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21/07/2025

शिव, शंकर, भोलेनाथ, महेश, नीलकंठ, गंगाधर, रुद्र, आशुतोष, चंद्रशेखर, त्रिलोचन, पशुपति, उमापति, त्र्यम्बक, महादेव, कैलाशपति, नटराज, विरूपाक्ष, कपालेश्वर, भूतनाथ, अर्धनारीश्वर, त्रिपुरान्तक, दक्षाध्वरहर, चन्द्रमौलेश्वर, भैरव, सदाशिव, योगेश्वर.......
ॐ नमः शिवाय

"पिता की चप्पलें"गांव - बैजनाथपुर, बेनामी टोला। न पक्की सड़क, न कोई अस्पताल। बिजली आती भी थी तो जैसे मेहमान — कुछ देर ठह...
03/07/2025

"पिता की चप्पलें"

गांव - बैजनाथपुर, बेनामी टोला। न पक्की सड़क, न कोई अस्पताल। बिजली आती भी थी तो जैसे मेहमान — कुछ देर ठहरती और चली जाती।

उसी गांव के छोर पर, एक कच्ची झोंपड़ी में हीरालाल रहता था — पेशे से मोची, स्वभाव से संकोची, पर कर्म और सोच से साक्षात् तपस्वी।

उसका बेटा राकेश, गोरा, दुबला-पतला, पर आंखों में एक अजीब सी चमक। गांव के स्कूल में मास्टर रामनारायण खुद कहते —

“ये लड़का साधारण नहीं है, वक्त ने चाहा तो अफसर बनेगा।”

दिन थे ऐसे कि रोटी के चार टुकड़े हों तो सोच के बांटे जाते थे।
हरिओम की कमाई थी चप्पलें गांठने से — कोई आकर कहता “टूटलका चप्पलवा सिल दो”, तो वो बड़ी विनम्रता से जवाब देता, “अभी करता हूँ मालिक।”

रात के समय, जब दीपक की बाती बुझने लगती, तो राकेश पुराने कागज़ पर अपने सवाल हल करता। बाहर टपकती छत से जैसे कोई समय कहता —

“जल्दी कर, बहुत कुछ करना है तुझे।”

एक दिन स्कूल से चिट्ठी आई —

"राकेश दिल्ली जाकर परीक्षा दे सकता है… अगर दो हज़ार आठ सौ रुपयों की फीस दे दी जाए। दिल्ली में रहना, खाना और पढ़ने मुफ़्त...."

ये सुनते ही हरिओम का चेहरा सूख गया — मानो किसी ने गर्म तवे पर पानी डाल दिया हो। बोला ई कौन वजीफा है... एतना पैसवा कहां से लाएंगे जी? फोरम भरने में अट्टहाइस सौ देंगे.....बाप रे!!!!!

उसने वो डालडा का पुराना डिब्बा निकाला जिसमें वह इमरजेंसी के लिए पैसे रखता था।
पैसे गिने… सिक्के, मुड़े हुए नोट....कुल 368 रुपए।

चुपचाप उठा, घर से बाहर निकला, घर की ज़मीन के कागज़ात उठाए और अपनी कच्ची झोपड़ी को गिरवी रख आया।

उसकी पत्नी, रधिया, कुछ नहीं बोली — बस आंगन बुहारते हुए एक कोना देखती रही, जहाँ दीवार टपकती थी। बस पति को देखती, गुमसुम देखकर दिलासा देती ; हाथ जोड़कर बोलती भोले बाबा के कृपा होई बिटवा पढ़ ले.... पढला के बाद नौकरी हुई जाई तो वहीं दिलीये में.... तो घर गिरवी नाही रहीं.... एतना तो कमा ही लीहे बाबू..

हरिओम ने रधिया को देखा और ख़ुद को और उसे भी भरोसा दिलाते हुए बोला,"सब देखेंगे हम हैं न"

5 साल बीते.....

समय गुज़रा। राकेश की मेहनत रंग लाई।
उसका चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो गया। गांव बैजनाथपुर के बेनामी टोले में जैसे कोई त्यौहार आ गया हो.... एक बुज़ुर्ग चहकते हुए बोले,"ई हरिया का बेटवा बेनामी टोला का नामे रोसन कर दिया....."

लेकिन असली दृश्य तो तब हुआ — जब राकेश अपनी पहली पोस्टिंग पर ज़िले के कलेक्ट्रेट कार्यालय पहुंचा।

मीडिया, फोटोग्राफर सभी की निगाहें उस ओर....मोबाइल कैमरे चालू। सभी को इंतज़ार एक अत्यंत गरीब परिवार का लड़का आईएएस......

