँ आपस में बातचीत में मशगूल थीं।

एक दोस्त ने कहा —
“मत पूछ यार, इतना प्रेशर है कि खाना-पीना तक टाइम से नहीं होता। मैं तो टेंशन में रहती हूँ।”

ये सुनकर मुझे लगा, ज़रूर अगले साल बोर्ड की परीक्षा होगी, इसलिए पढ़ाई का बोझ झेल रही है, इसी टेंशन की बात कर रही है।

उसकी बात सुनकर दूसरी दोस्त बोली —
“मुझे कोई टेंशन नहीं है, मैं तो बिल्कुल बिंदास हूँ।”

मैं मन ही मन सोच रहा था — वाह, दो दोस्त और दोनों की सोच में जमीन-आसमान का फर्क! एक को पढ़ाई का दबाव, दूसरी एकदम लापरवाह। स्कूल में मेरे भी कई छात्र हैं, कुछ को पढ़ाई की कोई चिंता नहीं रहती, और कुछ तो परीक्षा के नाम से ही बीमार हो जाते हैं।

पर फिर पहले वाली लड़की बोली —
“तेरा भाई तो पास में ही है, तुझे क्या टेंशन! जब-तब मिल लेती है, घूमने भी चली जाती है। मेरा तो रहता है बहुत दूर।”

“मेरा तो...”
इस बात ने मेरी समझ बदल दी। जिस "प्रेशर" को मैं पढ़ाई समझ रहा था, असल में वो था बॉयफ्रेंड को लेकर टेंशन! बात कुछ और ही थी। दिलचस्प बनता जा रहा था, मैंने भी कान खड़े कर दिए।

दूसरी लड़की बोली —
“दूर हो तो टेंशन तो होगा ही। तू उससे बोल न, यही किसी अच्छी जगह जॉब कर ले। दिल्ली में क्या रखा है? वैसे, ये महीना तो अच्छा जाएगा तेरा, परसों आ रहा है ना?”

“हाँ रे, परसों आ रहा है।”

“सुन, इस बार चार लोगों का प्लान बनाएँगे — साथ में मूवी चलेंगे। मैं अपने वाले को मना लूँगी। वैसे उसको मूवी पसंद नहीं है, फिर भी देख लेंगे।”

“पहले आने तो दे उसे। जब तक वो आ नहीं जाता, टेंशन बना ही रहता है। फ्लाइट से आ रहा है इस बार। विंडो सीट मिला है, इतना खुश हो रहा है। लेकिन उसी की वजह से मेरी टेंशन और बढ़ गई है। मैंने उसे मना किया है — फ्लाइट में खिड़की मत खोलना, नीचे मत झाँकना, ऊपर से नीचे देखने से हार्टफेल हो सकता है। वैसे भी मुझे फ्लाइट का नाम सुनते ही डर लगता है। कल तो मैंने उससे कसम दिलवाई कि फ्लाइट की खिड़की मत खोलना।”

इस पर उसकी बिंदास सहेली हँस पड़ी —
“धीरे बोल यार! कोई सुन लेगा तो तेरी इज्ज़त का सत्यानाश हो जाएगा। फ्लाइट की खिड़कियाँ खुलती नहीं हैं।”

“क्या! सच में नहीं खुलती? ओ माँ! कल तो उसी बात पर झगड़ा हो गया। वो सही बोल रहा था तब। इश! माफी माँग लेनी चाहिए। अच्छा बता, अगर खिड़की खुलती ही नहीं तो फिर लगाते ही क्यों हैं?”

“तू भी ना! ऐसी बातों पे कोई झगड़ता है?”

“तू उसे नहीं जानती। न जाने फ्लाइट में क्या करेगा। धैर्य बिल्कुल नहीं है उसमें। एक बार ट्रेन लेट हो गई थी तो खड़गपुर से मालगाड़ी पकड़कर घर आ गया था।”

“मालगाड़ी में? कोई ऐसे आता है?”

