ब्रह्मवैवर्त पुराण Brahmvaivart Puran

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ब्रह्मवैवर्त पुराण Brahmvaivart Puran ब्रह्मवैवर्त पुराण परम दुर्लभ है।
यह

इसमें नये-नये अत्यंत गोपनीय रमणीय रहस्य भरे पड़े हैं।

यह हरिभक्तिप्रद, दुर्लभ हरिदास्य का दाता, सुखद, ब्रह्म की प्राप्ति करने वाला साररूप और शोक संताप का नाशक है।

जैसे सरिताओं में शुभकारिणी गंगा तत्क्षण ही मुक्ति प्रदान करने वाली हैं,

तीर्थों में पुष्कर और

पुरियों में काशी जैसे शुद्ध है,

सभी वर्षों में जैसे भारत वर्ष शुभ और तत्काल मुक्तिप्रद है,

जैसे पर्वतों में सुमेरु,

पुष्पों में प

ारिजात-पुष्प,

पत्रों में तुलसी पत्र,

व्रतों में एकादशीव्रत,

वृक्षों में कल्पवृक्ष,

देवताओं में श्रीकृष्ण,

ज्ञानि शिरोमणियों में महादेव,

योगीन्द्रों में गणेश्वर,

सिद्धेन्द्रों में एकमात्र कपिल,

तेजस्वियों में सूर्य,

वैष्णवों में अग्रगण्य भगवान सनत्कुमार,

राजाओं में श्रीराम,

धनुर्धारियों में लक्ष्मण,

देवियों में महापुण्यवती सती दुर्गा,

श्रीकृष्ण की प्रेयसियों में प्राणाधिका राधा,

ईश्वरियों में लक्ष्मी तथा

पण्डितों में सरस्वती सर्वश्रेष्ठ हैं;

उसी प्रकार सभी पुराणों में ब्रह्मवैवर्त श्रेष्ठ है।

इससे विशिष्ट, सुखद, मधुर, उत्तम पुण्य का दाता और संदेहनाशक दूसरा कोई पुराण नहीं है।

यह इस लोक में सुखद, संपूर्ण संपत्तियों का उत्तम दाता, शुभद, पुण्यद, विग्नविनाशक और उत्तम हरि-दास्य प्रदान करने वाला है तथा परलोक में प्रभूत आनन्द देने वाला है।

संपूर्ण यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओं का तथा समूची पृथ्वी की प्रदक्षिणा का भी फल इसके फल की समता में नगण्य है।

चारों वेदों के पाठ से भी इसका फल श्रेष्ठ है।

जो संयत चित्त होकर इस पुराण को श्रवण करता है; उसे गुणवान विद्वान वैष्णव पुत्र प्राप्त होता है।यदि कोई दुर्भगा नारी इसे सुनती है तो उसे पति के सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

इस पुराण के श्रवण से मृतवत्सा, काकवन्ध्या आदि पापिनी स्त्रियों को भी चिरजीवी पुत्र सुलभ हो जाता है।

अपुत्र को पुत्र, भार्यारहित को पत्नी और कीर्तिहीन को उत्तम यश मिल जाता है।

मूर्ख पण्डित हो जाता है।

रोगी रोग से बँधा हुआ बन्धन से, भयभीत भय से और आपत्तिग्रस्त आपत्ति से मुक्त हो जाता है।

अरण्य में, निर्जन मार्ग में अथवा दावाग्नि में फँसकर भयभीत हुआ मनुष्य इसके श्रवण से निश्चय ही उस भय से छूट जाता है।

इसके श्रवण से पुण्यवान पुरुष पर कुष्ठरोग, दरिद्रता, व्याधि और दारुण शोक का प्रभाव नहीं पड़ता। ये सभी पुण्यहीनों पर ही प्रभाव डालते हैं।

जो मनुष्य अत्यंत दत्तचित्त हो इसका आधा श्लोक अथवा चौधाई श्लोक सुनता है, उसे बहुसंख्यक गोदान का पुण्य प्राप्त होता है- इसमें संशय नहीं है।

जो मनुष्य शुद्ध समय में जितेंद्रिय होकर संकल्प पूर्वक वक्ता को दक्षिणा देकर भक्ति-भावसहित इस चार खण्डों वाले पुराण को सुनता है, वह अपने असंख्य जन्मों के बचपन, कौमार, युवा और वृद्धावस्था के संचित पाप से निःसंदेह मुक्त हो जाता है तथा श्रीकृष्ण का रूप धारण करके रत्ननिर्मित विमान द्वारा अविनाशी गोलोक में जा पहुँचता है। वहाँ उसे श्रीकृष्ण की दासता प्राप्त हो जाती है, यह ध्रुव है। असंख्य ब्रह्माओं का विनाश होने पर भी उसका पतन नहीं होता। वह श्रीकृष्ण के समीप पार्षद होकर चिरकाल तक उनकी सेवा करता है।

जो श्रीकृष्ण की भक्ति से युक्त हो इस पुराण को सुनता है, वह श्रीहरि की भक्ति और पुण्य का भागी होता है तथा उसके पूर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।

इसमें सम्पूर्ण धर्मों का निरूपण है। यह पुराण सब लोगों को अत्यन्त प्रिय है तथा सबकी समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाला है।
यह सम्पूर्ण अभीष्ट पदों को देने वाला है। पुराणों में सारभूत है। इसकी तुलना वेद से की गयी है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय 63-64 सुरथ और समाधि पर देवी की कृपा और वरदान, देवी की पूजा का विधान, ध्यान, प्र...
25/07/2025

ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय 63-64
सुरथ और समाधि पर देवी की कृपा और वरदान, देवी की पूजा का विधान, ध्यान, प्रतिमा की स्थापना, परिहार स्तुति, शंख में तीर्थों का आवाहन तथा देवी के षोडशोपचार-पूजन का क्रम

#देवी
#पुराण

नारद जी ने पूछा– वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ महाभाग नारायण! अब कृपया यह बताइये कि राजा ने किस प्रकार से पराप्रकृति का सेवन किया था? समाधि नामक वैश्य ने भी किस प्रकार प्रकृति का उपदेश पाकर निर्गुण एवं निष्काम परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त किया था। उनकी पूजा का विधान, ध्यान, स्तोत्र अथवा कवच क्या है? जिसका उपदेश महामुनि मेधस ने राजा सुरथ को दिया था। समाधि वैश्य को देवी प्रकृति ने कौन-सा उत्तम ज्ञान दिया था? किस उपाय से उन दोनों को सहसा प्रकृतिदेवी का साक्षात्कार प्राप्त हुआ था? वैश्य ने ज्ञान पाकर किस दुर्लभ पद को प्राप्त किया था? अथवा राजा की क्या गति हुई थी? उसे मैं सुनना चाहता हूँ।

श्रीनारायण ने कहा– मुने! राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने मेधस मुनि से देवी का मन्त्र, स्तोत्र, कवच, ध्यान तथा पुरश्चरण-विधि प्राप्त करके पुष्कर तीर्थ में उत्तम मन्त्र का जप आरम्भ कर दिया। वे एक वर्ष तक त्रिकाल स्नान करके देवी की समाराधना में लगे रहे, फिर दोनों शुद्ध हो गये। वहीं उन्हें मूलप्रकृति ईश्वरी के साक्षात दर्शन हुए। देवी ने राजा को राज्य प्राप्ति का वर दिया। भविष्य में मनु के पद और मनोवांछित सुख की प्राप्ति के लिये आश्वासन दिया। परमात्मा श्रीकृष्ण ने भगवान शंकर को जो पूर्वकाल में ज्ञान दिया था, वही परम दुर्लभ गूढ़ ज्ञान देवी ने वैश्य को दिया। कृपामयी देवी उपवास से अत्यन्त क्लेश पाते हुए वैश्य को निश्चेष्ट तथा श्वासरहित हुआ देख उसे गोद में उठाकर दुःख करने लगीं और बार-बार कहने लगीं–‘बेटा! होश में आओ।’ चैतन्यरूपिणी देवी ने स्वयं ही उसे चेतना दी। उस चेतना को पाकर वैश्य होश में आया और प्रकृतिदेवी के सामने रोने लगा। अत्यन्त कृपामयी देवी उस पर प्रसन्न हो कृपापूर्वक बोलीं।

