
25/07/2025
ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड : अध्याय 63-64
सुरथ और समाधि पर देवी की कृपा और वरदान, देवी की पूजा का विधान, ध्यान, प्रतिमा की स्थापना, परिहार स्तुति, शंख में तीर्थों का आवाहन तथा देवी के षोडशोपचार-पूजन का क्रम
#देवी
#पुराण
नारद जी ने पूछा– वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ महाभाग नारायण! अब कृपया यह बताइये कि राजा ने किस प्रकार से पराप्रकृति का सेवन किया था? समाधि नामक वैश्य ने भी किस प्रकार प्रकृति का उपदेश पाकर निर्गुण एवं निष्काम परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त किया था। उनकी पूजा का विधान, ध्यान, स्तोत्र अथवा कवच क्या है? जिसका उपदेश महामुनि मेधस ने राजा सुरथ को दिया था। समाधि वैश्य को देवी प्रकृति ने कौन-सा उत्तम ज्ञान दिया था? किस उपाय से उन दोनों को सहसा प्रकृतिदेवी का साक्षात्कार प्राप्त हुआ था? वैश्य ने ज्ञान पाकर किस दुर्लभ पद को प्राप्त किया था? अथवा राजा की क्या गति हुई थी? उसे मैं सुनना चाहता हूँ।
श्रीनारायण ने कहा– मुने! राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने मेधस मुनि से देवी का मन्त्र, स्तोत्र, कवच, ध्यान तथा पुरश्चरण-विधि प्राप्त करके पुष्कर तीर्थ में उत्तम मन्त्र का जप आरम्भ कर दिया। वे एक वर्ष तक त्रिकाल स्नान करके देवी की समाराधना में लगे रहे, फिर दोनों शुद्ध हो गये। वहीं उन्हें मूलप्रकृति ईश्वरी के साक्षात दर्शन हुए। देवी ने राजा को राज्य प्राप्ति का वर दिया। भविष्य में मनु के पद और मनोवांछित सुख की प्राप्ति के लिये आश्वासन दिया। परमात्मा श्रीकृष्ण ने भगवान शंकर को जो पूर्वकाल में ज्ञान दिया था, वही परम दुर्लभ गूढ़ ज्ञान देवी ने वैश्य को दिया। कृपामयी देवी उपवास से अत्यन्त क्लेश पाते हुए वैश्य को निश्चेष्ट तथा श्वासरहित हुआ देख उसे गोद में उठाकर दुःख करने लगीं और बार-बार कहने लगीं–‘बेटा! होश में आओ।’ चैतन्यरूपिणी देवी ने स्वयं ही उसे चेतना दी। उस चेतना को पाकर वैश्य होश में आया और प्रकृतिदेवी के सामने रोने लगा। अत्यन्त कृपामयी देवी उस पर प्रसन्न हो कृपापूर्वक बोलीं।
श्रीप्रकृति ने कहा– बेटा! तुम्हारे मन में जिस वस्तु की इच्छा हो, उसके लिये वर माँगो। अत्यन्त दुर्लभ ब्रह्मत्व, अमरत्व, इन्द्रत्व, मनुत्व और सम्पूर्ण सिद्धियों का संयोग, जो चाहो, ले लो। मैं तुम्हें बालकों को बहलाने वाली कोई नश्वर वस्तु नहीं दूँगी।
वैश्य बोला– माँ! मुझे ब्रह्मत्व या अमरत्व पाने की इच्छा नहीं है। उससे भी अत्यन्त दुर्लभ कौन-सी वस्तु है? यह मैं स्वयं ही नहीं जानता। यदि कोई ऐसी वस्तु हो तो वही मेरे लिये अभीष्ट है। अब मैं तुम्हारी ही शरण में आया हूँ, तुम्हें जो अभीष्ट हो, वही मुझे दे दो। मुझे ऐसा वर देने की कृपा करो, जो नश्वर न हो और सबका सार-तत्त्व हो।
