30/07/2025
गंगानगर के सिनेमाहॉल
आजाद टॉकीज(1)
1947-48 में स्टेशन से जो सड़क ,अब बन्द हो चुके शुगर मिल की ओर जाती है ,जहाँ उसके अंत में दाईं ओर एक टूटी फूटी सी चार दिवारी थीं , इस बड़े से स्थल पर एक तरफ सफेद पर्दा और दूसरी और कुछ ऊंचाई पर प्रोजेक्टर लगा दिया जाता था. यह एक तरह का ओपन थिएटर था .उन दिनों डब्बों में फिल्मों की रील आती थी . उसे चरखी नुमा यन्त्र पर चढ़ाया जाता था .एक रील ख़त्म होने के बाद दूसरी रील उसी यंत्र पर चढ़ाई जाती,तो ये बीच बीच मे सिनेमा रुकता रहता,चूँकि इस खुली चार दिवारी पर छत नहीं थी इसलिए यहाँ एक ही शो दिखाया जाता था जो रात को अँधेरा होने के बाद शुरू होता था . टिकट एक आना या दो आने थी . बैठने के लिए कोई कुर्सिया आदि नहीं थी कुछ बेंच जरूर थे. ज्यादातर लोग जमीन पर बैठ कर ही फिल्म देखते थे . या बैठने के लिये दरी या कोई चटाई अपने साथ लाते थे. बारिश होने पर शो बन्द हो जाते थे.ये ओपन थियेटर आजाद टॉकीज के नाम से जाना जाता रहा,बाद ये टॉकीज अपनी पक्की बिल्डिंग में ,फाटक के उस पर,अबोहर रोड पर स्थापित हुआ.
कृष्ण टॉकीज(2)
शहर का दूसरा सिनेमा हॉल रिहायशी इलाके में था. यह वास्तव में एक गोदाम जैसा था जिस पर छत थी और कुछ पंखे लगे हुए थे . वे इतनी ऊँचाई पर थे की उनकी हवा नीचे फिल्म देखने वालों शायद ही लगती थी .
इसमें तीन क्लास थी . सबसे आगे वाली क्लास में बेंच थे, इसे थर्ड क्लास कहा जाता था. अक्सर इसमें इसकी क्षमता से अधिक टिकट दे दी जाती थी तथा देर से अन्दर प्रवेश करने वालों को परदे के ठीक समाने नीचे बैठना पड़ता था. सेकंड क्लास में कुर्सियां थी . फर्स्ट क्लास छोटी थी . थर्ड क्लास के टिकट ढाई आने थी . सेकंड क्लास छः आने तथा फर्स्ट क्लास टिकेट दस आने थी . इसके पास सिनेमा दिखाने वाली दो मशीन थी . एक के खत्म होते ही दूसरी चल पड़ती थे इसलिए आज़ाद टाकीज़ की भांति हर रील के बाद ब्रेक नहीं आता था . यहाँ भी रोज़ तीन शो होते थे . पहला एक बजे , दूसरा छः बजे और तीसरा रात के 9 होता था.जिसे फिर बाद में चार शो 12,3,6 और 9 बजे कर दिया गया,फिर ये चलन सब सिनेमा हॉल में चला.
गणेश थियेटर(3)
उस समय शहर का आधुनिक कहा जाने वाला तीसरा सिनेमा हॉल श्रीगणेश थियेटर बना . जिसे देख कर लगता था कि बड़े शहरों सिनेमाघर कैसे होते हैं . यह लक्कड़ मंडी से दाई और जाने वाले बाजार की तरफ रोड पर बना से कॉटन मिल तरफ जाने वाली सड़क के अंत में था . जब तक गणेश टाकीज़ का आगाज़ नहीं हुआ था.बाकी दो टॉकीज अक्सर पुरानी फिल्मों को दिखाते थे जो दिल्ली जैसे बड़े शहरों में महीनो पहले दिखाई जा चुकी होती थी . इसके पीछे कारण था कि ये फिल्में इन्हें सस्ती मिल जाती थी . लेकिन गणेश टाकीज़ के आते ही सब बदल गया . यह सिनेमा हॉल इसलिए अधिक लोकप्रिय हो गया चूँकि यहाँ दिल्ली आदि में रिलीज़ होने के कुछ सप्ताह बाद ही फिल्म दिखाई जाती थी . कुछ फ़िल्में तो लगभग दिल्ली में रिलीज़ होने के साथ ही आ जाती थी .