श्रीप्रकृति ने कहा– बेटा! तुम्हारे मन में जिस वस्तु की इच्छा हो, उसके लिये वर माँगो। अत्यन्त दुर्लभ ब्रह्मत्व, अमरत्व, इन्द्रत्व, मनुत्व और सम्पूर्ण सिद्धियों का संयोग, जो चाहो, ले लो। मैं तुम्हें बालकों को बहलाने वाली कोई नश्वर वस्तु नहीं दूँगी।

वैश्य बोला– माँ! मुझे ब्रह्मत्व या अमरत्व पाने की इच्छा नहीं है। उससे भी अत्यन्त दुर्लभ कौन-सी वस्तु है? यह मैं स्वयं ही नहीं जानता। यदि कोई ऐसी वस्तु हो तो वही मेरे लिये अभीष्ट है। अब मैं तुम्हारी ही शरण में आया हूँ, तुम्हें जो अभीष्ट हो, वही मुझे दे दो। मुझे ऐसा वर देने की कृपा करो, जो नश्वर न हो और सबका सार-तत्त्व हो।

श्रीप्रकृति ने कहा– बेटा! मेरे पास तुम्हारे लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। जो वस्तु मुझे अभीष्ट है, वही मैं तुम्हें दूँगी, जिससे तुम परम दुर्लभ गोलोकधाम में जाओगे। महाभाग वत्स! जो देवर्षियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, वह सबका सारभूत ज्ञान ग्रहण करो और श्रीहरि धाम में जाओ। भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण, वन्दन, ध्यान, पूजन, गुण-कीर्तन, श्रवण, भावन, सेवा और सब कुछ श्रीकृष्ण को समर्पण– यह वैष्णवों की नवधा भक्ति का लक्षण है। यह भक्ति जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि तथा यम-यातना का नाश करने वाली है।
स्मरणं वन्दनं ध्यानमर्चनं गुणकीर्तनम्। श्रवणं भावनं सेवा सर्वं कृष्णे निवेदनम्।।
एतदेव वैष्णवानां नवधाभक्तिलक्षणम्। जन्ममृत्युजराव्याधियमताडनखण्डनम्।।-(प्रकृतिखण्ड 63। 19-20)
जो नवधा भक्ति से हीन, अधम एवं पापी हैं, उन लोगों की सूर्यदेव सदा आयु ही हरते रहते हैं। जो भक्त हैं और भगवान में जिनका चित्त लगा हुआ है, ऐसे वैष्णव चिरजीवी, जीवन्मुक्त, निष्पाप तथा जन्मादि विकारों से रहित होते हैं। शिव, शेषनाग, धर्म, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट्, सनत्कुमार, कपिल, सनक, सनन्दन, वोढु, पंचशिख, दक्ष, नारद, सनातन, भृगु, मरीचि, दुर्वासा, कश्यप, पुलह, अंगिरा, मेधस्, लोमश, शुक्र, वसिष्ठ, क्रतु, बृहस्पति, कर्दम, शक्ति, अत्रि, पराशर, मार्कण्डेय, बलि, प्रह्लाद, गणेश्वर, यम, सूर्य, वरुण, वायु, चन्द्रमा, अग्नि, अकूपार, उलूक, नाडीजंघ, वायुपुत्र हनुमान, नर, नारायण, कूर्म, इन्द्रद्युम्न और विभीषण– ये परमात्मा श्रीकृष्ण की नवधा भक्ति से युक्त महान ‘धर्मिष्ठ’ भक्तशिरोमणि हैं। वैश्यराज! जो भगवान श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे उन्हीं के अंश हैं तथा सदा जीवन्मुक्त रहते हैं। इतना ही नहीं, वे भूमण्डल के समस्त तीर्थों के पापों का अपहरण करने में समर्थ हैं। ऊपर सात स्वर्ग हैं, बीच में सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी है और नीचे सात पाताल हैं। ये सब मिलकर ‘ब्रह्माण्ड’ कहलाते हैं।

बेटा! ऐसे विश्व-ब्रह्माण्डों की कोई गणना नहीं है। प्रत्येक विश्व में पृथक-पृथक ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता, देवर्षि, मनु और मानव आदि हैं। सम्पूर्ण आश्रम भी हैं। सर्वत्र मायाबद्ध जीव रहते हैं। जिन महाविष्णु के रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड वास करते हैं, उन्हें महाविराट् कहते हैं। वे परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं। सबके अभीष्ट आत्मा श्रीकृष्ण सत्य, नित्य, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, अच्युत, प्रकृति से परे एवं परमेश्वर हैं। तुम उनका भजन करो। वे निरीह, निराकार, निर्विकार, निरंजन, निष्काम, निर्विरोध, नित्यानन्द और सनातन हैं। स्वेच्छामय (स्वतन्त्र) तथा सर्वरूप हैं। भक्तों पर कृपा करने के लिये ही वे दिव्य शरीर धारण करते हैं। परम तेजःस्वरूप तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता हैं।

ध्यान के द्वारा उन्हें वश में कर लिया जाये, यह असम्भव है। शिव आदि योगियों के लिये भी उनकी आराधना कठिन है। वे सर्वेश्वर, सर्वपूज्य, सबकी सम्पूर्ण कामनाओं के दाता, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सबको आनन्द प्रदान करने वाले, सम्पूर्ण धर्मों के दाता, सर्वरूप, प्राणरूप, सर्वधर्मस्वरूप, सर्वकारणकारण, सुखद, मोक्षदायक, साररूप, उत्कृष्ट रूपसम्पन्न, भक्तिदायक, दास्यप्रदायक तथा सत्पुरुषों को सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान करने वाले हैं। उनसे भिन्न सारा कृत्रिम जगत नश्वर है। वे परात्परतर शुद्ध परिपूर्णतम एवं शिवरूप हैं। बेटा! तुम सुखपूर्वक उन्हीं भगवान अधोक्षज की शरण लो। ‘कृष्ण’ यह दो अक्षरों का मन्त्र श्रीकृष्णदास्य प्रदान करने वाला है। तुम इसे ग्रहण करो और दुष्कर सिद्धि की प्राप्ति कराने वाले पुष्कर तीर्थ में जाकर इस मन्त्र का दस लाख जप करो। दस लाख के जप से ही तुम्हारे लिये यह मन्त्र सिद्ध हो जायेगा।

ऐसा कहकर भगवती प्रकृति वहीं अन्तर्धान हो गयीं। मुने! उन्हें भक्तिभाव से नमस्कार करके समाधि वैश्य पुष्कर तीर्थ में चला गया। पुष्कर में दुष्कर तप करके उसने परमेश्वर श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लिया। भगवती प्रकृति के प्रसाद से वह श्रीकृष्ण का दास हो गया।