श्रीप्रकृति ने कहा– बेटा! मेरे पास तुम्हारे लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। जो वस्तु मुझे अभीष्ट है, वही मैं तुम्हें दूँगी, जिससे तुम परम दुर्लभ गोलोकधाम में जाओगे। महाभाग वत्स! जो देवर्षियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, वह सबका सारभूत ज्ञान ग्रहण करो और श्रीहरि धाम में जाओ। भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण, वन्दन, ध्यान, पूजन, गुण-कीर्तन, श्रवण, भावन, सेवा और सब कुछ श्रीकृष्ण को समर्पण– यह वैष्णवों की नवधा भक्ति का लक्षण है। यह भक्ति जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि तथा यम-यातना का नाश करने वाली है।
स्मरणं वन्दनं ध्यानमर्चनं गुणकीर्तनम्। श्रवणं भावनं सेवा सर्वं कृष्णे निवेदनम्।।
एतदेव वैष्णवानां नवधाभक्तिलक्षणम्। जन्ममृत्युजराव्याधियमताडनखण्डनम्।।-(प्रकृतिखण्ड 63। 19-20)
जो नवधा भक्ति से हीन, अधम एवं पापी हैं, उन लोगों की सूर्यदेव सदा आयु ही हरते रहते हैं। जो भक्त हैं और भगवान में जिनका चित्त लगा हुआ है, ऐसे वैष्णव चिरजीवी, जीवन्मुक्त, निष्पाप तथा जन्मादि विकारों से रहित होते हैं। शिव, शेषनाग, धर्म, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट्, सनत्कुमार, कपिल, सनक, सनन्दन, वोढु, पंचशिख, दक्ष, नारद, सनातन, भृगु, मरीचि, दुर्वासा, कश्यप, पुलह, अंगिरा, मेधस्, लोमश, शुक्र, वसिष्ठ, क्रतु, बृहस्पति, कर्दम, शक्ति, अत्रि, पराशर, मार्कण्डेय, बलि, प्रह्लाद, गणेश्वर, यम, सूर्य, वरुण, वायु, चन्द्रमा, अग्नि, अकूपार, उलूक, नाडीजंघ, वायुपुत्र हनुमान, नर, नारायण, कूर्म, इन्द्रद्युम्न और विभीषण– ये परमात्मा श्रीकृष्ण की नवधा भक्ति से युक्त महान ‘धर्मिष्ठ’ भक्तशिरोमणि हैं। वैश्यराज! जो भगवान श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे उन्हीं के अंश हैं तथा सदा जीवन्मुक्त रहते हैं। इतना ही नहीं, वे भूमण्डल के समस्त तीर्थों के पापों का अपहरण करने में समर्थ हैं। ऊपर सात स्वर्ग हैं, बीच में सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी है और नीचे सात पाताल हैं। ये सब मिलकर ‘ब्रह्माण्ड’ कहलाते हैं।
बेटा! ऐसे विश्व-ब्रह्माण्डों की कोई गणना नहीं है। प्रत्येक विश्व में पृथक-पृथक ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता, देवर्षि, मनु और मानव आदि हैं। सम्पूर्ण आश्रम भी हैं। सर्वत्र मायाबद्ध जीव रहते हैं। जिन महाविष्णु के रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड वास करते हैं, उन्हें महाविराट् कहते हैं। वे परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं। सबके अभीष्ट आत्मा श्रीकृष्ण सत्य, नित्य, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, अच्युत, प्रकृति से परे एवं परमेश्वर हैं। तुम उनका भजन करो। वे निरीह, निराकार, निर्विकार, निरंजन, निष्काम, निर्विरोध, नित्यानन्द और सनातन हैं। स्वेच्छामय (स्वतन्त्र) तथा सर्वरूप हैं। भक्तों पर कृपा करने के लिये ही वे दिव्य शरीर धारण करते हैं। परम तेजःस्वरूप तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता हैं।
