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25 दिसंबर 1919 का दिन था जब लखनऊ के झँवाई टोला इलाके में एक ऐसे सितारे का जन्म हुआ, जिसने आगे चलकर हिंदुस्तानी सिनेमा के...
16/09/2025

25 दिसंबर 1919 का दिन था जब लखनऊ के झँवाई टोला इलाके में एक ऐसे सितारे का जन्म हुआ, जिसने आगे चलकर हिंदुस्तानी सिनेमा के संगीत को नया रूप दिया। घर में माहौल पारंपरिक था और संगीत को अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन नौशाद अली का दिल रागों और सुरों से ही धड़कता था। पिता मुंशी वाहिद अली चाहते थे कि बेटा पढ़ाई करे, मगर नौशाद की रुचि तो तबला और हारमोनियम की तरफ थी। जब घरवाले मना करते, वो चोरी-छुपे अभ्यास करते। कहते हैं कि उनकी लगन इतनी प्रबल थी कि चाहे दरवाज़ा बंद हो या डांट पड़ रही हो, उनके कानों में हमेशा सुर ही बजते रहते थे।

उस्तादों की संगत और हुनर की नींव

लखनऊ संगीत की धरती है और नौशाद को भी वहां कई उस्तादों की संगत मिली। उन्होंने उमर अंसारी से शुरुआती तालीम पाई और फिर उस्ताद झंडे ख़ाँ, उस्ताद मुश्ताक हुसैन ख़ाँ और पंडित खेम चंद्र प्रकाश जैसे नामों की संगति ने उनकी कला को और निखारा। उस समय नौशाद एक बात समझ गए थे—हीरा बनने के लिए तराशना जरूरी है, और उन्होंने खुद को हर रोज़ तराशा।

मुंबई: फुटपाथ से फिल्मी दुनिया तक

16–17 साल की उम्र में नौशाद ने हिम्मत दिखाई और मुंबई की ओर निकल पड़े। वहाँ दिन काटना आसान नहीं था। दादर के ब्रॉडवे सिनेमा के फुटपाथ पर रहकर उन्होंने वो दिन देखे जब जेब खाली रहती थी और पेट भूखा। मगर दिल में संगीत की आग जल रही थी। कहा जाता है कि उसी आग ने उन्हें हर मुसीबत से लड़ने की ताकत दी। इसी संघर्ष के बीच उन्हें फिल्मों में काम करने का छोटा-मोटा अवसर मिलने लगा।

पहला मौका और पहचान की शुरुआत

1940 में फिल्म प्रेम नगर से उन्होंने स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन किया। शुरुआत भले ही सामान्य रही, पर असली पहचान 1944 की फिल्म रतन से मिली। इस फिल्म के गाने सुपरहिट हुए और नौशाद अली का नाम इंडस्ट्री में गूंजने लगा। इसके बाद उनका सफर ऐसा बढ़ा कि पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा।

सुरैया, टुनटुन और रफ़ी: सितारों को तराशने वाला उस्ताद

नौशाद सिर्फ गाने नहीं बनाते थे, वे कलाकारों को पहचान भी दिलाते थे। सुरैया को उन्होंने नई दुनिया, शारदा और संजोग से मौके दिए। उमादेवी, जिन्हें बाद में टुनटुन के नाम से जाना गया, को फिल्म दर्द में गाने का अवसर मिला और गीत अफ़साना लिख रही हूँ ने उन्हें मशहूर कर दिया।
एक दिलचस्प किस्सा यह भी है कि मोहम्मद रफ़ी जब शुरुआती दौर में थे, तो नौशाद ने उन्हें कोरस गाने का अवसर दिया। धीरे-धीरे यही आवाज़ हिंदी सिनेमा की जान बन गई।

सहगल और ‘शहजहाँ’ का किस्सा

फिल्म शहजहाँ (1946) में नौशाद ने के.एल. सहगल से गाने रिकार्ड कराए। सहगल आदतन शराब पीकर गाते थे। लेकिन नौशाद ने उन्हें समझाया कि पहले एक गीत बिना शराब के गाकर देखें। सहगल ने गाया और परिणाम इतना सुंदर आया कि उन्होंने खुद माना कि यह उनका सबसे अच्छा गीत था। इस किस्से से साफ होता है कि नौशाद कलाकारों को कैसे चुनौती देकर उनकी असली क्षमता निकालते थे।

धुनों की झंकार और अमर गीत

बैजू बावरा, आन, मुग़ल-ए-आज़म, गंगा जमुना, कोहिनूर, शारदा, अनमोल घड़ी—इन फिल्मों का नाम आते ही कानों में उनकी धुनें बजने लगती हैं। “मन तरपत हरि दर्शन को आज…”, “मधुबन में राधिका नाचे रे…”, “प्यार किया तो डरना क्या…”—ये गीत केवल संगीत नहीं, बल्कि युग की पहचान बन गए। नौशाद ने शास्त्रीय संगीत को फिल्मी धुनों में इस तरह पिरोया कि आम दर्शक भी उससे जुड़ सके।

सम्मान और उपलब्धियाँ

नौशाद को पद्म भूषण, दादा साहब फाल्के पुरस्कार, फिल्मफ़ेयर अवॉर्ड और कई सम्मान मिले। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इतने पुरस्कारों के बाद भी वो खुद को अधूरा मानते थे। वे कहा करते थे, “मुझे हमेशा लगता है कि मेरी तालीम पूरी नहीं हुई और मैंने अभी तक कुछ खास नहीं किया।” यह विनम्रता ही उन्हें और महान बनाती है।

