15/07/2025
परोपकार कहानी: पेंशन 📒📓
सुबह-सुबह, बैंक के परिसर में एक बूढ़ी औरत चिल्ला रही थी, बहस कर रही थी। उसकी आवाज़ इतनी कर्कश थी कि बैंक के कर्मचारी भी एक पल के लिए सहम गए। वह निराधार योजना के तहत अपनी पेंशन माँग रही थी। लेकिन सूची में उसका नाम नहीं था। सरकारी तकनीकी खामी के कारण उसका नाम हटा दिया गया था।
गाँव की महाराष्ट्र बैंक की शाखा में अमरनाथ का हाल ही में तबादला हुआ था। साफ-सुथरा रहन-सहन, अपने काम से काम रखने वाला और सामने वाले की आँखों में देखकर बात करने की आदत वाला यह नौजवान, पहले ही दिन बैंक की गहमागहमी में उलझन में पड़ गया था।
उसका एक ही कहना था, "तुम ही लोग मेरे पैसे खाते हो।"
अमरनाथ ने कर्मचारियों से पूछताछ की। जवाब मिला, “उसका हर महीने का यही नाटक है। कभी भी आती है, झगड़ती है, चिल्लाती है और फिर चली जाती है।”
लेकिन दूसरे दिन कुछ अलग ही हुआ।
दूसरे दिन जब वह फिर से आई, तो अमरनाथ ने कैश काउंटर सँभाल लिया था।
वह लाइन में खड़ी हो गई और जब उसका नंबर आया तो उसने पासबुक दी और झगड़े की तैयारी में खड़ी हो गई।
अमरनाथ ने उसे कुछ कहे बिना पाँच सौ रुपए के नोट निकालकर दे दिए।
वह एक पल के लिए चौंक गई।
फिर उन पैसों को देखकर उसकी आँखें चमक उठीं और वह बोली, “मेरी पेंशन रोकते हो क्या... आज कैसे दे दी? कहते हो कि नहीं आएगी, और अब कैसे दे दी?”
सारा स्टाफ हैरान रह गया। लेकिन किसी को कुछ समझ नहीं आया।
उसके बाद, हर महीने वह बूढ़ी औरत समय पर बैंक आने लगी। पेंशन लेकर जाने लगी।
एक साल, डेढ़ साल बीत गया। हर महीने वह आती, लाइन में खड़ी होती, पासबुक देती, और अमरनाथ से अपनी हक़ की पेंशन के पैसे लेती रही।
अमरनाथ ने एक बार भी उसे सच नहीं बताया कि वे पैसे उसकी तनख्वाह से जा रहे हैं।
इस दौरान दोनों के बीच अच्छी जान-पहचान हो गई। अमरनाथ उसकी पासबुक लेते समय हँसकर कहता, "दादी, अब तो सरकार से पेंशन आ रही है न... आपका रौब सब पर है।" और वह कुछ-न-कुछ बड़बड़ाती हुई पैसे लेकर चली जाती।
दोनों में हँसी-मजाक चलने लगा था।
परंतु, एक दिन अमरनाथ बैंक में नहीं था।
वह आई, लाइन में खड़ी हुई।
पासबुक दी।
लेकिन स्टाफ ने उसे साफ-साफ बता दिया।
उसका खाता बंद हो गया है...!
उसे गुस्सा आ गया और वह और भी बड़बड़ाने लगी।
"वो साहब कहाँ हैं? वो तो हर महीने मुझे मेरी पेंशन देते हैं! और आज क्या हो गया..?"