भगवान् नारायण कहते हैं– महाभाग नारद! राजा सुरथ ने जिस क्रम से देवी परा प्रकृति की आराधना की थी, वह वेदोक्त क्रम बता रहा हूँ, सुनो। महाराज सुरथ ने स्नान करके आचमन किया। फिर त्रिविध न्यास, करन्यास, अंगन्यास तथा मन्त्रांगन्यास करके भूतशुद्धि की। इसके बाद प्राणायाम करके शंख-शोधन के अनन्तर देवी का ध्यान किया और मिट्टी की प्रतिमा में उनका आवाहन किया। फिर भक्तिभाव से ध्यान करके प्रेमपूर्वक उनका पूजन किया। देवी के दाहिने भाग में लक्ष्मी की स्थापना करके परम धार्मिक नरेश ने उनकी भी भक्तिभाव से पूजा की। नारद! तत्पश्चात् देवी के सामने कलश पर गणेश, सूर्य देवता, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती– इन छः देवताओं का आवाहन करके राजा ने विधिपूर्वक भक्ति से उनका पूजन किया। प्रत्येक विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह पूर्वोक्त छः देवताओं की पूजा और वन्दना करके महादेवी का प्रेमपूर्वक निम्नांकित रीति से ध्यान करे। मुने! सामवेद में जो ध्यान बताया गया है, वह परम उत्तम तथा कल्पवृक्ष के समान वांछापूरक है।

ध्यान
मूलप्रकृति ईश्वरी महादेवी का नित्य ध्यान करे। वे सनातनी देवी ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के लिये भी पूजनीया तथा वन्दनीया हैं। उन्हें नारायणी और विष्णुमाया कहते हैं। वे वैष्णवी देवी विष्णुभक्ति देने वाली हैं। यह सब कुछ उनका ही स्वरूप है। वे सबकी ईश्वरी, सबकी आधारभूता, परात्परा, सर्वविद्यारूपिणी, सर्वमन्त्रमयी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। वे सगुणा और निर्गुणा हैं। सत्यस्वरूपा, श्रेष्ठा, स्वेच्छामयी एवं सती हैं। महाविष्णु की जननी हैं। श्रीकृष्ण के आधे अंग से प्रकट हुई हैं। कृष्णप्रिया, कृष्णशक्ति एवं कृष्णबुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। श्रीकृष्ण ने उनकी स्तुति, पूजा और वन्दना की है। वे कृपामयी हैं। उनकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है। उनकी प्रभा करोड़ों सूर्यों की दीप्ति को भी लज्जित करती है। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द-मन्द हास्य की छटा छायी हुई है। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल हैं। उनका नाम दुर्गा देवी है। वे सौ भुजाओं से युक्त हैं और महती दुर्गति का नाश करने वाली हैं।

त्रिनेत्रधारी महादेव जी की प्रिया हैं। साध्वी हैं। त्रिगुणमयी एवं त्रिलोचना हैं। त्रिलोचन शिव की प्राणरूपा हैं। उनके मस्तक पर विशुद्ध अर्द्धचन्द्र का मुकुट है। वे मालती की पुष्पमालाओं से अलंकृत केशपाश धारण करती हैं। उनका मुख सुन्दर एवं गोलाकार है। वे भगवान शिव के मन को मोहने वाली हैं। रत्नों के युगल कुण्डल से उनके कपोल उद्भासित होते रहते हैं। वे नासिका के दक्षिण भाग में गजमुक्ता से निर्मित नथ धारण करती हैं। कानों में बहुसंख्यक बहुमूल्य रत्नमय आभूषण पहनती हैं। मोतियों की पाँत को तिरस्कृत करने वाली दन्तपंक्ति उनके मुख की शोभा बढ़ाती है।

पके हुए बिम्बफल के समान उनके लाल-लाल ओठ हैं। वे अत्यन्त प्रसन्न तथा परम मंगलमयी हैं। विचित्र पत्ररचना से रमणीय उनके कपोल-युगल परम उज्ज्वल प्रतीत होते हैं। रत्नों के बने हुए बाजूबन्द, कंगन तथा रत्नमय मंजीर उनके विभिन्न अंगों का सौन्दर्य बढ़ाते हैं। रत्नमय कंकणों से उनके दोनों हाथ विभूषित हैं। रत्नमय पाशक उनकी शोभा बढ़ाते हैं। रत्नमयी अंगूठियों से उनके हाथों की अँगुलियाँ जगमगाती रहती हैं। पैरों की अँगुलियों के और नखों में लगे हुए महावर की रेखा उनकी शोभा में वृद्धि करती है। वे अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। उनके विचित्र अंग गन्ध, चन्दन से चर्चित हैं। वे कस्तूरी के विन्दुओं से सुशोभित दो स्तन धारण करती हैं। सम्पूर्ण रूप और गुणों से सम्पन्न हैं तथा गजराज के समान मन्द गति से चलती हैं। अत्यन्त कान्तिमया तथा शान्तस्वरूपा हैं। योगसिद्धियों में बहुत बढ़ी-चढ़ी हैं। विधाता की भी सृष्टि करने वाली तथा सबकी माता हैं।

समस्त लोकों का कल्याण करने वाली हैं। शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति उनका परम सुन्दर मुख है। वे अत्यन्त मनोहारिणी हैं। उनके भालदेश का मध्यभाग कस्तूरी-बिन्दु, चन्दन-बिन्दु तथा सिन्दूर-बिन्दु से सदा उद्दीप्त होता रहता है। उनके नेत्र शरदऋतु के मध्याह्नकाल में खिले हुए कमलों की कान्ति को छीन लेते हैं। काजल की सुन्दर रेखाओं से वे सर्वथा सुशोभित होते हैं। उनके श्रीअंग करोड़ों कन्दर्पों की लावण्यलीला को तिरस्कृत करने वाले हैं। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनका मस्तक उत्तम रत्नों के बने हुए मुकुट से उद्भासित होता है। वे स्रष्टा की सृष्टि में शिल्परूपा और पालक के पालन में दयारूपा हैं। संहारकाल में संहारक की उत्तम संहाररूपिणी शक्ति हैं। निशुम्भ और शुम्भ को मथ डालने वाली तथा महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं। पूर्वकाल में त्रिपुर-युद्ध के समय त्रिपुरारि महादेव ने इनकी स्तुति की थी। मधु और कैटभ के युद्ध में वे विष्णु की शक्तिस्वरूपिणी थीं। समस्त दैत्यों का वध तथा रक्तबीज का नाश करने वाली यही हैं। हिरण्यकशिपु के वधकाल में ये नृसिंहशक्तिरूप में प्रकट हुई थीं। हिरण्याक्ष के वधकाल में भगवान वाराह के भीतर वाराही शक्ति यही थीं। ये परब्रह्मरूपिणी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। मैं सदा इनका भजन करता हूँ।

इस प्रकार ध्यान करके विद्वान पुरुष अपने सिर पर पुष्प रखे और पुनः ध्यान करके भक्तिभाव से आवाहन करे। प्रकृति की प्रतिमा का स्पर्श करके मनुष्य इस प्रकार मन्त्र पढ़े तथा मन्त्र द्वारा ही यत्नपूर्वक जीवन-न्यास करे।

अम्ब! भगवति! सनातनि! शिवलोक से आओ, आओ। सुरेश्वरि! मेरी शारदीया पूजा ग्रहण करो। जगत्पूज्ये! महेश्वरि! यहाँ आओ, ठहरो, ठहरो। हे मातः! हे अम्बिके! तुम इस प्रतिमा में निवास करो। अच्युते! इस प्रतिमा में तुम्हारे प्राण निम्नभाग में रहने वाले प्राणों के साथ आवें, रहें। तुम्हारी सम्पूर्ण शक्तियाँ इस प्रतिमा में तुरंत पदार्पण करें। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं दुर्गायै स्वाहा।’इस मन्त्र का उच्चारण करके कहे–‘हे सदाशिवे! इस प्रतिमा के हृदय में प्राण स्थित हों। चण्डिके! सम्पूर्ण इन्द्रियों के अधिदेवता यहाँ आवें। ईश्वर यहाँ आवें। देवि! तुम इस प्रतिमा में पधारो।’ इस प्रकार आवाहन करके निम्नांकित मन्त्र से परिहार-स्तुति करनी चाहिये। विप्रवर! एकाग्रचित्त होकर परिहार को सुनो।

