08/06/2025
पहली स्मृति
(काव्य संग्रह)
आशीष बन्दूनी
संवेदनशील मन का कविता संग्रह: पहली स्मृति
समाज पुरूषों के विषय में यह मानकर चलता है कि महिलाओं की अपेक्षा वह अधिक व्यावहारिक है। अपने आसपास के माहौल और रिश्तों के प्रति वे उतने संवेदनशील नहीं होते जितनी कि महिलाएं। इसी बात को अंग्रेजी में पुरुषों का ‘प्रैक्टिकल होना’ कह कर भी काम चला लिया जाता है। धारणाएं अनुपात के आधार पर ही बनती हैं इसीलिए मानना होगा कि यह बात संपूर्ण पुरूष वर्ग के लिए सही नहीं है। यहाँ भी कुछ लोग बंजर धरती पर कोमल बीज को अंकुरित होने, पलने-पोसने का मौक़ा देते हैं फिर धारणाएं तो होती ही हैं टूटने के लिए। मूलत: देवभूमि उत्तराखंड के रहने वाले, मुंबई में जन्मे आशीष बन्दूनी ऐसे युवा है जो इस तरह की धारणाओं को तोड़ते हैं। ऐसी ही सदियों से चली आ रही धारणाओं को तोड़ती कविताओं का संग्रह है “पहली स्मृति”।
पहली पुस्तक यानी साहित्य की डगर पर पहला मजबूत कदम। भागदौड और एक हद तक कमर्शियल हो चुकी दिल्ली के रहने वाले इस युवा के भीतर इतनी कोमल भावनाओं और संवेदनाओं को देखकर मन आश्वस्त होना चाहता है कि आज का युवा और भविष्य का जिम्मेदार नागरिक चलता-फिरता रोबोट नहीं है। वह बकायदा प्रेम जैसी सबसे सुंदर और कोमल भावना को महसूसता भी है और जीना भी जानता है। किसी बात से बुरा लगने पर वह टूटता और कांच की तरह टिड़कता भी है।
आशीष की कुछ कविताएं नितांत प्रेम में डूबी हुई और समर्पित प्रेम-मय ह्रदय से लिखी गई हैं। इस बात को चरितार्थ करती यह पंक्तियाँ देखिए –
“ऐसी नजरों से मत देखो मुझको
ऐसी नजरों से मत देखो मुझको
ये गाल हो जाएंगे और लाल
इतनी खुशी की वजह बताऊंगा किस किसको”
जिससे प्रेम हो, उसे चाहना, रूठना-मनाना भी इन कविताओं में खूब दिखाई दे रहा है। ‘जीत जाओ मगर रूठो नहीं’ कविता में प्रेम में भीगे मन की गुजारिश देखिए
“हम से तुम यूं बेवजह रूठो नहीं
जुदाई का ज़हर आसानी से घूंटो नहीं
दाग़ तुम्हारे दिए हुए हैं जिस रुमाल पर
उसे बड़े प्यार से रखा है संभाल कर”
प्रेम में एक का दूसरे से नाराज होकर भी उसे कुछ ना कहना, हर इल्ज़ाम अपने सर ले लेना, ताजा-ताजा रूमानियत भरे दिनों की बात बताता है। इन कविताओं का मौजू यही है कि कवि बार-बार की हताशा के पीछे के कारण को जानता है। लगातार कई अपेक्षाओं, उम्मीदों की टूटन को समझता है मगर यह उम्र का वह दौर है जब बार-बार धोखे खा कर भी मन उसी ओर दौड़ता है जिस ओर की डगर कठिन है। इसी तरह प्रेम के मध्य विचार और विचारधारा तो आती है मगर सब पता होने के बावजूद राजनीति भी बीच में आ खड़ी हो, यह बात ‘पैदल चलने वाला मैं, और उसके पास कार थी’ कविता से कह रही है।
इसी तरह प्रेम में भीगे मन की मासूमियत का भाव ‘दामन किसी और का थाम आया वो’ कविता में दिखाई देता है-
दिल मेरा तीर्थ था, पवित्र था, फिर भी
घूमकर चारों धाम आया वो
दामन किसी और का थाम आया वो
यह बात कहने कल शाम आया वो
इसी बात को कुछ इस तरह देखिए-
वो हँस रहे हैं मेरी सूरत पर
मैं आईना देखकर रो रहा हूँ
रुमाल भी खफ़ा है शायद
तभी आस्तीन भिगो रहा हूँ
एक और भाव देखें –
“वहां रावण जल रहा था, यहां मैं
तब जाकर आया यक़ीन,
कहां वो और कहां मैं”
प्रेमी मन धोखे को पहचानता है। वह देखता है, जानता है मगर स्वीकार नहीं करना चाहता। इन्हीं भावनाओं को इस तरह कहता है। कविता के बोल हकीक़त को पहचानने, समझने का संकेत भी करते हैं लेकिन फिर भी मन कहां मानता है। इस संग्रह में बचपन को याद करती हुई भी एक कविता है।
‘जब शून्य था’ कविता सूफियाना मिज़ाज की ओर संकेत करती है। मानो झूठ-फरेब की दुनिया ने एक चंचल मन को जैसे समाधि तक पहुंचा दिया है-
ज़िंदगी सच्ची हो या झूठी,बस चलती रहे
हां दो वक़्त की रोज़ी रोटी, बस चलती रहे
साथ छूटा ख़ुद का कुछ घंटों के लिए
क्या पैदा हुआ था मैं इन टंटों के लिए।
जब सरलता मन में बसती है तब आसपास के माहौल की चालाकियां तकलीफ देती हैं। अपने गांव के बदलाव को कवि मन इस तरह देखता है –
“इस उम्मीद में गए गांव कि लिखेंगे ख़याल
धोखेबाज़ गांव है अब शहर लगता है”
युवा कवि जानता है कि प्रेम की परिणित देने में है। यही अंतिम सुख है इसीलिए वह कहता है-
बस तुम इतना करना हमारे लिए
याद रखना कि मैं हूं तुम्हारे लिए
अगर कभी आँखें नम हों
बरसों पुराना कोई ग़म हो
तो याद रखना कि मैं हूं तुम्हारे लिए
एक अन्य कविता के भाव इस तरह हैं-
‘तुम्हारे छूने से शायद ठीक हो जाऊं
इस बहाने से और नज़दीक हो जाऊं’
गांव-शहर और इंसानों से बेजार मन किताबों पर भी तोहमत लगाता है –
“तुम्हारे अलावा बस इन किताबों का ही तो साथ था
मेरी बर्बादी में, तुम्हारे बाद, इन्हीं का हाथ था”
कुल 58 कविताओं वाली यह पुस्तक आशीष बन्दूनी की शुरुआत है। मैं दुआ करती हूँ कि भविष्य में भी यह लेखनी चलती रहे। आप लिखें और खूब लिखें। आपका लेखन स्व से समाज की यात्रा तय करे।
-वन्दना यादव