Rajasthan ro rutbo

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भटनेर दुर्ग हनुमानगढ़
21/02/2025

भटनेर दुर्ग हनुमानगढ़

11/02/2025
20/12/2024

उसने मुझसे पूछा की, तुम्हे चाय पसंद है की मैं,
मेने जल्दी से चाय खत्म करी और कहा की तुम।

14/12/2024

Jai shree krishna

Meet Smriti Singh, wife of late Captain Anshuman Singh. Captain Anshuman sacrificed his life while saving his fellow sol...
09/07/2024

Meet Smriti Singh, wife of late Captain Anshuman Singh. Captain Anshuman sacrificed his life while saving his fellow soldiers.

Smriti and Captain Anshuman got married just 5 months ago. Salute to our brave soldier and his courageous wife.

26/05/2024

जयपुर में स्थित जलमहल

25/05/2024

#पीलू/ #कोकड़. #थार_का_मेवा
पश्चिमी राजस्थान के थार के रेगिस्तान में जाल (जाळ)के पेड़ पाये जाते है।जाल के पेड़ पर छोटे-छोटे फल लगते है जिन्हें पीलू कहते है।पीलू को पकने के बाद बहुत स्वादिष्ट होता है साथ ही पीलू को छाया में सुखाकर संरक्षित भी किया जाता है जिसे बाद में खाते है,सूखे पीलू को कोकड़ कहा जाता है।इस क्षेत्र में जब बहुत तेज गर्मी पड़ती है व तेज लू चलती है तो पीलू बहुत रसीले बनते है।इस साल रेगिस्तान में बहुत ज्यादा गर्मी व लू चल रही है फलतः पीलू भी इस बार अच्छे आये हैं।पीलू खाना बहुत ही स्वास्थ्य वर्धक होता है।पीलू विटामिन सी व कार्बोहाइड्रेट से भरपुर होठे हैं यह अत्यधिक गर्मी से रक्षा करते है।लू के प्रभाव को कम करने में पीलू रामबाण औषधि मानी जाती है आयुर्वेद के जानकारों के अनुसार इसका सेवन पेट की बीमारियों व पथरी से बचाव करने में भी सहायक है।पीलू खाने से न केवल शरीर मे पानी की पूर्ति होती है बल्कि लू लगने की संभावना भी कम हो जाती है।इसकी एक खास विशेषता यह भी है कि पीलू एक एक कर चूसते है तो जीभ व मुंह में छाले हो जाते जबकि आठ-दस पीलू साथ साथ खाने पर ऐसा नहीं होता।पीलू को #थार का मेवा भी कहा जाता है।मारवाड़ क्षेत्र में जाल के पेड़ हर गांव में नहीं पाये जाते तो गर्मियों की छुट्टियों के दौरान बच्चे पीलू लेने के लिए ननिहाल,बुआ,मौसी आदि रिश्तेदारों के घर पीलू लेने जाते रहते है।लोग अपने जिन रिश्तेदारों के वहां जाल के पेड़ नहीं हो उनके तोहफ़े के रूप में भी पीलू पहुंचाते है।कोकड़(सूखे पीलू)अक्सर तोहफ़े में भेजे जाते रहे हैं।थार के रेगिस्तान के लोगों में अपणायत(अपनापन) बहुत गहरा है पीलू लेने के लिए किसी के भी खेत की जाल पर जा सकते है कोई मनाही नहीं है।ननिहाल वगेरह पीलू लेने जाने पर वहां नाना के परिवार सहित उनके पड़ोस के बच्चे भी पीलू इक्कठे करने में मदद कर देते हैं।मेरे विद्यार्थी जीवन में गर्मियों की छुट्टियों में मैं पीलू लाने 35 किलोमीटर दूर ननिहाल सांजटा गांव जाता रहता था।वहां नानी के पास दो-तीन दिन पीलू इक्कठा करता व ले आता था नानी आलण (एक व्यंजन)बहुत अच्छा बनाती व मुझे प्यार से खिलाती थी।हालांकि नानी अब इस दुनियां में नहीं रही तो अब वो आलण जीमने को नहीं मिलता न अब पीलू लाने ननिहाल जाने की फुर्सत रहती है।हाँ मामा कभी कभार किसी के साथ पीलू भिजवा देते हमारे लिए।
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#पीलू #जाळ #थार_की_अपणायत
#पीलू_लाता_रिश्तों_में_प्रगाढ़ता
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Moola Ram Machra