शिवप्रिये! भगवति अम्बे! शिवलोक से जो तुम आयी हो, तुम्हारा स्वागत है। भद्रे! मुझ पर कृपा करो। भद्रकालि! तुम्हें नमस्कार है। दुर्गे! माहेश्वरि! तुम जो मेरे घर में आयी हो, इससे मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ और मेरा जीवन सफल है। आज मेरा जन्म सफल और जीवन सार्थक हुआ; क्योंकि मैं भारतवर्ष के पुण्यक्षेत्र में दुर्गा जी का पूजन करता हूँ। जो विद्वान भारतवर्ष में आप पूजनीया दुर्गा का पूजन करता है, वह अन्त में गोलोकधाम को जाता है और इहलोक में भी उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न बना रहता है। वैष्णवीदेवी की पूजा करके विद्वान पुरुष विष्णुलोक में जाता है और माहेश्वरी की पूजा करके वह शिवलोक को प्राप्त होता है। वेदों में सात्त्विक, राजसी और तामसी के भेद से तीन प्रकार की देवी की पूजा बतायी गयी है, जो क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम है।

सात्त्विकी पूजा वैष्णवों की है, शाक्त आदि राजसी पूजा करते हैं और जो किसी मन्त्र की दीक्षा नहीं ले सके हैं, ऐसे असत पुरुषों की पूजा तामसी कही गयी है। जो पूजा जीव हत्या से रहित और श्रेष्ठ है, वही सात्त्विकी एवं वैष्णवी मानी गयी है।वैष्णव लोग वैष्णवी देवी के वरदान से गोलोक में जाते हैं। माहेश्वरी एवं राजसी पूजा में बलिदान होता है। शाक्त आदि राजस पुरुष उस पूजा से कैलास में जाते हैं। किरात लोग तामसी पूजा द्वारा भूत-प्रेतों की आराधना करके नरक में पड़ते हैं। माँ! तुम्हीं जगत के जीवों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों फल प्रदान करने वाली हो। तुम परमात्मा श्रीकृष्ण की सर्वशक्तिस्वरूपा हो। जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि का अपहरण करने वाली परात्परा हो। सुखदायिनी, मोक्षदायिनी, भद्रा (कल्याणकारिणी) तथा सदा श्रीकृष्ण भक्ति प्रदान करने वाली हो। महामाये! नारायणि! दुर्गे! तुम दुर्गति का नाश करने वाली हो। दुर्गा नाम के स्मरण मात्र से यहाँ मनुष्यों का दुर्गम कष्ट दूर हो जाता है।

इस प्रकार परिहार-स्तवन करके साधक देवी के बायें भाग में तिपाई के ऊपर शंख रखे। उसमें जल भर दे और दूर्वा, पुष्प तथा चन्दन डाल दे। तत्पश्चात् उसे दाहिने हाथ से पकड़कर मनुष्य इस तरह मन्त्र पढ़े।

‘हे शंख! तुम पवित्र वस्तुओं में परम पवित्र हो, मंगलों के भी मंगल हो। पूर्वकल्प में शंखचूड़ से तुम्हारी उत्पत्ति हुई, इसलिये परम पवित्र हो।’ इस विधि से अर्घ्यपात्र की स्थापना करके विद्वान पुरुष उसे देवी को अर्पित करे। तदनन्तर सोलह उपचार चढ़ाकर देवी की पूजा करे। सजल कुश से त्रिकोण मण्डल बनाकर वहाँ धार्मिक पुरुष कच्छप, शेषनाग और पृथ्वी का पूजन करे। मण्डल के भीतर ही तिपाई रखे और उसके ऊपर शंख। शंख में तीन भाग जल डालकर उसकी पूजा कर तथा उसमें गंगा आदि तीर्थों का आवाहन करते हुए कहे–

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि चन्द्रभागे च कौशिकि।।
स्वर्णरेखे कनखले पारिभद्रे च गण्डकि।
श्वेतगङ्गे चन्द्ररेखे पम्पे चम्पे च गोमति।।
पद्मावति त्रिपर्णाशे विपाशे विरजे प्रभे।
शतह्रदे चेलगङ्गे जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु।।
हे गंगे! यमुने! गोदावरि! सरस्वति! नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! चन्द्रभागे! कौशिकि! स्वर्णरेखे! कनखले! पारिभद्रे! गण्डकि! श्वेतगंगे! चन्द्ररेखे! पम्पे! चम्पे! गोमति! पद्मावति! त्रिपर्णाशे! विपाशे! विरजे! प्रभे! शतह्रदे! तथा चेलगंगे! आप लोग इस जल में निवास करें।

तत्पश्चात् उस जल में तुलसी और चन्दन से अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, वरुण तथा शिव– इन छः देवताओं की पूजा करे। फिर उस जल से समस्त नैवेद्यों का प्रोक्षण करे। इसके बाद एक-एक करके सोलह उपचार समर्पित करे। आसन, वसन, पाद्य, स्नानीय, अनुलेपन, मधुपर्क, गन्ध, अर्घ्य, पुष्प, अभीष्ट नैवेद्य, आचमनीय, ताम्बूल, रत्नमय भूषण, धूप, दीप और शय्या– ये सोलह उपचार हैं।

(आसन) शंकरप्रिये! अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित तथा नाना प्रकार के चित्रों द्वारा शोभित श्रेष्ठ सिंहासन ग्रहण करो। (वस्त्र) शिवे! असंख्य सूत्रों से बने हुए तथा ईश्वर की इच्छा से निर्मित प्रज्वलित अग्नि द्वारा शुद्ध किया हुआ दिव्य वस्त्र स्वीकार करो। (पाद्य) दुर्गे! बहूमूल्य रत्नमय पात्र में रखे हुए निर्मल गंगाजल को पैर धोने के लिये पाद्य के रूप में ग्रहण करो। (स्नानीय) परमेश्वरि! सुगन्धित आँवले का स्निग्ध द्रव और परम दुर्लभ सुपक्व विष्णुतैल स्नानीय सामग्री के रूप में प्रस्तुत है। इसे स्वीकार करो। (अनुलेपन) जगदम्ब! कस्तूरी और कुमकुम से मिश्रित सुगन्धित चन्दनद्रव सुवासित अनुलेपन के रूप में समर्पित है।

इसे ग्रहण करो। (मधुपर्क) महादेवि! रत्नपात्र में स्थित परम पवित्र एवं परम मंगलमय माध्वीक मधुपर्क के रूप में प्रस्तुत है। इसे प्रसन्नातापूर्वक स्वीकार करो। (गन्ध) देवि! विभिन्न वृक्षों के मूल का चूर्ण गन्ध द्रव्य से युक्त हो परम पवित्र एवं मंगलोपयोगी गन्ध के रूप में समर्पित है। इसे ग्रहण करो। (अर्घ्य) चण्डिके! पवित्र शंखपात्र में स्थित स्वर्गंगा का जल दूर्वा, पुष्प और अक्षत से युक्त अर्घ्य के रूप में अर्पित है। इसे स्वीकार करो। (पुष्प) जगदम्बिके! पारिजात-वृक्ष से उत्पन्न सुगन्धित श्रेष्ठ पुष्प और मालती आदि फूलों की माला ग्रहण करो। (नैवेद्य) शिवे! दिव्य सिद्धान्न, आमान्न, पीठा, खीर आदि, लड्डू और दूसरे-दूसरे मिष्टान्न तथा सामयिक फल नैवेद्य के रूप में प्रस्तुत हैं। इन्हें स्वीकार करो। (आचमनीय) गिरिराजनन्दिनि! मैंने भक्तिभाव से आचमनीय के रूप में कर्पूर आदि से सुसंस्कृत एवं सुवासित शीतल जल अर्पित किया है। इसे ग्रहण करो। (ताम्बूल) देवि! सुपारी, पान और चूना को एकत्र करके उसे कर्पूर आदि से सुवासित किया है।