आखिरी पड़ाव और विरासत

नौशाद ने करीब 67 फिल्मों को संगीत दिया। उनकी आखिरी बड़ी फिल्म ताजमहल (2005) थी। 5 मई 2006 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, लेकिन उनकी धुनें आज भी ज़िंदा हैं।
लखनऊ का यह कोहिनूर हमेशा चमकता रहेगा क्योंकि उनकी धुनें वक्त से परे हैं। वो साबित कर गए कि जौहरी को ही हीरे की पहचान होती है—और नौशाद वही जौहरी थे जिन्होंने पत्थरों को हीरा बनाया।

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16/09/2025

कर्नाटक के चन्नापटना खिलौनों का रहस्य | क्यों पूरी दुनिया है दीवानी? क्या आपने कभी सोचा है कि एक छोटे से कस्बे के खिलौनों की धुन दुनियाभर में कैसे बज सकती है? जी हां, हम बात कर रहे हैं कर्नाटक के चन्नापटना खिलौनों की, जिन्हें उनके अनोखे डिज़ाइन, चमकीले रंग और बारीक कारीगरी के लिए जाना जाता है।

इन खिलौनों की शुरुआत मैसूर के शासकों के जमाने से हुई और आज ये भारतीय संस्कृति के सबसे चमकदार प्रतीकों में से एक हैं। ‘लाख’ और प्राकृतिक रंगों से बने ये खिलौने न सिर्फ बच्चों को मोह लेते हैं बल्कि पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित हैं। आज हम आपको सुनाएंगे एक ऐसी कहानी, जो शायद आपने पहले कभी नहीं सुनी होगी। चन्नापटना के इन खिलौनों की दुनिया में डूब जाइए और जानिए क्यों पूरी दुनिया इनके पीछे दीवानी है।

दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा का वो नाम हैं जिन्हें लोग सिर्फ अभिनेता नहीं बल्कि अभिनय की पाठशाला मानते हैं। 11 दिसंबर 1922 क...
16/09/2025

दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा का वो नाम हैं जिन्हें लोग सिर्फ अभिनेता नहीं बल्कि अभिनय की पाठशाला मानते हैं। 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में जन्मे मोहम्मद युसुफ़ खान आगे चलकर "दिलीप कुमार" के नाम से अमर हो गए। उनका जीवन सिर्फ फिल्मों तक सीमित नहीं था, बल्कि उनका संघर्ष, उनकी चुप्पी और उनका अभिनय सबकुछ मिलकर एक किंवदंती की तरह दर्ज हुआ। आइए जानें क्यों उन्हें ‘ट्रेजेडी किंग’ कहा गया और कैसे उनकी हिट फिल्में ही उनके लिए सजा बन गईं।

असली नाम से लेकर दिलीप कुमार बनने तक का सफर

मोहम्मद युसुफ़ खान का परिवार पेशावर से पुणे ड्राई फ्रूट का कारोबार करता था। लेकिन युसुफ़ खान का मन पढ़ाई से ज्यादा अभिनय और कहानियों में लगता था। फिल्मों की दुनिया से उनका पहला रिश्ता 1944 में बनी फिल्म ज्वार भाटा से जुड़ा। निर्माता-निर्देशक ने उनका नया नाम रखा "दिलीप कुमार"। यही नाम आगे चलकर भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर हुआ।

हिट फिल्मों की लंबी फेहरिस्त

दिलीप कुमार का करियर शुरुआत से ही सफलता से भरा रहा। अंदाज़, दीदार, देवदास, मधुमती, नया दौर, मुगल-ए-आजम, गंगा जमुना और राम और श्याम जैसी फिल्मों ने उन्हें लोकप्रियता की ऊंचाई पर पहुंचा दिया। दर्शक उनकी आंखों की भाषा पढ़ने लगे थे। सिर्फ एक नजर से भावनाओं का समंदर बहा देना उनकी खासियत थी। यही कारण था कि वे अपने जमाने के सबसे बड़े सुपरस्टार माने गए।

क्यों कहा गया ‘ट्रेजेडी किंग’?

50 के दशक में दिलीप कुमार ने ऐसे किरदारों को चुना जो दर्द, संघर्ष और बिछड़ने की पीड़ा से भरे हुए थे। देवदास में टूटे हुए प्रेमी की छवि हो या दीदार में अंधेपन से जूझता नायक, उन्होंने ऐसे रोल निभाए जिनसे दर्शकों की आंखें नम हो जाती थीं। लेकिन इन भूमिकाओं का असर सिर्फ दर्शकों पर नहीं, उन पर भी पड़ा। असल जिंदगी में भी वे किरदारों के दर्द में डूब जाते और यही वजह थी कि उन्हें "ट्रेजेडी किंग" कहा जाने लगा।

जब अभिनय का असर ज़िंदगी पर भारी पड़ा

लगातार ट्रेजेडी भरे किरदारों को निभाने से दिलीप कुमार डिप्रेशन का शिकार हो गए। यह उन्होंने खुद इंटरव्यू में स्वीकार किया कि उनके निभाए किरदारों का असर उनकी निजी जिंदगी पर होने लगा था। वे अकेलेपन और अवसाद में घिरते चले गए। हालात ऐसे हो गए कि उन्हें मनोचिकित्सक से सलाह लेनी पड़ी।

