शौर्य गाथा

शौर्य गाथा जाति और धर्म से ऊपर उठ कर राष्ट्र की आन,

हर साल, वह उस भूमि पर जाते हैं, जहाँ से उनका बेटा कभी वापस नहीं लौटा…  IGI Airport पर, एक विनम्र व्यक्ति Departure Gate ...
05/28/2025

हर साल, वह उस भूमि पर जाते हैं, जहाँ से उनका बेटा कभी वापस नहीं लौटा…

IGI Airport पर, एक विनम्र व्यक्ति Departure Gate पर चुपचाप लाइन में खड़ा इंतजार कर रहा है।
वह श्रीनगर जा रहा है।

छुट्टी मनाने के लिए नहीं।
किसी business Trip के लिए भी नहीं।

बल्कि एक भावनात्मक तीर्थयात्रा के लिए।

कर्नल वीरेंद्र थापर कारगिल के पास द्रास जा रहे हैं........ एक ऐसी यात्रा जो वह हर साल करते हैं। यह उनके 22 वर्षीय बेटे लेफ्टिनेंट विजयंत थापर का अंतिम विश्राम स्थल है, जिन्होंने 1999 के #कारगिल युद्ध के दौरान अपनी जान दे दी थी।

अपने अंतिम मिशन से पहले, लेफ्टिनेंट विजयंत ने अपने माता-पिता को एक दिल दहला देने वाला पत्र लिखा था............ जिसमें उन्होंने अपने पिता से एक दिन उस स्थान पर जाने के लिए कहा, जहाँ वह और उनके साथी सैनिक डटे रहे... और शहीद हो गए।

कर्नल थापर ने उस वादे को पूरा किया है - हर साल, बिना चूके।
कोई कैमरा नहीं। कोई सुर्खियाँ नहीं।

बस एक पिता अपने बेटे से किया वादा निभा रहा है… और अपने देश से भी।

यह सिर्फ़ युद्ध की कहानी नहीं है।
यह प्रेम, कर्तव्य और एक सैनिक और उसके परिवार के बीच के अटूट बंधन की कहानी है।
हम उनके बलिदान को कभी न भूलें।

#जयहिंद 🇮🇳

साभार
मूल पोस्ट जो अंग्रेजी में है, उस का हिंदी अनुवाद

05/28/2025
   #वीरसावरकरक्रान्तिकारियों के सिरमौर     वीर सावरकर  जन्म जयंती - 28 मईविनायक दामोदर सावरकर का जन्म ग्राम भगूर (जिला न...
05/28/2025

#वीरसावरकर
क्रान्तिकारियों के सिरमौर वीर सावरकर
जन्म जयंती - 28 मई

विनायक दामोदर सावरकर का जन्म ग्राम भगूर (जिला नासिक, महाराष्ट्र) में 28 मई, 1883 को हुआ था। छात्र जीवन में इन पर लोकमान्य तिलक के समाचार पत्र ‘केसरी’ का बहुत प्रभाव पड़ा। इन्होंने भी अपने जीवन का लक्ष्य देश की स्वतन्त्रता को बना लिया। 1905 में उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन चलाया। जब तीनों चाफेकर बन्धुओं को फाँसी हुई, तो इन्होंने एक मार्मिक कविता लिखी। फिर रात में उसे पढ़कर ये स्वयं ही हिचकियाँ लेकर रोने लगे। इस पर इनके पिताजी ने उठकर इन्हें चुप कराया।

सावरकर जी सशस्त्र क्रान्ति के पक्षधर थे। उनकी इच्छा विदेश जाकर वहाँ से शस्त्र भारत भेजने की थी। अतः वे श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्ति लेकर ब्रिटेन चले गये। लन्दन का ‘इंडिया हाउस’ उनकी गतिविधियों का केन्द्र था। वहाँ रहने वाले अनेक छात्रों को उन्होंने क्रान्ति के लिए प्रेरित किया। कर्जन वायली को मारने वाले मदनलाल धींगरा उनमें से एक थे।