स्टाफ ने बताया,
"अमरनाथ साहब का आज एक्सीडेंट हो गया है, वे गंभीर रूप से घायल हैं और कराड के अस्पताल में हैं।"
बूढ़ी औरत ने कुछ नहीं कहा। चुप हो गई। दूसरे दिन वह फिर आई। फिर से पूछा।
पैसे नहीं आए थे और हमेशा की तरह अमरनाथ साहब भी नहीं थे। वह हंगामा करने लगी।
मुख्य साहब (मैनेजर) ने उसे केबिन में बुलाया। और सच बता दिया।
“दादी, आपकी पेंशन सरकार की ओर से डेढ़ साल पहले ही बंद हो चुकी है। अमरनाथ साहब हर महीने आपको अपनी तनख्वाह से आपकी पेंशन देते थे। और अब उनका एक्सीडेंट हो गया है, वे बेहोश हैं। ऑपरेशन के लिए तीन-चार लाख रुपए लगेंगे।”
उसका चेहरा उतर गया। वह कुछ नहीं बोली। शांत, सिर झुकाए खड़ी रही, उसकी आँखें भर आईं और वह वहाँ से चली गई।
उसी रात कराड के अस्पताल में अमरनाथ का ऑपरेशन होना था। खर्च – चार लाख आने वाला था।
घर में पिता नहीं थे।
एक माँ, एक छोटी बहन।
दोनों रो रही थीं।
स्टाफ और मैनेजर ने साढ़े तीन लाख रुपए उनके हाथ में दिए और उनकी मदद की। ऑपरेशन हो गया। कुछ दिनों बाद अमरनाथ को होश आया। वह हिलने-डुलने लगा, बोलने लगा। माँ ने बताया कि साहब और स्टाफ ने मदद की है। उसे बहुत गर्व महसूस हुआ कि सबकी मदद से उसे अनमोल जीवनदान मिला है। वह उनका उपकार कभी नहीं भूल पाएगा।
एक महीना बीत गया। वह बैंक आने लगा।
काम सुचारू रूप से शुरू हो गया।
पेंशन बाँटने का दिन आया।
अमरनाथ काउंटर पर था, और वह बूढ़ी औरत फिर से आई।
पासबुक दी।
बीमारी, दवाओं के खर्च और काम से छुट्टी के कारण अमरनाथ के पास उसे देने के लिए पैसे नहीं थे।
वह बोला, "दादी, आज पैसे नहीं आए... लेकिन यहाँ दिखा रहा है कि कल ज़रूर आ जाएँगे..." उसकी आवाज़ लड़खड़ा गई। उसकी आँखों में अपराधबोध दिख रहा था।
बूढ़ी औरत ने कुछ नहीं कहा।
वह सीधे काउंटर के अंदर चली गई और एक पल में अमरनाथ को कसकर गले लगा लिया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। उसे कुछ भी समझ नहीं आया।
सारा स्टाफ बाहर आ गया। सब आश्चर्य से देख रहे थे।
मैनेजर केबिन से बाहर आए, आगे बढ़कर बोले,
"अब बताता हूँ अमरनाथ...
इसे सब पता चल गया है। जब उसे पता चला कि तुम उसे अपनी तनख्वाह से पैसे देते थे, तो तुम्हारे एक्सीडेंट के बाद, ऑपरेशन के समय एक घंटे के अंदर इसने अपने घर का सोना गिरवी रखकर साढ़े तीन लाख रुपए मेरे पास लाकर दिए।
और एक शर्त रखी – कि यह बात तुम्हें नहीं बतानी है। हम मान गए। लेकिन आज वह खुद को रोक नहीं पाई। तुम हर महीने उसकी मदद करते थे, और जब उसे यह पता चला तो उसने बिना सोचे-समझे अपनी ज़िंदगी भर की जमापूँजी तुम्हें देकर तुम्हारी जान बचाई।"
अमरनाथ की आँखें भर आईं। उसने उस बूढ़ी औरत को कसकर गले लगा लिया और दोनों दादी-पोता रोने लगे।
अमरनाथ ने कहा, "दादी, मेरे लिए इतना क्यों किया..?"
दादी रोते हुए बोली, "भले ही मैं पराई हूँ, पर तूने मुझे अपनी दादी जैसा प्यार दिया... मुझे डेढ़ साल तक पेंशन देता रहा, तो क्या मैं अपने पोते को अस्पताल में ऐसे तड़पते हुए छोड़ देती रे बेटा...!"
बैंक का पूरा माहौल भावुक हो गया।
सभी रो रहे थे।
कभी-कभी हमारा दिया हुआ प्यार और मदद, अनजाने में हमारी ज़िंदगी में कुछ बहुत बड़ा लौटाकर लाते हैं। कर्म के हिसाब में एक भी रुपया कम या ज्यादा नहीं होता। जीवन अनमोल है। दिया हुआ हमारे पास लौटकर आता ही है – इसलिए कर्म पर विश्वास रखकर अच्छे कर्म करते रहें।
🚩 जय श्री राम #हिंदूसंस्कार