05/28/2025
प्रिय दर्शकों एवं पाठकों,
दरअसल वही मीडिया और पत्रकारिता लोकतांत्रिक होती है जो लोक या जनता की आवाज़ नीचे से ऊपर तक पहुँचाती है। ऐसी स्वतंत्र पत्रकारिता का सत्ता से ‘जिसका दाना-उसका गाना’ वाला संबंध नहीं होता है। ऐसा जर्नलिज्म सत्ता से सवाल भी पूछता है और जन-जन की समस्या और अपेक्षा के लिए, जनता की गुहार-पुकार का मंच भी बनता है और जन आकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर सरकार का आलोचक भी। अंततः ऐसी बेबाक पत्रकारिता को ही दर्शक सराहता है, जिसमें साधन-संसाधन की भले कमी होती है लेकिन सत्य और विश्वसनीयता की नहीं।
कुछ मेन स्ट्रीम मीडिया चैनल में चाटुकारिता, पत्रकारिता का पर्यायवाची बन गयी है। ऐसे पथभ्रष्ट मीडिया चैनल पर उनके दर्शक तक विश्वास नहीं करते हैं। सत्ता से नालबद्ध संबंध रखनेवाले, ऊपर से आये और सत्ता द्वारा बनाये गये समाचारों को नीचे पहुंचाने वाले ऐसे चापलूस लोग दरअसल मीडिएटर हैं, मीडिया नहीं। जिसमें संगीत, नाटकीयता, ग्राफ़िक्स, सेट डिज़ाइन आदि की दिखावटी भूमिका ज़्यादा ज़रूरी होती है क्योंकि तत्व और तथ्य के स्तर पर इनमें इन बाहरी सजावटी तत्वों और सनसनी के अतिरिक्त और कुछ भी ठोस आंतरिक तत्व नहीं होता है। टीआरपी की प्रतिस्पर्धा को इसीलिए व्यंग्यात्मक अर्थ में ‘तत्व रहित पत्रकारिता’ के रूप में भी उल्लेखित किया जाता है।
जो सरकार से न करे सवाल, समझ लो वो नहीं है पत्रकार। उसके वाचन और लेखन में न करो विश्वास और न ही अपना समय बर्बाद।
आपका अखिलेश