25/04/2025
ऐश्वर्या ठाकुर के इस लेख को पढ़ने के बाद ज्यादा से ज्यादा शेयर कीजिए। ऐश्वर्या ठाकुर लिखती हैं:- 👇
'करगस को हुमा क्या लिखना..'
बौद्धिक वर्ग के चौधरियों के तुर्रे लगातार हो रही आलोचना से ढीले पड़ रहे हैं और इस वर्ग-विशेष में तिलमिलाहट है कि क्यों इन 'निर्दोष कलमवीरों' को बार-बार कोसा जाता है? हालांकि किस्सा-मुख्तसर यही है कि दोगलेपन, दोहरे मापदंडों, मौकापरस्ती और पक्षपात के चलते ही बुद्धिजीवी वर्ग की साख गिरी है, वरना बुद्धिजीवी होना अपनेआप में एक उपलब्धि हुआ करती थी। अगर अब भी कथनी-करनी में सामंजस्य बिठा थोड़ी ईमानदारी बरत लें, तो इनकी कागज़ी पगड़ी बची रह जाएगी। वरना Grok, Gemini, ChatGPT बड़ी जल्दी अपनी credibility से इनकी armchair कब्ज़ा लेंगे। मैंने तो इनकी बौद्धिक बेईमानी पर अपनी observations की एक सरसरी लिस्ट बनाई है; आप अपनी बनाइए 👉🏼
• बुल्डोजर राज के खिलाफ़ बौद्धिक मोर्चे पर डटे इंटेलेक्चुअल अपने झंडे तले होते 'ट्रैक्टर-ट्रॉलियों के राजनीतीकरण' से जानबूझकर अंजान बने रहते हैं। 'बुल्डोजर न्याय' की आलोचना करते हुए tractor mobocracy पर चुप्पी साधे रखना इनकी विशुद्ध बौद्धिक बेईमानी का सबूत लगता है।
• किसानों के आवरण में बैठे मिलिटेंट यूनियनिस्टों के जो चेहरे बात-बात पर 'राजधानी जाम कर देंगे! दिल्ली घेर लेंगे! रसद पानी बंद कर देंगे' ललकारते हुए ON AIR चेतावनियां देते हैं, उनको हीरो बनाते हुए Indian Express जैसे अखबार PR PIECE लिख डालते हैं: "Farm agitation has a new face: 31-year-old engineer-turned-spokesperson फलाना ढिमका'! Mobocracy की फिक्र में दुबलाते बुद्धिजीवी इस khapocracy model पर खामोश रहते हैं।
• अक्सर हमारा बौद्धिक-वर्ग इतिहास में अंग्रेज़ों के साथ रहे गुलाम भारतीय समूहों के संबंधों पर एकमुश्त 'ब्लैक एंड व्हाइट' रुख अख्तियार कर उन सबको, खासकर राजपूतों को, नैतिक कटघरे में खड़ा कर देता है, जो अंग्रेज़ी हुकूमत के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध बना पाए। प्रोफेसर हरबंस मुखिया जैसे अग्रज भी राजपूत समुदाय के आज़ादी आंदोलन में दिए योगदान को बड़ी बेशर्मी से नकार देते हैं जबकि अन्य समुदायों जैसे बंगाली भद्रलोक, जाटों, सिखों, दलितों, मुसलमानों और राष्ट्रपिता गांधी के अंग्रेजों के साथ रहे मधुर व्यावहारिक संबंधों पर चुप्पी साधे रहते हैं ताकि खलनायकी का ठीकरा 'ठाकुर के सिर' फोड़ा जा सके। इतिहासबोध और इतिहासलेखन में इससे बड़ी बौद्धिक बेईमानी क्या होगी।
• कर्गस की ही तरह बुद्धिजीवी, जातीय हिंसा में प्रोफाइलिंग और बैलेंसिंग करते हुए चुन चुनकर वही केस उजागर करते हैं जिनमें आरोपी राजपूत हों लेकिन आरोपी अगर गैर राजपूत, पिछड़े या मुसलमान हों तो मामले पर चुप्पी बनाए रखेंगे। जालौर या हाथरस की वीभत्स दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर जिन बौद्धिक लिखाड़ों ने हिंदी पट्टी के जातिवाद और सामंती अपराधतंत्र पर आवाज़ उठाई, उनकी आवाज़ लखीमपुरी खीरी की दलित बहनों की अल्पसंख्यकों द्वारा की गई हत्या पर खामोश हो जाती है। यह देखना खतरनाक है कि 'एक्टिविज्म' भी कितना 'सेलेक्टिव' है यहां!