ध्यान के द्वारा उन्हें वश में कर लिया जाये, यह असम्भव है। शिव आदि योगियों के लिये भी उनकी आराधना कठिन है। वे सर्वेश्वर, सर्वपूज्य, सबकी सम्पूर्ण कामनाओं के दाता, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सबको आनन्द प्रदान करने वाले, सम्पूर्ण धर्मों के दाता, सर्वरूप, प्राणरूप, सर्वधर्मस्वरूप, सर्वकारणकारण, सुखद, मोक्षदायक, साररूप, उत्कृष्ट रूपसम्पन्न, भक्तिदायक, दास्यप्रदायक तथा सत्पुरुषों को सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान करने वाले हैं। उनसे भिन्न सारा कृत्रिम जगत नश्वर है। वे परात्परतर शुद्ध परिपूर्णतम एवं शिवरूप हैं। बेटा! तुम सुखपूर्वक उन्हीं भगवान अधोक्षज की शरण लो। ‘कृष्ण’ यह दो अक्षरों का मन्त्र श्रीकृष्णदास्य प्रदान करने वाला है। तुम इसे ग्रहण करो और दुष्कर सिद्धि की प्राप्ति कराने वाले पुष्कर तीर्थ में जाकर इस मन्त्र का दस लाख जप करो। दस लाख के जप से ही तुम्हारे लिये यह मन्त्र सिद्ध हो जायेगा।
ऐसा कहकर भगवती प्रकृति वहीं अन्तर्धान हो गयीं। मुने! उन्हें भक्तिभाव से नमस्कार करके समाधि वैश्य पुष्कर तीर्थ में चला गया। पुष्कर में दुष्कर तप करके उसने परमेश्वर श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लिया। भगवती प्रकृति के प्रसाद से वह श्रीकृष्ण का दास हो गया।
भगवान् नारायण कहते हैं– महाभाग नारद! राजा सुरथ ने जिस क्रम से देवी परा प्रकृति की आराधना की थी, वह वेदोक्त क्रम बता रहा हूँ, सुनो। महाराज सुरथ ने स्नान करके आचमन किया। फिर त्रिविध न्यास, करन्यास, अंगन्यास तथा मन्त्रांगन्यास करके भूतशुद्धि की। इसके बाद प्राणायाम करके शंख-शोधन के अनन्तर देवी का ध्यान किया और मिट्टी की प्रतिमा में उनका आवाहन किया। फिर भक्तिभाव से ध्यान करके प्रेमपूर्वक उनका पूजन किया। देवी के दाहिने भाग में लक्ष्मी की स्थापना करके परम धार्मिक नरेश ने उनकी भी भक्तिभाव से पूजा की। नारद! तत्पश्चात् देवी के सामने कलश पर गणेश, सूर्य देवता, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती– इन छः देवताओं का आवाहन करके राजा ने विधिपूर्वक भक्ति से उनका पूजन किया। प्रत्येक विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह पूर्वोक्त छः देवताओं की पूजा और वन्दना करके महादेवी का प्रेमपूर्वक निम्नांकित रीति से ध्यान करे। मुने! सामवेद में जो ध्यान बताया गया है, वह परम उत्तम तथा कल्पवृक्ष के समान वांछापूरक है।
ध्यान
मूलप्रकृति ईश्वरी महादेवी का नित्य ध्यान करे। वे सनातनी देवी ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के लिये भी पूजनीया तथा वन्दनीया हैं। उन्हें नारायणी और विष्णुमाया कहते हैं। वे वैष्णवी देवी विष्णुभक्ति देने वाली हैं। यह सब कुछ उनका ही स्वरूप है। वे सबकी ईश्वरी, सबकी आधारभूता, परात्परा, सर्वविद्यारूपिणी, सर्वमन्त्रमयी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। वे सगुणा और निर्गुणा हैं। सत्यस्वरूपा, श्रेष्ठा, स्वेच्छामयी एवं सती हैं। महाविष्णु की जननी हैं। श्रीकृष्ण के आधे अंग से प्रकट हुई हैं। कृष्णप्रिया, कृष्णशक्ति एवं कृष्णबुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। श्रीकृष्ण ने उनकी स्तुति, पूजा और वन्दना की है। वे कृपामयी हैं। उनकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है। उनकी प्रभा करोड़ों सूर्यों की दीप्ति को भी लज्जित करती है। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द-मन्द हास्य की छटा छायी हुई है। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल हैं। उनका नाम दुर्गा देवी है। वे सौ भुजाओं से युक्त हैं और महती दुर्गति का नाश करने वाली हैं।