04/05/2024

कहानी वीर योद्धा डूंगर सिंह भाटी की:
राजपुताना वीरो की भूमि है। यहाँ ऐसा कोई गांव नही जिस पर राजपूती खून न बहा हो, जहाँ किसी जुंझार का देवालय न हो, जहा कोई युद्ध न हुआ हो। भारत में मुस्लिम आक्रमणकर्ताओ कोे रोकने के लिए लाखो राजपूत योद्धाओ ने अपना खून बहाया बहुत सी वीर गाथाये इतिहास के पन्नों में दब गयी। इसी सन्दर्भ में एक सच्ची घटना-
उस वक्त जैसलमेर और बहावलपुर(वर्तमान पाकिस्तान में) दो पड़ोसी राज्य थे। बहावलपुर के नवाब की सेना आये दिन जैसलमेर राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रो में डकैती, लूट करती थी परन्तु कभी भी जैसलमेर के भाटी वंश के शासको से टकराने की हिम्मत नही करती थी।
उन्ही दिनों एक बार जेठ की दोपहरी में दो राजपूत वीर डूंगर सिंह जी उर्फ़ पन्न राज जी, जो की जैसलमेर महारावल के छोटे भाई के पुत्र थे और उनके भतीजे चाहड़ सिंह जिसकी शादी कुछ दिन पूर्व ही हुयी थी, दोनों वीर जैसलमेर बहावलपुर की सीमा से कुछ दुरी पर तालाब में स्नान कर रहे थे। तभी अचानक बहुत जोर से शोर सुनाई दिया और कन्याओ के चिल्लाने की आवाजे आई। उन्होंने देखा की दूर बहावलपुर के नवाब की सेना की एक टुकड़ी जैसलमेर रियासत के ही ब्राह्मणों के गाँव “काठाडी” से लूटपाट कर अपने ऊँटो पर लूटा हुआ सामान और साथ में गाय, ब्राह्मणों की औरतो को अपहरण कर जबरदस्ती ले जा रही है।
तभी डूंगर सिंह उर्फ़ पनराजजी ने भतीजे चाहड़ सिंह को कहा की तुम जैसलमेर जाओ और वहा महारावल से सेना ले आओ तब तक में इन्हें यहाँ रोकता हूँ। लेकिन चाहड़ समझ गए थे की काका जी कुछ दिन पूर्व विवाह होने के कारण उन्हें भेज रहे हैँ। काफी समझाने पर भी चाहड़ नही माने और अंत में दोनों वीर क्षत्रिय धर्म के अनुरूप धर्म निभाने गौ ब्राह्मण को बचाने हेतु मुस्लिम सेना की ओर अपने घोड़ो पर तलवार लिए दौड़ पड़े।
डूंगर सिंह को एक बड़े सिद्ध पुरुष ने सुरक्षित रेगिस्तान पार कराने और अच्छे सत्कार के बदले में एक चमत्कारिक हार दिया था जिसे वो हर समय गले में पहनते थे।
दोनों वीर मुस्लिम टुकडी पर टूट पड़े और देखते ही देखते बहावलपुर सेना की टुकड़ी के लाशो के ढेर गिरने लगे। कुछ समय बाद वीर चाहड़ सिंह (भतीजे)भी वीर गति को प्राप्त हो गए जिसे देख क्रोधित डूंगर सिंह जी ने दुगुने वेश में युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। तभी अचानक एक मुस्लिम सैनिक ने पीछे से वार किया और इसी वार के साथ उनका शीश उनके धड़ से अलग हो गया। किवदंती के अनुसार, शीश गिरते वक़्त अपने वफादार घोड़े से बोला-
“बाजू मेरा और आँखें तेरी”
डूंगर सिंह भाटी युद्ध में झुंझार रूप में
घोड़े ने अपनी स्वामी भक्ति दिखाई व धड़, शीश कटने के बाद भी लड़ता रहा जिससे मुस्लिम सैनिक भयभीत होकर भाग खड़े हुए और डूंगर जी का धड़ घोड़े पर पाकिस्तान के बहावलपुर के पास पहुंच गया। तब लोग बहावलपुर नवाब के पास पहुंचे और कहा की एक बिना मुंड आदमी बहावलपुर की तरफ उनकी टुकडी को खत्म कर गांव के गांव तबाह कर जैसलमेर से आ रहा है।
वो सिद्ध पुरुष भी उसी वक़्त वही थे जिन्होंने डूंगर सिंह जी को वो हार दिया था। वह समझ गए थे कि वह कोई और नहीं डूंगर सिंह ही हैं। उन्होंने सात 7 कन्या नील ले कर पोल(दरवाजे के ऊपर) पर खडी कर दी और जैसे ही डूंगर सिंह नीचे से निकले उन कन्याओं के नील डालते ही धड़ शांत हो गया।
ना मृत्यू का भय वीरो ना जीवन से प्रित…
शिश कटे पर धड़ लडे यही राजपूती रित..
बहावलपुर, जो की पाकिस्तान में है जहाँ डूंगर सिंह भाटी जी का धड़ गिरा, वहाँ इस योद्धा को मुण्डापीर कहा जाता है। इस राजपूत वीर की समाधी/मजार पर उनकी याद में हर साल मेला लगता है और मुसलमानो द्वारा चादर चढ़ाई जाती है।
वहीँ दूसरी ओर भारत के जैसलमेर का मोकला गाँव है, जहाँ उनका सिर कट कर गिरा उसे डूंगरपीर कहा जाता है। वहाँ एक मंदिर बनाया हुआ है और हर रोज पूजा अर्चना की जाती है। डूंगर पीर की मान्यता दूर दूर तक है और दूर दराज से लोग मन्नत मांगने आते हैँ।