गाड़ी से उतरते समय उसने चमकदार जूते नहीं पहने थे…
बल्कि वही पुरानी, घिसी, टूटी चप्पलें जो उसके पिता पहनते थे। लोग ठिठक गए।

“ये क्या? इतना बड़ा अफ़सर अफसर और ये चप्पलें?”

एक पत्रकार ने साहस कर पूछा,

“साहब, आपने जूते नहीं पहने?”

राकेश मुस्कराया। वह मुस्कान वैसी थी जैसे किसी ने चुपचाप अपने ज़ख्म दिखा दिए हों।

उसने कहा —

“इन चप्पलों में मेरे पिता की हड्डियाँ घुली हैं,
इनका चमड़ा नहीं, मेरे सपनों की चमक है।
जिस झोपड़ी को गिरवी रखकर ये रास्ता शुरू हुआ,
उसका पहला कदम यही था… और आख़िरी भी यही रहेगा।”

उस दिन राकेश अफसर बनकर नहीं आया था —
वो अपनी जाति, गरीबी, ताने, पुरखों की सीमाओं को लांघकर आया था।

झोपड़ी गिरवी रखने वाला बाप और दीवार देखती मां —
अब गांव की इज्ज़त बन चुके थे।

और वो चप्पलें?
अब किसी फटे पैर का सहारा नहीं थीं,
बल्कि इतिहास की ज़मीन पर बने वो निशान थीं,
जो चुपचाप बताते हैं —
कि सफलता की राह में सबसे ज़्यादा जरूरी चीज़ होती है – पिता की चप्पलें।

चार महीने बीत चुके थे—बल्कि अब तो दस दिन ऊपर हो गए थे—लेकिन अभी तक आरव भैया की तरफ़ से कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह बाबा को...
25/06/2025

चार महीने बीत चुके थे—बल्कि अब तो दस दिन ऊपर हो गए थे—लेकिन अभी तक आरव भैया की तरफ़ से कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह बाबा को लेने कब आएंगे। यह कोई पहली बार नहीं था। हर बार जब बाबा को अपने पास रखने की बारी आती, कोई न कोई बहाना बन जाता—कभी भावना भाभी की तबीयत ख़राब, कभी ऑफ़िस में ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जातीं।

मजबूर होकर मुझे ही बाबा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ा। हमेशा की तरह इस बार भी बाबा की जाने की इच्छा नहीं थी, लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया। टिकट बुक करवा दी—बाबा और अपनी, राजधानी एक्सप्रेस से।

ट्रेन समय पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर बाबा को बैठाया और खुद सामने की बर्थ पर बैठ गया। बगल की सीट पर एक सज्जन पहले से मौजूद थे। तभी बाबा का स्वर आया, “चीकू, तू कुछ दिन रहेगा न मुंबई में… मेरा मन लगा रहेगा।”

बाबा के स्वर की कोमलता मुझे चुभ गई। मन ही मन झल्लाया—कितनी बार कहा है कि मुझे ‘अनिरुद्ध’ कहो, ‘चीकू’ नहीं। अब मैं एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हूं। इतना सम्मान, इतनी पहचान… और यह ‘चीकू’ शब्द मेरी छवि बिगाड़ देता है।

मैं थोड़ा ऊंचे स्वर में बोला, “बाबा, परसों मेरी गवर्नर से मीटिंग है। मैं कैसे रुक सकता हूं?”

बाबा की आंखों में मायूसी उतर आई। तभी मोबाइल बजा—मेरी पत्नी, कीर्ति का फोन था।

“बाबा ठीक से बैठ गए न?”

“हां, ट्रेन चल चुकी है।”

“ध्यान रखना उनका। रात में दवा देना, और भावना भाभी को भी समझा देना—बाबा को कोई तकलीफ़ न हो।”

“ठीक है,” मैंने फोन रख दिया।

बाबा मुस्कुराए, “कीर्ति का फोन था न… मेरी चिंता कर रही होगी।”

रात में खाना खाकर बाबा सो गए। ट्रेन कोटा स्टेशन पर रुकी और कुछ देर के शोरगुल के बाद एक व्यक्ति डिब्बे में चढ़ा—उसे देखकर मैं चौंक गया। वह मेरा बचपन का दोस्त और कभी का प्रतिस्पर्धी—रजनीश था।

हम साथ पढ़ते थे—प्रतिस्पर्धा तीव्र थी। वह हमेशा मुझसे बेहतर अंक लाता। पापा ने जब शहर के एक पॉश इलाके में मकान बनवाया, तो मैं कॉलेज बदल गया और हमारा संपर्क टूट गया।

दो महीने पहले वह मेरे ऑफिस आया था—मुझे देखकर गले लग गया, “अनिरुद्ध! पहचाना?”

