25/06/2025
चार महीने बीत चुके थे—बल्कि अब तो दस दिन ऊपर हो गए थे—लेकिन अभी तक आरव भैया की तरफ़ से कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह बाबा को लेने कब आएंगे। यह कोई पहली बार नहीं था। हर बार जब बाबा को अपने पास रखने की बारी आती, कोई न कोई बहाना बन जाता—कभी भावना भाभी की तबीयत ख़राब, कभी ऑफ़िस में ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जातीं।
मजबूर होकर मुझे ही बाबा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ा। हमेशा की तरह इस बार भी बाबा की जाने की इच्छा नहीं थी, लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया। टिकट बुक करवा दी—बाबा और अपनी, राजधानी एक्सप्रेस से।
ट्रेन समय पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर बाबा को बैठाया और खुद सामने की बर्थ पर बैठ गया। बगल की सीट पर एक सज्जन पहले से मौजूद थे। तभी बाबा का स्वर आया, “चीकू, तू कुछ दिन रहेगा न मुंबई में… मेरा मन लगा रहेगा।”
बाबा के स्वर की कोमलता मुझे चुभ गई। मन ही मन झल्लाया—कितनी बार कहा है कि मुझे ‘अनिरुद्ध’ कहो, ‘चीकू’ नहीं। अब मैं एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हूं। इतना सम्मान, इतनी पहचान… और यह ‘चीकू’ शब्द मेरी छवि बिगाड़ देता है।
मैं थोड़ा ऊंचे स्वर में बोला, “बाबा, परसों मेरी गवर्नर से मीटिंग है। मैं कैसे रुक सकता हूं?”
बाबा की आंखों में मायूसी उतर आई। तभी मोबाइल बजा—मेरी पत्नी, कीर्ति का फोन था।
“बाबा ठीक से बैठ गए न?”
“हां, ट्रेन चल चुकी है।”
“ध्यान रखना उनका। रात में दवा देना, और भावना भाभी को भी समझा देना—बाबा को कोई तकलीफ़ न हो।”
“ठीक है,” मैंने फोन रख दिया।
बाबा मुस्कुराए, “कीर्ति का फोन था न… मेरी चिंता कर रही होगी।”
रात में खाना खाकर बाबा सो गए। ट्रेन कोटा स्टेशन पर रुकी और कुछ देर के शोरगुल के बाद एक व्यक्ति डिब्बे में चढ़ा—उसे देखकर मैं चौंक गया। वह मेरा बचपन का दोस्त और कभी का प्रतिस्पर्धी—रजनीश था।
हम साथ पढ़ते थे—प्रतिस्पर्धा तीव्र थी। वह हमेशा मुझसे बेहतर अंक लाता। पापा ने जब शहर के एक पॉश इलाके में मकान बनवाया, तो मैं कॉलेज बदल गया और हमारा संपर्क टूट गया।
दो महीने पहले वह मेरे ऑफिस आया था—मुझे देखकर गले लग गया, “अनिरुद्ध! पहचाना?”
मैं सकपका गया। इतने लोगों के सामने उसका अनौपचारिक व्यवहार खल गया। वह समझ गया था कि अब मैं सिर्फ़ उसका दोस्त नहीं, एक अधिकारी हूं। वह "सर" कहकर बात करता रहा—मुझे अच्छा लगा। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में एक क्लर्क है, मेरा अहम और भी बढ़ गया।
अब वही रजनीश मेरे सामने था—अपनी वृद्ध मां के साथ। उन्हें साइड की सीट पर लिटाया और पास ही बैठ गया।
“नमस्ते सर, देखा ही नहीं,” उसने कहा।
“कैसे हो रजनीश?” मैं औपचारिकता से मुस्कराया।
बातों-बातों में उसने बताया कि उसका छोटा भाई रवि अब मुंबई में है, गृह प्रवेश है, मां की इच्छा थी, इसलिए लेकर जा रहा है।
मैंने पूछा, “तो क्या तुम और रवि मिलकर छह-छह महीने बारी-बारी से रख लेते हो मां को?”
रजनीश बोला, “नहीं, मां की सारी ज़िंदगी दिल्ली में गुज़री है। वहां से उखाड़कर उन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाना... ये उनके लिए सज़ा जैसा होगा। मैं उन्हें क्यों उखाड़ूं? वो बोझ नहीं हैं।”
मैं चुप रह गया।
“कभी सोचा है अनिरुद्ध,” उसने कहा, “बुज़ुर्गों को जब एहसास होता है कि वे अब किसी घर के नहीं रहे, तो वह पीड़ा शब्दों में नहीं बयां की जा सकती। जो सेवा प्रेम से हो, वही सच्ची होती है, बाकी तो बस औपचारिकता है।”
उसकी हर बात मुझे अंदर तक हिला रही थी। मम्मी की कही बातें याद आने लगीं—"रजत और कीर्ति तुम्हारा पूरा ख्याल रखेंगे..." और मैंने क्या किया?
क्या इस ऊँचे पद तक मैं अकेले पहुंचा? नहीं... मम्मी-पापा की तपस्या, उनके बलिदान थे मेरी सफलता की सीढ़ियाँ। और अब जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, मैं उन्हें ‘व्यवहारिकता’ का हवाला देकर इधर-उधर भेज रहा हूं।
रातभर मुझे नींद नहीं आई।
मैंने देखा, रात के किसी पहर रजनीश की मां ने उसे पुकारा—वह बिना किसी झुंझलाहट के उठ खड़ा हुआ। उस पल मुझे अपनी हार दिखी—मैंने एक ज़िम्मेदारी को बोझ समझा, जबकि रजनीश ने उसे जीवन का पुण्य मानकर निभाया।
सुबह मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर ट्रेन रुकी। मैं रजनीश के पास गया—उसके दोनों हाथ थामे और भर्राए गले से कहा, “रजनीश, यह सफर... यह सफर मैं ज़िंदगीभर नहीं भूलूंगा। वादा करो, फैमिली के साथ मेरे घर ज़रूर आना।”
“आऊंगा दोस्त,” उसकी आंखें नम थीं।
मैंने बाबा का हाथ पकड़ा, टैक्सी ली, और ड्राइवर से कहा, “एयरपोर्ट चलो।”
बाबा चौंके, “एयरपोर्ट?”
मैं बाबा से लिपट गया, “बाबा, माफ़ कर दीजिए… हम वापस दिल्ली जा रहे हैं। अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।”
बाबा की आंखें भर आईं। होंठों से निकला, “खुश रहो बेटा… जुग जुग जियो।”
उन्होंने आकाश की ओर देखा… मानो मम्मी से कह रहे हों—"देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास टूटने नहीं दिया मैंने।"