साइकेट्रिस्ट की सलाह और बदलाव

डॉक्टर ने उन्हें समझाया कि इस चक्र से बाहर निकलने के लिए हल्के-फुल्के, हास्य से भरपूर किरदार करना जरूरी है। यही कारण था कि बाद में उन्होंने राम और श्याम जैसी फिल्मों में डबल रोल निभाकर दर्शकों को हंसाया। इस बदलाव से उन्हें मानसिक राहत भी मिली और दर्शकों ने उनके नए अंदाज़ को भी सराहा।

दिलीप कुमार की अमर विरासत

दिलीप कुमार सिर्फ अभिनेता नहीं थे, बल्कि सिनेमा को नया आयाम देने वाले कलाकार थे। उन्होंने अभिनय को ऊंचाई पर पहुंचाया और आने वाली पीढ़ियों को सिखाया कि फिल्मों में सिर्फ संवाद नहीं, बल्कि भावनाओं की गहराई भी मायने रखती है। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी फिल्में, उनके किरदार और उनकी विरासत हमेशा जीवित रहेगी।

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भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में कई नाम ऐसे हैं जिन्हें लोग पीढ़ियों तक याद करते हैं। लेकिन एक नाम ऐसा भी है जिसकी आ...
16/09/2025

भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में कई नाम ऐसे हैं जिन्हें लोग पीढ़ियों तक याद करते हैं। लेकिन एक नाम ऐसा भी है जिसकी आवाज़ सिर्फ़ धरती तक सीमित नहीं रही, बल्कि अंतरिक्ष में भी गूंज उठी। यह नाम है – सुरश्री केसरबाई केरकर।

शुरुआत और संघर्ष

13 जुलाई 1892 को गोवा के ‘केरी’ गांव में जन्मी केसरबाई एक देवदासी परंपरा वाले परिवार से थीं। समाज सोचता था कि उनका जीवन मंदिर की दीवारों तक सिमट जाएगा, लेकिन किस्मत ने उन्हें सुरों की ऊंचाइयों तक पहुंचाया। बचपन से ही संगीत की ओर उनका झुकाव था। 8 साल की उम्र में उन्होंने तालीम शुरू की और कोल्हापुर व मुंबई में गुरुओं से सीखा।

उस्ताद अल्लादिया खान की शिष्या

केसरबाई का जीवन बदलने वाला मोड़ तब आया जब जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया खान ने उन्हें शागिर्द बनाया। पहले तो उन्होंने इंकार किया, लेकिन केसरबाई के जज़्बे के आगे मान गए। इसके बाद 11 साल तक लगातार रियाज़ किया। हर राग में आत्मा भर दी और हर सुर को जीवन से जोड़ दिया।

सुरश्री की पहचान

1938 में रवींद्रनाथ टैगोर ने उनकी अद्भुत गायकी से प्रभावित होकर उन्हें "सुरश्री" की उपाधि दी। भारत सरकार ने भी 1953 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। लेकिन उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार था – संगीत खुद। वह कहती थीं, "संगीत को महसूस किया जाता है, बेचा नहीं।"

जब आवाज़ पहुंची अंतरिक्ष में

1977 में नासा ने अपना यान Voyager 1 अंतरिक्ष में भेजा। उसके साथ एक "Golden Record" भी भेजा गया जिसमें दुनिया की महानतम कलाकृतियाँ और संगीत शामिल थे। भारत से सिर्फ एक आवाज़ चुनी गई – केसरबाई केरकर की। राग भैरवी में गाया उनका अमर गीत "जात कहां हो" इस रिकॉर्ड में दर्ज किया गया। वैज्ञानिक रॉबर्ट ई. ब्राउन ने इसे हिंदुस्तानी संगीत की सबसे सुंदर रिकॉर्डिंग बताया। आज Voyager 1 करीब 13 अरब मील दूर है, लेकिन उसकी गहराइयों में अब भी केसरबाई की आवाज़ गूंज रही है।

विरासत और प्रेरणा

केसरबाई का गाया हर सुर श्रोताओं की आत्मा को छू लेता था। उनकी आवाज़ में गंभीरता, गहराई और मिठास का अद्भुत संगम था। उन्होंने दिखाया कि मेहनत और जुनून से कला को सितारों तक पहुंचाया जा सकता है। 1977 में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी ज़िंदा है। गोवा में उनके नाम से संगीत विद्यालय और समारोह आयोजित किए जाते हैं।

निष्कर्ष

केसरबाई केरकर सिर्फ़ एक गायिका नहीं थीं, बल्कि भारतीय संगीत की वह पहचान बनीं जिसने धरती से आगे जाकर ब्रह्मांड में अपनी गूंज छोड़ी। उनका नाम हमेशा स्वरों की रानी और भारतीय संगीत की धरोहर के रूप में याद किया जाएगा।

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भारतीय संगीत जगत में एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी का नाम आज भी अमर है। 16 सितंबर 1916 को मद्रास में जन्मी सुब्बुलक्ष्मी को संगीत...
16/09/2025

भारतीय संगीत जगत में एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी का नाम आज भी अमर है। 16 सितंबर 1916 को मद्रास में जन्मी सुब्बुलक्ष्मी को संगीत विरासत में मिला। उनकी मां शानमुकावादिर अम्माल वीणा वादक थीं और पिता सुब्रमण्यम अय्यर गायक। दस वर्ष की उम्र में ही उनकी पहली रिकॉर्डिंग हुई और 13 वर्ष की आयु में उन्होंने मद्रास म्यूजिक एकेडमी के मंच पर प्रस्तुति दी। उस समय आयु की पाबंदियों के बावजूद उनकी आवाज़ सुनकर नियम तोड़ दिए गए और उन्हें गाने का अवसर मिला।

