Hindi Stories Diary

Hindi Stories Diary धीमी, भावनाओं से भरी यादगार रसीली कहानियाँ 💤... जिन्हें बंद आँखों से महसूस कीजिए और खुद को बहने दीजिए उन रिश्तों में, जो कहे नहीं जाते - बस महसूस किए जाते हैं।

Read Hindi Romantic, Emotional, Motivational, Friendship and Dramatic Stories.

अगर आपकी बेटी, बहन या दोस्त 16–17 साल की है, तो ये कहानी पढ़ते समय साँस रोक लीजिए... हो सकता है ये उसकी भी सच्चाई हो। मै...
13/08/2025

अगर आपकी बेटी, बहन या दोस्त 16–17 साल की है, तो ये कहानी पढ़ते समय साँस रोक लीजिए... हो सकता है ये उसकी भी सच्चाई हो। मैं, डॉ. राधिका मेहता, बेंगलुरु के एक सुपर-स्पेशलिटी अस्पताल में गाइनकोलॉजिस्ट के रूप में काम करती हूँ।

पढ़ाई के दौरान मुझे लगता था कि मेरा काम नवविवाहित जोड़ों और नई दुल्हनों की जिंदगी बेहतर बनाना होगा।

पर अस्पताल जॉइन करने के कुछ ही दिनों बाद मुझे अहसास हुआ कि असली दुनिया इससे बहुत अलग है। पहले हफ्ते में ही मेरे पास एक मरीज आई।

उम्र मुश्किल से 18–19 साल।

चेहरा सफेद, आँखों के नीचे गहरे काले घेरे।

धीरे-धीरे आवाज में बोली, डॉक्टर, संभोग करते समय बहुत दर्द होता है। मैंने सहजता से पूछा, आपके पति कहाँ हैं?

उसने बिना झिझके जवाब दिया, शादी नहीं हुई।

उस वक़्त मैंने ज़्यादा कुछ नहीं कहा, बस दवा दी और चुपचाप अपने आप से सवाल करने लगी कि आखिर इतनी कम उम्र में किसी लड़की की ज़िन्दगी में ये मोड़ क्यों आया। कुछ ही दिन बाद, एक और लड़की मेरे पास आई।

पेट में असहनीय दर्द था।

रजिस्ट्रेशन फॉर्म में उसकी उम्र 27 लिखी थी, लेकिन चेहरे और शरीर से साफ लग रहा था कि वो मुश्किल से 21–22 की होगी। अल्ट्रासाउंड में पता चला कि उसकी बच्चेदानी में गंभीर सूजन है। मैंने धीरे से पूछा, इतनी कम उम्र में ये कैसे?

वो मासूमियत से बोली, पता नहीं, डॉक्टर।

मैंने अपने अनुभव से अंदाज़ा लगा लिया था कि मामला क्या हो सकता है। मैंने सीधे पूछा, क्या कभी i-pill जैसी दवा ली है?

पहले तो उसने नजरें झुका लीं, फिर बोली, हाँ, कभी-कभी। मुझे उसके जवाब पर यकीन नहीं आया, इसलिए मैंने कड़ाई से कहा, सच बताओ, वरना दवा असर नहीं करेगी।

उसकी आँखों में पानी आ गया और आखिरकार उसने सच्चाई उगल दी जब भी बॉयफ्रेंड के साथ संबंध बनाती थी, अगले दिन i-pill लेती थी।

हफ्ते में दो बार… और ये सिलसिला एक साल से चल रहा है। मैं अंदर तक हिल गई।

i-pill को कभी-कभी और इमरजेंसी में लेने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसे ऐसे लेना शरीर के लिए जहर है।

मैंने उसे समझाया कि इस आदत ने उसकी बच्चेदानी को बुरी तरह कमजोर कर दिया है और अगर यही चलता रहा तो भविष्य में माँ बनने की संभावना बहुत कम रह जाएगी। वो फूट-फूटकर रोने लगी।

उस दिन के बाद मैं बार-बार सोचती रही ये लड़कियाँ गलत नहीं, बस अनजान हैं। उन्हें कोई बताता ही नहीं कि शरीर भी एक जिम्मेदारी है, और लापरवाही कभी-कभी पूरी ज़िन्दगी की कीमत बन जाती है।

कई बार लगता है कि काश, ये बातें स्कूलों और घरों में खुलकर सिखाई जातीं, तो शायद अस्पताल में इतनी कम उम्र की लड़कियाँ इस हालत में न आतीं।

अगले हफ्तों में मैंने कई ऐसे केस देखे कोई 17 साल की, तो कोई 20, जो रिश्तों में थीं लेकिन सुरक्षित तरीके नहीं अपनातीं। और जब समस्या इतनी बढ़ जाती कि दर्द और खून रुकने का नाम न ले, तब अस्पताल आतीं। उनके चेहरे पर मासूमियत और आँखों में डर होता था।

मुझे उन सभी में एक ही बात नज़र आती उन्होंने प्यार तो किया, लेकिन खुद से और अपने शरीर से जिम्मेदारी का रिश्ता कभी नहीं जोड़ा।

आज भी जब मैं रात को अपने कमरे में बैठती हूँ, तो उन चेहरों की झलक याद आती है। किसी का चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ, किसी की आँखें खाली।

और मैं सोचती हूँ क्या हमारी समाज की चुप्पी ही इनकी सबसे बड़ी दुश्मन है? शायद हाँ।

अगर ये कहानी पढ़ते हुए आप किसी लड़की को जानते हैं जो इस उम्र में है, तो बस उसे ये बात ज़रूर समझा दें ज़िन्दगी के खेल में गलतियों की गुंजाइश कम होती है।

कुछ फैसले पल भर के होते हैं, लेकिन उनका असर पूरी उम्र चलता है। और जब तक हम ये नहीं मानेंगे कि जागरूकता शर्म से बड़ी है, तब तक ऐसी कहानियाँ बार-बार दोहराई जाएँगी।

अगर मैं कहूँ कि सच्चा प्यार सिर्फ फिल्मों में नहीं, बल्कि हमारे आस-पास की गलियों में भी सांस लेता है, तो क्या आप यकीन कर...
09/08/2025

अगर मैं कहूँ कि सच्चा प्यार सिर्फ फिल्मों में नहीं, बल्कि हमारे आस-पास की गलियों में भी सांस लेता है, तो क्या आप यकीन करेंगे? तो आइए, आपको सुनाता हूँ एक मोहब्बत और मेहनत से बुनी कहानी, जो किसी हीरो-हीरोइन की नहीं, बल्कि एक छोटे कस्बे की सच्ची धड़कन है। जहाँ हालात कठिन थे, जेब में अक्सर खालीपन था, लेकिन दिल में सपनों का समंदर लहराता था।

उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के पास एक कस्बा है कंधरिया। तंग गलियाँ, मिट्टी की खुशबू, और हर नुक्कड़ पर चाय की भाप उड़ाती दुकाने। इन्हीं गलियों के आखिरी छोर पर रहता था रमेश।

उम्र बमुश्किल अट्ठाईस, गोरा-सांवला रंग, मेहनत से खुरदरे हुए हाथ और आंखों में सीधी-सादी मासूमियत। उसका दिन साइकिल के हैंडल पर टंगा कपड़ों का थान, एक थैला मूंगफली या कभी-कभी आइसक्रीम की बाल्टी लेकर शुरू होता था।

वह गली-गली पुकारता "आ जाइए बहनजी, देख लीजिए… सिर्फ आज के दाम!" यह आवाज़ मोहल्ले की औरतों के कानों में इतनी रच-बस गई थी कि पहचान बन चुकी थी।

रमेश का घर साधारण ही नहीं, बल्कि बेहद तंगहाल था।

बूढ़े मां-बाप, एक छोटी बहन जिसकी शादी बाकी थी, और खुद रमेश की पढ़ाई दसवीं में ही छूट गई थी। किसी ने कहा था कि उसके जैसे लोग बस मेहनत कर सकते हैं, सपने देखना उनके लिए नहीं। लेकिन किस्मत को अक्सर ऐसे लोगों से ही खेल खेलने में मज़ा आता है।

मोहल्ले के बुजुर्गों ने एक दिन उसकी शादी पक्की कर दी। लड़की थी रेखा।

बारहवीं पास, गाँव के स्कूल में पढ़ी, रंग साफ, नैन-नक्श सधे हुए और आंखों में अपने घर को संवारने का सपना। शादी के दिन घर में ज़्यादा सजावट नहीं थी, लेकिन दोनों के चेहरों पर मुस्कान की रौनक सब पर भारी थी।

रेखा को जल्द ही समझ आ गया कि रमेश के पास देने के लिए बहुत पैसे नहीं हैं, लेकिन देने के लिए उसका दिल हमेशा भरा रहता है।

शादी के कुछ महीनों बाद एक शाम रमेश ने अचानक कहा "रेखा, तू आगे पढ़ाई करेगी… बीए करेगी।" रेखा ने हैरानी से उसे देखा "हमसे ना हो पाएगा।

ये घर, रोटी और पढ़ाई… सब कैसे संभालेंगे? रमेश मुस्कराया "रोटी मैं देख लूंगा, तू किताब देख ले।" उस दिन से एक नई जंग शुरू हुई। पैसे की तंगी थी, लेकिन रमेश ने मोहल्ले के जान-पहचान वालों से कर्ज़ लिया और रेखा का बीए में एडमिशन करवा दिया।

कई लोगों ने ताना मारा "अरे रमेश, दो जून की रोटी नहीं जुटती, और पढ़ाई का शौक पाल रहा है?" लेकिन रमेश ने अपने कान बंद कर लिए। रेखा ने पढ़ाई शुरू की, दिन में घर का काम करती, शाम को कोचिंग जाती, और रात में देर तक पढ़ती। किताबों पर चाय के छींटे और पसीने की बूंदें दोनों गिरते थे।

रमेश अक्सर चुपचाप उसे पढ़ते हुए देखता, उसके माथे पर गिरे बालों को पीछे करता, और फिर दुकान के लिए अगले दिन की तैयारी में लग जाता। तीन साल बाद रेखा ने बीए पूरा किया, फिर एमए किया और उसके बाद बीएड। इन सालों में रमेश की साइकिल के टायर कई बार बदले, लेकिन उसके हौसले कभी नहीं।

पांचवे साल के अंत में वह दिन आया जिसका इंतज़ार रमेश और रेखा ने मिलकर किया था। डाकिया एक सफेद लिफाफा लेकर आया।

हाथ में थमाते हुए बोला "बधाई हो, बहनजी… नियुक्ति पत्र है।" रेखा की आंखों में पानी भर आया। जौनपुर के एक इंटर कॉलेज में उसे शिक्षिका की नौकरी मिल गई थी। उस शाम कंधरिया में जश्न था।

मिठाई बंटी, ढोल बजे और रमेश के घर में पहली बार ट्यूबलाइट जली। मोहल्ले के बच्चे उत्सुक थे, क्योंकि उन्होंने रमेश को हमेशा साइकिल पर देखा था, अब वह एक चमचमाती स्कूटी पर रेखा के साथ नज़र आने वाला था। आज रमेश की छोटी सी परचून की दुकान पक्की ईंटों की दो मंज़िला इमारत में बदल चुकी है।

लाल रंग का गेट है, और बाहर नेमप्लेट पर सुनहरे अक्षरों में लिखा है "श्रीमती रेखा वर्मा – शिक्षिका, इंटर कॉलेज जौनपुर" गर्मियों की छुट्टियों में रेखा अक्सर दुकान पर बैठती है। बच्चे गोद में होते हैं, और वह ग्राहकों को मुस्कराकर सामान देती है। रमेश दूर से देखता है और सोचता है, यही तो उसका असली इनाम है।

कई बार रेखा की सहेलियां कहती हैं "तू अब टीचर है, दुकान पर क्यों बैठती है?" रेखा हमेशा मुस्कराकर जवाब देती "ये दुकान हमारी मेहनत की पहचान है। यहां सिर्फ सामान नहीं, हमारी इज्जत भी बिकती है।

रमेश आज भी सुबह-सुबह दुकान खोलता है, और शाम को स्कूटी पर रेखा को कॉलेज से लेने जाता है। रास्ते में लोग अब भी कहते हैं "देखो, यही हैं वो लोग… जिनके पास पैसे से पहले सपने थे, और जिनका प्यार असली इम्तिहान में पास हुआ।

इस कहानी का सच यही है कि प्यार में सिर्फ एहसास नहीं, बल्कि मेहनत और भरोसा भी होना चाहिए।

क्योंकि जब कोई एक हाथ से रोटी संभाले और दूसरा हाथ आपके सपनों को थामे, तब जिंदगी सच में खूबसूरत बनती है।

रतलाम स्टेशन पर वो बारिश वाली रात औरों से थोड़ी अलग थी। बिजली की हल्की चमक, छत से टपकती पानी की बूँदें और प्लेटफॉर्म पर ...
06/08/2025

रतलाम स्टेशन पर वो बारिश वाली रात औरों से थोड़ी अलग थी। बिजली की हल्की चमक, छत से टपकती पानी की बूँदें और प्लेटफॉर्म पर भागते हुए लोग जैसे सब जल्दी में थे, सिवाय उस वक़्त के जो वहीं कहीं एक कोने में ठहर गया था। रजत, एक 35 साल का अकेला मुसाफिर, प्लेटफॉर्म नंबर 3 पर खड़ा अपनी लेट ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था।

