22/05/2025
मनुस्मृति एक विशेष उच्च जाति के हित में रचित ग्रंथ है, जिसमें समानता, स्वतंत्रता और मानवाधिकार जैसे आधुनिक मूल्यों का अभाव है।
यह आज के लोकतांत्रिक और संवैधानिक भारत की मूल भावना के विरोध में है।
मनुस्मृति के कुछ स्पष्ट संकेत जो इस बात को साबित करते हैं:
1. वर्ण व्यवस्था का कठोर समर्थन
ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ और पूजनीय कहा गया।
क्षत्रियों को शासन और सेना का अधिकार मिला।
वैश्य को व्यापार, कृषि तक सीमित किया गया।
शूद्रों को सिर्फ सेवा का कार्य दिया गया — न शिक्षा, न वेद, न सम्मान।
> मनुस्मृति 1.93 – "ब्राह्मण, स्वयं ही इस समस्त सृष्टि के स्वामी हैं।"
मनुस्मृति 5.148 – “स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं छोड़ा जाना चाहिए।”
एक ही अपराध के लिए ब्राह्मण को माफ़ किया जा सकता है, पर शूद्र को कठोर दंड।
> मनुस्मृति 8.270-272 – "यदि शूद्र ब्राह्मण की निंदा करे तो उसकी जीभ काट दो।"
जाति आधारित भेदभाव (Discrimination by Birth)
मनुस्मृति कहती है कि मनुष्य का कर्तव्य और अधिकार उसके जन्म से तय होता है, गुण और कर्म से नहीं।
> मनुस्मृति 10.4
“ब्राह्मण का जन्म शुद्ध है, शूद्र का जन्म सेवा के लिए है।”
शूद्रों पर अमानवीय व्यवहार
शूद्रों को वेद पढ़ने, यज्ञ करने, ज्ञान प्राप्त करने तक की अनुमति नहीं थी।
> मनुस्मृति 4.99, 8.270-272
“यदि कोई शूद्र वेद सुन ले तो उसके कान में पिघला सीसा डाल दो।”
4. दंड में ऊँच-नीच का नियम
ब्राह्मण अगर अपराध करे तो उसे हल्का दंड, और शूद्र को कठोर दंड।
> मनुस्मृति 8.267-268
“ब्राह्मण को माफ किया जा सकता है, पर शूद्र को सजा दी जानी चाहिए।”
ब्राह्मण शुद्ध जन्म से श्रेष्ठ है, शूद्र सेवा के लिए जन्मा है।” – (मनुस्मृति 1.93, 10.4)
स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं छोड़ा जाना चाहिए, चाहे वह बचपन में हो (पिता के अधीन), विवाह में (पति के अधीन), या वृद्धावस्था में (पुत्र के अधीन)।” – (मनुस्मृति 5.148)
“ब्राह्मण यदि अपराध करे तो उसे सिखावन देना उचित है, शूद्र अपराध करे तो उसे सजा देना उचित है।” – (मनुस्मृति 8.267-268)
“चांडालों को नगर के बाहर, पुराने बर्तनों में भोजन करना चाहिए।” – (मनुस्मृति 10.51-56)
“शूद्र को ब्राह्मण की सेवा के अलावा कुछ भी करने का अधिकार नहीं।” – (मनुस्मृति 8.410)
मनुस्मृति को एक "धर्मशास्त्र" के रूप में लिखा गया था, जिसमें यह बताया गया कि समाज किस तरह चले, कौन क्या करे, और किसका क्या अधिकार हो। उस समय कोई संविधान, संसद या लोकतांत्रिक प्रणाली नहीं थी — इसलिए राजा, पुजारी और समाज को नियंत्रित करने के लिए ऐसे ग्रंथ बनाए गए।
> उद्देश्य: सत्ता और अनुशासन को बनाए रखना — विशेष रूप से ब्राह्मणों और राजाओं के हाथ में।
मनुस्मृति ने जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को "ईश्वरीय" बताकर स्थायी बना दिया क्यों?