मैं सकपका गया। इतने लोगों के सामने उसका अनौपचारिक व्यवहार खल गया। वह समझ गया था कि अब मैं सिर्फ़ उसका दोस्त नहीं, एक अधिकारी हूं। वह "सर" कहकर बात करता रहा—मुझे अच्छा लगा। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में एक क्लर्क है, मेरा अहम और भी बढ़ गया।

अब वही रजनीश मेरे सामने था—अपनी वृद्ध मां के साथ। उन्हें साइड की सीट पर लिटाया और पास ही बैठ गया।

“नमस्ते सर, देखा ही नहीं,” उसने कहा।

“कैसे हो रजनीश?” मैं औपचारिकता से मुस्कराया।

बातों-बातों में उसने बताया कि उसका छोटा भाई रवि अब मुंबई में है, गृह प्रवेश है, मां की इच्छा थी, इसलिए लेकर जा रहा है।

मैंने पूछा, “तो क्या तुम और रवि मिलकर छह-छह महीने बारी-बारी से रख लेते हो मां को?”

रजनीश बोला, “नहीं, मां की सारी ज़िंदगी दिल्ली में गुज़री है। वहां से उखाड़कर उन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाना... ये उनके लिए सज़ा जैसा होगा। मैं उन्हें क्यों उखाड़ूं? वो बोझ नहीं हैं।”

मैं चुप रह गया।

“कभी सोचा है अनिरुद्ध,” उसने कहा, “बुज़ुर्गों को जब एहसास होता है कि वे अब किसी घर के नहीं रहे, तो वह पीड़ा शब्दों में नहीं बयां की जा सकती। जो सेवा प्रेम से हो, वही सच्ची होती है, बाकी तो बस औपचारिकता है।”

उसकी हर बात मुझे अंदर तक हिला रही थी। मम्मी की कही बातें याद आने लगीं—"रजत और कीर्ति तुम्हारा पूरा ख्याल रखेंगे..." और मैंने क्या किया?

क्या इस ऊँचे पद तक मैं अकेले पहुंचा? नहीं... मम्मी-पापा की तपस्या, उनके बलिदान थे मेरी सफलता की सीढ़ियाँ। और अब जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, मैं उन्हें ‘व्यवहारिकता’ का हवाला देकर इधर-उधर भेज रहा हूं।

रातभर मुझे नींद नहीं आई।

मैंने देखा, रात के किसी पहर रजनीश की मां ने उसे पुकारा—वह बिना किसी झुंझलाहट के उठ खड़ा हुआ। उस पल मुझे अपनी हार दिखी—मैंने एक ज़िम्मेदारी को बोझ समझा, जबकि रजनीश ने उसे जीवन का पुण्य मानकर निभाया।

सुबह मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर ट्रेन रुकी। मैं रजनीश के पास गया—उसके दोनों हाथ थामे और भर्राए गले से कहा, “रजनीश, यह सफर... यह सफर मैं ज़िंदगीभर नहीं भूलूंगा। वादा करो, फैमिली के साथ मेरे घर ज़रूर आना।”

“आऊंगा दोस्त,” उसकी आंखें नम थीं।

मैंने बाबा का हाथ पकड़ा, टैक्सी ली, और ड्राइवर से कहा, “एयरपोर्ट चलो।”

बाबा चौंके, “एयरपोर्ट?”

मैं बाबा से लिपट गया, “बाबा, माफ़ कर दीजिए… हम वापस दिल्ली जा रहे हैं। अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।”

बाबा की आंखें भर आईं। होंठों से निकला, “खुश रहो बेटा… जुग जुग जियो।”

उन्होंने आकाश की ओर देखा… मानो मम्मी से कह रहे हों—"देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास टूटने नहीं दिया मैंने।"

किशोर का फ़ोनकिशोर एक शादी में गया था। खाना चल रहा था। तभी उसकी नज़र पड़ी—दो बुज़ुर्ग भाई एक साथ पत्तल में बैठे खाना खा ...
20/06/2025

किशोर का फ़ोन

किशोर एक शादी में गया था। खाना चल रहा था। तभी उसकी नज़र पड़ी—दो बुज़ुर्ग भाई एक साथ पत्तल में बैठे खाना खा रहे थे। बड़ा भाई काफ़ी कमजोर लग रहा था, शायद बीमार भी था। छोटा भाई उसे अपने हाथों से कौर बनाकर खिला रहा था।

वो दृश्य देखकर किशोर की आँखें भीग गई। उसे अपना बड़ा भाई याद आ गया—वो भाई जिससे पिछले दस सालों से बोलचाल बंद थी। वजह? प्रॉपर्टी, संपत्ति ,जायदाद बस उसी का बँटवारा।

कभी एक-दूसरे के बिना न रहने वाले दो भाई अब कोर्ट की तारीख़ों में एक-दूसरे को घूरते थे।

पर आज कुछ असर कर गया किशोर के भीतर। ऐसा जैसे किसी ने उसके हृदय को छू लिया। शायद वो दृश्य कोई दरवाज़ा खोल गया। उसने काँपते हाथों से फ़ोन उठाया और नंबर मिलाया।

उधर से आवाज़ आई—
"कौन?"