उनकी गतिविधियाँ देखकर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें 13 मार्च, 1910 को पकड़ लिया। उन पर भारत में भी अनेक मुकदमे चल रहे थे, अतः उन्हें मोरिया नामक जलयान से भारत लाया जाने लगा। 10 जुलाई, 1910 को जब वह फ्रान्स के मोर्सेल्स बन्दरगाह पर खड़ा था, तो वे शौच के बहाने शौचालय में गये और वहां से समुद्र में कूदकर तैरते हुए तट पर पहुँच गये।

तट पर उन्होंने स्वयं को फ्रान्सीसी पुलिसकर्मी के हवाले कर दिया। उनका पीछा कर रहे अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें फ्रान्सीसी पुलिस से ले लिया। यह अन्तरराष्ट्रीय विधि के विपरीत था। इसलिए यह मुकदमा हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय तक पहुँचा; जहाँ उन्हें अंग्रेज शासन के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने तथा शस्त्र भारत भेजने के अपराध में आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी।

सावरकर जी ने ब्रिटिश अभिलेखागारों का गहन अध्ययन कर ‘1857 का स्वाधीनता संग्राम’ नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। फिर इसे गुप्त रूप से छपने के लिए भारत भेजा गया। ब्रिटिश शासन इस ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन की सूचना से ही थर्रा गया। विश्व इतिहास में यह एकमात्र ग्रन्थ था, जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबन्धित कर दिया गया।

प्रकाशक ने इसे गुप्त रूप से पेरिस भेजा। वहाँ भी ब्रिटिश गुप्तचर विभाग ने इसे छपने नहीं दिया। अन्ततः 1909 में हालैण्ड से यह प्रकाशित हुआ। यह आज भी 1857 के स्वाधीनता समर का सर्वाधिक विश्वसनीय ग्रन्थ है।

1911 में उन्हें एक और आजन्म कारावास की सजा सुनाकर कालेपानी भेज दिया गया। इस प्रकार उन्हें दो जन्मों का कारावास मिला। वहाँ इनके बड़े भाई गणेश सावरकर भी बन्द थे। जेल में इन पर घोर अत्याचार किये गये। कोल्हू में जुतकर तेल निकालना, नारियल कूटना, कोड़ों की मार, भूखे-प्यासे रखना, कई दिन तक लगातार खड़े रखना, हथकड़ी और बेड़ी में जकड़ना जैसी यातनाएँ इन्हें हर दिन ही झेलनी पड़ती थीं।

1921 में उन्हें अन्दमान से रत्नागिरी भेजा गया। 1937 में वे वहाँ से भी मुक्त कर दिये गये; पर सुभाषचन्द्र बोस के साथ मिलकर वे क्रान्ति की योजना में लगे रहे। 1947 में स्वतन्त्रता के बाद उन्हें गांधी हत्या के झूठे मुकदमे में फँसाया गया; पर वे निर्दोष सिद्ध हुए। वे राजनीति के हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं के सैनिकीकरण के प्रबल पक्षधर थे। स्वास्थ्य बहुत बिगड़ जाने पर वीर सावरकर ने प्रायोपवेशन द्वारा 26 फरवरी, 1966 को देह त्याग दी। #वीरसावरकर
क्रान्तिकारियों के सिरमौर वीर सावरकर
जन्म जयंती - 28 मई

विनायक दामोदर सावरकर का जन्म ग्राम भगूर (जिला नासिक, महाराष्ट्र) में 28 मई, 1883 को हुआ था। छात्र जीवन में इन पर लोकमान्य तिलक के समाचार पत्र ‘केसरी’ का बहुत प्रभाव पड़ा। इन्होंने भी अपने जीवन का लक्ष्य देश की स्वतन्त्रता को बना लिया। 1905 में उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन चलाया। जब तीनों चाफेकर बन्धुओं को फाँसी हुई, तो इन्होंने एक मार्मिक कविता लिखी। फिर रात में उसे पढ़कर ये स्वयं ही हिचकियाँ लेकर रोने लगे। इस पर इनके पिताजी ने उठकर इन्हें चुप कराया।