विश्व पटल पर भारत की आवाज़

सुब्बुलक्ष्मी की गायकी सिर्फ़ भारत तक सीमित नहीं रही। 1966 में उन्होंने न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्तुति देकर इतिहास रच दिया। स्वामी विवेकानंद के बाद यह गौरव पाने वाली वह पहली भारतीय बनीं। इसके बाद उन्होंने लंदन, कनाडा और अनेक देशों में कार्यक्रम किए। उनकी आवाज़ को विश्व स्तर पर भारतीय संस्कृति का प्रतीक माना गया।

पुरस्कार और सम्मान

सुब्बुलक्ष्मी ने अपने जीवन में अनेक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त किए। 1968 में वे संगीत कलानिधि से सम्मानित होने वाली पहली महिला बनीं। 1974 में उन्होंने रेमन मैग्सेसे पुरस्कार जीता। 1975 में उन्हें पद्म विभूषण और 1998 में भारत रत्न से नवाज़ा गया। यह सम्मान पाने वाली वे पहली संगीतकार थीं।

फिल्मी सफर

अपने करियर के शुरुआती दौर में उन्होंने फिल्मों में भी काम किया। उनकी पहली फिल्म सेवासदनम (1938) थी। इसके बाद शकुंतलाई (1940), सावित्री (1941) और मीरा (1945) आईं। मीरा ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। फिल्म के हिंदी संस्करण मीराबाई में भी उन्होंने अभिनय और गायन किया। इस फिल्म के प्रीमियर में नेहरू, माउंटबेटन और इंदिरा गांधी जैसी हस्तियां मौजूद थीं।

संगीत जगत की अनमोल धरोहर

पंडित नेहरू ने उन्हें "संगीत की रानी" कहा था। लता मंगेशकर ने उन्हें तपस्विनी, बड़े गुलाम अली खान ने "सुस्वरलक्ष्मी" और सरोजिनी नायडू ने "भारत की कोकिला" की संज्ञा दी। यह उपाधियां बताती हैं कि उनका संगीत कितना गहरा और शाश्वत था।

निष्कर्ष

2004 में उनका निधन हुआ, लेकिन उनका स्वर आज भी अनगिनत दिलों में गूंजता है। एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने अपने जीवन से दिखाया कि समर्पण और साधना से संगीत न सिर्फ़ आत्मा को छूता है, बल्कि पूरी दुनिया में भारत की पहचान भी बन सकता है। उनकी स्मृति में मनाई जाने वाली पुण्यतिथि हर संगीतप्रेमी को यह याद दिलाती है कि वे सचमुच भारत की अमर सुररानी थीं।

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15/09/2025

बॉलीवुड का इतिहास गवाह है कि स्टार बनने के लिए सिर्फ टैलेंट ही नहीं, बल्कि सही मौके और सही फैसले भी ज़रूरी होते हैं। एक डायरेक्टर ने अपने करियर का बड़ा रिस्क लिया और दो बेहतरीन कलाकारों को किनारे कर अमिताभ बच्चन पर दांव लगाया।

पहले उन्होंने विनोद खन्ना को समझाया, फिर डैनी को फिल्म से बाहर किया। यह फैसला आसान नहीं था, लेकिन इसी ने भारतीय सिनेमा को सबसे बड़ा सुपरस्टार दिया। इस कुर्बानी ने ही अमिताभ को बॉलीवुड का "शहंशाह" बनाने की नींव रखी। क्या सच में बिना इस त्याग के अमिताभ इतने बड़े सितारे बन पाते? पूरी कहानी जानने के लिए वीडियो देखें।

भारत हर साल 15 सितंबर को इंजीनियर्स डे मनाता है। यह दिन सिर्फ़ तकनीकी कौशल का जश्न नहीं है, बल्कि उस महान व्यक्ति की याद...
15/09/2025

भारत हर साल 15 सितंबर को इंजीनियर्स डे मनाता है। यह दिन सिर्फ़ तकनीकी कौशल का जश्न नहीं है, बल्कि उस महान व्यक्ति की याद का प्रतीक है, जिन्होंने भारत में इंजीनियरिंग की नींव मजबूत की। वह नाम है – सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया। क्या आप जानते हैं कि उन्हें "भारत का आधुनिक भगीरथ" क्यों कहा जाता है?

