03/05/2024
क्षत्रियों में 'सिंह' नाम का इतिहास :-
आज वर्तमान राजपूतों के नाम के पीछे जो 'सिंह' शब्द लिखा जाता है, उसके पीछे का इतिहास भी सदियों पुराना है। लेकिन ऐसा नहीं है कि क्षत्रियों ने शुरुआत में ही 'सिंह' शब्द लगाना शुरू कर दिया, इसका प्रचलन धीरे-धीरे हुआ है।
पुराणों व महाभारत काल में 'सिंह' नाम का प्रचलन नहीं था। प्रसिद्ध शाक्यवंशी राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ के कई पर्याय थे, उन्हीं पर्यायों में से एक नाम था 'शाक्यसिंह'। इस बात की जानकारी अमरकोष ग्रंथ से मिलती है।
ये सिद्धार्थ ही आगे जाकर गौतम बुद्ध के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। शाक्यसिंह नाम का अर्थ था कि शाक्य जाति के क्षत्रियों में सिंह के समान श्रेष्ठ। लेकिन ये शाक्यसिंह मूलनाम न होकर के एक पर्याय था।
इसके अलावा यह बात भी महत्वपूर्ण है कि शाक्यसिंह नाम में लगा 'सिंह' शब्द एक उपाधि के तौर पर प्रयुक्त हुआ था। प्राचीन समय में इसी तरह क्षत्रियों के नामों के पीछे 'शार्दूल' व 'पुंगव' शब्द भी जोड़ दिए जाते थे।
मूलनाम के तौर पर 'सिंह' शब्द के प्रचलन का श्रेय रुद्रसिंह को दिया जाता है, जो कि क्षत्रपवंशी महाप्रतापी शासक रुद्रदामा के द्वितीय पुत्र थे। यह 'सिंह' नाम वाला पहला उदाहरण है। रुद्रसिंह दूसरी शताब्दी में हुए थे।
इसी वंश में 'सिंह' नाम का दूसरा उदाहरण है विश्वसिंह का। फिर इसी तरह इस वंश में सत्यसिंह भी हुए। इस वंश में सिंह नाम वाले कुल 5 शासक हुए। इस वंश में सिंह नाम वाले अंतिम शासक का नाम भी रुद्रसिंह ही था।
6ठी सदी में दक्षिण के सोलंकियों में जयसिंह नामक एक शासक हुए। फिर उसी वंश में 11वीं सदी में जयसिंह द्वितीय नामक शासक हुए। फिर मालवा के परमारों ने 10वीं सदी में 'सिंह' नाम अपना लिया।
मालवा के परमारों के बाद मेवाड़ के गुहिलवंशियों ने यह प्रचलन अपनाया। मेवाड़ के इतिहास में 1100 ई. से इस तरह के नामों का प्रचलन शुरू हुआ। मेवाड़ के शुरुआती 'सिंह' नाम वाले शासक वैरिसिंह हुए। तत्पश्चात विजयसिंह, अरिसिंह, चोडसिंह, विक्रमसिंह आदि शासक हुए।
राजपूताने में 'सिंह' नाम को कई जगह 'सी' करके भी लिखा है, जैसे अरिसिंह को अरसी, जयसिंह को जयसी, प्रतापसिंह को प्रतापसी आदि। कुछ जगह 'सिम्हा' भी लिखा हुआ मिलता है, जैसे प्रतापसिम्हा।
कछवाहा राजपूतों में सबसे पहले नरवर वालों ने 12वीं सदी में इस प्रचलन को अपनाया। उनके 1120 ई. के शिलालेख से गगनसिंह, शरदसिंह व वीरसिंह नाम मिले हैं। आमेर के कछवाहा शासकों में 14वीं सदी में राजा नरसिंह कछवाहा ने इस प्रचलन को अपनाया।
डूंगरपुर के तो पहले ही शासक रावल सामंतसिंह ने 12वीं सदी में 'सिंह' नाम अपना लिया, क्योंकि सामंतसिंह मेवाड़ के ही शासक थे। इससे डूंगरपुर वालों ने अंत तक 'सिंह' नाम वाले शब्द ही जारी रखे, हालांकि बीच में 2-3 शासक 'दास' नाम वाले भी हुए।
अजमेर के चौहान वंश में सिंह नाम का प्रचलन नहीं रहा। चौहान वंश में सबसे पहले जालोर के शासक राजा समरसिंह ने 13वीं सदी में 'सिंह' नाम अपनाया। फिर इसी वंश में उदयसिंह, सामंतसिंह आदि शासक हुए।
बूंदी के हाड़ा चौहान शासकों में से राव बीरसिंह हाड़ा ने 15वीं सदी में 'सिंह' नाम अपनाया। इसी चलन को बाद में बूंदी से अलग हुए कोटा राज्य व कोटा से अलग हुए झालावाड़ राज्य के राजपूतों ने भी अपनाया।
मारवाड़ के राठौड़ वंश में इस तरह के नामों में मोटा राजा उदयसिंह का नाम आता है, जो कि राव मालदेव के पुत्र थे। इसी तरह बीकानेर के राठौड़ वंश में 'सिंह' नाम वाले पहले शासक राजा रायसिंह राठौड़ हुए।
डॉ. ओझा ने मारवाड़ के इतिहास में 'सिंह' नाम को अपनाने वाले पहले शासक का नाम रायसिंह लिखा है। यदि ये रायसिंह जोधपुर के राव चन्द्रसेन के बेटे का नाम है, तब भी वे मोटा राजा उदयसिंह से छोटे हैं।
यदि ये रायसिंह बीकानेर के राजा हैं, तब भी वे मोटा राजा उदयसिंह से छोटे हैं। इसलिए इस बात में सन्देह नहीं होना चाहिए कि मारवाड़ में यह चलन मोटा राजा उदयसिंह से ही शुरू हुआ है।
शिलालेखों से प्राप्त नामों को देखने के बाद यही ज्ञात होता है कि 'सिंह' नाम का प्रचलन क्रमशः क्षत्रपवंशी राजाओं, दक्षिण के सोलंकियों, मालवा के परमारों, मेवाड़ के गुहिलवंशियों, नरवर के कछवाहों व जालोर के चौहानों ने अपनाया।
तत्पश्चात इस प्रकार के नाम सभी रियासतों में साधारण हो गए और आज तक राजपूतों में यह प्रचलन चला आ रहा है। वर्तमान में राजस्थान के राजपूत अंग्रेजी में 'singh' लिखते हैं, जबकि गुजरात के राजपूतों में 'sinh' शब्द का प्रचलन है।
इस तरह 'सिंह' नाम का इतिहास काफी प्राचीन है। यदि इसका उद्भव गौतम बुद्ध से माना जाए, तो यह नाम लगभग 2500 वर्ष पुराना है और यदि इसका उद्भव रुद्रसिंह से माना जाए, तो यह नाम 1800 वर्ष पुराना है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा - मेवाड़)