उसके हाथ में पुराना बैग, कंधे पर भीगता हुआ शॉल और आँखों में थकावट का सन्नाटा था। वो दिल्ली से उज्जैन जा रहा था, अपने पुराने घर, माँ से मिलने... बहुत दिन हो गए थे। स्टेशन की चायवाले ने आवाज़ लगाई, साहब, गरम चाय… बारिश में सबसे बढ़िया… रजत ने मुस्कुरा कर हाँ की और एक कप ले लिया।

उसी बेंच पर बैठते ही उसके पास कोई और भी आ बैठा।

साड़ी में लिपटी एक लड़की, उम्र कोई 28-30 की, गीले बालों से टपकती बारिश और हाथ में एक मोटी किताब। "आपकी ट्रेन भी लेट है?" उसने पूछा।

रजत थोड़ा चौंका, फिर सिर हिलाया।

"हां, उज्जैन वाली।

शायद दो घंटे की देरी है।

आपकी?" "भोपाल… पर मेरा मन तो चाहता है कि ट्रेन और लेट हो जाए…" वो हँसी, वो भीगते मौसम में हल्की गर्माहट सी लगी। नाम पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

अजनबियों के बीच कुछ पल वैसे भी नामों से बंधे नहीं होते। उन्होंने चाय बाँटी, यादें बाँटी, और बारिश को खामोशी से नज़रों के बीच बहने दिया। रजत ने जाना कि वो लड़की जिसका नाम उसने नहीं पूछा एक लाइब्रेरियन थी, किताबों में खोई रहने वाली, पर ज़िंदगी से सवाल पूछने की आदत थी उसे।

वो कह रही थी कि इस बार बारिश कुछ अलग सी लग रही है।

शायद इसलिए कि वो अकेली नहीं थी।

वो हँसती थी, बातों के बीच पलकों को थोड़ा झुकाकर देखती थी, और कभी-कभी चुप हो जाती थी जैसे कोई पुराना ज़ख्म फिर टपक रहा हो। रजत ने महसूस किया उसके साथ वक़्त चल नहीं रहा था… ठहर गया था। उसने पहली बार किसी अजनबी से अपनी माँ की बीमारी, अपने अधूरे सपनों और थक चुके मन की बातें की थीं।

लड़की चुप रही, लेकिन उसका हाथ धीरे से कप के किनारे को सहलाता रहा जैसे कुछ कहना चाहती हो, पर कह न सके। ट्रेन की सीटी दूर से सुनाई दी।

रजत की ट्रेन आने वाली थी।

अब वक़्त चल पड़ा… रजत बोला।

वो बस देखती रही।

उसने कुछ नहीं कहा।

रजत उठा, बैग उठाया और जाने से पहले धीमे से बोला शायद दोबारा मिलें… लड़की मुस्कराई शायद… वो गया। ट्रेन में बैठ गया।

खिड़की से बाहर देखा वो अब भी वहीं बैठी थी, उसी किताब के साथ… उसी मुस्कान के साथ। उस रात रजत उज्जैन पहुँचा, माँ को गले लगाया, जीवन फिर शुरू हो गया… पर हर बारिश में, हर स्टेशन की सीटी में… वो एक बेंच, एक मुस्कान और एक कप चाय अब भी साथ चलती थी। कभी-कभी ज़िंदगी में सबसे लंबा साथ कुछ मिनटों का होता है… और सबसे गहरी पहचान बिना नामों के।

कुछ अजनबी, अपनी पहचान छोड़ जाते हैं, और कुछ पहचानें उम्र भर अजनबी बनी रहती हैं…

सुधीर की उम्र जब पैंतालीस पार कर चुकी थी, तब जाकर उसने जीवन में किसी को जीवनसाथी बनाने का निर्णय लिया। बचपन में पिता की ...
03/08/2025

सुधीर की उम्र जब पैंतालीस पार कर चुकी थी, तब जाकर उसने जीवन में किसी को जीवनसाथी बनाने का निर्णय लिया। बचपन में पिता की छाया सिर से उठ चुकी थी और कॉलेज खत्म होते ही नौकरी और मां की देखभाल ही उसकी ज़िम्मेदारी बन गई थी।

वह किसी बड़े ओहदे पर नहीं था। नगर निगम में क्लर्की करता था, बस समय पर पगार मिल जाती और जिंदगी किसी सधे हुए संगीत की तरह चलती रहती। मां कमला देवी को बेटे पर बड़ा मान था। उन्होंने अपनी पूरी उम्र एक ईमानदार शिक्षक की तरह बिताई थी अब शरीर ढल गया था, पर मन अब भी बेटे के लिए चिंताओं से भरा रहता।

जब सुधीर ने अनन्या का नाम लिया, तो कमला देवी चुप रहीं। अनन्या कोई रईस परिवार की बेटी नहीं थी। एक अनाथ लड़की थी, जिसे बनारस के पास एक छोटे कस्बे की वृद्धा आश्रम से सुधीर ने जाना और समझा था। उसके अंदर की सरलता, सेवा भाव और बोलने का तरीका सब कुछ जैसे सुधीर के मन को छू गया था।

शादी हुई। अनन्या घर आई। घर का सूनापन भर गया। अनन्या ने अपनी नई दुनिया को पूरी श्रद्धा से अपनाया।

सुबह मां की दवाइयां, दोपहर में उनके लिए हल्का खाना, शाम को तुलसी की पूजा और रात को पाँव दबाते हुए कहानियाँ सुनना अनन्या ने न केवल पत्नी का, बल्कि बेटी का भी किरदार निभाना शुरू कर दिया।

कमला देवी भी बहू से बहुत प्रसन्न थीं। पहले जहां वो चुपचाप टीवी देखती रहती थीं, अब अक्सर अनन्या के हाथ की चाय और उसकी बातों से मुस्कुराने लगी थीं। पर धीरे-धीरे उन्होंने एक छोटा-सा बदलाव महसूस किया।

पहले दोनों साथ बैठकर खाना खाती थीं। एक ही थाली में पराठे तोड़तीं, अचार बांटतीं और बीच-बीच में कुछ मीठी बातें कर लेतीं। पर अब अनन्या खाना बनाकर मां को दे देती और खुद कहीं कोने में जाकर खा लेती।

कमला देवी ने कई बार पूछा, "बेटी, साथ खा लें?" अनन्या हँसकर टाल देती "अभी कुछ काम बाकी है माँजी।"

फिर एक शाम का वाकया। अनन्या ने चाय के साथ बिस्किट लाकर माँ को दिए और खुद वहीं पास में बैठ गई। लेकिन वो चुपचाप एक लाल रंग के डिब्बे से कुछ खाने लगी।