त्रिनेत्रधारी महादेव जी की प्रिया हैं। साध्वी हैं। त्रिगुणमयी एवं त्रिलोचना हैं। त्रिलोचन शिव की प्राणरूपा हैं। उनके मस्तक पर विशुद्ध अर्द्धचन्द्र का मुकुट है। वे मालती की पुष्पमालाओं से अलंकृत केशपाश धारण करती हैं। उनका मुख सुन्दर एवं गोलाकार है। वे भगवान शिव के मन को मोहने वाली हैं। रत्नों के युगल कुण्डल से उनके कपोल उद्भासित होते रहते हैं। वे नासिका के दक्षिण भाग में गजमुक्ता से निर्मित नथ धारण करती हैं। कानों में बहुसंख्यक बहुमूल्य रत्नमय आभूषण पहनती हैं। मोतियों की पाँत को तिरस्कृत करने वाली दन्तपंक्ति उनके मुख की शोभा बढ़ाती है।
पके हुए बिम्बफल के समान उनके लाल-लाल ओठ हैं। वे अत्यन्त प्रसन्न तथा परम मंगलमयी हैं। विचित्र पत्ररचना से रमणीय उनके कपोल-युगल परम उज्ज्वल प्रतीत होते हैं। रत्नों के बने हुए बाजूबन्द, कंगन तथा रत्नमय मंजीर उनके विभिन्न अंगों का सौन्दर्य बढ़ाते हैं। रत्नमय कंकणों से उनके दोनों हाथ विभूषित हैं। रत्नमय पाशक उनकी शोभा बढ़ाते हैं। रत्नमयी अंगूठियों से उनके हाथों की अँगुलियाँ जगमगाती रहती हैं। पैरों की अँगुलियों के और नखों में लगे हुए महावर की रेखा उनकी शोभा में वृद्धि करती है। वे अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। उनके विचित्र अंग गन्ध, चन्दन से चर्चित हैं। वे कस्तूरी के विन्दुओं से सुशोभित दो स्तन धारण करती हैं। सम्पूर्ण रूप और गुणों से सम्पन्न हैं तथा गजराज के समान मन्द गति से चलती हैं। अत्यन्त कान्तिमया तथा शान्तस्वरूपा हैं। योगसिद्धियों में बहुत बढ़ी-चढ़ी हैं। विधाता की भी सृष्टि करने वाली तथा सबकी माता हैं।
समस्त लोकों का कल्याण करने वाली हैं। शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति उनका परम सुन्दर मुख है। वे अत्यन्त मनोहारिणी हैं। उनके भालदेश का मध्यभाग कस्तूरी-बिन्दु, चन्दन-बिन्दु तथा सिन्दूर-बिन्दु से सदा उद्दीप्त होता रहता है। उनके नेत्र शरदऋतु के मध्याह्नकाल में खिले हुए कमलों की कान्ति को छीन लेते हैं। काजल की सुन्दर रेखाओं से वे सर्वथा सुशोभित होते हैं। उनके श्रीअंग करोड़ों कन्दर्पों की लावण्यलीला को तिरस्कृत करने वाले हैं। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनका मस्तक उत्तम रत्नों के बने हुए मुकुट से उद्भासित होता है। वे स्रष्टा की सृष्टि में शिल्परूपा और पालक के पालन में दयारूपा हैं। संहारकाल में संहारक की उत्तम संहाररूपिणी शक्ति हैं। निशुम्भ और शुम्भ को मथ डालने वाली तथा महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं। पूर्वकाल में त्रिपुर-युद्ध के समय त्रिपुरारि महादेव ने इनकी स्तुति की थी। मधु और कैटभ के युद्ध में वे विष्णु की शक्तिस्वरूपिणी थीं। समस्त दैत्यों का वध तथा रक्तबीज का नाश करने वाली यही हैं। हिरण्यकशिपु के वधकाल में ये नृसिंहशक्तिरूप में प्रकट हुई थीं। हिरण्याक्ष के वधकाल में भगवान वाराह के भीतर वाराही शक्ति यही थीं। ये परब्रह्मरूपिणी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। मैं सदा इनका भजन करता हूँ।