03/05/2024

क्षत्रियों में 'सिंह' नाम का इतिहास :-

आज वर्तमान राजपूतों के नाम के पीछे जो 'सिंह' शब्द लिखा जाता है, उसके पीछे का इतिहास भी सदियों पुराना है। लेकिन ऐसा नहीं है कि क्षत्रियों ने शुरुआत में ही 'सिंह' शब्द लगाना शुरू कर दिया, इसका प्रचलन धीरे-धीरे हुआ है।

पुराणों व महाभारत काल में 'सिंह' नाम का प्रचलन नहीं था। प्रसिद्ध शाक्यवंशी राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ के कई पर्याय थे, उन्हीं पर्यायों में से एक नाम था 'शाक्यसिंह'। इस बात की जानकारी अमरकोष ग्रंथ से मिलती है।

ये सिद्धार्थ ही आगे जाकर गौतम बुद्ध के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। शाक्यसिंह नाम का अर्थ था कि शाक्य जाति के क्षत्रियों में सिंह के समान श्रेष्ठ। लेकिन ये शाक्यसिंह मूलनाम न होकर के एक पर्याय था।

इसके अलावा यह बात भी महत्वपूर्ण है कि शाक्यसिंह नाम में लगा 'सिंह' शब्द एक उपाधि के तौर पर प्रयुक्त हुआ था। प्राचीन समय में इसी तरह क्षत्रियों के नामों के पीछे 'शार्दूल' व 'पुंगव' शब्द भी जोड़ दिए जाते थे।

मूलनाम के तौर पर 'सिंह' शब्द के प्रचलन का श्रेय रुद्रसिंह को दिया जाता है, जो कि क्षत्रपवंशी महाप्रतापी शासक रुद्रदामा के द्वितीय पुत्र थे। यह 'सिंह' नाम वाला पहला उदाहरण है। रुद्रसिंह दूसरी शताब्दी में हुए थे।

इसी वंश में 'सिंह' नाम का दूसरा उदाहरण है विश्वसिंह का। फिर इसी तरह इस वंश में सत्यसिंह भी हुए। इस वंश में सिंह नाम वाले कुल 5 शासक हुए। इस वंश में सिंह नाम वाले अंतिम शासक का नाम भी रुद्रसिंह ही था।

6ठी सदी में दक्षिण के सोलंकियों में जयसिंह नामक एक शासक हुए। फिर उसी वंश में 11वीं सदी में जयसिंह द्वितीय नामक शासक हुए। फिर मालवा के परमारों ने 10वीं सदी में 'सिंह' नाम अपना लिया।

मालवा के परमारों के बाद मेवाड़ के गुहिलवंशियों ने यह प्रचलन अपनाया। मेवाड़ के इतिहास में 1100 ई. से इस तरह के नामों का प्रचलन शुरू हुआ। मेवाड़ के शुरुआती 'सिंह' नाम वाले शासक वैरिसिंह हुए। तत्पश्चात विजयसिंह, अरिसिंह, चोडसिंह, विक्रमसिंह आदि शासक हुए।