गाँव के साधारण बालक से बने महान अभियंता

1861 में कर्नाटक के कोलार जिले के मुद्देनाहल्ली गाँव में जन्मे विश्वेश्वरैया का बचपन साधारण था। उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे, लेकिन मात्र 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने पिता को खो दिया। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, फिर भी शिक्षा के प्रति उनकी लगन कम नहीं हुई। चिकबल्लापुर से प्रारंभिक पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बैंगलुरु पहुँचे और 1881 में बी.ए. की डिग्री ली। इसके बाद पुणे के कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक हुए। यही उनकी असाधारण यात्रा की शुरुआत थी।

शिक्षा से इंजीनियरिंग तक – प्रतिभा का कमाल

सर विश्वेश्वरैया बचपन से ही मेधावी थे। पढ़ाई के दौरान उन्हें सरकारी छात्रवृत्ति मिली। पुणे में मिली तकनीकी शिक्षा ने उन्हें जल प्रबंधन और सिंचाई तकनीक का गहरा ज्ञान दिया। इसी शिक्षा के दम पर उन्होंने आने वाले समय में ऐसे समाधान निकाले, जिन्होंने लाखों किसानों का जीवन बदल दिया।

जब पानी और बाढ़ पर पाई काबू

विश्वेश्वरैया की सबसे बड़ी उपलब्धि थी – जल प्रबंधन में क्रांतिकारी सुधार। उन्होंने "ब्लॉक सिस्टम" विकसित किया, जिससे सिंचाई और जल वितरण बेहतर हुआ। उनके मार्गदर्शन में कृष्णराज सागर (KRS) बांध कावेरी नदी पर बना। यह उस समय एशिया की सबसे बड़ी परियोजनाओं में से एक थी। इस बांध से न केवल सिंचाई बल्कि बिजली और पेयजल की समस्या भी हल हुई।

उन्होंने हैदराबाद में बाढ़ नियंत्रण की योजना तैयार की, जिससे मूसी नदी के किनारे बसे शहर को बार-बार की तबाही से बचाया गया। मुंबई के जल निकासी तंत्र को भी उन्होंने सुधारकर नया जीवन दिया।

मैसूर को आधुनिक भारत का प्रतीक बनाया

साल 1912 से 1918 तक वे मैसूर राज्य के दीवान रहे। इस दौरान उन्होंने जो काम किए, वे आज भी कर्नाटक की शान हैं। कृष्णराज सागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क्स, मैसूर संदल ऑयल फैक्ट्री, मैसूर विश्वविद्यालय और बैंक ऑफ मैसूर – ये सब उनके प्रयासों का नतीजा हैं। वे मानते थे कि उद्योग ही देश की आत्मा हैं। इसीलिए उन्होंने जापान और इटली के विशेषज्ञों की मदद से सिल्क, स्टील और चंदन उद्योग को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

“रेल की जंजीर” वाली घटना – बुद्धिमत्ता का नमूना

एक बार ट्रेन में बैठे विश्वेश्वरैया ने अचानक चेन खींचकर गाड़ी रोक दी। अंग्रेज यात्री नाराज़ हुए, पर उन्होंने calmly कहा कि पटरियों में गड़बड़ी है। गार्ड ने जाँच की तो वाकई ट्रैक उखड़ा हुआ निकला। उनकी गहरी सूझबूझ ने एक बड़ी दुर्घटना टाल दी। यह घटना बताती है कि उनमें केवल किताबों का ज्ञान ही नहीं था, बल्कि व्यावहारिक बुद्धि भी कमाल की थी।

ब्रिटिश से “सर” और भारत से “भारत रत्न”

1911 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें "नाइट कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर" की उपाधि दी, जिसके बाद उनके नाम के आगे "सर" जुड़ गया। 1955 में भारत सरकार ने उनके योगदान को देखते हुए उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" से नवाज़ा। यह उनके लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए गर्व का क्षण था।

सीख जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती है

विश्वेश्वरैया सिर्फ़ एक इंजीनियर नहीं थे, वे योजनाकार और दूरदर्शी भी थे। उनका जीवन सादगी और अनुशासन से भरा था। वे मानते थे कि उद्योग और तकनीक ही राष्ट्र की प्रगति का आधार हैं। आज भी इंजीनियर्स डे उनके जन्मदिन पर मनाया जाता है ताकि नई पीढ़ी को मेहनत, ईमानदारी और निष्ठा की शिक्षा मिल सके।

निष्कर्ष – नाम जो सदियों तक जिंदा रहेगा

भारत के विकास की गाथा में सर एम. विश्वेश्वरैया का नाम हमेशा अमर रहेगा। वे सचमुच "इंजीनियरिंग के पितामह" थे, जिन्होंने भारत को आधुनिकता की राह दिखाई। आज जब सोशल मीडिया पर Engineers Day ट्रेंड करता है, तो यह केवल जश्न नहीं, बल्कि उस विरासत को याद करने का अवसर है, जिसे उन्होंने अपने पसीने और बुद्धिमत्ता से खड़ा किया।

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राम्या कृष्णन… ये नाम सुनते ही दिमाग में सबसे पहले "बाहुबली" की राजमाता शिवगामी देवी की छवि सामने आ जाती है। मगर क्या आप...
15/09/2025

राम्या कृष्णन… ये नाम सुनते ही दिमाग में सबसे पहले "बाहुबली" की राजमाता शिवगामी देवी की छवि सामने आ जाती है। मगर क्या आप जानते हैं कि इस किरदार तक पहुँचने से पहले उन्होंने लगभग चार दशकों तक अलग-अलग भाषाओं की 200 से भी ज़्यादा फिल्मों में अभिनय किया? आज 55वें जन्मदिन पर उनकी यात्रा पर एक नज़र डालना वाकई दिलचस्प है।

शुरुआती कदम: परिवार से मिली प्रेरणा

राम्या का जन्म 15 सितंबर 1970 को मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ। वह एक तेलुगु परिवार से ताल्लुक रखती थीं और मशहूर तमिल अभिनेता एस. आर. रामास्वामी की भतीजी थीं। घर-परिवार में फिल्मी माहौल था, इसलिए उनका झुकाव बचपन से ही फिल्मों की तरफ हो गया। महज़ 15 साल की उम्र में साल 1985 की तमिल फिल्म वेल्लई मनसु से उन्होंने एक्टिंग की दुनिया में पहला कदम रखा। यही शुरुआत आगे चलकर उन्हें मलयालम, कन्नड़ और तेलुगु फिल्मों तक ले गई।

