
16/09/2025
25 दिसंबर 1919 का दिन था जब लखनऊ के झँवाई टोला इलाके में एक ऐसे सितारे का जन्म हुआ, जिसने आगे चलकर हिंदुस्तानी सिनेमा के संगीत को नया रूप दिया। घर में माहौल पारंपरिक था और संगीत को अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन नौशाद अली का दिल रागों और सुरों से ही धड़कता था। पिता मुंशी वाहिद अली चाहते थे कि बेटा पढ़ाई करे, मगर नौशाद की रुचि तो तबला और हारमोनियम की तरफ थी। जब घरवाले मना करते, वो चोरी-छुपे अभ्यास करते। कहते हैं कि उनकी लगन इतनी प्रबल थी कि चाहे दरवाज़ा बंद हो या डांट पड़ रही हो, उनके कानों में हमेशा सुर ही बजते रहते थे।
उस्तादों की संगत और हुनर की नींव
लखनऊ संगीत की धरती है और नौशाद को भी वहां कई उस्तादों की संगत मिली। उन्होंने उमर अंसारी से शुरुआती तालीम पाई और फिर उस्ताद झंडे ख़ाँ, उस्ताद मुश्ताक हुसैन ख़ाँ और पंडित खेम चंद्र प्रकाश जैसे नामों की संगति ने उनकी कला को और निखारा। उस समय नौशाद एक बात समझ गए थे—हीरा बनने के लिए तराशना जरूरी है, और उन्होंने खुद को हर रोज़ तराशा।
मुंबई: फुटपाथ से फिल्मी दुनिया तक
16–17 साल की उम्र में नौशाद ने हिम्मत दिखाई और मुंबई की ओर निकल पड़े। वहाँ दिन काटना आसान नहीं था। दादर के ब्रॉडवे सिनेमा के फुटपाथ पर रहकर उन्होंने वो दिन देखे जब जेब खाली रहती थी और पेट भूखा। मगर दिल में संगीत की आग जल रही थी। कहा जाता है कि उसी आग ने उन्हें हर मुसीबत से लड़ने की ताकत दी। इसी संघर्ष के बीच उन्हें फिल्मों में काम करने का छोटा-मोटा अवसर मिलने लगा।
पहला मौका और पहचान की शुरुआत
1940 में फिल्म प्रेम नगर से उन्होंने स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन किया। शुरुआत भले ही सामान्य रही, पर असली पहचान 1944 की फिल्म रतन से मिली। इस फिल्म के गाने सुपरहिट हुए और नौशाद अली का नाम इंडस्ट्री में गूंजने लगा। इसके बाद उनका सफर ऐसा बढ़ा कि पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा।
सुरैया, टुनटुन और रफ़ी: सितारों को तराशने वाला उस्ताद
नौशाद सिर्फ गाने नहीं बनाते थे, वे कलाकारों को पहचान भी दिलाते थे। सुरैया को उन्होंने नई दुनिया, शारदा और संजोग से मौके दिए। उमादेवी, जिन्हें बाद में टुनटुन के नाम से जाना गया, को फिल्म दर्द में गाने का अवसर मिला और गीत अफ़साना लिख रही हूँ ने उन्हें मशहूर कर दिया।
एक दिलचस्प किस्सा यह भी है कि मोहम्मद रफ़ी जब शुरुआती दौर में थे, तो नौशाद ने उन्हें कोरस गाने का अवसर दिया। धीरे-धीरे यही आवाज़ हिंदी सिनेमा की जान बन गई।
सहगल और ‘शहजहाँ’ का किस्सा
फिल्म शहजहाँ (1946) में नौशाद ने के.एल. सहगल से गाने रिकार्ड कराए। सहगल आदतन शराब पीकर गाते थे। लेकिन नौशाद ने उन्हें समझाया कि पहले एक गीत बिना शराब के गाकर देखें। सहगल ने गाया और परिणाम इतना सुंदर आया कि उन्होंने खुद माना कि यह उनका सबसे अच्छा गीत था। इस किस्से से साफ होता है कि नौशाद कलाकारों को कैसे चुनौती देकर उनकी असली क्षमता निकालते थे।
धुनों की झंकार और अमर गीत
बैजू बावरा, आन, मुग़ल-ए-आज़म, गंगा जमुना, कोहिनूर, शारदा, अनमोल घड़ी—इन फिल्मों का नाम आते ही कानों में उनकी धुनें बजने लगती हैं। “मन तरपत हरि दर्शन को आज…”, “मधुबन में राधिका नाचे रे…”, “प्यार किया तो डरना क्या…”—ये गीत केवल संगीत नहीं, बल्कि युग की पहचान बन गए। नौशाद ने शास्त्रीय संगीत को फिल्मी धुनों में इस तरह पिरोया कि आम दर्शक भी उससे जुड़ सके।
सम्मान और उपलब्धियाँ
नौशाद को पद्म भूषण, दादा साहब फाल्के पुरस्कार, फिल्मफ़ेयर अवॉर्ड और कई सम्मान मिले। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इतने पुरस्कारों के बाद भी वो खुद को अधूरा मानते थे। वे कहा करते थे, “मुझे हमेशा लगता है कि मेरी तालीम पूरी नहीं हुई और मैंने अभी तक कुछ खास नहीं किया।” यह विनम्रता ही उन्हें और महान बनाती है।
आखिरी पड़ाव और विरासत
नौशाद ने करीब 67 फिल्मों को संगीत दिया। उनकी आखिरी बड़ी फिल्म ताजमहल (2005) थी। 5 मई 2006 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, लेकिन उनकी धुनें आज भी ज़िंदा हैं।
लखनऊ का यह कोहिनूर हमेशा चमकता रहेगा क्योंकि उनकी धुनें वक्त से परे हैं। वो साबित कर गए कि जौहरी को ही हीरे की पहचान होती है—और नौशाद वही जौहरी थे जिन्होंने पत्थरों को हीरा बनाया।
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