29/03/2025
आज आपको एक कहानी सुनाती हूँ
दिल्ली के एक महंगे और नामी प्राइवेट स्कूल में दो बच्चों का एडमिशन हुआ. एक बच्चे का नाम पार्थ और दूसरे का नाम अंकित है
पार्थ के पिता IAS अधिकारी और मां मल्टीनेशनल कंपनी की मैनेजर हैं. जबकि अंकित हरदोई के पासी परिवार है, जिसके पिता संविदा पर सफाई कर्मचारी और मां दूसरों के घर में चौका-बर्तन करती हैं
अब आप कहेंगे भला कौन सा स्कूल है जहाँ IAS का बेटा और सफ़ाई कर्मचारी का बेटा एक साथ पढ़ता है!
यही तो कांग्रेस सरकार के कानून का कमाल है. अंकित का दाखिला राइट टू एजुकेशन कानून-2009 के तहत हुआ. जिसमें हर क्लास में 25% सीट गरीब छात्रों के लिए रिजर्व करनी पड़ती है
खैर, दाखिले के कुछ ही दिनों बाद पार्थ और अंकित अच्छे दोस्त बन गए. बच्चे कहाँ भेदभाव करते हैं. साथ में पढ़ाई करते, साथ में स्कूल में खेलते. जब तक स्कूल में रहते हैं, दोनों साथ-साथ रहते हैं
पर स्कूल के बाद इन दोनों की दुनिया थोड़ी अलग थी, असल में बहुत अलग.
छुट्टी से पहले पार्थ को लेने के लिए स्कूल गेट पर नौकर और ड्राइवर घंटों पहले से ही खड़े रहते. जैसे ही पार्थ गेट पर कदम रखता है, वैसे ही दौड़कर ड्राइवर और नौकर उसका बैग थाम लेते, उसे गाड़ी में बैठाकर फर्राटे से घर ले जाते.
पार्थ के घर पहुंचते ही उसकी दादी उसका स्वागत, उसके पसंसदीदा विदेशी चॉकलेट से करतीं, बड़े लाड-प्यार से उसके जूते-मोज़े उतारे जाते, उसका हाथ-पैर धुलवाया जाता. फिर उसे खाने के साथ कई तरह के फलों से बना हुआ जूस पीने को मिलता. कुछ ऐसे फल, जो सिर्फ़ दिल्ली के महंगे मार्केट में ही मिलते हैं.
इसके बाद पार्थ की मां उसे उसके कमरे में सुला देतीं. कुछ देर आराम करने के बाद पार्थ को आवाज लगाई जाती कि उसके म्यूजिक टीचर आ गए हैं. इसके अलावा शाम को जूडो इंस्ट्रक्टर और स्पेनिश लैंग्वेज के ट्यूटर भी पार्थ को सिखाने आते थे
पार्थ के नाश्ते का, खाने का, फिल्म देखने का, खेलने का और सोने का टाइम तय था. पार्थ के पिता जब शाम को ऑफिस से लौटते तो चाहे कितने भी थके हों उससे पूछते कि आज स्कूल में क्या पढ़ाया गया. पार्थ को पास में बैठाकर उसे दोबारा पढ़ाते, उसके हर कन्फ्यूजन को गंभीरता से दूर करते, होमवर्क पूरा कराते.