कमला देवी की नज़र उस डिब्बे पर गई। वो बहुत दिनों से देख रही थीं कि अनन्या इस डिब्बे से कुछ खा रही है, पर उन्हें कभी नहीं देती।

उस रात जब सब सो गए, कमला देवी की आँखों में नींद नहीं थी। उन्होंने धीमे से दरवाज़ा खोला और रसोई तक आ गईं। सभी बर्तन करीने से लगे थे, गैस बंद थी, लेकिन वो लाल डिब्बा वहीं किनारे रखा था।

उन्होंने कांपते हाथों से डिब्बा उठाया ही था कि अचानक वो फिसल गया।

धप!
आवाज़ इतनी तेज़ थी कि सुधीर और अनन्या दौड़कर आए।

"क्या हुआ माँ?"
"कुछ नहीं बेटा… मैं शक्कर ढूंढ रही थी
कमला देवी ने बात टालनी चाही।

अनन्या ने झुककर बिखरे डिब्बे के टुकड़े समेटे और बोली "कल से मिश्री आपके कमरे में ही रख दूंगी माँजी।"

कमला देवी की नज़र खुल गए डिब्बे पर पड़ी उसमें कोई खास चीज़ नहीं थी, बस कुछ टूटे हुए बिस्किट के टुकड़े थे। कुछ कोनों से टूटे, कुछ आधे। कोई भी साबुत नहीं।

सुबह जब सुधीर ऑफिस चला गया, तो कमला देवी ने अनन्या को पास बुलाया। "बेटी, अब मेरे दांत साबुत बिस्किट नहीं तोड़ पाते। वही टूटे टुकड़े दे दिया करो न मुझे।

अनन्या ने थोड़ी देर देखा, फिर धीमे से मुस्कुराई। उसकी मुस्कुराहट में एक टीस थी, एक अहसास।
वो बोली "माँजी… आपने ही तो कहा था बचा-कुचा किसी को नहीं देना चाहिए… इसलिए मैं कैसे आपको टूटा हुआ कुछ दे सकती हूँ?"

कमला देवी जैसे कुछ पल के लिए स्तब्ध रह गईं। उनकी आँखें भर आईं। उन्होंने अनन्या का हाथ थामा और कांपते स्वर में बोलीं "बेटी… तू मेरी सबसे बड़ी दौलत है। तूने मुझे रिश्तों की असली मिठास चखाई है एक ऐसी मिठास, जो शक्कर से नहीं, समझदारी और सम्मान से आती है।

अनन्या ने सिर झुकाया और पहली बार माँ की गोद में सिर रखकर चुपचाप बैठ गई। कमला देवी ने उसके बालों में हाथ फिराया और भीतर से खुद को हल्का महसूस किया जैसे वो टूटी हुई मिठास, जिसे उन्होंने बिस्किट में देखा था, अब उनके अपने रिश्ते में पूरी तरह से घुल चुकी हो।

मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर रतलाम की तंग गलियों में मेरी ज़िंदगी शुरू हुई थी। नाम है मेरा राघव, उम्र 27 साल। देखने में ...
02/08/2025

मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर रतलाम की तंग गलियों में मेरी ज़िंदगी शुरू हुई थी। नाम है मेरा राघव, उम्र 27 साल। देखने में आज मैं शायद आपको एक सफल इंसान लगूं महंगे कपड़े, स्मार्ट घड़ी, जेब में मोटा बटुआ और सोशल मीडिया पर हज़ारों फॉलोअर्स। लेकिन सच ये है कि आज मैं जितना बाहर से चमक रहा हूँ, अंदर से उतना ही बेजान हो चुका हूँ।

पापा की एक छोटी सी साइबर कैफ़े की दुकान थी। वहीं बैठकर मैंने कंप्यूटर सीखना शुरू किया, मशीनें जोड़ना, फॉर्मेट करना, और फिर धीरे-धीरे लोगों के सिस्टम ठीक करने जाना। दिनभर की मेहनत और महीने के दस से पंद्रह हज़ार रुपये। मां कहती थीं, "बेटा, जो मेहनत से कमाएगा, उसे कोई छीन नहीं सकता।" मैं मां की बात मानता था, पर दिल के कोने में एक बेचैनी थी क्या मेरी ज़िंदगी यूँ ही गुज़र जाएगी?

फिर एक दिन एक कॉल आया शहर के सबसे पॉश इलाके शास्त्री नगर से। एक कंप्यूटर में दिक्कत थी। मैं वहां गया तो एक बिल्कुल अलग दुनिया थी चांदी जैसे चमकते फर्श, दीवारों पर महंगी पेंटिंग्स, एयर फ्रेशनर की भीनी-सी महक और नौकरों की फुर्ती। यहीं मेरी मुलाकात हुई अन्वी कपूर से करीब 35 साल की, पर बेहद आकर्षक, आत्मविश्वासी और अमीर।

मैंने उनका सिस्टम ठीक किया, और जाते-जाते उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “ज़रूरत पड़ी तो फिर बुलाऊंगी।”

तीन दिन बाद उनका फिर फोन आया लेकिन इस बार कंप्यूटर के लिए नहीं, मुझसे कॉफी पीने के लिए।

मैं चौंका, पर मना नहीं कर पाया।

उस शाम हम मिले। उन्होंने मेरा नाम, परिवार, ज़िंदगी के सपने सब कुछ पूछा। पहली बार किसी ने मेरी आँखों में झाँककर मुझसे मेरा सच पूछा था। फिर उन्होंने धीरे से पूछा, “क्या तुम कभी सोचते हो कि तुम्हारी ज़िंदगी इससे बेहतर हो सकती है?”

मैंने हँसकर जवाब दिया, “सोचता तो हूँ, पर रास्ते नहीं मिलते।”

उन्होंने फिर एक सीधा प्रस्ताव रखा “अगर तुम मेरे साथ कुछ वक्त बिताओ, सिर्फ साथ... तो तुम्हें तुम्हारी दो महीने की कमाई से ज़्यादा मिलेगा।” मेरे भीतर जैसे कोई सुनामी उठ गई। माँ की सिखाई बातें, पिता की ईमानदारी... और सामने बैठी अन्वी की आंखें, जो कह रही थीं “ये सिर्फ एक लेन-देन है।”

उस रात मैं सो नहीं पाया।

लेकिन अगली सुबह मैंने हाँ कह दी।

उसके बाद की ज़िंदगी किसी बॉलीवुड फिल्म जैसी थी। अन्वी मुझे महंगे कपड़े दिलवाने लगी, कार में घुमाने लगी, रेस्टोरेंट्स, क्लब, और फिर… वो दुनिया, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

कुछ हफ्तों में उन्होंने मुझे अपनी तीन और सहेलियों से मिलवाया सब अमीर, अकेली और चाहती थीं कि कोई उन्हें सुने, कोई उनका साथ दे। और बदले में वे मुझे सब कुछ देने को तैयार थीं।