सावरकर जी सशस्त्र क्रान्ति के पक्षधर थे। उनकी इच्छा विदेश जाकर वहाँ से शस्त्र भारत भेजने की थी। अतः वे श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्ति लेकर ब्रिटेन चले गये। लन्दन का ‘इंडिया हाउस’ उनकी गतिविधियों का केन्द्र था। वहाँ रहने वाले अनेक छात्रों को उन्होंने क्रान्ति के लिए प्रेरित किया। कर्जन वायली को मारने वाले मदनलाल धींगरा उनमें से एक थे।

उनकी गतिविधियाँ देखकर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें 13 मार्च, 1910 को पकड़ लिया। उन पर भारत में भी अनेक मुकदमे चल रहे थे, अतः उन्हें मोरिया नामक जलयान से भारत लाया जाने लगा। 10 जुलाई, 1910 को जब वह फ्रान्स के मोर्सेल्स बन्दरगाह पर खड़ा था, तो वे शौच के बहाने शौचालय में गये और वहां से समुद्र में कूदकर तैरते हुए तट पर पहुँच गये।

तट पर उन्होंने स्वयं को फ्रान्सीसी पुलिसकर्मी के हवाले कर दिया। उनका पीछा कर रहे अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें फ्रान्सीसी पुलिस से ले लिया। यह अन्तरराष्ट्रीय विधि के विपरीत था। इसलिए यह मुकदमा हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय तक पहुँचा; जहाँ उन्हें अंग्रेज शासन के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने तथा शस्त्र भारत भेजने के अपराध में आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी।

सावरकर जी ने ब्रिटिश अभिलेखागारों का गहन अध्ययन कर ‘1857 का स्वाधीनता संग्राम’ नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। फिर इसे गुप्त रूप से छपने के लिए भारत भेजा गया। ब्रिटिश शासन इस ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन की सूचना से ही थर्रा गया। विश्व इतिहास में यह एकमात्र ग्रन्थ था, जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबन्धित कर दिया गया।

प्रकाशक ने इसे गुप्त रूप से पेरिस भेजा। वहाँ भी ब्रिटिश गुप्तचर विभाग ने इसे छपने नहीं दिया। अन्ततः 1909 में हालैण्ड से यह प्रकाशित हुआ। यह आज भी 1857 के स्वाधीनता समर का सर्वाधिक विश्वसनीय ग्रन्थ है।

1911 में उन्हें एक और आजन्म कारावास की सजा सुनाकर कालेपानी भेज दिया गया। इस प्रकार उन्हें दो जन्मों का कारावास मिला। वहाँ इनके बड़े भाई गणेश सावरकर भी बन्द थे। जेल में इन पर घोर अत्याचार किये गये। कोल्हू में जुतकर तेल निकालना, नारियल कूटना, कोड़ों की मार, भूखे-प्यासे रखना, कई दिन तक लगातार खड़े रखना, हथकड़ी और बेड़ी में जकड़ना जैसी यातनाएँ इन्हें हर दिन ही झेलनी पड़ती थीं।

1921 में उन्हें अन्दमान से रत्नागिरी भेजा गया। 1937 में वे वहाँ से भी मुक्त कर दिये गये; पर सुभाषचन्द्र बोस के साथ मिलकर वे क्रान्ति की योजना में लगे रहे। 1947 में स्वतन्त्रता के बाद उन्हें गांधी हत्या के झूठे मुकदमे में फँसाया गया; पर वे निर्दोष सिद्ध हुए। वे राजनीति के हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं के सैनिकीकरण के प्रबल पक्षधर थे। स्वास्थ्य बहुत बिगड़ जाने पर वीर सावरकर ने प्रायोपवेशन द्वारा 26 फरवरी, 1966 को देह त्याग दी।

प्रताप सिंह बारहठ का बलिदानबलिदान-दिवस  27 मई,1918एक पुलिस अधिकारी और कुछ सिपाही उत्तर प्रदेश की बरेली जेल में हथकडि़यों...
05/27/2025