राजपूताने में 'सिंह' नाम को कई जगह 'सी' करके भी लिखा है, जैसे अरिसिंह को अरसी, जयसिंह को जयसी, प्रतापसिंह को प्रतापसी आदि। कुछ जगह 'सिम्हा' भी लिखा हुआ मिलता है, जैसे प्रतापसिम्हा।

कछवाहा राजपूतों में सबसे पहले नरवर वालों ने 12वीं सदी में इस प्रचलन को अपनाया। उनके 1120 ई. के शिलालेख से गगनसिंह, शरदसिंह व वीरसिंह नाम मिले हैं। आमेर के कछवाहा शासकों में 14वीं सदी में राजा नरसिंह कछवाहा ने इस प्रचलन को अपनाया।

डूंगरपुर के तो पहले ही शासक रावल सामंतसिंह ने 12वीं सदी में 'सिंह' नाम अपना लिया, क्योंकि सामंतसिंह मेवाड़ के ही शासक थे। इससे डूंगरपुर वालों ने अंत तक 'सिंह' नाम वाले शब्द ही जारी रखे, हालांकि बीच में 2-3 शासक 'दास' नाम वाले भी हुए।

अजमेर के चौहान वंश में सिंह नाम का प्रचलन नहीं रहा। चौहान वंश में सबसे पहले जालोर के शासक राजा समरसिंह ने 13वीं सदी में 'सिंह' नाम अपनाया। फिर इसी वंश में उदयसिंह, सामंतसिंह आदि शासक हुए।

बूंदी के हाड़ा चौहान शासकों में से राव बीरसिंह हाड़ा ने 15वीं सदी में 'सिंह' नाम अपनाया। इसी चलन को बाद में बूंदी से अलग हुए कोटा राज्य व कोटा से अलग हुए झालावाड़ राज्य के राजपूतों ने भी अपनाया।

मारवाड़ के राठौड़ वंश में इस तरह के नामों में मोटा राजा उदयसिंह का नाम आता है, जो कि राव मालदेव के पुत्र थे। इसी तरह बीकानेर के राठौड़ वंश में 'सिंह' नाम वाले पहले शासक राजा रायसिंह राठौड़ हुए।

डॉ. ओझा ने मारवाड़ के इतिहास में 'सिंह' नाम को अपनाने वाले पहले शासक का नाम रायसिंह लिखा है। यदि ये रायसिंह जोधपुर के राव चन्द्रसेन के बेटे का नाम है, तब भी वे मोटा राजा उदयसिंह से छोटे हैं।

यदि ये रायसिंह बीकानेर के राजा हैं, तब भी वे मोटा राजा उदयसिंह से छोटे हैं। इसलिए इस बात में सन्देह नहीं होना चाहिए कि मारवाड़ में यह चलन मोटा राजा उदयसिंह से ही शुरू हुआ है।

शिलालेखों से प्राप्त नामों को देखने के बाद यही ज्ञात होता है कि 'सिंह' नाम का प्रचलन क्रमशः क्षत्रपवंशी राजाओं, दक्षिण के सोलंकियों, मालवा के परमारों, मेवाड़ के गुहिलवंशियों, नरवर के कछवाहों व जालोर के चौहानों ने अपनाया।

तत्पश्चात इस प्रकार के नाम सभी रियासतों में साधारण हो गए और आज तक राजपूतों में यह प्रचलन चला आ रहा है। वर्तमान में राजस्थान के राजपूत अंग्रेजी में 'singh' लिखते हैं, जबकि गुजरात के राजपूतों में 'sinh' शब्द का प्रचलन है।

इस तरह 'सिंह' नाम का इतिहास काफी प्राचीन है। यदि इसका उद्भव गौतम बुद्ध से माना जाए, तो यह नाम लगभग 2500 वर्ष पुराना है और यदि इसका उद्भव रुद्रसिंह से माना जाए, तो यह नाम 1800 वर्ष पुराना है।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा - मेवाड़)

30/04/2024

शहर के खाने मे जहर है गाँव का खाना मिल जाये तो लीला लहर है।आओ रा बैपारो करो झूपड़े मे बैठ ने।कांदो लेता आईजो गूडाल मे माचे माते सू।

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