उन दिनों किसी फिल्म के लोकप्रियता का अंदाज़ बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से नहीं बल्कि फिल्म किसी सिनेमा घर में कितने दिन चली, इससे लगाया जाता था.
आदर्श सिनेमाहॉल(4)
पुरानी आबादी में नहर के पास आदर्श सिनेमा हॉल खुला . ये सिनेमा हॉल बस स्टैंड और पुरानी आब्दी के नजदीक होने के कारण काफी चला.बेहद व्यस्त रोड और मार्किट में होने के कारण इसके आसपास वाले लोग ने अपने मकान,दुकान आदि इसके अनुरूप ढाल लिये,लगभग हर दुकान साइकल स्टैंड हो गई थी. खुद का परिसर ना होने के कारण फ़िल्म देखने आए लोगो की भीड़ सड़क पर ही रहती और टिकट विंडो भी बाहर सड़क की और बने हुए थे.
पायल सिनेमा(5)
फिर अगला सिनेमा पायल विनोबा बस्ती में बना.
विनोबा बस्ती जैसे रिहायशी इलाके में बना पायल थियेटर अपने समय के अनुसार अतिआधुनिक सुविधाओ से परिपूर्ण था- वातानुकूलित हॉल,बैठने की सुविधाजनक व्यवस्था, साउंड सिस्टम ,साफ सफाईऔर विशाल परिसर..अपने निर्माण के समय में ही ये चर्चा में आ चुका था...गंगानगर के आस पास के सभी शहरों और कस्बे के लोग विशेष तौर पर इस मे फिल्में देखने के लिये आते थे..
ये इस संभाग का 'राजमन्दिर' का दर्जा रखता था..
इसकी विशाल बिल्डिंग आज भी शान से अपने स्वर्णकाल को याद करती खड़ी है.
सुखवंत और दुर्गेश(6,7)
पायल के बाद इसके समकक्ष ही सुखवंत और दुगेश सिनेमाहाल का अस्तित्व सामने आया..लेकिन अपनी अव्यवस्था के चलते ये कभी लोकप्रिय नही रहे...लोग सिर्फ फ़िल्म के चुनाव के कारण ही इन मे जाते थे..
कृष्णा और गणेश थियेटर अब ध्वस्त हो चुके है, दुर्गेश अब मैरिज पैलेस में परिवर्तित हो चुका है,सुखवंत की जगह अब कॉलोनी/मार्किट बन गई है,आजाद,पायल और आदर्श की बिल्डिंग अभी भी मौजूद हैं.
ऐसा नही है कि इन सिंगल सिनेमा थियेटरों ने बदलते परिवेश के साथ खुद को अपडेट करने का प्रयास नही किया,कृष्णा और गणेश ने बड़े कॉपरेट कम्पनियों के साथ मिलकर इन्हें रेनोवेट किया,सुविधाएं बढ़ाई... लेकिन ये सब वर्क नही कर पाई.
कालांतर में, 2010 के बाद, इंटरनेट और ओटी टी चैनल्स ने सिनेमाहॉल का स्वर्गयुग का सफर खत्म करके खस्ता हालात में पहुंचा दिया और अब शहर में कोई भी सिनेमाहाल चालू अवस्था मे नही है..अब शहर की ये विशाल इमारतें जो पर्दे पर सुनहरा संसार रच दिया करती थी,अपनी दुर्दशा पर शोक नुमा अंदाज में खड़ी है..उम्रदराज और सिनेमा के शौकीन लोग इनके सामने से गुजरते हुए एक आह भर कर रह जाते है
अब सिर्फ दो मल्टीफ्लेक्स(जो शहर के दो मॉल में अवस्थित है) ही चल रहे है..जहाँ लोग फ़िल्म कम और पिकनिक मनाने ज्यादा जाते है.
- अरुण खामख्वाह