वही यह समस्त भोगों में श्रेष्ठ रमणीय ताम्बूल है। इसे स्वीकार करो। (रत्नमय भूषण) देवि! अत्यन्त मूल्यवान रत्नों के सार-भाग के द्वारा ईश्वरेच्छा से निर्मित तथा सम्पूर्ण अंगों को शोभा सम्पन्न बनाने वाला रत्नमय आभूषण ग्रहण करो। (धूप) देवि! वृक्ष की गोद के चूर्ण को सुगन्धित वस्तुओं में मिश्रित करके अग्नि की शिखा से शुद्ध किया गया है। इस धूप को स्वीकार करो। (दीप) परमेश्वरि! घने अन्धकार को दूर करने वाला यह परम पवित्र दीप दिव्य रत्नविशेष है। इसे ग्रहण करो। (शय्या) देवि! यह उत्तम दिव्य पर्यंक रत्नों के सारभाग से निर्मित हुआ है। इस पर गद्दा है और वह महीन वस्त्र की चादर से ढका हुआ है। तुम इस शय्या को स्वीकार करो।

मुने! इस प्रकार दुर्गा देवी का पूजन करके उन्हें पुष्पांजलि चढ़ावे। तदनन्तर देवी की सहचरी आठ नायिकाओं का यत्नतः पूजन करे। उनके नाम इस प्रकार हैं– उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, अतिचण्डा, चामुण्डा, चण्डा और चण्डवती। अष्टदल कमल पर पूर्व आदि दिशा के क्रम से इनकी स्थापना करके पंचोपचारों द्वारा पूजन करे। दलों के मध्यभाग में भैरवों का पूजन करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं– महाभैरव, संहारभैरव, असितांगभैरव, रुरुभैरव, कालभैरव, क्रोधभैरव, ताम्रचूडभैरव तथा चन्द्रचूड़भैरव। इन सबकी पूजा करके बीच की कर्णिका में नौ शक्तियों का पूजन करे। क्रम यह है कि कमल के आठ दलों में आठ शक्तियों की और बीच की कर्णिका में नवीं शक्ति की स्थापना करे।

इस तरह इन सबका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये। इन शक्तियों के नाम यों हैं– ब्रह्माणी, वैष्णवी, रौद्री, माहेश्वरी, नारसिंही, वाराही, इन्द्राणी तथा कार्तिकी (कौमारी)। इनके अतिरिक्त नवीं प्रधाना शक्ति हैं सर्वमंगला, जो सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। इन नौ शक्तियों का पूजन करने के पश्चात् कलश में देवताओं का पूजन करे। शंकर, कार्तिकेय, सूर्य देवता, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, वरुण, देवी की चेटी, वटु तथा चौंसठ योगिनी– इन सबका विधिवत पूजन करके यथाशक्ति भेंट– उपहार अर्पित करके विद्वान पुरुष स्तुति करे। कवच को भक्तिपूर्वक पढ़कर उसे गले में बाँध ले। फिर परिहार नामक स्तुति करके विद्वान पुरुष देवी को नमस्कार करे। इस प्रकार उपहार दे स्तुति करके कवच बाँधकर विद्वान पुरुष धरती पर माथा टेक दण्डवत प्रणाम करे और ब्राह्मण को दक्षिणा दे।

ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय 57-61 दुर्गा जी के सोलह नामों की व्याख्या, दुर्गा की उत्पत्ति तथा उनके पूजन की ...
17/07/2025

ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय 57-61
दुर्गा जी के सोलह नामों की व्याख्या, दुर्गा की उत्पत्ति तथा उनके पूजन की परम्परा का संक्षिप्त वर्णन

#दुर्गा
#पुराण

नारद जी बोले– ब्रह्मन्! मैंने अत्यन्त अद्भुत सम्पूर्ण उपाख्यानों को सुना। अब दुर्गाजी के उत्तम उपाख्यान को सुनना चाहता हूँ। वेद की कौथुमी शाखा में जो दुर्गा, नारायणी, ईशाना, विष्णुमाया, शिवा (दुर्गा), सती, नित्या, सत्या, भगवती, सर्वाणी, सर्वमंगला, अम्बिका, वैष्णवी, गौरी, पार्वती और सनातनी– ये सोलह नाम बताये गये हैं, वे सबके लिये कल्याणदायक हैं। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ नारायण! इन सोलह नामों का जो उत्तम अर्थ है, वह सबको अभीष्ट है। उसमें सर्वसम्मत वेदोक्त अर्थ को आप बताइये। पहले किसने दुर्गा जी की पूजा की है? फिर दूसरी, तीसरी और चौथी बार किन-किन लोगों ने उनका सर्वत्र पूजन किया है?

श्रीनारायण ने कहा– देवर्षे! भगवान विष्णु ने वेद में इन सोलह नामों का अर्थ किया है, तुम उसे जानते हो तो भी मुझसे पुनः पूछते हो। अच्छा, मैं आगमों के अनुसार उन नामों का अर्थ कहता हूँ। दुर्गा शब्द का पदच्छेद यों है– दुर्ग+आ। ‘दुर्ग’ शब्द दैत्य, महाविघ्न, भवबन्धन, कर्म, शोक, दुःख, नरक, यमदण्ड, जन्म, महान भय तथा अत्यन्त रोग के अर्थ में आता है तथा ‘आ’ शब्द ‘हन्ता’ का वाचक है। जो देवी इन दैत्य और महाविघ्न आदि का हनन करती है, उसे ‘दुर्गा’ कहा गया है। यह दुर्गा यश, तेज, रूप और गुणों में नारायण के समान है तथा नारायण की ही शक्ति है। इसलिये ‘नारायणी’ कही गयी है। ईशाना का पदच्छेद इस प्रकार है– ईशान+आ। ‘ईशान’ शब्द सम्पूर्ण सिद्धियों के अर्थ में प्रयुक्त होता है और ‘आ’ शब्द दाता का वाचक है। जो सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाली है, वह देवी ‘ईशाना’ कही गयी है।

पूर्वकाल में सृष्टि के समय परमात्मा विष्णु ने माया की सृष्टि की थी और अपनी उस माया द्वारा सम्पूर्ण विश्व को मोहित किया। वह मायादेवी विष्णु की ही शक्ति है, इसलिये ‘विष्णुमाया’ कही गयी है। ‘शिवा’ शब्द का पदच्छेद यों है– शिव+आ। ‘शिव’ शब्द शिव एवं कल्याण अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा ‘आ’ शब्द प्रिय और दाता-अर्थ में। वह देवी कल्याणस्वरूपा है, शिवदायिनी है और शिवप्रिया है, इसलिये ‘शिवा’ कही गयी है। देवी दुर्गा सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं, प्रत्येक युग में विद्यमान हैं तथा पतिव्रता एवं सुशीला हैं। इसीलिये उन्हें ‘सती’ कहते हैं। जैसे भगवान नित्य हैं, उसी तरह भगवती भी ‘नित्या’ हैं। प्राकृत प्रलय के समय वे अपनी माया से परमात्मा श्रीकृष्ण में तिरोहित रहती हैं।

ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत कृत्रिम होने के कारण मिथ्या ही है, परंतु दुर्गा सत्यस्वरूपा हैं। जैसे भगवान सत्य हैं, उसी तरह प्रकृति देवी भी ‘सत्या’ हैं। सिद्ध, ऐश्वर्य आदि के अर्थ में ‘भग’ शब्द का प्रयोग होता है, ऐसा समझना चाहिये। वह सम्पूर्ण सिद्ध, ऐश्वर्यादिरूप भग प्रत्येक युग में जिनके भीतर विद्यमान है, वे देवी दुर्गा ‘भगवती’ कही गयी हैं। जो विश्व के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को जन्म, मृत्यु, जरा आदि की तथा मोक्ष की भी प्राप्ति कराती हैं, वे देवी अपने इसी गुण के कारण ‘सर्वाणी’ कही गयी हैं। ‘मंगल’ शब्द मोक्ष का वाचक है और ‘आ’ शब्द दाता का। जो सम्पूर्ण मोक्ष देती हैं, वे ही देवी ‘सर्वमंगला’ हैं। ‘मंगल’ शब्द हर्ष सम्पत्ति और कल्याण के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो उन सबको देती हैं, वे ही देवी ‘सर्वमंगला’ नाम से विख्यात हैं। ‘अम्बा’ शब्द माता का वाचक है तथा वन्दन और पूजन-अर्थ में भी ‘अम्ब’ शब्द का प्रयोग होता है।