किशोर की आँखें भर आईं।
"भैया… मैं किशोर बोल रहा हूँ…"

वो क्षण भर रुका।
उधर से आवाज़ आई, कुछ सख़्त, कुछ कड़वी—
"फोन क्यों किया? परसों कोर्ट में मिलेंगे, वहीं बात करना।"

किशोर ने आँसू पीते हुए धीमे स्वर में कहा—
"भैया, मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए… सच में कुछ नहीं चाहिए…"

"मैं आज ही केस वापस ले रहा हूँ।"

एक लंबी चुप्पी छा गई। उधर कोई आवाज़ नहीं आई। फोन पर बस सन्नाटा।

किशोर की रुलाई अब और न रुकी—
"मुझे आपकी ज़मीन नहीं चाहिए… दुकान नहीं चाहिए… बस मेरा भाई चाहिए।
वो भाई… जो मेरे एक खरोंच पर पूरी गली से लड़ पड़ता था।
जो मेरी थाली में से भी अपनी पसंद की चीज़ निकालकर मुझे दे देता था।
मुझे बस वो भाई लौटा दो भैया…"

अब फ़ोन पर दोनों भाइयों की भावनाएं , जज़्बात मूसलाधार बारिश की तरह बरसने लगी।

फिर बड़े भाई की रुंधे गले से आवाज़ आई—
"रे पगले… तू अगर पहले बोल देता… तो....... मैं सब कुछ तेरे नाम कर देता… घर की इज़्ज़त को कोर्ट तक न जाने देता…"

"माफ़ कर दे भैया…" किशोर ने कहा, आवाज़ डूब रही थी।

"अभी घर आ जा… बैठकर बात करते हैं… और सुन… तेरी भाभी से तेरे मनपसंद आलू के पराठे बनवा रहा हूँ…"

फोन कट गया। पर दिलों की दीवारें गिर चुकी थीं।

जय बाबा बैद्यनाथ
26/04/2025

जय बाबा बैद्यनाथ

जीजा जी मन मानने को तैयार नहीं है...ये उम्र जाने की नहीं थी...आपका जाना एक ख़ालीपन छोड़ गया है जिसे कोई भर नहीं सकता।आपक...
23/04/2025

जीजा जी मन मानने को तैयार नहीं है...
ये उम्र जाने की नहीं थी...
आपका जाना एक ख़ालीपन छोड़ गया है जिसे कोई भर नहीं सकता।
आपकी मुस्कान, आपकी बेबाकी, आपकी झिड़की, आपसे जुड़ी हर यादें, हर एक पल आंखों को भिगो देती हैं।
ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें और प्रियजनों को इस असहनीय पीड़ा को सहने की शक्ति दें।
आप हमेशा हमारे दिलों में ज़िंदा रहेंगे...
ॐ शांति........

नाम पूछा, धर्म जाना… और गोलियों से भून दिया! ये सिर्फ़ आतंकी हमला नहीं बल्कि हिंदुओं का सुनियोजित नरसंहार है!
22/04/2025

नाम पूछा, धर्म जाना… और गोलियों से भून दिया!
ये सिर्फ़ आतंकी हमला नहीं बल्कि हिंदुओं का सुनियोजित नरसंहार है!

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, भारतीय संविधान के महान शिल्पकार, भारत रत्न श्रद्धेय डॉ. भीमराव अंबेडकर जी की जयंती पर शत्-शत...
14/04/2025

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, भारतीय संविधान के महान शिल्पकार, भारत रत्न श्रद्धेय डॉ. भीमराव अंबेडकर जी की जयंती पर शत्-शत् नमन।

डॉ. अंबेडकर केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं—एक ऐसी क्रांति का नाम हैं, जिसने सदियों पुराने अन्याय और भेदभाव की ज़ंजीरों को तोड़ा।
उन्होंने शोषितों, वंचितों, महिलाओं, बच्चों और समाज के सबसे निचले तबके को न्याय, सम्मान और अधिकार दिलाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।

उनकी जयंती केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि संघर्ष और सामाजिक चेतना का आह्वान है।
आइए, हम सभी समरसता, समता, समानता, स्वतंत्रता, एकता, अखंडता और बंधुता के उनके स्वप्न को साकार करने का संकल्प लें — यही बाबा साहेब को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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विद्यावान गुनी अति चातुर।राम काज करिबे को आतुर॥
12/04/2025

विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥

06/04/2025

श्री अयोध्या जी में रामनवमी के पावन अवसर पर रामलला का सूर्य तिलक
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