ताकि समाज में जो ऊँचे पद पर हैं, वे वहीं बने रहें, और जो निचले वर्ग में हैं, वे ऊपर न आ सकें।
मनुस्मृति ब्राह्मणों को:
सर्वोच्च शिक्षा का अधिकार,
सबसे अधिक दान व पूजा-पाठ का हक़,
और सजा से छूट जैसी विशेष सुविधाएँ देती है।
> उद्देश्य:
ब्राह्मण वर्ग को समाज के "नैतिक और धार्मिक नेता" के रूप में स्थापित करना।
स्त्रियों और निम्न जातियों को स्वतंत्र सोच या अधिकार न मिले, इसके लिए कठोर नियम बनाए गए।
> उद्देश्य:
समाज में महिलाओं और निम्न जातियों को "कर्म और सेवा" तक सीमित रखना।
मनुस्मृति में राजा को धर्म का रक्षक बताया गया — लेकिन वही धर्म ब्राह्मण तय करते थे।
> इसका मतलब:
राजा खुद सर्वोच्च नहीं था — उसे भी ब्राह्मणों के आदेश और नियम मानने पड़ते थे।
यानी धर्म के नाम पर ब्राह्मणों ने राज्य व्यवस्था को भी नियंत्रित किया।
मनुस्मृति का उद्देश्य न्याय और समानता नहीं, बल्कि एक सत्तावादी सामाजिक व्यवस्था बनाना था, जिसमें ऊँची जातियों को विशेषाधिकार और निम्न जातियों व महिलाओं को नियंत्रण में रखा जा सके।
“मनु” को इसका लेखक या प्रवर्तक माना जाता है।
धार्मिक परंपरा में मनु को “मानव जाति का पहला राजा” और “धर्म का संस्थापक” कहा गया है।
लेकिन यह एक व्यक्ति का लिखा ग्रंथ नहीं, बल्कि कई ब्राह्मण विद्वानों द्वारा समय-समय पर संकलित और संपादित किया गया ग्रंथ है।
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ब्राह्मणों की भूमिका:
1. मनुस्मृति ब्राह्मणों द्वारा लिखी गई और उन्हीं के हित में थी।
2. इसका हर अध्याय ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान, शूद्रों को नीच, और स्त्रियों को अधीन रखने की बात करता है।
3. शिक्षा, धर्म, न्याय, संपत्ति – हर क्षेत्र में ब्राह्मणों को विशेषाधिकार दिया गया।
> उदाहरण:
"ब्राह्मण ही भगवान के मुख से पैदा हुए हैं, इसलिए वे पूजनीय हैं।" – (मनुस्मृति 1.31)
मनुस्मृति न केवल ब्राह्मण द्वारा लिखी गई, बल्कि उसका पूरा संरचना और उद्देश्य ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए था।
यही कारण है कि इसे न्याय, समानता और आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ माना जाता है।
मनुस्मृति का समर्थन आज भी कुछ विशेष वर्ग, विचारधारा और संगठन करते हैं, हालांकि इसका व्यापक विरोध भी होता है।
आइए विस्तार से देखें – कौन लोग इसका समर्थन करते हैं और क्यों?
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1. कुछ ब्राह्मणवादी समूह
जो अब भी समाज में जातीय वर्चस्व और जन्म आधारित व्यवस्था को उचित मानते हैं।
ये लोग मनुस्मृति को "सनातन धर्म का आधार" कहते हैं और इसकी आलोचना को धर्म विरोध मानते हैं।
उद्देश्य:
जाति व्यवस्था को धार्मिक रूप से वैध ठहराना।
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2. हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले कुछ संगठन
कुछ हिंदू राष्ट्रवादी संगठन मनुस्मृति को भारत के "मूल कानून" की तरह पेश करते हैं।
वे कहते हैं कि संविधान की जगह प्राचीन धर्मशास्त्रों (जैसे मनुस्मृति) से शासन चलाना चाहिए।
जैसे:
RSS के कुछ पुराने विचारकों ने इसका सकारात्मक उल्लेख किया है (हालांकि आज RSS खुलकर इसका समर्थन नहीं करता)।
Vinayak Damodar Savarkar और गोलवलकर जैसे विचारकों ने हिंदू सभ्यता में मनुस्मृति को ‘law book’ बताया था।
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3. कुछ धर्माचार्य और परंपरावादी गुरू
जो पुरानी व्यवस्था को धार्मिक परंपरा का हिस्सा मानते हैं।
वे कहते हैं कि "मनुस्मृति में जो लिखा है, वह ईश्वर की आज्ञा के बराबर है।"
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4. जाति विशेष से राजनीतिक लाभ उठाने वाले लोग
कुछ राजनेता या जातिवादी नेता जो जाति विभाजन को बनाए रखना चाहते हैं – ताकि वोट बैंक और सामाजिक शक्ति बनी रहे।
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परंतु ज़रूरी बात यह है कि:
> भारत के संविधान, कानून, और आधुनिक समाज में मनुस्मृति का कोई अधिकारिक स्थान नहीं है।
डॉ. अंबेडकर ने इसे खुलेआम जलाया (25 दिसंबर 1927) क्योंकि यह समानता और मानवाधिकारों के खिलाफ था।
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निष्कर्ष:
समर्थन करने वाले उद्देश्य
ब्राह्मणवादी समूह जाति वर्चस्व बनाए रखना
कुछ राष्ट्रवादी संगठन हिंदू राष्ट्र की अवधारणा
परंपरावादी धर्माचार्य प्राचीन परंपरा का पालन
जातिवादी राजनेता सामाजिक सत्ता बनाए रखना