अब मैं वो नहीं रहा था जो साइबर कैफ़े में बैठा लोगों के पेनड्राइव ठीक किया करता था। मैं एक चमकदार जाल में फँस चुका था जो देखने में स्वर्ग जैसा था, पर असल में भीतर से पूरी तरह खोखला।

समय के साथ सबकी मांगें बढ़ने लगीं। मैं हर समय परफेक्ट दिखूं, मुस्कुराऊं, थका हुआ न लगूं। इसके लिए अन्वी ने एक दिन मुझे एक दवा दी “ये एनर्जी बढ़ा देगी,” उसने कहा। फिर वही दवा आदत बन गई।

अब मेरी सुबह दवाइयों से शुरू होती थी और रातें होटल के कमरों में ख़त्म होती थीं।

और फिर धीरे-धीरे, मैं टूटने लगा।

जिस अन्वी की निगाहों ने कभी मुझे गौर से देखा था, अब वो मुझसे ऊबने लगी थीं। सहेलियाँ अब दूरी बना रही थीं। और मैं... मैं अब भी उनके फोन की घंटी का इंतज़ार करता रहता।

एक दिन जब अस्पताल पहुँचा, तो डॉक्टर ने कहा, “तुम्हारा लिवर और दिल दोनों पर असर पड़ चुका है।” मैं सुनता रहा... बिल्कुल चुपचाप।

अब मैं अकेला हूँ। पास पैसा है, कपड़े हैं, मोबाइल है, पर एक भी वो इंसान नहीं है जिससे मैं दिल की बात कर सकूं। माँ अब इस दुनिया में नहीं रहीं। पापा आँखों में सवाल लिए देखते हैं लेकिन मैं उनके सामने कभी अपनी कहानी नहीं कह पाया।

आज जब कोई मुझसे कहता है “भाई तू तो लकी है, इतनी ऐश की है,” तो मैं बस मुस्कुरा देता हूँ।

क्योंकि वो नहीं जानते कि मैंने अपने सपनों की कीमत अपनी आत्मा से चुकाई है।

अंत की भावनात्मक सीख:
“कुछ रास्ते सीधे नहीं होते, और कुछ चमक ऐसी होती है जो आँखें नहीं, ज़िंदगी जला देती है।”

शाम के पाँच बज रहे थे। गर्मी का मौसम था, लेकिन आज हवा कुछ ज़्यादा ही नम थी। जैसे आसमान भी कुछ कहने को बेचैन हो और धरती उ...
31/07/2025

शाम के पाँच बज रहे थे। गर्मी का मौसम था, लेकिन आज हवा कुछ ज़्यादा ही नम थी। जैसे आसमान भी कुछ कहने को बेचैन हो और धरती उस बात को सुनने के लिए चुपचाप बैठी हो। मोहल्ला पुराना था, उज्जैन के पास का एक छोटा सा इलाका जहाँ हर घर की छतें एक-दूसरे से सटी हुई थीं।

किरण की उम्र कोई पच्चीस होगी। सांवली सी, गहरी आँखों वाली, और कुछ-कुछ चुप रहने वाली लड़की। उसका घर दूसरे माले पर था, और सामने वाली छत पर अक्सर शाम को कोई लड़का आता था सफेद कुर्ते में, किताब हाथ में, और आँखों में जाने क्या सोचते हुए।

लड़के का नाम अमित था। नई नौकरी लगी थी बैंक में, और उसका तबादला इसी शहर में हुआ था। पहले कुछ दिनों तक तो दोनों ने एक-दूसरे की मौजूदगी को बस महसूस किया, जैसे किसी पुराने गाने को सुनकर दिल कुछ कहे बिना मुस्कुरा दे। लेकिन फिर धीरे-धीरे, आँखें मिलने लगीं।

किरण शाम को छत पर अपनी मम्मी के साथ कपड़े सुखाने जाती। अमित तब तक अख़बार या कोई किताब पढ़ रहा होता, पर जैसे ही किरन आती, उसका पढ़ना धीमा हो जाता। एक दिन हवा तेज़ चली और किरन की मम्मी नीचे चली गई। एक सूखा हुआ दुपट्टा उड़कर अमित की छत पर जा गिरा।

अमित ने दुपट्टा उठाया और बिना कुछ कहे उसे किनारे रख दिया। लेकिन उस दिन, किरन की आँखों में कुछ बदल गया था। जैसे उस उड़ते दुपट्टे ने उनके बीच की खामोशी में कोई बात कह दी हो।

रोज़ की आदत बन गई थी अब किरन अपनी शामें वहीं छत पर बिताती, बालों को खोलकर हवा में उड़ने देती, और अमित अपनी किताबें कभी हाथ में, कभी गोदी में रखकर बस उसे देखता रहता। कोई बात नहीं होती, फिर भी सब कुछ कह दिया जाता।

एक दिन बारिश आई। अचानक और तेज़। किरन ने कपड़े समेटे, लेकिन एक बारीक-सी मुस्कान उसके चेहरे पर थी, जैसे वो इस बारिश का इंतज़ार कर रही थी। और उस दिन, पहली बार अमित ने आवाज़ दी “छत से फिसलना मत... बारिश तेज़ है।”

बस इतना ही। पर किरन को लगा जैसे किसी ने उसके भीतर कुछ छू लिया हो। वो बिना कुछ बोले नीचे चली गई, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब-सी हल्की गीली चमक थी।

अगली कई शामें यूँ ही बीतती रहीं। दोनों अब एक-दूसरे की आदत बन चुके थे। कोई नाम नहीं, कोई दावा नहीं, बस शाम का वो वक़्त और उन छतों के बीच का रिश्ता।

पर ज़िंदगी हमेशा छत पर नहीं रुकती। एक दिन किरन की शादी की बात पक्की हो गई। एक रिश्तेदार की नज़र पड़ गई थी उस छत पर खड़ी लड़की पर। बात जल्दी बनी और तारीख़ भी तय हो गई।

अमित को कुछ नहीं बताया गया। लेकिन उसकी आँखें सब समझ गईं थीं। शादी से एक रात पहले, जब मोहल्ले में रोशनी और चहल-पहल थी, किरन चुपचाप छत पर आई। हाथ में एक पुरानी चिट्ठी थी शायद खुद ही कभी लिखी थी, पर भेजी नहीं।

अमित वहाँ पहले से बैठा था, जैसे उसे पता हो कि ये आख़िरी शाम है। दोनों ने एक-दूसरे को देखा, फिर आँखें झुका लीं। किरन ने वो चिट्ठी उसकी तरफ फेंकी, हवा में वो आधी मुड़ी हुई चिट्ठी सीधी अमित की गोदी में गिरी।