वे देवी सबके द्वारा पूजित और वन्दित हैं तथा तीनों लोकों की माता हैं, इसलिये ‘अम्बिका’ कहलाती हैं। देवी श्रीविष्णु की भक्ता, विष्णुरूपा तथा विष्णु की शक्ति हैं। साथ ही सृष्टिकाल में विष्णु के द्वारा ही उनकी सृष्टि हुई है। इसलिये उनकी ‘वैष्णवी’ संज्ञा है। ‘गौर’ शब्द पीले रंग, निर्लिप्त एवं निर्मल परब्रह्म परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। उन ‘गौर’ शब्दवाच्य परमात्मा की वे शक्ति हैं, इसलिये वे ‘गौरी’ कही गयी हैं। भगवान शिव सबके गुरु हैं और देवी उनकी सती-साध्वी प्रिया शक्ति हैं। इसलिये ‘गौरी’ कही गयी हैं। श्रीकृष्ण ही सबके गुरु हैं और देवी उनकी माया हैं। इसलिये भी उनको ‘गौरी’ कहा गया है। ‘पर्व’ शब्द तिथिभेद (पूर्णिमा), पर्वभेद, कल्पभेद तथा अन्यान्य भेद अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा ‘ती’ शब्द ख्याति के अर्थ में आता है। उन पर्व आदि में विख्यात होने से उन देवी की ‘पार्वती’ संज्ञा है। ‘पर्वन’ शब्द महोत्सव-विशेष के अर्थ में आता है। उसकी अधिष्ठात्री देवी होने के नाते उन्हें ‘पार्वती’ कहा गया है। वे देवी पर्वत (गिरिराज हिमालय) की पुत्री हैं। पर्वत पर प्रकट हुई हैं तथा पर्वत की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसलिये भी उन्हें ‘पार्वती’ कहते हैं। ‘सना’ का अर्थ है सर्वदा और ‘तनी’ का अर्थ है विद्यमाना। सर्वत्र और सब काल में विद्यमान होने से वे देवी ‘सनातनी’ कही गयी हैं।

महामुने! आगमों के अनुसार सोलह नामों का अर्थ बताया गया। अब देवी का वेदोक्त उपाख्यान सुनो। पहले-पहल परमात्मा श्रीकृष्ण ने सृष्टि के आदिकाल में गोलोकवर्ती वृन्दावन के रासमण्डल में देवी की पूजा की थी। दूसरी बार मधु और कैटभ से भय प्राप्त होने पर ब्रह्मा जी ने उनकी पूजा की। तीसरी बार त्रिपुरारि महादेव ने त्रुपुर से प्रेरित होकर देवी का पूजन किया था। चौथी बार पहले दुर्वासा के शाप से राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट हुए देवराज इन्द्र ने भक्तिभाव के साथ देवी भगवती सती की समाराधना की थी। तब से मुनीन्द्रों, सिद्धेनद्रों, देवताओं तथा श्रेष्ठ महर्षियों द्वारा सम्पूर्ण विश्व में सब ओर और सदा देवी की पूजा होने लगी।

मुने! पूर्वकाल में सम्पूर्ण देवताओं के तेजःपुंज से देवी प्रकट हुई थीं। उस समय सब देवताओं ने अस्त्र-शस्त्र और आभूषण दिये थे। उन्हीं दुर्गा देवी ने दुर्ग आदि दैत्यों का वध किया और देवताओं को अभीष्ट वर के साथ स्वराज्य दिया। दूसरे कल्प में महात्मा राजा सुरथ ने, जो मेधस ऋषि के शिष्य थे, सरिता के तट पर मिट्टी की मूर्ति में देवी की पूजा की थी। उन्होंने वेदोक्त सोलह उपचार अर्पित करके विधिवत पूजन और ध्यान के पश्चात् कवच धारण किया तथा परिहार नामक स्तुति करके अभीष्ट वर पाया। इसी तरह उसी सरिता के तट पर अभीष्ट वर पाया। इसी तरह उसी सरिता के तट पर उसी मृण्मयी मूर्ति में एक वैश्य ने भी देवी की पूजा करके मोक्ष प्राप्त किया। राजा और वैश्य ने नेत्रों से आँसू बहाते हुए दोनों हाथ जोड़कर देवी की स्तुति की और उनकी उस मृण्मयी प्रतिमा का नदी के निर्मल गम्भीर जल में विसर्जन कर दिया।

वैसी मृण्मयी प्रतिमा को जलमग्न हुई देख राजा और वैश्य दोनों रो पड़े और वहाँ से अन्यत्र चले गये। वैश्य ने देह त्याग करके जन्मान्तर में पुष्कर तीर्थ में दुष्कर तपस्या की और दुर्गा देवी के वरदान से वे गोलोकधाम में चले गये। राजा अपने निष्कण्टक राज्य को लौट गये और वहाँ सबके आदरणीय होकर बलपूर्वक शासन करने लगे। उन्होंने साठ हजार वर्षों तक राज्य भोग किया। तत्पश्चात् अपनी पत्नी तथा राज्य का भार पुत्र को सौंपकर वे काल योग से पुष्कर में तप करके दूसरे जन्म में सावर्णि मनु हुए। वत्स! मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने आगमों के अनुसार दुर्गोपाख्यान का संक्षेप से वर्णन किया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?

तदनन्तर नारद जी के पूछने पर भगवान नारायण ने तारा की कथा कही और चैत्रतनय राजा अधिरथ से राजा सुरथ की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाया।

ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय 56 श्रीजगन्मंगल-राधाकवच तथा उसकी महिमा  #पुराण  #राधा   श्रीपार्वती बोलीं– श्री...
15/07/2025

ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय 56
श्रीजगन्मंगल-राधाकवच तथा उसकी महिमा

#पुराण
#राधा

श्रीपार्वती बोलीं– श्रीराधा की पूजा का विधान और स्तोत्र अत्यन्त अद्भुत है, उसे मैंने सुन लिया। अब राधाकवच का वर्णन कीजिये। आपकी कृपा से उसे भी सुनूँगी।

श्रीमहेश्वर ने कहा– दुर्गे! सुनो। मैं परम अद्भुत राधा कवच का वर्णन आरम्भ करता हूँ। पूर्वकाल में साक्षात परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोलोक में इस अति गोपनीय परम तत्त्वरूप तथा सर्वमन्त्रसमूहमय कवच का मुझसे वर्णन किया था। यह वही कवच है, जिसे धारण करके पाठ करने से ब्रह्मा ने वेदमाता सावित्री को पत्नीरूप में प्राप्त किया। सुरेश्वरि! तुम सर्वलोक जननी हो। मुझे तुम्हारा स्वामी होने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वह इस कवच को धारण करने का ही प्रभाव है। इसी को धारण करके भगवान नारायण ने महालक्ष्मी को प्राप्त किया। इसी को धारण करने से प्रकृति से परवर्ती निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण पूर्वकाल में सृष्टिरचना करने की शक्ति से सम्पन्न हुए। जगत्पालक विष्णु ने इसी को धारण करके सिन्धुकन्या को प्राप्त किया। इसी कवच के प्रभाव से शेषनाग समस्त ब्रह्माण्ड को अपने मस्तक पर सरसों के दाने की भाँति धारण करते हैं। इसी का आश्रय ले महाविराट प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्डों को धारण करते हैं और सबके आधार बने हैं। इस कवच का धारण और पाठ करने से धर्म सबके साक्षी और कुबेर धनाध्यक्ष हुए हैं। इसके पाठ और धारण का ही यह प्रभाव है कि इन्द्र देवताओं के स्वामी तथा मनु नरेशों के भी सम्राट हुए हैं।

