10/07/2025
"जब देवता भी हारने लगे, तब गुरु बना अंतिम आश्रय – विज्ञान और वेदों की सम्मिलित गाथा"
गुरु पूर्णिमा केवल श्रद्धा या परंपरा का पर्व नहीं है, यह उस गहन शक्ति का स्मरण है जो हमें सबसे कठिन समय में भी नीति, विवेक और सुरक्षा का बोध कराती है। भारतीय पुराणों में जब असुरों का आतंक चरम पर था, तब देवताओं ने अनेक बार युद्ध में पराजय का स्वाद चखा। सूर्य का तेज भी असुरों के अज्ञान को चीर नहीं सका, चंद्रमा की शीतलता भी विफल रही। अंततः देवताओं ने देवगुरु बृहस्पति की शरण ली। यह वर्णन हमें देवी भागवत महापुराण, स्कंद पुराण और महाभारत के शांतिपर्व में मिलता है। गुरु बृहस्पति ने युद्ध नहीं, बल्कि धर्म, यज्ञ, नीति और आत्मबल का मार्ग बताया। उन्होंने देवताओं को बाहरी अस्त्रों से अधिक, भीतर की दुर्बलता से लड़ने की विद्या सिखाई। अंततः ज्ञान और संयम के बल पर ही देवताओं को विजय प्राप्त हुई।
आश्चर्य की बात यह है कि आज का विज्ञान भी वही कहता है जो वेदों ने हजारों वर्ष पहले बताया। खगोलशास्त्र के अनुसार, बृहस्पति ग्रह को ब्रह्मांडीय रक्षक कहा जाता है। इसका गुरुत्वाकर्षण इतना विशाल है कि यह हजारों उल्कापिंडों और धूमकेतुओं (वेदों के अनुसार असुर) को पृथ्वी से टकराने से पहले ही खींच लेता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि बृहस्पति न होता, तो पृथ्वी पर जीवन बार-बार नष्ट हो चुका होता। क्या यह केवल संयोग है कि वेदों में जिसे देवताओं का गुरु और रक्षक कहा गया है, वही ग्रह विज्ञान में भी हमारी रक्षा करता है?
यहाँ प्रश्न प्रमाण का नहीं, बल्कि दृष्टिकोण का है — और यही दृष्टिकोण देता है “महावैदिक दर्शन”, जो विज्ञान और वेदों के बीच सेतु बनाता है। जहां विज्ञान गणना से रक्षा करता है, वहीं वेद चेतना से संतुलन लाते हैं। गुरु तत्व उसी संतुलन का वाहक है। ज्योतिष में भी गुरु का स्थान विशेष है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में सूर्य (पिता) और चंद्रमा (माता) कमजोर या पीड़ित हों, तब भी गुरु ग्रह ही दिशा, धैर्य और समाधान का माध्यम बनता है और जीवन में आशा का संचार करते हैं।
गुरु पूर्णिमा का यह पर्व केवल वेदों में ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों में भी समान श्रद्धा और सम्मान से मनाया जाता है। सनातन धर्म में यह दिन महर्षि वेदव्यास की जयंती के रूप में मनाया जाता है, जिन्होंने चारों वेदों का वर्गीकरण किया, 18 पुराणों और महाभारत जैसे ग्रंथों की रचना कर मानवता को दिव्य ज्ञान दिया। इसलिए उन्हें "आदि गुरु" कहा गया। बौद्ध परंपरा में यह दिन विशेष महत्व रखता है क्योंकि यही वह दिन है जब भगवान बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के पश्चात सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश दिया था — जिससे बौद्ध संघ की स्थापना हुई। जैन परंपरा में भी, गुरु पूर्णिमा का दिन आचार्य या उपाध्याय की दीक्षा और उनकी ज्ञान-परंपरा को सम्मानित करने का अवसर होता है। सभी परंपराओं में यह दिन गुरु को बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि एक जाग्रत चेतना, एक ऊर्जा के रूप में प्रणाम करने का पर्व है।
महावैदिक जीवनशैली इस गुरु तत्व को केवल बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि एक भीतर की ऊर्जा मानती है — जो हमारे शरीर, मन और आत्मा को संतुलित करती है। जैसे बृहस्पति ग्रह पृथ्वी की रक्षा करता है, वैसे ही एक सच्चा गुरु हमारे भीतर के डर, भ्रम और असंतुलन से रक्षा करता है।
आओ इस गुरु पूर्णिमा पर हम तीन संकल्प लें: पहला, अपने जीवन के हर गुरु — माता-पिता, शिक्षक, और अनुभवों — को मन से स्मरण करें। दूसरा, अपने भीतर के गुरु को जाग्रत करें — जो हमें सत्य-असत्य का विवेक देता है। और तीसरा, केवल ज्ञान प्राप्त न करें, बल्कि उसे जीवन में उतारें। क्योंकि जब तेज विफल हो जाता है, तब गुरु की नीति ही जीवन की नाव को पार लगाती है।
लेखिका
आचार्या दीपिका जैन
(महावैदिक कोच)
www.mahavedic.com
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