हिंदी सिनेमा में कदम और पहला अनुभव

राम्या कृष्णन की खूबसूरती और अभिनय ने जल्द ही हिंदी फिल्मकारों का ध्यान खींचा। साल 1988 में विनोद खन्ना की फिल्म दयावान में उन्हें एक छोटे से डांस नंबर का मौका मिला। रोल छोटा था लेकिन उनकी स्क्रीन प्रेज़ेंस सबका ध्यान खींच गई। इसके बाद वह हिंदी सिनेमा में समय-समय पर नज़र आईं, हालांकि उन्होंने कभी बॉलीवुड को पूरी तरह अपनाया नहीं।

‘खलनायक’ से ‘बड़े मियां छोटे मियां’ तक

राम्या का हिंदी फिल्मों का सफर बेहद दिलचस्प रहा।

1993 में संजय दत्त और माधुरी दीक्षित की फिल्म खलनायक में उन्होंने सोफिया का किरदार निभाया।

परंपरा (1993) में विनोद खन्ना के साथ नज़र आईं।

क्रिमिनल (1995) और चाहत (1996) में शाहरुख खान संग उनके सीन्स ने दर्शकों को चौंकाया।

1997 में बनारसी बाबू में गोविंदा संग उनकी कॉमिक टाइमिंग और गाने यादगार बन गए।

वहीं बड़े मियां छोटे मियां (1998) में अमिताभ बच्चन और गोविंदा संग उनका जलवा दिखा।

इन फिल्मों के बाद राम्या धीरे-धीरे हिंदी से दूर हो गईं और पूरी तरह दक्षिण भारतीय फिल्मों में रम गईं।

साउथ की चमक: अलग-अलग भाषाओं में 200 से ज़्यादा फिल्में

राम्या कृष्णन ने अपने करियर में हिंदी के अलावा तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों में शानदार अभिनय किया। हर भाषा में उन्होंने खुद को इस तरह ढाला कि दर्शक उन्हें अपनी ही इंडस्ट्री की नायिका मानने लगे। यही वजह थी कि वह धीरे-धीरे दक्षिण भारतीय सिनेमा की सबसे भरोसेमंद अभिनेत्रियों में शामिल हो गईं।

वापसी और नया अध्याय

करीब दो दशक तक हिंदी से दूरी बनाए रखने के बाद राम्या ने 2022 में लाइगर के ज़रिए दोबारा वापसी की। इस फिल्म में उन्होंने विजय देवरकोंडा की मां का रोल निभाया। वहीं 2025 में जाट जैसी हिंदी फिल्मों में उन्होंने मजबूत किरदार निभाकर यह साबित किया कि उम्र सिर्फ एक नंबर है और उनकी अदाकारी अब भी उतनी ही प्रभावशाली है।

बाहुबली का मील का पत्थर

राम्या कृष्णन का करियर चाहे जितना बड़ा क्यों न रहा हो, लेकिन 2015 में आई एस.एस. राजामौली की फिल्म बाहुबली ने उन्हें वह पहचान दी जो शायद किसी और फिल्म ने नहीं दी। माहिष्मति साम्राज्य की राजमाता शिवगामी देवी का किरदार भारतीय सिनेमा की सबसे शक्तिशाली महिला किरदारों में गिना जाता है।
राम्या के अभिनय ने इस किरदार को आइकॉनिक बना दिया। बाहुबली और बाहुबली 2 दोनों फिल्मों में उनके प्रदर्शन के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड (तेलुगु) भी मिला।

पर्दे पर ग्लैमर और रोमांस की झलक

बहुत से लोग उन्हें सिर्फ बाहुबली वाली सशक्त छवि में ही जानते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि 90 के दशक में राम्या बॉलीवुड के कई बड़े सितारों के साथ रोमांटिक और ग्लैमरस अंदाज में भी नज़र आ चुकी हैं। शाहरुख खान संग चाहत, अमिताभ संग बड़े मियां छोटे मियां, गोविंदा के साथ बनारसी बाबू और विनोद खन्ना संग परंपरा – ये सभी फिल्में उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण हैं।

आज की पहचान: ताकत और सम्मान का प्रतीक

आज राम्या कृष्णन सिर्फ एक अभिनेत्री नहीं, बल्कि दक्षिण भारतीय सिनेमा की "रॉयल आइकॉन" मानी जाती हैं। बाहुबली की शिवगामी देवी का किरदार आज भी उन्हें अमर बना चुका है। उनकी 40 साल की मेहनत, संघर्ष और लगन यह बताती है कि सही मौके और धैर्य के साथ कोई भी कलाकार समय से परे हो सकता है।

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हर साल 15 सितंबर को पूरे भारत में संचायिका दिवस (Sanchayika Day) मनाया जाता है। इसे "स्कूल बैंकिंग डे" भी कहा जाता है। इ...
15/09/2025

हर साल 15 सितंबर को पूरे भारत में संचायिका दिवस (Sanchayika Day) मनाया जाता है। इसे "स्कूल बैंकिंग डे" भी कहा जाता है। इस दिन का मकसद स्कूल के बच्चों को बचत की अहमियत समझाना और उन्हें पैसों के प्रबंधन की शुरुआत से ही ट्रेनिंग देना है।