इस प्रकार ध्यान करके विद्वान पुरुष अपने सिर पर पुष्प रखे और पुनः ध्यान करके भक्तिभाव से आवाहन करे। प्रकृति की प्रतिमा का स्पर्श करके मनुष्य इस प्रकार मन्त्र पढ़े तथा मन्त्र द्वारा ही यत्नपूर्वक जीवन-न्यास करे।
अम्ब! भगवति! सनातनि! शिवलोक से आओ, आओ। सुरेश्वरि! मेरी शारदीया पूजा ग्रहण करो। जगत्पूज्ये! महेश्वरि! यहाँ आओ, ठहरो, ठहरो। हे मातः! हे अम्बिके! तुम इस प्रतिमा में निवास करो। अच्युते! इस प्रतिमा में तुम्हारे प्राण निम्नभाग में रहने वाले प्राणों के साथ आवें, रहें। तुम्हारी सम्पूर्ण शक्तियाँ इस प्रतिमा में तुरंत पदार्पण करें। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं दुर्गायै स्वाहा।’इस मन्त्र का उच्चारण करके कहे–‘हे सदाशिवे! इस प्रतिमा के हृदय में प्राण स्थित हों। चण्डिके! सम्पूर्ण इन्द्रियों के अधिदेवता यहाँ आवें। ईश्वर यहाँ आवें। देवि! तुम इस प्रतिमा में पधारो।’ इस प्रकार आवाहन करके निम्नांकित मन्त्र से परिहार-स्तुति करनी चाहिये। विप्रवर! एकाग्रचित्त होकर परिहार को सुनो।
शिवप्रिये! भगवति अम्बे! शिवलोक से जो तुम आयी हो, तुम्हारा स्वागत है। भद्रे! मुझ पर कृपा करो। भद्रकालि! तुम्हें नमस्कार है। दुर्गे! माहेश्वरि! तुम जो मेरे घर में आयी हो, इससे मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ और मेरा जीवन सफल है। आज मेरा जन्म सफल और जीवन सार्थक हुआ; क्योंकि मैं भारतवर्ष के पुण्यक्षेत्र में दुर्गा जी का पूजन करता हूँ। जो विद्वान भारतवर्ष में आप पूजनीया दुर्गा का पूजन करता है, वह अन्त में गोलोकधाम को जाता है और इहलोक में भी उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न बना रहता है। वैष्णवीदेवी की पूजा करके विद्वान पुरुष विष्णुलोक में जाता है और माहेश्वरी की पूजा करके वह शिवलोक को प्राप्त होता है। वेदों में सात्त्विक, राजसी और तामसी के भेद से तीन प्रकार की देवी की पूजा बतायी गयी है, जो क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम है।
सात्त्विकी पूजा वैष्णवों की है, शाक्त आदि राजसी पूजा करते हैं और जो किसी मन्त्र की दीक्षा नहीं ले सके हैं, ऐसे असत पुरुषों की पूजा तामसी कही गयी है। जो पूजा जीव हत्या से रहित और श्रेष्ठ है, वही सात्त्विकी एवं वैष्णवी मानी गयी है।वैष्णव लोग वैष्णवी देवी के वरदान से गोलोक में जाते हैं। माहेश्वरी एवं राजसी पूजा में बलिदान होता है। शाक्त आदि राजस पुरुष उस पूजा से कैलास में जाते हैं। किरात लोग तामसी पूजा द्वारा भूत-प्रेतों की आराधना करके नरक में पड़ते हैं। माँ! तुम्हीं जगत के जीवों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों फल प्रदान करने वाली हो। तुम परमात्मा श्रीकृष्ण की सर्वशक्तिस्वरूपा हो। जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि का अपहरण करने वाली परात्परा हो। सुखदायिनी, मोक्षदायिनी, भद्रा (कल्याणकारिणी) तथा सदा श्रीकृष्ण भक्ति प्रदान करने वाली हो। महामाये! नारायणि! दुर्गे! तुम दुर्गति का नाश करने वाली हो। दुर्गा नाम के स्मरण मात्र से यहाँ मनुष्यों का दुर्गम कष्ट दूर हो जाता है।