प्रताप सिंह बारहठ का बलिदान
बलिदान-दिवस 27 मई,1918

एक पुलिस अधिकारी और कुछ सिपाही उत्तर प्रदेश की बरेली जेल में हथकडि़यों और बेडि़यों से जकड़े एक तेजस्वी युवक को समझा रहे थे, ‘‘कुँअर साहब, हमने आपको बहुत समय दे दिया है। अच्छा है कि अब आप अपने क्रान्तिकारी साथियों के नाम हमें बता दें। इससे सरकार आपको न केवल छोड़ देगी, अपितु पुरस्कार भी देगी। इससे आपका शेष जीवन सुख से बीतेगा।’’

उस युवक का नाम था प्रताप सिंह बारहठ। वे राजस्थान की शाहपुरा रियासत के प्रख्यात क्रान्तिकारी केसरी सिंह बारहठ के पुत्र थे। प्रताप के चाचा जोरावर सिंह भी क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे।वे रासबिहारी बोस की योजना से राजस्थान में क्रान्तिकार्य कर रहे थे। इस प्रकार उनका पूरा परिवार ही देश की स्वाधीनता के लिए समर्पित था।

पुलिस अधिकारी की बात सुनकर प्रताप सिंह हँसे और बोले, ‘‘मौत भी मेरी जुबान नहीं खुलवा सकती। हम सरकारी फैक्ट्री में ढले हुए सामान्य मशीन के पुर्जे नहीं हैं। यदि आप मुझसे यह आशा कर रहे हैं कि मैं मौत से बचने के लिए अपने साथियों के गले में फन्दा डलवा दूँगा, तो आपकी यह आशा व्यर्थ है। सरकार के गुलाम होने के कारण आप सरकार का हित ही चाहंेगे; पर हम क्रान्तिकारी तो उसकी जड़ उखाड़कर ही दम लेंगे।’’

पुलिस अधिकारी ने फिर समझाया, ‘‘हम आपकी वीरता के प्रशंसक हैं; पर यदि आप अपने साथियों के नाम बता देंगे, तो हम आपके आजन्म कालेपानी की सजा पाये पिता को भी मुक्त करा देंगे और आपके चाचा के विरुद्ध चल रहे सब मुकदमे भी उठा लेंगे। सोचिये, इससे आपकी माता और परिवारजनों को कितना सुख मिलेगा ?’’

प्रताप ने सीना चैड़ाकर उच्च स्वर में कहा, ‘‘वीर की मुक्ति समरभूमि में होती है। यदि आप सचमुच मुझे मुक्त करना चाहते हैं, तो मेरे हाथ में एक तलवार दीजिये। फिर चाहे जितने लोग आ जायें। आप देखेंगे कि मेरी तलवार कैसे काई की तरह अंग्रेजी नौकरशाहों को फाड़ती है। जहाँ तक मेरी माँ की बात है, अभी तो वह अकेले ही दुःख भोग रही हैं; पर यदि मैं अपने साथियों के नाम बता दूँगा, तो उन सबकी माताएँ भी ऐसा ही दुख पायेंगी।’’

प्रताप सिंह लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर फंेके गये बमकांड में पकड़े गये थे। इस कांड में उनके साथ कुछ अन्य क्रान्तिकारी भी थे। पहले उन्हें आजीवन कालेपानी की सजा दी गयी; पर फिर उसे मृत्युदंड में बदल दिया गया। फाँसी के लिए उन्हें बरेली जेल में लाया गया था। वहाँ दबाव डालकर उनसे अन्य साथियों के बारे में जानने का प्रयास पुलिस अधिकारी कर रहे थे।

जब जेल अधिकारियों ने देखा कि प्रताप सिंह किसी भी तरह मुँह खोलने को तैयार नहीं हैं, तो उन पर दमनचक्र चलने लगा। उन्हें बर्फ की सिल्ली पर लिटाया गया। मिर्चों की धूनी उनकी नाक और आँखों में दी गयी। बेहोश होने तक कोड़ों के निर्मम प्रहार किये गये। होश में आते ही फिर यह सिलसिला शुरू हो जाता।लगातार कई दिन पर उन्हें भूखा-प्यासा रखा गया। उनकी खाल को जगह-जगह से जलाया गया। फिर उसमें नमक भरा गया; पर आन के धनी प्रताप सिंह ने मुँह नहीं खोला।