अगर कभी पापा होमवर्क ना करा पाते तो पार्थ की मम्मी सुबह उसका होमवर्क पूरा करवाकर ही उसको स्कूल भेजतीं. कभी जब मम्मी नहीं होती तो पार्थ की दादी उसके स्कूल के काम में मदद कर देतीं. उनका पार्थ से बेहद लगाव था - वो हमेशा उससे कहती रहतीं कि पार्थ तुम्हें अपने पापा से बड़ा अफसर बनना है
पार्थ का TV वग़ैरह भी ख़ूब मॉनिटर किया जाता था. उसके पापा उसे नेशनल ज्योग्राफिक पर डॉक्युमेंट्रीज दिखाते थे. वो उनके साथ स्पेस प्रोग्राम देखता था. साल में पूरा परिवार दो छुट्टियाँ लेता - गर्मी में विदेश जाते और सर्दियों में देश की किसी यूनिक जगह जाते थे. पार्थ की मम्मी ने उसको छुट्टियों की एक Journal बनवायी थी - जिसमें वो बड़े चाव से नई जगह, नए अनुभवों के बारे में लिखता था. शायद यहीं से उसके अंदर जिज्ञासा और जागरूकता दोनों पैदा हुईं
उधर अंकित, स्कूल ख़त्म होने के बाद अपना बैग उठा कर बारहों महीने पैदल ही घर जाता था. जिस कच्ची बस्ती में 3000 रुपए महीने के किराए वाले घर में वो रहता था, वो स्कूल से थोड़ी दूर पर था लेकिन वहाँ स्कूल बस जाती नहीं थी और उसके पास रोज़ाना ऑटो रिक्शा करके जाने के पैसे नहीं होते थे
अंकित स्कूल से लौटने के बाद अपने पड़ोसी के यहाँ से अपने घर की चाबी लेता जो उसकी मां काम पर जाने से पहले छोड़ जाती थीं, क्योंकि अंकित को स्कूल से आने में देर हो जाती थी. फिर वो ख़ुद अपना खाना जो सुबह की बनी सब्जी-रोटी हुआ करती थी, उसे खा लेता था.
अंकित जिन बड़ी-बड़ी इमारतों के पीछे बसाई गई तंग बस्तियों में रहता था, वहां कीड़ो-मकौड़ों की भरमार थी, जिनकी वजह से वो कई बार बीमार भी हो जाता था.
वहां न पानी समय से आता था, न बिजली. इसलिए कभी-कभी अंकित को स्कूल से लौट कर बाल्टी भरने का इंतजार भी करना पड़ता था. क्योंकि माँ बाप का काम पर जाना बेहद ज़रूरी था, वरना शाम को घर में क्या बनेगा और गाँव में बूढ़े दादा दादी को क्या भेजा जाएगा
अगर स्कूल में पढ़ाई गई कोई चीज़ अंकित को समझ में नहीं आती तो चाह कर भी घर में उसकी मदद करने वाला नहीं था. न मां उतनी पढ़ी लिखी थी और न पिता उतने शिक्षित. ट्यूशन टीचर रखने का तो वो सपने में नहीं सोच सकते थे इसीलिए जैसे-तैसे करके अंकित खुद से पढ़ता था. कई बार होमवर्क सुबह स्कूल में बाक़ी बच्चों से पूछ कर करता था
अंकित के बूढ़े दादा- दादी गांव में रहते थे, उसके पिता जो कमाकर भेजते उसी से उन लोगों की दवाई भी होती और उनका खर्चा भी चलता था. आर्थिक तंगी की वजह से घर का माहौल बड़ा तनावपूर्ण रहता था. दिक्कतों से जूझते जूझते कभी-कभी उसके माता-पिता में झगड़ा भी हो जाता था - जिसका उसके बाल मन पर बुरा प्रभाव पड़ता था
महीने बीतते गए, फिर साल बीते. पार्थ और अंकित आठवीं क्लास में पहुंच गए. साल भर की पढ़ाई के बाद इम्तिहान हुए. पार्थ और अंकित दोनों ने अपने अपने हिसाब से मेहनत की. फिर परिणाम आया - पार्थ ने तो क्लास में टॉप किया मगर अंकित टॉप टेन में भी जगह नहीं बना पाया
पार्थ और अंकित एक स्कूल में पढ़े, एक साथ पढ़े मगर रिजल्ट में इतना अंतर क्यों?
क्योंकि यह मेरिट भर की बात नहीं - असल में पार्थ और अंकित की दुनिया बिल्कुल अलग है
सिर्फ़ एक स्कूल में होना लेवल प्लेइंग फील्ड होने की गारंटी नहीं. दरअसल दोनों के लिए इस फील्ड में जमीन-आसमान का अंतर है.
हमें यह समझना होगा कि समान अवसर देने की बात तभी सच होगी जब समान शिक्षा ही नहीं, समान वातावरण, समान सुविधाएं और समान सोचने-समझने-सीखने और जीने का हक़ मिले.
हमें पार्थ और अंकित के बीच असमानता की इस खाई को पाटना होगा, फिर देखियेगा कि अंकित की आने वाली पीढ़ी कैसे पार्थ जैसा जीवन जीती है.