इस प्रकार परिहार-स्तवन करके साधक देवी के बायें भाग में तिपाई के ऊपर शंख रखे। उसमें जल भर दे और दूर्वा, पुष्प तथा चन्दन डाल दे। तत्पश्चात् उसे दाहिने हाथ से पकड़कर मनुष्य इस तरह मन्त्र पढ़े।
‘हे शंख! तुम पवित्र वस्तुओं में परम पवित्र हो, मंगलों के भी मंगल हो। पूर्वकल्प में शंखचूड़ से तुम्हारी उत्पत्ति हुई, इसलिये परम पवित्र हो।’ इस विधि से अर्घ्यपात्र की स्थापना करके विद्वान पुरुष उसे देवी को अर्पित करे। तदनन्तर सोलह उपचार चढ़ाकर देवी की पूजा करे। सजल कुश से त्रिकोण मण्डल बनाकर वहाँ धार्मिक पुरुष कच्छप, शेषनाग और पृथ्वी का पूजन करे। मण्डल के भीतर ही तिपाई रखे और उसके ऊपर शंख। शंख में तीन भाग जल डालकर उसकी पूजा कर तथा उसमें गंगा आदि तीर्थों का आवाहन करते हुए कहे–
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि चन्द्रभागे च कौशिकि।।
स्वर्णरेखे कनखले पारिभद्रे च गण्डकि।
श्वेतगङ्गे चन्द्ररेखे पम्पे चम्पे च गोमति।।
पद्मावति त्रिपर्णाशे विपाशे विरजे प्रभे।
शतह्रदे चेलगङ्गे जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु।।
हे गंगे! यमुने! गोदावरि! सरस्वति! नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! चन्द्रभागे! कौशिकि! स्वर्णरेखे! कनखले! पारिभद्रे! गण्डकि! श्वेतगंगे! चन्द्ररेखे! पम्पे! चम्पे! गोमति! पद्मावति! त्रिपर्णाशे! विपाशे! विरजे! प्रभे! शतह्रदे! तथा चेलगंगे! आप लोग इस जल में निवास करें।
तत्पश्चात् उस जल में तुलसी और चन्दन से अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, वरुण तथा शिव– इन छः देवताओं की पूजा करे। फिर उस जल से समस्त नैवेद्यों का प्रोक्षण करे। इसके बाद एक-एक करके सोलह उपचार समर्पित करे। आसन, वसन, पाद्य, स्नानीय, अनुलेपन, मधुपर्क, गन्ध, अर्घ्य, पुष्प, अभीष्ट नैवेद्य, आचमनीय, ताम्बूल, रत्नमय भूषण, धूप, दीप और शय्या– ये सोलह उपचार हैं।
(आसन) शंकरप्रिये! अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित तथा नाना प्रकार के चित्रों द्वारा शोभित श्रेष्ठ सिंहासन ग्रहण करो। (वस्त्र) शिवे! असंख्य सूत्रों से बने हुए तथा ईश्वर की इच्छा से निर्मित प्रज्वलित अग्नि द्वारा शुद्ध किया हुआ दिव्य वस्त्र स्वीकार करो। (पाद्य) दुर्गे! बहूमूल्य रत्नमय पात्र में रखे हुए निर्मल गंगाजल को पैर धोने के लिये पाद्य के रूप में ग्रहण करो। (स्नानीय) परमेश्वरि! सुगन्धित आँवले का स्निग्ध द्रव और परम दुर्लभ सुपक्व विष्णुतैल स्नानीय सामग्री के रूप में प्रस्तुत है। इसे स्वीकार करो। (अनुलेपन) जगदम्ब! कस्तूरी और कुमकुम से मिश्रित सुगन्धित चन्दनद्रव सुवासित अनुलेपन के रूप में समर्पित है।