लेकिन 25 वर्षीय उस युवक का शरीर यह अमानवीय यातनाएँ कब तक सहता ? 27 मई, 1918 को उनके प्राण इस देहरूपी पिंजरे को छोड़कर अनन्त में विलीन हो गये।

भारत के स्क्वाडर्न लीडर कंवलजीत मेहरा एक तालाब में पाइप के सहारे 5 दिन तक तालाब में छुपे रहे और पाकिस्तानी सेना उन्हें ख...
05/25/2025

भारत के स्क्वाडर्न लीडर कंवलजीत मेहरा एक तालाब में पाइप के सहारे 5 दिन तक तालाब में छुपे रहे और पाकिस्तानी सेना उन्हें खोज नहीं सकी

चार दिसंबर, 1971 की सुबह दमदम हवाई ठिकाने से उड़े 14 स्क्वॉर्डन के दो हंटर विमानों ने ढाका के तेज़गाँव एयरपोर्ट पर हमला किया.

एक हंटर विमान पर सवार थे- स्क्वॉर्डन लीडर कंवलदीप मेहरा और दूसरे हंटर को उड़ा रहे थे- उनके नंबर दो फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट संतोष मोने.

जब वो तेज़गाँव एयरपोर्ट के ऊपर से उड़े तो उन्हें पाकिस्तानी लड़ाकू विमान दिखाई नहीं दिए, क्योंकि पाकिस्तानियों ने उन्हें चारों तरफ़ छितरा रखा था. कुछ दूसरे ठिकानों पर बम गिराने के बाद जब मेहरा और मोने लौटने लगे तो एक दूसरे से अलग हो गए.

सबसे पहले मोने की नज़र कुछ दूरी पर पाकिस्तान के दो सेबर जेट विमानों पर पड़ी. कुछ ही सेकेंड के अंदर दो सेबर जेट विमान दोनों भारतीय हंटर विमानों के पीछे पड़ गए. अचानक मेहरा ने महसूस किया कि एक सेबर जेट विमान उनके पीछे आ रहा है.

मेहरा ने बाईं ओर मुड़कर मोने से उनकी पोज़ीशन के बारे में पूछा. मोने से उनको कोई जवाब नहीं मिला. सेबर ने मेहरा के हंटर पर लगातार कई फ़ायर किए. मेहरा ने मोने से कहा कि वो सेबर पर पीछे से फ़ायर करें ताकि उससे उनका पीछा छूटे. लेकिन मेहरा को इसका अंदाज़ा नहीं था कि मोने के हंटर के पीछे भी एक और सेबर लगा हुआ था.

उस समय मोने के हंटर की गति थी 360 नॉट्स यानी 414 किलोमीटर प्रतिघंटा. मोने अपने विमान को बहुत नीचे ले आए और दमदम की ओर पूरी ताक़त से उड़ने लगे. पाकिस्तानी पायलट उन पर लगातार फ़ायर करता रहा, लेकिन उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाया.

हालांकि कंवलदीप मेहरा उतने भाग्यशाली नहीं थे. उनके हंटर पर फ़्लाइंग ऑफिसर शम्सुल हक़ की गोलियाँ लगातार लग रही थीं. वो 100 फ़ीट की ऊँचाई पर उड़ रहे थे और उनके जहाज़ में आग लग चुकी थी.

तभी पीछे आ रहा सेबर मेहरा के हंटर को ओवरशॉट करता हुआ आगे निकल गया. मेहरा उस पर निशाना चाहते थे, लेकिन लगा नहीं पाए, क्योंकि उनके कॉकपिट में धुआं भर चुका था और उन्हें साँस लेने में दिक्क़त हो रही थी. धीरे-धीरे आग उनके कॉकपिट तक पहुँचने लगी.

'मेहरा ने बिना कोई देर किए अपने पैरों के बीच के इजेक्शन बटन को दबाया. लेकिन एक माइक्रोसेकेंड में खुलने वाला पैराशूट खुला ही नहीं. विमान के ऊपर लगने वाली केनॉपी ज़रूर अलग हो गई. नतीजा ये हुआ कि इतने वेग से हवा का तेज़ झोंका आया कि मेहरा के ग्लव्स और घड़ी टूटकर हवा में उड़ गए. यहीं नहीं, उनका दाहिना इतनी तेज़ी से पीछे मुड़ा कि उनका कंधा उखड़ गया.''