संचायिका दिवस का उद्देश्य

बचपन से ही यदि बच्चों में पैसे बचाने की आदत डाली जाए तो यह उनके पूरे जीवन में काम आती है। संचायिका दिवस का मुख्य उद्देश्य यही है—बचत की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना। राष्ट्रीय बचत संस्थान (National Savings Institute – NSI) और चंडीगढ़ केंद्र इस अभियान को लगातार आगे बढ़ा रहे हैं। इस दिन स्कूलों के शिक्षक और प्रिंसिपल बच्चों व उनके अभिभावकों को यह बताते हैं कि पैसों की सही बचत भविष्य में किस तरह मददगार हो सकती है।

किसने शुरू की पहल

इस दिन के आयोजन की प्रमुख भूमिका डायरेक्टरेट ऑफ स्मॉल सेविंग्स, यूटी चंडीगढ़ की रही है। इसकी शुरुआत सबसे पहले गर्ल्स गवर्नमेंट कॉलेज, चंडीगढ़ में हुई थी। धीरे-धीरे देश के अन्य सरकारी स्कूल भी इससे जुड़े। रिपोर्ट्स बताती हैं कि अब तक 42 से अधिक सरकारी स्कूल इस योजना में शामिल हो चुके हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है।

संचायिका बैंक क्या है?

संचायिका बैंक को बच्चों का बैंक भी कहा जाता है। यह बैंक छात्रों द्वारा छात्रों के लिए चलाया जाता है। इसमें जमा किया गया धन पोस्ट ऑफिस सेविंग अकाउंट में रखा जाता है। यहां न केवल बचत की आदत विकसित होती है बल्कि बच्चों को बैंकिंग सिस्टम और अकाउंटिंग की भी प्रैक्टिकल जानकारी मिलती है।

कैसे होता है संचालन

इस बैंक को "बोर्ड ऑफ ट्रस्टी" चलाता है। इसमें स्कूल का प्रिंसिपल या हेड मास्टर और दो छात्र सदस्य होते हैं। किसी एक निश्चित दिन बच्चों से पैसे जमा कराए जाते हैं। जमा की गई राशि पासबुक में दर्ज की जाती है और फिर बच्चों को लौटा दी जाती है। सबसे खास बात यह है कि इस राशि पर बच्चों को ब्याज भी मिलता है।

इतिहास की झलक

संचायिका योजना का विचार 1960 के दशक में सामने आया था। उस दौर में माना गया कि यदि कम उम्र में ही बच्चों को पैसों की बचत का महत्व समझाया जाए तो वे न केवल जिम्मेदार नागरिक बनेंगे बल्कि देश की आर्थिक प्रगति में भी योगदान देंगे।

बच्चों के लिए फायदे

कम उम्र में वित्तीय साक्षरता (financial literacy)

पैसे बचाने की आदत

बैंकिंग और अकाउंटिंग का ज्ञान

भविष्य में आर्थिक सुरक्षा की समझ

अच्छे नागरिक बनने की दिशा में कदम

पुरस्कार और सम्मान

कई स्कूलों और छात्रों को वर्षों से इस योजना में सक्रिय भागीदारी के लिए सम्मानित भी किया गया है। सरकार मानती है कि बच्चों को सही दिशा में प्रेरित करने का यह एक सशक्त माध्यम है।

आज का महत्व

आज के समय में जब खर्च बढ़ते जा रहे हैं, संचायिका दिवस और भी प्रासंगिक हो जाता है। यह बच्चों को सिखाता है कि छोटी-छोटी बचतें भविष्य में बड़े सपनों को पूरा करने का जरिया बन सकती हैं। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने इसे ज्यादातर स्कूल और कॉलेजों में अनिवार्य रूप से मनाना शुरू किया है।

किस किस ने संचायिका दिवस मनाया है? हज़ारी लगाओ!

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बांग्ला साहित्य के महान उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितंबर 1876 को हुगली जिले के देवानंदपुर गांव में हु...
15/09/2025

बांग्ला साहित्य के महान उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितंबर 1876 को हुगली जिले के देवानंदपुर गांव में हुआ। वे कुल नौ भाई-बहनों में से एक थे। बचपन में ही उन्होंने गरीबी और अभाव का स्वाद चखा। पिता मतिलाल नौकरी में टिक नहीं पाए और परिवार को अक्सर संघर्ष झेलना पड़ा। यही संघर्ष शरत के भीतर संवेदना और करुणा का बीज बो गया। भागलपुर में उनका बचपन बीता और वहीं से उनकी पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत हुई। यही वातावरण उनके साहित्यिक दृष्टिकोण को आकार देने लगा।

साहित्यिक प्रेरणाएँ और शुरुआती रचनाएँ

शरतचन्द्र की लेखनी पर रवींद्रनाथ ठाकुर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का गहरा प्रभाव पड़ा। 18 वर्ष की आयु में उन्होंने "बासा" नामक उपन्यास लिखा, हालांकि यह प्रकाशित नहीं हुआ। कॉलेज की पढ़ाई आर्थिक कारणों से अधूरी रह गई। लेकिन साहित्य की ओर झुकाव इतना प्रबल था कि उन्होंने छात्र जीवन में ही "छाया" नामक हस्तलिखित मासिक पत्रिका की शुरुआत की। यही उनका लेखन अभ्यास का पहला मंच था।