“उसके पास कोई आइडिया नहीं था, ये आइडिया मेरा था। उसने फोन पर कहा ट्रेन लेट है, और सामने से मालगाड़ियाँ निकल रही थीं। तो मैंने ही कहा — ‘मालगाड़ी पकड़ ले, गैलोपिंग होती हैं, जल्दी पहुँच जाएगी।’”

ये सुनकर तो मेरे कान सुन्न हो गए! फ्लाइट की खिड़की को लेकर झगड़ा तक तो ठीक था, लेकिन गैलोपिंग मालगाड़ी पकड़कर घर पहुँचना? ये हज़म नहीं हुआ।

मैंने कुछ देर सोचा, और फिर मेरी पत्नी पर जबरदस्त गुस्सा आया। साउथ ईस्टर्न रेलवे जैसी लेटलतीफ सेवा के भरोसे रोज़ ऑफिस आना-जाना मेरी किस्मत बन गई है। रोज़ प्लेटफॉर्म पर बैठा, सामने से मालगाड़ियाँ निकलती देखता हूँ — लेकिन कभी मेरी बीवी ने तो ये नहीं कहा — “गैलोपिंग मालगाड़ी पकड़ लो, जल्दी घर आ जाओ!” 😠

अब आप ही बताइए — उस लड़की की कहानी सुनकर मेरी बीवी पर गुस्सा आना जायज़ है या नहीं? 😄😄

क्या आप जानते हैं कि डालडा और पंडित नेहरू के बीच क्या संबंध था?शायद नहीं... पर यह एक ऐसा अध्याय है जिसे इतिहास ने अक्सर ...
08/06/2025

क्या आप जानते हैं कि डालडा और पंडित नेहरू के बीच क्या संबंध था?
शायद नहीं... पर यह एक ऐसा अध्याय है जिसे इतिहास ने अक्सर अनदेखा किया है।

डालडा—देश का पहला वनस्पति घी—था हिंदुस्तान लिवर का एक क्रांतिकारी उत्पाद। इसके पीछे थे स्वतन्त्र भारत के उस समय के सबसे धनी और राष्ट्रभक्त उद्योगपति सेठ रामकृष्ण डालमिया। एक ऐसा नाम, जो कभी टाटा और बिड़ला के साथ लिया जाता था। पर आज... न वो साम्राज्य रहा, न वैसी पहचान।

इसका कारण?
पंडित जवाहरलाल नेहरू की तानाशाही प्रवृत्ति, कट्टर सेकुलर सोच, और प्रतिशोध की राजनीति।

🌾 डालमिया की कहानी: धूल से शिखर तक

राजस्थान के चिड़ावा कस्बे में एक गरीब अग्रवाल परिवार में जन्मे सेठ रामकृष्ण डालमिया मामूली शिक्षा लेकर कोलकाता पहुँचे। बुलियन मार्केट में एक सेल्समैन से शुरू हुआ उनका सफर कुछ ही वर्षों में उन्हें देश का सबसे बड़ा उद्योगपति बना गया।

समाचारपत्र, बैंक, बीमा, सीमेंट, वस्त्र, विमान सेवा—हर क्षेत्र में उनका वर्चस्व था।
वे देश के हर बड़े नेता के करीबी थे और खुलकर आर्थिक सहायता भी करते थे।

🕉️ राष्ट्रवाद, धर्म और नेहरू का टकराव

सेठ डालमिया कट्टर सनातनी थे। उनका गहरा संबंध स्वामी करपात्री जी महाराज से था, जिन्होंने 1948 में राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक दल की स्थापना की।
1952 के आम चुनाव में इस पार्टी ने 18 सीटें जीतकर मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाई।

इन दोनों महान व्यक्तियों ने मिलकर हिंदू कोड बिल और गौवध के विरोध में बड़ा आंदोलन छेड़ दिया।
डालमिया जी ने इस आन्दोलन को दिल खोलकर आर्थिक सहयोग दिया।
नेहरू, जो इस बिल को हर हाल में पारित करवाना चाहते थे, इसे सीधा अपने अहंकार की चुनौती मान बैठे।

राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस बिल पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया, पर नेहरू ने अपनी ज़िद में दोनों सदनों से इसे फिर से पास करवाकर राष्ट्रपति के सामने रख दिया—संविधान की मजबूरी कहिए या नेहरू का दबाव—उसे अंततः स्वीकृति मिली।

⚖️ प्रतिशोध की राजनीति: डालमिया पर कहर

नेहरू ने इसे अपने अपमान और चुनौती के रूप में लिया। और शुरू हुई एक राष्ट्रवादी उद्योगपति को मिटाने की योजना।
लोकसभा में घोटालों के आरोप गूँजे, विविन आयोग बना, और केस सीबीआई को सौंपा गया।

सरकारी मशीनरी ने एक के बाद एक झूठे मामले गढ़े। डालमिया जी को मजबूरन अपने उद्योग, अखबार, कंपनियाँ औने-पौने दामों में बेचनी पड़ीं।
आख़िरकार अदालत ने उन्हें तीन साल की सजा सुनाई, और एक ऐसा व्यक्ति, जो एक समय में देश का सबसे बड़ा पूंजीपति था, जेल की कालकोठरी में कैद कर दिया गया।