अमित ने उसे खोला नहीं। बस देखा... और आँखें मूँद लीं। किरन मुड़कर सीढ़ियों की ओर बढ़ गई। पीछे से हल्की आवाज़ आई “कुछ बातें सिर्फ़ छतों तक ही ठीक लगती हैं... दुनिया में वो बेमानी हो जाती हैं।”

अगले दिन बारात आई, बैंड बजा, लोग हँसे, नाचे। लेकिन मोहल्ले की वो छतें चुप थीं, जैसे किसी साज़ को बिना छेड़े रखा गया हो।

अमित कुछ ही हफ्तों बाद शहर छोड़कर चला गया। पर वो छत अब भी वहीं है। और मोहल्ले की कुछ और लड़कियाँ जब शाम को वहाँ बाल सुखाती हैं, तो बुज़ुर्ग पड़ोसी धीरे से कहते हैं “ये वही छत है जहाँ कभी आँखों से मोहब्बत होती थी।

रतलाम का वो छोटा सा कॉलेज, जहाँ हर दीवार पर कोई न कोई नाम लिखा होता था, किसी प्यार की तहरीर, किसी दोस्ती की कसक। वहीं की...
29/07/2025

रतलाम का वो छोटा सा कॉलेज, जहाँ हर दीवार पर कोई न कोई नाम लिखा होता था, किसी प्यार की तहरीर, किसी दोस्ती की कसक। वहीं की बॉटनी क्लास की आख़िरी बेंच पर अक्सर एक जोड़ी बैठी मिलती थी पायल और अमन। बाकी लड़कियाँ आगे बैठकर नोट्स बनाती थीं, मगर पायल हमेशा पीछे बैठती थी। उसे किताबों से नहीं, लोगों की नज़रों से ज़्यादा मतलब था। और अमन, वो तो यूँ भी हर विषय में बस पास भर होता था, मगर मुस्कराने में टॉप करता था।

उनकी पहली मुलाक़ात भी कुछ अजीब सी थी। पहली क्लास में जब पायल लेट आई थी और टीचर ने डाँटते हुए पीछे बैठने को कहा था, तब वहीं बगल में अमन बैठा था। उसके हाथ में किताब नहीं, एक पुरानी सी डायरी थी जिसमें पीछे के पन्नों पर जाने क्या-क्या उलझे से वाक्य लिखे थे। पायल ने देखा, पढ़ा, और बिना पूछे हँस पड़ी थी। अमन ने देखा और मुस्कुराकर बोला था, "लिखता हूँ, छुपाकर नहीं। पढ़ोगी?" बस उसी दिन से बातों का सिलसिला शुरू हो गया था।

क्लास में कोई कुछ कहे न कहे, मगर सब जानते थे कि इन दोनों के बीच कुछ तो था, जो किताबों के बाहर लिखा जा रहा था। टीचर जब किसी सवाल का जवाब माँगते, पायल चुप रहती और अमन उसकी ओर देखकर जवाब देता। जैसे शब्द उसके थे, मगर सोच पायल की।

कॉलेज की बिल्डिंग बहुत पुरानी थी, दीवारों पर नमी, खिड़कियों से आती ठंडी हवा और गलियारों में गूंजती हँसी। और वहीं, उस आख़िरी बेंच पर कुछ ऐसा बन रहा था, जिसे कोई नाम नहीं मिला था। वो प्यार नहीं था, दोस्ती से थोड़ा ज़्यादा था। कभी-कभी क्लास के बाद दोनों कैंटीन चले जाते, एक कटिंग चाय और एक समोसे में आधा-आधा बाँट लेते।

एक शाम जब बारिश बहुत ज़ोर से हो रही थी, कॉलेज की छुट्टी हो चुकी थी मगर पायल और अमन वहीं छत के नीचे खड़े थे। पायल के बाल भीग रहे थे, और अमन उसे देखकर बस चुप था। वो बोलती रही, "तू कुछ कहता क्यों नहीं कभी? मैं हमेशा बोलती हूँ। तू कुछ नहीं कहता।" अमन ने बस हाथ बढ़ाया, उसके गीले बालों से एक बूँद अपने हाथ पर टपकने दी और कहा, "कभी-कभी चुप रहना ही कहना होता है।"

कॉलेज के वो तीन साल कैसे बीत गए, पता नहीं चला। सब कुछ जैसे किसी पुराने रेडियो पर चलती कहानी हो। नोट्स बनते रहे, इम्तिहान होते रहे, मगर आख़िरी बेंच पर उन दोनों का कोना कभी खाली नहीं रहा।

फिर आख़िरी साल आया। कैंपस सिलेक्शन में पायल को इंदौर की एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई। अमन नहीं गया इंटरव्यू देने। पायल ने पूछा तो बस इतना बोला, "मुझे कहीं नहीं जाना, जहाँ तू न हो। मगर शायद तू अब वहाँ होगी, जहाँ मैं नहीं हो सकता।"

विदाई वाले दिन कॉलेज में हर कोई तस्वीरें खींच रहा था। अमन दूर खड़ा था, पायल दोस्तों के साथ। जब वो उससे मिलने आई, तो उसने अपनी वही पुरानी डायरी उसे दे दी। कहा, "अब ये तेरी है। मेरे हिस्से की भी कहानी तू ही पूरी करना।" पायल ने वो डायरी लिया, मगर कुछ कहा नहीं। उसकी आँखों में हल्की नमी थी, और होंठों पर बहुत धीमी मुस्कराहट।

इंदौर में नौकरी शुरू हो गई। पायल ने खुद को व्यस्त कर लिया, मगर हर बार जब ऑफिस के बाद खिड़की से बाहर देखते हुए चाय पीती, तो कॉलेज की आख़िरी बेंच याद आती। अमन का वो चुप रहना, उसकी मुस्कराहट, और वो डायरी जिसमें अधूरी कविताएँ थीं। पायल ने कई बार फोन उठाया, मगर फिर रख दिया।

एक साल बाद, रक्षाबंधन पर जब वो घर लौटी, तो कॉलेज भी देखने गई। पुरानी क्लास, वही दीवारें, मगर बेंच अब बदले जा चुके थे। आख़िरी बेंच नहीं था। उसकी जगह नई लकड़ी की बेंच लगी थी, चमकदार, मगर बेरूह।

गेट पर बैठा पुराना चपरासी अब भी वहीं था। उसने पायल को देखा और मुस्कराकर कहा, "तुम दोनों को देखे बहुत साल हो गए। वो लड़का अब नहीं आता, मगर कभी-कभी दीवार के पास बैठा रहता है, शायद तुम्हें ढूँढता है।"

पायल ने घर आकर वो डायरी दोबारा खोली। आख़िरी पन्ने पर लिखा था, "शब्द बचे हैं, मगर अब उनके सामने कोई नाम नहीं है।"