बर्मा की यात्रा और जीवन का मोड़

जीविका की तलाश उन्हें बर्मा ले गई। वहां लोक निर्माण विभाग में उन्होंने क्लर्क की नौकरी की। यही वह दौर था जब उनके जीवन में बंगचंद्र जैसे विद्वान लेकिन शराबी व्यक्ति से मुलाकात हुई। इस अनुभव ने उनके भीतर "चरित्रहीन" जैसा उपन्यास लिखने की पृष्ठभूमि तैयार की। बर्मा का अनुभव उनके लेखन के लिए वरदान साबित हुआ।

लेखन की उड़ान और प्रसिद्धि की शुरुआत

1907 में उनकी रचना "बड़ी दीदी" धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई। दिलचस्प यह है कि शरत को इसकी जानकारी वर्षों बाद मिली। लोग इसे पढ़कर इतना प्रभावित हुए कि उन्हें लगा यह रवींद्रनाथ ठाकुर का लिखा हुआ है। इसी दौर में "चरित्रहीन" छपने में काफी मुश्किलें आईं। संपादक द्विजेंद्रलाल राय ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि यह समाज के सदाचार के खिलाफ है। लेकिन यहीं से शरतचन्द्र की लोकप्रियता का सफर तेज हो गया।

प्रमुख उपन्यास और समाज की तस्वीर

शरतचन्द्र ने ‘श्रीकांत’, ‘देवदास’, ‘चरित्रहीन’, ‘गृहदाह’, ‘शेष प्रश्न’, ‘दत्ता’, ‘देना पावना’, ‘पंडित मोशाय’ जैसे अनगिनत उपन्यास लिखे। उनके लेखन में खास बात यह रही कि उन्होंने स्त्री पात्रों को पुरुषों से अधिक सशक्त रूप में प्रस्तुत किया। नारी को उन्होंने परंपरागत बंधनों से निकलते हुए दिखाया। "पथेर दावी" जैसा उपन्यास तो इतना प्रभावशाली हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया।

शरतचन्द्र और सिनेमा का संगम

उनकी कहानियों ने फिल्मों की दुनिया को भी गहराई से प्रभावित किया। सबसे प्रसिद्ध कृति ‘देवदास’ पर 1928 से लेकर 2002 तक कई फिल्में बनीं। के. एल. सहगल, दिलीप कुमार और शाहरुख खान तक—हर पीढ़ी के सितारों ने इस किरदार को निभाया। परिणीता, बड़ी दीदी, मँझली बहन और चरित्रहीन जैसे उपन्यास भी सिनेमा के परदे पर उतर आए। खासकर संजय लीला भंसाली की ‘देवदास’ ने 2002 में बॉक्स ऑफिस पर इतिहास रच दिया।

जनप्रियता और समाज के प्रति दृष्टिकोण

शरतचन्द्र की लोकप्रियता केवल उनके शब्दों की खूबसूरती में नहीं थी, बल्कि उस दर्द और सच्चाई में थी जो उन्होंने समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों के जीवन से उठाई। उन्होंने गरीबों, स्त्रियों और शोषित वर्ग के संघर्षों को अपनी कहानियों में जगह दी। समाज की रूढ़िवादी सोच को चुनौती देने के कारण उन्हें आलोचना भी झेलनी पड़ी, लेकिन यही साहस उन्हें विशिष्ट बनाता है।

अंतिम पड़ाव और अमर विरासत

16 जनवरी 1938 को कोलकाता के नर्सिंग होम में उन्होंने अंतिम सांस ली। विष्णु प्रभाकर ने उनकी जीवनी "आवारा मसीहा" लिखकर उनके जीवन को और स्पष्टता दी। शरतचन्द्र आज भी भारत के सबसे अधिक पढ़े और अनूदित लेखकों में गिने जाते हैं। उनकी रचनाओं में न केवल प्रेम और करुणा है, बल्कि एक पूरा समाज सांस लेता हुआ महसूस होता है।

निष्कर्ष

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय केवल बांग्ला के उपन्यासकार नहीं, बल्कि भारतीय साहित्य की आत्मा हैं। उनके पात्र आज भी उतने ही जीवंत और प्रासंगिक हैं जितने सौ साल पहले थे। चाहे देवदास की त्रासदी हो या श्रीकांत की यात्रा, या फिर चरित्रहीन की विडंबना—हर कहानी पाठकों के दिल में जगह बना चुकी है। उनकी कलम ने दिखा दिया कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि समाज का आईना है।

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“यह एक सही अवसर है, जब हम समय निकालकर पहलगाम आतंकी हमले के पीड़ितों के परिवारों के साथ खड़े होने का संकल्प जताते हैं। हम...
14/09/2025

“यह एक सही अवसर है, जब हम समय निकालकर पहलगाम आतंकी हमले के पीड़ितों के परिवारों के साथ खड़े होने का संकल्प जताते हैं। हम अपनी एकजुटता व्यक्त करते हैं। यह जीत हम अपने उन वीर जवानों को समर्पित करना चाहते हैं जिन्होंने अद्भुत साहस दिखाया। हम आशा करते हैं कि वे यूं ही हमें प्रेरित करते रहेंगे और हम भी मैदान पर उन्हें मुस्कुराने का और अधिक कारण देते रहेंगे, जब भी हमें अवसर मिलेगा।” : सूर्य कुमार यादव!!

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