🕯️ अंतिम व्रत और विरासत

डालमिया जी ने संकल्प लिया था:
"जब तक भारत में गौहत्या पर प्रतिबंध नहीं लगेगा, तब तक अन्न ग्रहण नहीं करूंगा।"
उन्होंने यह व्रत अपने अंतिम श्वास तक निभाया।
1978 में गौवंश की रक्षा के लिए उपवास करते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए
---

🇮🇳 एक अनकही गाथा

यह केवल एक उद्योगपति की कहानी नहीं है,
यह उस राष्ट्रवादी भावना की कथा है जिसे सत्ता के अहंकार ने रौंद दिया।
यह हमें याद दिलाती है कि आज़ादी के बाद भी विचारों की आज़ादी हमेशा सहज नहीं रही।

🙏🏼 सेठ रामकृष्ण डालमिया को शत-शत नमन।
जिन्होंने राष्ट्र, धर्म और सत्य के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया।

🚩 वन्दे मातरम्
जय हिन्द! जय भारत! 🇮🇳

07/06/2025

आज आप हैरान हो जाएंगे।
#वायरलपोस्ट #शिक्षाप्रद

07/06/2025

क्या आप त्याग कर रहे हैं? करिए।
#वायरलपोस्ट #शिक्षाप्रद #तेरी

एक छवि, कई मुखौटे: ग्रैंडमास्टर शिफूजी शौर्य भारद्वाज की असलियत क्या है?एक लंबे समय तक ‘देशभक्ति’ और ‘सैन्य परंपरा’ का प...
06/06/2025

एक छवि, कई मुखौटे: ग्रैंडमास्टर शिफूजी शौर्य भारद्वाज की असलियत क्या है?

एक लंबे समय तक ‘देशभक्ति’ और ‘सैन्य परंपरा’ का प्रतीक माने जाने वाले ग्रैंडमास्टर शिफूजी शौर्य भारद्वाज को लाखों लोगों ने एक राष्ट्रवादी, योद्धा और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में देखा। परंतु जैसे-जैसे परतें खुलीं, एक चौंकाने वाली सच्चाई सामने आने लगी।

इनका वास्तविक नाम दीपक दुबे है, और इन्होंने स्वयं को एक “एलीट आर्मी ऑफिसर” के रूप में प्रचारित किया। इनके अधिकांश वीडियो और तस्वीरों में यह बालिदान चिन्ह, मार्कोस बिल्ला, कड़ा, और मरून बेरी जैसे विशिष्ट सैन्य प्रतीकों के साथ युद्धक अभ्यास करते नजर आते हैं — जो भारत की विशेष सैन्य इकाइयों की पहचान माने जाते हैं।

शिफूजी ने दावा किया कि उन्होंने भारतीय सेना की एक विशेष फाइटिंग रेजिमेंट में 29 वर्षों तक सेवा दी, और 15 वर्षों के सेवा काल के बाद एक विशेष आत्मरक्षा प्रशिक्षक के रूप में सेवानिवृत्त हुए। आश्चर्य की बात यह है कि जिस व्यक्ति की उम्र 40 या 50 के आसपास दिखती है, वह 29 साल की सैन्य सेवा और फिर 15 साल की सेवानिवृत्ति बाद के करियर का दावा कैसे कर सकता है? यह तार्किक रूप से असंभव प्रतीत होता है।

इन्होंने स्वयं को मध्य प्रदेश सरकार का ब्रांड एंबेसडर, “इंटरनेशनल लिविंग अवॉर्ड” प्राप्तकर्ता और “सच्चा देशभक्त” बताया। वे कई बार राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर उरी हमला, सर्जिकल स्ट्राइक, सेना में भोजन की गुणवत्ता और अपने तथाकथित कारगिल युद्ध के अनुभवों पर चर्चा करते नजर आए।

इतना ही नहीं, उन्होंने खुद को मुंबई पुलिस की QRT यूनिट के कमांडेंट, “स्पेशल एंटी अर्बन टेरर इंस्ट्रक्टर”, और वीआईपी प्रोटेक्शन स्किल्स ट्रेनर भी बताया। यूट्यूब पर उनके तीन मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर हैं। वे कई बॉलीवुड सितारों के व्यक्तिगत प्रशिक्षक रहे और एक हिंदी फिल्म में अभिनय भी किया।