बुरी तरह से घायल किसी तरह मेहरा ने अपने बाएं हाथ से पैराशूट का लीवर फिर दबाया. इस बार पैराशूट खुल गया और मेहरा हवा में उड़ते चले गए. मेहरा के नीचे गिरते ही बंगाली ग्रामीणों ने उन्हें लाठी और डंडों से पीटना शुरू कर दिया. शुक्र ये रहा कि दो लोगों ने भीड़ को रोककर मेहरा से उनकी पहचान पूछी. मेहरा की सिगरेट और पहचान पत्र से पता चला कि वो भारतीय हैं. मेहरा भाग्यशाली थे कि वो मुक्ति बाहिनी के लड़ाकों के बीच गिरे थे.''

गाँव वालों ने मेहरा को उठाया. उनके कपड़े बदलकर उन्हें लुंगी पहनने को दी. एक मुक्ति वाहिनी योद्धा ने उनकी पिस्टल उनसे ले ली. उसका संभवत: कहीं बाद में इस्तेमाल किया गया. मेहरा इतना घायल हो चुके थे कि वो अपने पैरों पर चल नहीं सकते थे. उनको स्ट्रेचर पर लिटाकर पास के एक गाँव ले जाया गया. लेकिन रास्ते में ही मेहरा फिर बेहोश हो गए.

गाँव पहुंचकर गाँव वालों ने मेहरा को नाश्ता दिया. ये उनका दिन का पहला खाना था, क्योंकि मेहरा सुबह-सुबह ही अपने विमान से हमला करने के लिए निकल चुके थे. जब कुछ दिनों तक भारतीय वायुसेना को मेहरा की ख़बर नहीं मिली, तो उन्हें 'मिसिंग इन एक्शन' घोषित कर दिया गया.

बाद में पाकिस्तानी फ़्लाइंग ऑफ़िसर शम्सुल हक़ को पाकिस्तान की मीडिया और पाकिस्तान की सेना द्वारा यह कह कर सम्मानित किया गया कि इन्होने एक भारत के बहुत बड़े हवाई सेना अधिकारी यानी स्क्वाड्रन लीडर को उसके विमान सहित मार गिराया

दरअसल हुआ यह था मेहरा का इमरजेंसी इजैक्ट काफी देर बाद हुआ था इसलिए पाकिस्तानी पायलट को यह लगा कि मेहरा मारे गए

इस घटना के नौ दिन बाद अगरतला क्षेत्र के सीमांत इलाके के एक हैलिपैड पर एक भारतीय हैलिकॉप्टर ने लैंड किया. उस हैलिकॉप्टर में भारतीय सेना के एक जनरल बैठे हुए थे. जनरल के हैलिकॉप्टर से उतरने के बाद स्थानीय एयरमैन उस हैलिकॉप्टर की सर्विस कर रहे थे, जबकि उसके पायलट आपस में बात कर रहे थे.

वहां किसी का ध्यान उस ओर नहीं गया कि वहाँ एक कमीज़ और लुंगी पहने एक दुबला-पतला व्यक्ति प्रकट हुआ है. उनका दाहिना हाथ एक स्लिंग में बँधा हुआ था. उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और उनके पूरे चेहरे पर चोट के निशान थे. उनकी बाँह नीली पड़ चुकी थी और उसमें गैंगरीन की शुरुआत हो चुकी थी. एक नज़र में वो शख़्स उन शरणार्थियों जैसा दिखाई देता था, जो उन दिनों पूरे अगरतला में फैले हुए थे.

एयरफ़ोर्स के पायलटों को उस समय बहुत अचंभा हुआ, जब उस शख़्स ने ज़ोर से पुकारा 'मामा'. उनमें से एक का निकनेम वाकई 'मामा' था. लेकिन भारत के कई इलाकों में लोग इस शब्द का संबोधन के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने सोचा कि शायद कोई उसी अंदाज़ में उन्हें पुकार रहा है. वैसे भी वो नहीं चाहते थे कि युद्ध के दौरान कोई भिखारी उन्हें तंग करे. इसलिए उनसे पिंड छुड़ाने के लिए उसने बहुत रुखेपन से पूछा, 'क्या है?'