पायल चुपचाप छत पर चली गई, चाय का कप हाथ में लिया, और धीरे से बोली, "कुछ कह देना चाहिए था, शायद आख़िरी बेंच तक ही ठीक था।

ज़िंदगी कई बार हमें वहीं छोड़ देती है, जहाँ हम सबसे सच्चे होते हैं।

मुंबई की बरसाती रात थी, तेज़ हवा खिड़कियों से टकरा रही थी, और बारिश की बूँदें शीशे पर कोई धुन सी रच रही थीं। रौशनी बस इत...
28/07/2025

मुंबई की बरसाती रात थी, तेज़ हवा खिड़कियों से टकरा रही थी, और बारिश की बूँदें शीशे पर कोई धुन सी रच रही थीं। रौशनी बस इतनी थी जितनी दीवार की घड़ी से टपकती हल्की नीली चमक। मैं बिस्तर पर लेटी थी, मगर करवटें मुझे कहीं और ले जा रही थीं।

मेरा नाम है संविता। मैं एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती हूँ। तेज़, आत्मनिर्भर, अपने फ़ैसले खुद लेने वाली लड़की। और मेरे पति नीरज कॉलेज के दिनों से मेरा साथ निभा रहे थे। जब प्यार पर विश्वास करना मुश्किल था, नीरज ने मुझे भरोसा करना सिखाया। शादी के बाद हम दोनों ने एक छोटा-सा घर किराए पर लिया था, मुंबई के अंधेरी ईस्ट की एक ऊँची बिल्डिंग में। बालकनी से समंदर दूर-दूर तक दिखता था। वो हमारा सपना था साथ की ज़िंदगी, जहाँ सिर्फ़ हम दोनों हों।

हमने शादी के बाद अपने परिवार से थोड़ा अलग रहना तय किया था। न माँ-बाप की रोक-टोक, न रिश्तेदारों की दखलअंदाज़ी। बस हम और हमारी ज़िंदगी। नीरज के मम्मी-पापा और मेरे मम्मी-पापा दोनों समझदार थे। उन्होंने हमारी आज़ादी का सम्मान किया।

शुरुआत में सब कुछ बिल्कुल फिल्म जैसा था। वीकेंड ट्रिप्स, मूवी नाइट्स, ऑफिस की मीटिंग्स, पार्टियाँ, और उन सबके बीच हमारी देर रात की बातें। हम हँसते, झगड़ते, फिर उसी बालकनी में बैठकर चाय के साथ सुलह कर लेते।

लेकिन कुछ महीनों बाद एक सुबह मैंने खुद को बदलते हुए महसूस किया। थकान अब चाय से नहीं जाती थी, और भावनाएँ यूँ ही बह निकलती थीं। डॉक्टर ने जब रिपोर्ट देखी, तो मुस्कुराकर कहा, "बधाई हो, आप माँ बनने वाली हैं।"

मैंने नीरज की आँखों में वो चमक देखी थी, जो शायद मैंने उससे शादी के दिन भी नहीं देखी थी। हम दोनों ने उस दिन बहुत सारी योजनाएँ बनाईं बच्चे का नाम, उसका कमरा, स्कूल, यहाँ तक कि किसके जैसा दिखेगा ये तक तय कर लिया।

पर वक़्त जैसे-जैसे बढ़ा, मेरी बेचैनी भी बढ़ने लगी। शरीर बदल रहा था, नींद गायब हो चुकी थी, दिमाग़ में सवाल ही सवाल थे। नीरज साथ था, लेकिन फिर भी मैं अकेली महसूस करने लगी थी। एक रात जब अंदर से सब कुछ भारी लगने लगा, मैंने फोन उठाया।

वो नंबर डायल किया जिसे मैं कई महीनों से टालती आ रही थी माँ का नंबर।

फोन उठते ही आवाज़ आई, "संविता... सब ठीक है?

मैं चुप रही। फिर मेरी आवाज़ कांपने लगी, "माँ, मुझे डर लग रहा है... क्या मैं एक अच्छी माँ बन पाऊँगी?

फोन के उस पार कुछ देर खामोशी रही। फिर माँ की हँसी सुनाई दी। "पगली, ये डर ही तो बताता है कि तू माँ बनने के लिए तैयार है। जब तू मेरे पेट में थी, तो मैं भी यही सोचती थी। रात-रात भर जागती, दादी की डाँट खाती, और तेरे एक-एक किक को महसूस करके रो देती थी।

मैं चुपचाप माँ की बातें सुनती रही। माँ ने फिर बताया, "तू जब पहली बार बीमार हुई थी, तो तेरे पापा तुझे लेकर रात को चार किलोमीटर पैदल चले थे। जब तू पहली बार स्कूल गई, तो मैं घंटों स्कूल के बाहर बैठी रही।

माँ की आवाज़ में सुकून था, अनुभव था, और सबसे ज़्यादा अपनापन। उस रात मैंने पहली बार महसूस किया कि इस पूरी यात्रा में मैं अकेली नहीं हूँ। मेरे पीछे एक पूरा इतिहास है, एक विरासत है, जो मुझे थामे हुए है।

अगले रविवार मैं और नीरज माँ-पापा से मिलने गए। माँ ने दरवाज़ा खोला और मुझे गले से लगा लिया। मैं फूट पड़ी। माँ की गोद में सर रखकर कहा, "माँ, मुझे माफ़ कर दो। मैं बहुत दूर चली गई थी।

माँ ने मेरी पीठ थपथपाई, "बेटा, माँ-बाप कभी दूर नहीं होते। तू बस थोड़ा भटक गई थी, अब लौट आई तो सब ठीक है।"

उसके बाद सब बदल गया। मैंने माँ से पुराने नुस्खे सीखे, पापा से बच्चा संभालने की बातें जानीं, सासु माँ से पालने का हुनर सीखा। और नीरज... वो तो पहले से ही मेरी हिम्मत था।

जब मेरी बेटी, अद्विता, इस दुनिया में आई, मैं अकेली नहीं थी। पूरा परिवार मेरे साथ था। माँ ने अद्विता को गोद में लिया और कहा, "ये बस एक बच्ची नहीं, एक पूरी पीढ़ी का प्यार है।

आज जब मैं अपनी बेटी को अपने सीने से लगाती हूँ, तो मेरी माँ की गोद की गर्मी महसूस होती है। अब मैं जानती हूँ माँ होना कोई अकेली यात्रा नहीं है, ये एक धरोहर है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बहती है।

माँ बनने का सफर अकेले तय नहीं होता, उसमें पीढ़ियों का साथ होता है… और वही साथ माँ को मजबूत बनाता है।

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छत पर देर तक बैठना अब उसकी आदत बन गई थी। हर शाम, जब दिन की थकान दीवारों से उतरने लगती और आसमान अपने रंग बदलने लगता, तब व...
28/07/2025