• रिया चक्रवर्ती को सुशांत सिंह राजपूत केस में सीबीआई से क्लीन चिट मिलते ही बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया को रिया से माफ़ी मांगने के लिए कह रहा था, लेकिन वही बुद्धिजीवी वर्ग क्या हाथरस गैंगरेप के आरोपियों को SC/ST COURT से क्लीन चिट मिलने और बरी होने के बाद क्या इन लड़कों को खलनायक बनाकर पेश किए जाने पर राहुल गांधी और मीडिया से माफ़ी मांगवाएगा?
• यह बुद्धिजीवी फूलन देवी के कथित खूनी प्रतिशोध को सेलिब्रेट करते हैं, कंगना को थप्पड़ मारने वाली सिक्योरिटी गार्ड को चीयर करते हैं मगर lynching के खिलाफ उपन्यास भी लिखते हैं; गांधी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी की प्रतिशोधवश की गई हत्याओं को सुविधानुसार शहादत भी बताते हैं। यानी प्रतिशोध भी कैटेगरी वाइस कैटलॉग्ड है।
• जब विद्युत जमवाल की नई फ़िल्म 'शेर सिंह राणा' की घोषणा हुई,जो फूलन देवी के हत्यारोपी & तिहाड़ से अफगानिस्तान जाकर पृथ्वीराज चौहान की कथित अस्थियां भारत लाने वाले शेर सिंह राणा पर आधारित थी, तब बौद्धिक वर्ग में इस फिल्म के खिलाफ खूब विरोध हुआ,बवाल मचा,माहौल बनाया गया। लेकिन अब JNUSU के पूर्व प्रेसिडेंट कॉमरेड चंद्रशेखर (चंदू) के हत्यारोपी और राजद से पार्षद रहे गैंगस्टर मोहम्मद शहाबुद्दीन के जीवन पर आधारित सिरीज़ 'रंगबाज़' ओटीटी पर आ चुकी है मगर मजाल है इसी बौद्धिक वर्ग से विरोधस्वरूप कहीं से कोई चूँ भी सुन जाए।
• पठान और जाट जैसी फ़िल्मों के जाति/नस्लसूचक शीर्षक पर किसी बौद्धिक सुधिजन को कोई सामाजिक आपत्ति नहीं होती मगर जब कोई रवींद्र जडेजा एक ट्वीट में लिख देता है तो The Print के शेखर गुप्ता, ज्योति यादव और आरफा ख़ानम शेरवानी जैसे नाम जडेजा की नस्ली पहचान के खिलाफ लेख लिख लिखकर अखबार काले कर देते हैं। वहीं 'अहीरवटी' को लेकर शान से ट्वीट करती हुई ज्योति यादव और अपनी 'मुस्लिम पहचान' को assert करने पर ज़ोर देती हुई आरफा ख़ानम पर किसी बुद्धिजीवी को कभी आपत्ति नहीं हुई।
• बुद्धिजीवियों के लाडले अनुभव सिन्हा ने बदायूं रेप केस पर आधारित फ़िल्म Article 15 को जातीय विषमता दर्शाने वाला सिनेमा बताया था पर बौद्धिक बेईमानी देखिए कि केस के असल अभियुक्त की(यादव)जाति बदलकर फ़िल्म में बलात्कारी एक 'निहाल सिंह','ब्रह्मदत्त सिंह' बनाकर उनकी असल जातीय पहचान गड्डमड़ कर दी जाती है। इस तरह के बेईमान cinematic depiction से जातीय विषमता की सूरत कैसे साफ होगी जब पिछड़ों द्वारा दलितों पर बरपाए जाने वाले तशद्दुद पर कहानीकार पर्दा डालने की कोशिश करेंगे?