उनके पाकिस्तान विरोधी और राष्ट्रवादी भाषणों ने उन्हें सोशल मीडिया पर तेज़ी से लोकप्रिय बना दिया। लेकिन जल्द ही Alt News और The Lallantop जैसे फैक्ट-चेकिंग मंचों ने उनके दावों की सच्चाई उजागर की। तथ्यों के सामने आते ही उन्होंने अपनी वेबसाइट हटा दी और यूट्यूब से विवादास्पद वीडियो डिलीट कर दिए।

इनके झूठे दावों ने न केवल आम जनता को भ्रमित किया, बल्कि सेना के प्रति लोगों की संवेदनशीलता और सम्मान का भी शोषण किया। यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति का धोखा नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि राष्ट्रवाद के नाम पर कैसे भावनाओं के साथ खेला जा सकता है।

मेरी जानकारी और विश्लेषण:

1. कोई आधिकारिक सैन्य रिकॉर्ड नहीं — किसी भी सैन्य दस्तावेज या भारत सरकार के सार्वजनिक रेकॉर्ड में इनकी सैन्य सेवा का प्रमाण नहीं मिला है।

2. ‘मार्कोस’ या ‘NSG’ से जुड़ाव नहीं — इन्होंने जो चिह्न पहने हैं, वे आम नागरिक नहीं पहन सकते जब तक वे उन इकाइयों से संबंधित न हों। यह प्रतीक चिन्हों का अनुचित प्रयोग माना जाता है।

3. Alt News और The Lallantop की रिपोर्ट्स — इन दोनों ने तथ्यात्मक रूप से इनकी गतिविधियों और दावों की पड़ताल की, जिनसे यह स्पष्ट हुआ कि उनके ज्यादातर दावे काल्पनिक थे।

4. लोकप्रियता की रणनीति — इन्होंने सोशल मीडिया और राष्ट्रवाद की भावना का प्रयोग कर जनता को भावनात्मक रूप से जोड़ा, परंतु तथ्यों से परे जाकर।
प्रमुख खुलासे

1. सैन्य योग्यता और धोखा

रिपोर्टों के अनुसार शिफूजी ने खुद को भारत की 'मार्कोस' या ‘NSG’ जैसी विशेष इकाइयों से होने वाला elite कमांडो बताया, लेकिन उनके इस दावे को वैध सैन्य दस्तावेजों द्वारा समर्थन नहीं मिला ।

उन्होंने वीडियो और सार्वजनिक मंचों पर मरून बेरी और अन्य सैन्य प्रतीकों का भी प्रयोग किया — जो बिना वास्तविक इकाई से संबंध के अनुचित है ।

2. मीडिया में असर और लोकप्रियता

मीडिया चैनलों ने उन्हें “कारगिल युद्ध अनुभवी”, “सर्जिकल स्ट्राइक विशेषज्ञ”, आदि बताकर टीवी बहसों के लिए आमंत्रित किया, जिससे उनकी लोकप्रियता में इजाफा हुआ ।

उन्होंने बॉलीवुड सितारों का प्रशिक्षण भी किया और एक फिल्म ‘बाग़ी’ में बतौर ट्रेनर भूमिकाएँ निभाईं ।

3. Alt News और The Lallantop की पड़ताल

Alt News के अनुसार यह व्यक्ति “सैन्य धोखाधड़ी” करने वाला है, और घटक मामले अब जांच के अधीन हैं ।

The Lallantop ने भी एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए बताया कि उन्होंने अपनी वेबसाइट और विवादास्पद वीडियो को सवाल खड़े होने पर हटा दिया ।

4. शिकायतें और प्रतिक्रिया

कई लोग (जैसे राष्ट्रवादी कार्यकर्ता) और संगठन (बॉलीवुड से जुड़े लोग) ने शिकायतें दर्ज करवाईं, लेकिन किसी भी सरकारी एजेंसी ने अभी तक उन्हें किसी फर्जीवाड़े के लिए दोषी सिद्ध नहीं किया ।

🧩 निष्कर्ष

तथ्य तथ्यात्मक स्थिति

वास्तविक नाम दीपक दुबे
सैन्य इकाइयों से संबंध कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं
मरून बेरी, मार्कोस चिन्ह प्रमाणित नहीं; प्रतीकों का अनुचित प्रयोग
टीवी और सोशल मीडिया पहचान लोकप्रियता प्राप्त लेकिन संदिग्ध
जांच/ शिकायत RTI आधारित शिकायतें हैं, लेकिन अभी परिणाम स्पष्ट नहीं