छत पर देर तक बैठना अब उसकी आदत बन गई थी। हर शाम, जब दिन की थकान दीवारों से उतरने लगती और आसमान अपने रंग बदलने लगता, तब वो चुपचाप मुंडेर पर बैठ जाया करती। न किसी से कुछ कहना, न किसी से कुछ सुनना। बस आसमान को देखना, बादलों को पढ़ना और हवा के बहाव में किसी अनकहे नाम की खुशबू तलाशना।

वो कोई बहुत खास छत नहीं थी। पुराना मकान था, टीन की छत के एक कोने पर सीमेंट की बनी छोटी सी मुंडेर, जो अब जगह-जगह से उखड़ने लगी थी। लेकिन उसी पर बैठकर उसने अपने सारे सपने बुने थे। वहीं पहली बार उसने किसी की चिट्ठी पढ़ी थी, वहीं पहली बार बारिश में बिना छतरी भीगने का सुख जाना था, और वहीं पहली बार किसी के नज़दीक होने के बावजूद बहुत दूर हो जाने का अहसास हुआ था।

उसका नाम थी सीमा। बीस की उम्र के उस पड़ाव पर थी जहाँ सपने पाँव पकड़ने लगते हैं और रिश्ते धीरे-धीरे अपनी असल शक्ल दिखाने लगते हैं। छोटे शहर की लड़की, जो कॉलेज से लौटकर सीधे छत पर चली जाती थी। नीचे घर में माँ-बाबूजी की खामोश बातें, रसोई में खड़खड़ाते बर्तन, और दीवारों से टकराती चुप्पियाँ होतीं, पर छत पर एक अलग ही दुनिया थी।

उस दुनिया में अक्सर आता था रवि। पड़ोस के घर का लड़का, जो हर दोपहर पानी की टंकी के बहाने छत पर आता, और शाम को कपड़े समेटते वक्त नजरें इधर-उधर भटकाता। कोई शब्द नहीं, कोई हिम्मत नहीं, पर दोनों की निगाहें अक्सर एक ही पल पर टिक जाया करतीं। सीमा को रवि का यूँ दिख जाना अच्छा लगता, जैसे हर शाम की उदासी को उसका चेहरा थोड़ा कम कर देता हो।

रवि ने कभी कुछ नहीं कहा। सीमा ने भी कभी कुछ नहीं पूछा। लेकिन उन दोनों की चुप्पियों के बीच जैसे एक संवाद चलता था। कभी रवि कोई किताब छत पर भूल जाता, और सीमा उसे अगले दिन वहीं रखी मिलती। कभी कोई रेडियो की धीमी आवाज़ हवा में तैरती, और सीमा अपने आंचल को ठीक करते हुए उसकी ओर देखती रहती। उन लम्हों में जैसे वक़्त भी थम जाता था।

एक दिन, सावन की शुरुआत हुई थी। बादल बहुत घने थे, और हवा में नमी कुछ ज़्यादा ही थी। सीमा उसी मुंडेर पर बैठी थी, बाल खुले, हाथ में माँ की दी हुई चाय की प्याली, और सामने गिरती बूँदें। रवि छत पर आया, पर इस बार उसकी चाल में घबराहट थी। उसके हाथ में एक कागज था, शायद कोई नोटिस या चिट्ठी। सीमा ने देखा, पर कुछ नहीं कहा। रवि ने मुंडेर के एक कोने में वो कागज रखा और नीचे चला गया। सीमा ने चुपचाप उठकर वो कागज उठाया।

उसमें सिर्फ चार शब्द थे। "शहर जा रहा हूँ कल।" सीमा बहुत देर तक वही खड़ी रही, कागज को थामे, हवा को सुनती रही। फिर धीरे से वापस मुंडेर पर बैठ गई, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

अगले दिन रवि नहीं आया। छत सूनी थी, कपड़े वैसे ही लटक रहे थे, रेडियो बंद था, और टंकी का ढक्कन खुला रह गया था। सीमा मुंडेर पर बैठी रही, उसी साड़ी में जो उसकी पसंदीदा थी, और हाथ में वही चाय की प्याली। आसमान साफ था, पर उसकी आँखों में कुछ-कुछ धुँधलाता सा था।

समय बीतता गया। कॉलेज खत्म हुआ, रिश्तेदारों ने रिश्तों की बात शुरू की, माँ ने कई बार समझाया, बाबूजी ने चुप रहकर भी बहुत कुछ कहा। लेकिन सीमा की छत अब भी वही थी। वह अब भी हर शाम वहीं बैठती थी, चुपचाप, मुंडेर पर टिककर, जैसे किसी पुराने इंतज़ार की आदत हो गई हो।

एक बार उसके मामा की लड़की आई थी, बोली, "अरे दीदी, क्या मिलता है तुम्हें इस छत पर बैठने में। इतनी देर तक, अकेले।" सीमा मुस्कुरा दी थी। बोली कुछ नहीं, बस दूर के बादलों को देखने लगी थी। उसकी चुप्पी में जो जवाब था, वह कोई किताबों में नहीं लिखता।

कुछ सालों बाद, रवि की शादी की खबर आई। शहर में सेटल हो गया था, नौकरी, घर, सब ठीक। तस्वीर में उसकी पत्नी के साथ उसकी मुस्कान थी, लेकिन सीमा ने वो तस्वीर बहुत देर तक नहीं देखी। उसे बस इतना याद रहा कि रवि अब इस छत की तरफ नहीं लौटेगा।

फिर भी वह छत उसकी थी। उसकी मुंडेर, उसकी शामें, उसकी साड़ियों की सिलवटें, और उसके इंतज़ार की पुरानी चाय की प्याली। कभी-कभी कोई पुराना गाना हवा में बहता हुआ आता, और सीमा की पलकों पर अटक जाता।

अब उसे बैठते हुए कई साल हो चुके थे। उम्र उसकी चुप्पी में बस गई थी। माँ अब नहीं थी, बाबूजी बहुत कम बोलते थे, और रिश्तेदार अब भी वही सवाल करते थे। लेकिन सीमा की मुस्कान अब जवाब बन चुकी थी।

उस दिन भी वह चुपचाप बैठी रही थी, छत की मुंडेर पर, जब दूर किसी छत से कोई रेडियो पर वही गाना बजा था, जो रवि की छत पर अक्सर सुना करती थी। उसका दिल एक पल को ठहर गया था, जैसे किसी पुरानी शाम की परछाई लौट आई हो। फिर उसने चाय की प्याली उठाई, एक घूँट लिया, और बादलों को देखने लगी।

जो कुछ कहा नहीं गया, वह अब कहने की ज़रूरत भी नहीं थी। उसकी हर चुप्पी अब एक कहानी बन चुकी थी, और छत की हर ईंट में उसका नाम लिखा था।

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