• हमारे यही बुद्धिजीवी 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' के पक्ष में कुणाल कामरा और मुनव्वर फारुकी जैसी आवाज़ों को तो समर्थन देते हैं पर शाकाहार के पक्ष में और पशु हत्या के विरोध में लिखने वाले लेखक सुशोभित की किताबें न छापने की लिए सरेआम लॉबी बनाकर प्रकाशकों पर दबाव बनाते हैं।
• एक तरफ जहां 'पद्मावती', 'सम्राट पृथ्वीराज' और हल्दीघाटी प्रसंग जैसी बहसों को बार-बार हवा देकर राइटविंग '(हिंदू) राजपूत बनाम (मुसलमान) मुगल' नैरेटिव गढ़ता है, वहीं इसी राइटविंग नैरेटिव को घुमाकर आगे बढ़ाने का काम लेफ़्ट-लिबरल-सेंट्रिस्ट और बुद्धिजीवी खेमा भी खूब करता है, 'राजपूत बनाम मुगल' ब्रांड के टारगेटेड रिव्यू, लेख, पोस्ट्स, चुटकुले और निबंध लिखकर।
• इन्हीं बुद्धिजीवियों द्वारा जब जब नवाबों, सुल्तानों और मुगल बादशाहों की बात होती है, तब नफ़ासत, तहज़ीब & शान-ओ-शौकत की बात होती है। पर जब किसी राजपूत रियासत की बात होती है, तो इनके द्वारा सामंतवाद की 'बात उठाई जाती है', तब अत्याचार की 'बात उठाई जाती है'! रजवाड़ा अगर 'नवाब' न होकर 'राजपूत' हो ,तो Intelligentsia की नज़र में वह by default 'खलनायक' हो जाता है। टोंक के साहिबजादे इरफ़ान खान हों या पटौदी के नवाब सैफ़, यहां तक कि अयोध्या के ब्राह्मण रजवाड़े इनके लिए 'सम्मानित रॉयल्स' हैं लेकिन राजपूत राजशाही को देखते ही इनको द्वेषपूर्ण विशेषण लिखने याद आजाते हैं।
• जनकवि रमाशंकर यादव विद्रोही का यह कहना कि "मैं अहीर हूँ और ये दुनिया मेरी भैंस है" बौद्धिकों की नज़र में 'assertion' हो जाता है लेकिन मनीष सिसोदिया का खुद को महाराणा प्रताप का वंशज बता देना 'जातिदम्भ' की श्रेणी में रख दिया जाता है।
• यह थिंकटैंक सवर्ण अत्याचार पर तो डटकर रिपोर्टिंग करते हैं मगर पिछड़ों की लठैती और नव-सामंतवाद पर मुंह फेर लेते हैं।
• रूपकंवर केस को नज़ीर बना मीडिया के मठाधीशों & बौद्धिक जगत के वडेरों ने जानबूझकर सतीप्रथा का एकमुश्त ठीकरा राजस्थान के क्षत्रीय समाज पर फोड़ उन्हें बदनाम किया है पर बड़ी चालाकी से अलग-अलग समाजों और राज्यों में प्रचलित सतीप्रथा पर मौन धारण कर लिया जाता है।
• Intellectual flexing करने वाले बुद्धिजीवी 'भगवा आ***कवाद' पर तो मुखर रहते हैं पर इस्लामी आ*****कवाद का जुमला लिखते बोलते हुए भी इनकी कलम कांपती है, इनका हलक सूख जाता है।
• हमारे बुद्धिजीवी जब जब ब्राह्मणवाद के खिलाफ़ बात करते हैं, तब तब डिस्क्लेमर लगाते हैं कि हम ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं, ब्राह्मणों के खिलाफ़ नहीं। मगर शोषण की बात हो तब तब ठाकुर को 'शोषक का रूपक' बनाने से बाज़ नहीं आते। इस्लामोफोबिया के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले अपने अंदर रचे बसे राजपूतफोबिया को झांक कर नहीं देखते। इसी को 'बौद्धिक बेईमानी' कहते हैं!
• बौद्धिक वर्ग में हम अक्सर जिन लोगों को अहिंसा और नारीवाद पर आख्यान देते देखते हैं, उनके अपने domestic violence के किस्से आम होते हैं लेकिन सांप्रदायिकता के खिलाफ चार सतही शब्द बोलकर ऐसे लोग बुद्धिजीवी वर्ग के घोषित वडेरे बने रहते हैं।
• Metoo आंदोलन में बुद्धिजीवी वर्ग के जिन दुलारों के नाम आए, रेप के केस तक चले, उन्हें बेगुनाह साबित करने के लिए तरह तरह के तर्क गढ़े जाते हैं और धीरे धीरे ऐसे लोगों को दास्तानगो, गीतकार, व्यंग्यकार बनाकर इनकी rebranding तक की जाती है। दुर्भाग्य यह कि यही enabler वर्ग स्त्रीवाद पर symposium कर उसी झूठे मुंह से लंबी चौड़ी तकरीरें भी कर जाता है।
👉🏼 बाकि हरिशंकर परसाई ने कुछ सोच-समझकर ही कहा होगा कि "इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं लेकिन वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।"
:~ Aeshvarya Thakur