⚠️ सारांश में:

1. ये व्यक्ति गहन सैन्य जीवन और सेवा के दावे करता रहा, लेकिन कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं मिली।

2. रक्षा और गृह मंत्रालय तक शिकायतें पहुंचीं, लेकिन अभी कोई कानूनी कार्रवाई या दोषसिद्धि नहीं हुई।

3. आलोचनाओं के बाद उसने अपनी वेबसाइट और विवादास्पद वीडियो हटाए, जिससे इसके दावों पर शक मजबूत हुआ।
🛡️ 1. असली पहचान और सैन्य दावे

Alt News की पड़ताल में सामने आया कि दीपक दुबे, जिन्हें ग्रैंडमास्टर शिफूजी शौर्य भारद्वाज के नाम से जाना जाता है, ने स्वयं को भारतीय सेना की elite कमांडो इकाइयों जैसे “मार्कोस” और “NSG” से जुड़ा बताया था – लेकिन किसी भी आधिकारिक सैन्य दस्तावेज़ में इस दावे का समर्थन नहीं मिला ।

उन्होंने 29 वर्ष सेना में सेवा और उसके बाद 15 साल आत्मरक्षा प्रशिक्षण देने का दावा किया – यानी कुल 44 साल का अनुभव। वहीं, वे 45–50 वर्ष के दिखते हैं, जिससे स्पष्ट है कि यह उम्र गणित संभव नहीं ।

🏅 2. अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और ब्रांड एंबैसडर की दावेदारी

Alt News में यह भी पाया गया कि शिफूजी ने “लिविंग लीजेंड–ट्रू पैट्रियट” नामक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और मध्य प्रदेश के ब्रांड एंबैसडर का खिताब अपने नाम दर्ज करवाया था—लेकिन इन दावों का भी कोई प्रमाण मौजूद नहीं है ।

🎥 3. सोशल मीडिया और सार्वजनिक छवि

उन्होंने टीवी बहसों में हिस्सा लिया, बॉलीवुड सितारों को प्रशिक्षण दिया और एक फिल्म में कमांडो ट्रेनर की भूमिका भी निभाई ।

उनके YouTube चैनल पर तीन मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर थे, लेकिन विवाद बढ़ने पर उन्होंने कई वीडियो और अपनी वेबसाइट हटा दी ।

🕵️‍♂️ 4. FAKE SOLDIER की पड़ताल

The Lallantop ने 2017 में रिपोर्ट की कि पुलिस (क्राइम ब्रांच, अहमदाबाद और मुंबई) ने शिफूजी के खिलाफ जांच शुरू की थी, जिसमें सैन्य प्रतीकों के गलत इस्तेमाल और धोखाधड़ी के आरोप शामिल थे ।

🧾 5. जांच और एफआईआर का परिणाम

Alt News ने बताया कि मुंबई पुलिस, गुजरात पुलिस और रक्षा मंत्रालय ने जांच की और 2016–17 तक उन्हें क्लीन चिट दे दी। इस दौरान आरोपित सैन्य प्रतीकों को उनके निजी ट्रेडमार्क प्रतीक कहा गया ।

✅ 6. तथ्य-पर-तर्क के आधार पर निष्कर्ष

आधिकारिक रिकॉर्ड: उनके सभी सैन्य व पारिवारिक दावों का कोई प्रमाण नहीं मिला।

मीडिया जांच: फैक्ट-चेकर्स ने अनुचित प्रतीकों और भ्रामक दावों को गलत बताया।

कानूनी स्थिति: जांच समाप्त हुई, लेकिन विवाद और आलोचना का सिलसिला जारी रहा।

✍️ संक्षिप्त निष्कर्ष

शिफूजी का एक बड़ा डिजिटल और मीडिया अभियान था, जिसमें उन्होंने खुद को विशेष सैन्य व्यवस्था का हिस्सा, फिल्मी दुनिया से जुड़ा और रायजनों का प्रशिक्षक बताया। मगर फैक्ट-चेक और कानूनी जांच ने यह स्पष्ट किया कि उनके अधिकांश दावे प्रमाणहीन या काल्पनिक हैं। आखिरकार, वे एक "Fake Soldier" के रूप में उजागर हुए—एक ऐसा व्यक्ति जिसने दर्शकों की भावनाओं, राष्ट्रवाद और सेना के प्रति सम्मान को प्रेरित करने वाले प्रतीकों के ज़रिए छल किया।

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