इसके पाठ और धारण से ही श्रीमान चन्द्रदेव राजसूय-यज्ञ करने में सफल हुए और सूर्यदेव तीनों लोकों के ईश्वर-पद पर प्रतिष्ठित हो सके। इसका मन के द्वारा धारण और वाणी द्वारा पाठ करने से अग्निदेव जगत को पवित्र करते हैं तथा पवन देव मन्द गति से प्रवाहित हो तीनों भुवनों को पावन बनाते हैं। इस कवच को ही धारण करने का यह प्रभाव है कि मृत्युदेव समस्त प्राणियों में स्वच्छन्द गति से विचरते हैं। इसके पाठ और धारण से ही सशक्त हो जमदग्निनन्दन परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से सूनी कर दिया और कुम्भज ऋषि ने समुद्र को पी लिया। इसे धारण करके ही भगवान सनत्कुमार ज्ञानियों के गुरु हुए हैं और नर-नारायण ऋषि जीवन्मुक्त एवं सिद्ध हो गये हैं। इसी के धारण और पठन से ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ सिद्ध हो गये हैं। कपिल सिद्धों के स्वामी हुए हैं। इसी के प्रभाव से प्रजापति दक्ष और भृगु मुझसे निर्भय होकर द्वेष करते हैं, कूर्म शेष को भी धारण करते हैं, वायु देव सबके आधार हुए हैं और वरुण सबको पवित्र करने वाले हो सके हैं। शिवे! इसी के प्रभाव से ईशान दिक्पाल और यम शासक हुए हैं। इसी का आश्रय लेने से काल एवं कालाग्निरुद्र तीनों लोकों का संहार करने में समर्थ हो सके हैं। इसी को धारण करके गौतम सिद्ध हुए, कश्यप प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित हो सके और मुनिवर दुर्वासा ने अपनी पत्नी का वियोग होने पर पूर्वकाल में देवी कलास्वरूपा वसुदेव कुमारी एकानंशा को प्राप्त किया।

पूर्वकाल में श्रीरामचन्द्र जी ने रावण द्वारा हरी हुई सीता को इसी कवच के प्रताप से प्राप्त किया। राजा नल ने इसी के पाठ से सती दमयन्ती को पाया। महावीर शंखचूड़ इसी के प्रभाव से दैत्यों का स्वामी हुआ। दुर्गे! इसी का आश्रय लेने से वृषभ नन्दिकेश्वर मुझको वहन करते हैं और गरुड़ श्रीहरि के वाहन हो सके हैं। पूर्वकाल के सिद्धों और मुनियों ने इसी के प्रभाव से सिद्धि प्राप्त की। इसी को धारण करके महालक्ष्मी सम्पूर्ण सम्पदाओं को देने में समर्थ हुईं। सरस्वती को सत्पुरुषों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हुआ तथा कामपत्नी रति क्रीड़ा में कुशल हो सकी। वेदमाता सावित्री ने इस कवच के प्रभाव से ही सिद्धि प्राप्त की। सिन्धुकन्या इसी के बल से मर्त्यलक्ष्मी और विष्णु की पत्नी हुईं।

इसी को धारण करके तुलसी पवित्र और गंगा भुवनपावनी हुईं। इसका आश्रय लेकर ही वसुन्धरा सबकी आधारभूमि तथा सम्पूर्ण शस्यों से सम्पन्न हुईं। इसको धारण करने से मनसा देवी विश्वपूजित सिद्धा हुईं और देवमाता अदिति ने भगवान विष्णु को पुत्ररूप में प्राप्त किया। लोपामुद्रा और अरुन्धती ने इस कवच को धारण करके ही पतिव्रताओं में ऊँचा स्थान प्राप्त किया तथा सती देवहूति ने इसी के प्रभाव से कपिल-जैसा पुत्र पाया। शतरूपा ने जो प्रियव्रत और उत्तानपाद-जैसे पुत्र प्राप्त किये तथा तुम्हारी माता मेना ने भी जो तुम-जैसी देवी गिरिजा को पुत्री के रूप में पाया, वह इस कवच का ही माहात्म्य है। इस प्रकार समस्त सिद्धगणों ने राधा कवच के प्रभाव से सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त किये हैं।

विनियोग
ऊँ अस्य श्रीजगन्मङ्गलकवचस्य प्रजापति-र्ऋषिर्गायत्री छन्दः स्वयं रासेश्वरी देवता श्रीकृष्ण-भक्तिसम्प्राप्तौ विनियोगः।
इस जगन्मंगल राधाकवच के प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, स्वयं रासेश्वरी देवता हैं और श्रीकृष्ण भक्ति-प्राप्ति के लिये इसका विनियोग बताया गया है। जो अपना शिष्य और श्रीकृष्णभक्त ब्राह्मण हो, उसी के समक्ष इस कवच को प्रकाशित करे। जो शठ तथा दूसरे का शिष्य हो, उसको इसका उपदेश देने से मृत्यु की प्राप्ति होती है। प्रिये! राज्य दे दे, अपना मस्तक कटा दे; परंतु अनधिकारी को यह कवच न दे। मैंने गोलोक में देखा था कि साक्षात परमात्मा श्रीकृष्ण ने भक्तिभाव से अपने कण्ठ में इसको धारण किया था। पूर्वकाल में ब्रह्मा और विष्णु ने भी इसे अपने गले में स्थान दिया था।

‘ऊँ राधायै स्वाहा।’यह मन्त्र कल्पवृक्ष के समान मनोवांछित फल देने वाला है और श्रीकृष्ण ने इसकी उपासना की है। यह मेरे मस्तक की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं राधिकायै स्वाहा।’ यह मन्त्र मेरे कपाल की तथा दोनों नेत्रों और कानों की सदा रक्षा करे। ‘ऊँ रां ह्रीं श्रीं राधिकायै स्वाहा।’ यह मन्त्रराज सदा मेरे मस्तक और केशसमूहों की रक्षा करे। ‘ऊँ रां राधायै स्वाहा।’ यह सर्वसिद्धिदायक मन्त्र मेरे कपोल, नासिका और मुख की रक्षा करे। ‘ऊँ क्लीं श्रीं कृष्णप्रियायै नमः।’ यह मन्त्र मेरे कण्ट की रक्षा करे। ‘ऊँ रां रासेश्वर्यै नमः।’ यह मन्त्र मेरे कंधे की रक्षा करे। ‘ऊँ रां रासविलासिन्यै स्वाहा।’ यह मन्त्र मेरे पृष्ठभाग की सदा रक्षा करे। ‘ऊँ वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा।’ यह मन्त्र वक्षःस्थल की सदा रक्षा करे। ‘ऊँ तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा।’ यह मन्त्र नितम्ब की रक्षा करे। ‘ऊँ कृष्णप्राणाधिकायै स्वाहा।’ यह मन्त्र दोनों चरणों तथा सम्पूर्ण अंगों की सदा सब ओर से रक्षा करे। राधा पूर्व-दिशा में मेरी रक्षा करें।

कृष्णप्रिया अग्निकोण में मेरा पालन करें। रासेश्वरी दक्षिण दिशा में मेरी रक्षा का भाग सँभालें। गोपीश्वरी नैर्ऋत्यकोण में मेरा संरक्षण करें। निर्गुणा पश्चिम तथा कृष्णपूजिता वायव्यकोण में मेरा पालन करें। मूलप्रकृति ईश्वरी उत्तर दिशा में निरन्तर मेरे संरक्षण में लगी रहें। सर्वपूजिता सर्वेश्वरी सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें। महाविष्णु जननी जल, स्थल, आकाश, स्वप्न और जागरण में सदा सब ओर से मेरा संरक्षण करें।