इसे ग्रहण करो। (मधुपर्क) महादेवि! रत्नपात्र में स्थित परम पवित्र एवं परम मंगलमय माध्वीक मधुपर्क के रूप में प्रस्तुत है। इसे प्रसन्नातापूर्वक स्वीकार करो। (गन्ध) देवि! विभिन्न वृक्षों के मूल का चूर्ण गन्ध द्रव्य से युक्त हो परम पवित्र एवं मंगलोपयोगी गन्ध के रूप में समर्पित है। इसे ग्रहण करो। (अर्घ्य) चण्डिके! पवित्र शंखपात्र में स्थित स्वर्गंगा का जल दूर्वा, पुष्प और अक्षत से युक्त अर्घ्य के रूप में अर्पित है। इसे स्वीकार करो। (पुष्प) जगदम्बिके! पारिजात-वृक्ष से उत्पन्न सुगन्धित श्रेष्ठ पुष्प और मालती आदि फूलों की माला ग्रहण करो। (नैवेद्य) शिवे! दिव्य सिद्धान्न, आमान्न, पीठा, खीर आदि, लड्डू और दूसरे-दूसरे मिष्टान्न तथा सामयिक फल नैवेद्य के रूप में प्रस्तुत हैं। इन्हें स्वीकार करो। (आचमनीय) गिरिराजनन्दिनि! मैंने भक्तिभाव से आचमनीय के रूप में कर्पूर आदि से सुसंस्कृत एवं सुवासित शीतल जल अर्पित किया है। इसे ग्रहण करो। (ताम्बूल) देवि! सुपारी, पान और चूना को एकत्र करके उसे कर्पूर आदि से सुवासित किया है।
वही यह समस्त भोगों में श्रेष्ठ रमणीय ताम्बूल है। इसे स्वीकार करो। (रत्नमय भूषण) देवि! अत्यन्त मूल्यवान रत्नों के सार-भाग के द्वारा ईश्वरेच्छा से निर्मित तथा सम्पूर्ण अंगों को शोभा सम्पन्न बनाने वाला रत्नमय आभूषण ग्रहण करो। (धूप) देवि! वृक्ष की गोद के चूर्ण को सुगन्धित वस्तुओं में मिश्रित करके अग्नि की शिखा से शुद्ध किया गया है। इस धूप को स्वीकार करो। (दीप) परमेश्वरि! घने अन्धकार को दूर करने वाला यह परम पवित्र दीप दिव्य रत्नविशेष है। इसे ग्रहण करो। (शय्या) देवि! यह उत्तम दिव्य पर्यंक रत्नों के सारभाग से निर्मित हुआ है। इस पर गद्दा है और वह महीन वस्त्र की चादर से ढका हुआ है। तुम इस शय्या को स्वीकार करो।
मुने! इस प्रकार दुर्गा देवी का पूजन करके उन्हें पुष्पांजलि चढ़ावे। तदनन्तर देवी की सहचरी आठ नायिकाओं का यत्नतः पूजन करे। उनके नाम इस प्रकार हैं– उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, अतिचण्डा, चामुण्डा, चण्डा और चण्डवती। अष्टदल कमल पर पूर्व आदि दिशा के क्रम से इनकी स्थापना करके पंचोपचारों द्वारा पूजन करे। दलों के मध्यभाग में भैरवों का पूजन करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं– महाभैरव, संहारभैरव, असितांगभैरव, रुरुभैरव, कालभैरव, क्रोधभैरव, ताम्रचूडभैरव तथा चन्द्रचूड़भैरव। इन सबकी पूजा करके बीच की कर्णिका में नौ शक्तियों का पूजन करे। क्रम यह है कि कमल के आठ दलों में आठ शक्तियों की और बीच की कर्णिका में नवीं शक्ति की स्थापना करे।
इस तरह इन सबका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये। इन शक्तियों के नाम यों हैं– ब्रह्माणी, वैष्णवी, रौद्री, माहेश्वरी, नारसिंही, वाराही, इन्द्राणी तथा कार्तिकी (कौमारी)। इनके अतिरिक्त नवीं प्रधाना शक्ति हैं सर्वमंगला, जो सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। इन नौ शक्तियों का पूजन करने के पश्चात् कलश में देवताओं का पूजन करे। शंकर, कार्तिकेय, सूर्य देवता, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, वरुण, देवी की चेटी, वटु तथा चौंसठ योगिनी– इन सबका विधिवत पूजन करके यथाशक्ति भेंट– उपहार अर्पित करके विद्वान पुरुष स्तुति करे। कवच को भक्तिपूर्वक पढ़कर उसे गले में बाँध ले। फिर परिहार नामक स्तुति करके विद्वान पुरुष देवी को नमस्कार करे। इस प्रकार उपहार दे स्तुति करके कवच बाँधकर विद्वान पुरुष धरती पर माथा टेक दण्डवत प्रणाम करे और ब्राह्मण को दक्षिणा दे।