दुर्गे! यह परम उत्तम श्रीजगन्मंगलकवच मैंने तुमसे कहा है। यह गूढ़ से भी परम गूढ़तर तत्त्व है। इसका उपदेश हर एक को नहीं देना चाहिये। मैंने तुम्हारे स्नेहवश इसका वर्णन किया है। किसी अनधिकारी के सामने इसका प्रवचन नहीं करना चाहिये। जो वस्त्र, आभूषण और चन्दन से गुरु की विधिवत पूजा करके इस कवच को कण्ठ या दाहिनी बाँह में धारण करता है, वह भगवान विष्णु के समान तेजस्वी हो जाता है।

सौ लाख जप करने पर यह कवच सिद्ध हो जाता है। यदि किसी को यह कवच सिद्ध हो जाये तो वह आग से जलता नहीं है। दुर्गे! पूर्वकाल में इस कवच को धारण करने से ही राजा दुर्योधन ने जल और अग्नि का स्तम्भन करने में निश्चितरूप से दक्षता प्राप्त की थी। मैंने पहले पुष्कर तीर्थ में सूर्यग्रहण के अवसर पर सनत्कुमार को इस कवच का उपदेश दिया था। सनत्कुमार ने मेरु पर्वत पर सान्दीपनि को यह कवच प्रदान किया। सान्दीपनि ने बलराम जी को और बलराम जी ने दुर्योधन को इसका उपदेश दिया। इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो सकता है।

ऊँ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च। कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्ष शिरोऽवतु।।

ऊँ ह्रीं श्रीं राधिका ङेऽन्तं वह्निजायान्तमेव च। कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु।।

ऊँ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेऽन्तं वह्निजायान्तमेव च। मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदावतु।।

ऊँ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च। सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिकां मुखम्।।

क्लीं श्रीं कृष्णप्रिया ङेऽन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम्। ऊँ रां रासेश्वरी ङेऽन्तं स्कन्धं पातु नमोऽन्तकम्।।

ऊँ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु। वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदावतु।।

तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्। कृष्णप्राणाधिका ङेऽन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम्।।

पादयुग्मं च सर्वांङ्ग संततं पातु सर्वतः। राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु।।

दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैर्ऋतेऽवतु। पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता।।

उत्तरे संततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी। सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता।।

जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा। महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु संततम्।।

कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङगलं परम्। यस्मै कस्मै न दातव्यं गूढाद् गूढतरं परम्।।

तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्। गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः।।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णुसमो भवेत्। शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत्।।

यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत्। एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधनः पुरा।।

विशारदो जलस्तम्भे वह्निस्तम्भे च निश्चितम्। मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे।।

सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ। बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय सः।।

कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः।।- (प्रकृतिखण्ड 56। 32-49)

जो राधा मन्त्र का उपासक होकर प्रतिदिन इस कवच का भक्तिभाव से पाठ करता है, वह विष्णुतुल्य तेजस्वी होता है तथा राजसूय-यज्ञ का फल पाता है। सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, सब प्रकार का दान, सम्पूर्ण व्रतों में उपवास, पृथ्वी की परिक्रमा, समस्त यज्ञों की दीक्षा का ग्रहण, सदैव सत्य की रक्षा, नित्यप्रति श्रीकृष्ण की सेवा, श्रीकृष्ण-नैवेद्य का भक्षण तथा चारों वेदों का पाठ करने पर मनुष्य जिस फल को पाता है, उसे निश्चय ही वह इस कवच के पाठ से पा लेता है। राजद्वार पर, श्मशान भूमि में, सिंहों और व्याघ्रों से भरे हुए वन में, दावानल में, विशेष संकट के अवसर पर, डाकुओं और चोरों से भय प्राप्त होने पर, जेल जाने पर, विपत्ति में पड़ जाने पर, भयंकर एवं अटूट बन्धन में बँधने पर तथा रोगों से आक्रान्त होने पर यदि मनुष्य इस कवच को धारण कर ले तो निश्चय ही वह समस्त दुःखों से छूट जाता है। दुर्गे! महेश्वरि! यह तुम्हारा ही कवच तुमसे कहा है। तुम्हीं सर्वरूपा माया हो और छल से इस विषय में मुझसे पूछ रही हो।

श्रीनारायण कहते हैं– नारद! इस प्रकार राधिका की कथा कहकर बारंबार माधव का स्मरण करके भगवान् शंकर के सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। श्रीकृष्ण के समान कोई देवता नहीं है, गंगा-जैसी दूसरी नदी नहीं है, पुष्कर के समान कोई तीर्थ नहीं है तथा ब्राह्मण से बढ़कर कोई वर्ण नहीं है। नारद! जैसे परमाणु से बढ़कर सूक्ष्म, महाविष्णु (महाविराट) से बढ़कर महान तथा आकाश से अधिक विस्तृत दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उसी प्रकार वैष्णव से बढ़कर ज्ञानी तथा भगवान शंकर से बढ़कर कोई योगीन्द्र नहीं है। देवर्षे! उन्होंने ही काम, क्रोध, लोभ और मोह पर विजय पायी है। भगवान शिव सोते, जागते हर समय श्रीकृष्ण के ध्यान में तत्पर रहते हैं। जैसे कृष्ण हैं, वैसे शिव हैं। श्रीकृष्ण और शिव में कोई भेद नहीं है। यथा कृष्णस्तथा शम्भुर्न भेदो माधवेशयोः।।-(प्रकृतिखण्ड 56 ।61)

वत्स! जैसे वैष्णवों में शम्भु तथा देवताओं में माधव श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कवचों में यह जगन्मंगल राधा कवच सर्वोत्तम है। ‘शि’ यह मंगलवाचक है और ‘व’ कार का अर्थ है दाता। जो मंगलदाता है, वही शिव कहा गया है। जो विश्व के मनुष्यों का सदा ‘शं’ अर्थात् कल्याण करते हैं, वे ही शंकर कहे गये हैं। कल्याण का तात्पर्य यहाँ मोक्ष से है। ब्रह्मा आदि देवता तथा वेदवादी मुनि– ये महान कहे गये हैं। उन महान पुरुषों के जो देवता हैं, उन्हें महादेव कहते हैं। सम्पूर्ण विश्व में पूजित मूलप्रकृति ईश्वरी को महती देवी कहा गया है। उस महादेवी के द्वारा पूजित देवता का नाम महादेव है। विश्व में स्थित जितने महान हैं, उन सबके वे ईश्वर हैं। इसलिये मनीषी पुरुष इन्हें महेश्वर कहते हैं।

शिरिति मङंगलार्थं च वकारो दातृवाचकः। मङंगलानां प्रदाता यः स शिवः परिकीर्तितः।।
नराणां संततं विश्वे शं कल्याणं करोति यः। कल्याणं मोक्षवचनं स एवं शंकरः स्मृतः।।
ब्रह्मादीनां सुराणां च मुनीनां वेदवादिनाम्। तेषां च महतां देवो महादेवः प्रकीर्तितः।।
महती पूजिता विश्वे मूलप्रकृतिरीश्वरी। तस्या देवः पूजितश्च महादेवः स च स्मृतः।।
विश्वस्थानां च सर्वेषां महतामीश्वरः स्वयम्। महेश्वरं च तेनेमं प्रवदन्ति मनीषिणः।। -(प्रकृतिखण्ड 56। 63-67)

ब्रह्मपुत्र नारद! तुम धन्य हो, जिसके गुरु श्रीकृष्ण भक्ति प्रदान करने वाले साक्षात महेश्वर हैं। फिर तुम मुझसे क्यों पूछ रहे हो!

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