पीवीएस जगनमोहन और समीर चोपड़ा लिखते हैं, ''उस शख़्स ने पायलट का हाथ पकड़कर कहा, 'अरे कुछ तो पहचानो.' पायलट ने अशिष्टतापूर्वक अपना हाथ खींच कर कहा 'मुझे मत छुओ.' तब उस अजनबी ने पूछा 'क्या तुम्हारा केडी नाम का कोई दोस्त है?' पायलट ने जवाब दिया 'हाँ स्क्वार्डन लीडर केडी मेहरा. लेकिन वो तो मर गये.' उस शख़्स ने जवाब दिया, 'नहीं वो मैं हूँ.' तब जाकर पायलट को अहसास हुआ कि उनके सामने भिखारी जैसा दीखने वाला शख़्स और कोई नहीं स्क्वार्डन लीडर केडी मेहरा ही हैं, जिनके विमान को आठ दिन पहले ढाका के पास मार गिराया गया था. केडी मेहरा 'मिसिंग इन एक्शन' थे और उन्हें मरा हुआ मान लिया गया था. मुक्ति वाहिनी की मदद से मेहरा करीब 100 मील का रास्ता चलते हुए उस जगह पहुंचे थे.''

4 दिसंबर को मेहरा का विमान गिरने के बाद मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने उनकी देखभाल की थी. उन्होंने उन्हें खाना दिया था. उनकी चोट पर पट्टी बाँधी और उनकी पूरी तीमारदारी की थी. मुक्ति बाहिनी के एक युवा सैनिक शुएब ने मेहरा को लुंगी और कमीज़ पहनाकर भारतीय ठिकाने तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया था. इससे पहले उन्होंने उनके फ़्लाइंग सूट और भारतीय वायुसेना के पहचानपत्र को जलाकर नष्ट कर दिया था.

मेहरा को ढ़ूंढ़ने निकले पाकिस्तानी सैनिकों ने उस पूरे गाँव को जला दिया, लेकिन किसी भी व्यक्ति ने मेहरा की मुखबिरी नहीं की. पाकिस्तानी सैनिकों के अत्याचार को सहते हुए गाँव वालों ने मेहरा को अपने पास पाँच दिनों तक सुरक्षित रखा.''

केडी मेहरा को उस हैलिपैड से पहले अगरतला ले जाया गया और फिर वहाँ से शिलॉन्ग पहुंचाया गया, जहाँ उन्हें सैनिक अस्पताल में भर्ती कर उनका इलाज किया गया. शुरुआती इलाज के बाद उन्हें एक डकोटा विमान में बैठा कर दिल्ली लाया गया. कई महीनों तक मेहरा का इलाज चलता रहा. एक समय तो उनका हाथ काटने तक की नौबत आ गई. बाद में उनका हाथ तो बच गया लेकिन दूसरी स्वास्थ्य दिक्कतों के चलते उनके उड़ान भरने पर रोक लगा दी गई.

युद्ध समाप्त होने के पाँच साल बाद उन्होंने वायुसेना से समय से पहले ही अवकाश ग्रहण कर लिया. 4 सिंतबर, 2012 को स्क्वार्डन लीडर कंवलदीप मेहरा ने 73 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

  भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रतिष्ठित नेता बिपिन चंद्र पालपूण्य तिथि - 20 मईभारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रतिष्ठित ...
05/20/2025


भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रतिष्ठित नेता बिपिन चंद्र पाल
पूण्य तिथि - 20 मई

भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रतिष्ठित नेता और बंगाल पुनर्जागरण के मुख्य वास्तुकार बिपिन चंद्र पाल का जन्म 7 नवंबर, 1858 को आज के बांग्लादेश में हुआ था. संपन्न हिंदू वैष्णव परिवार से संबंधित बिपिन चंद्र पाल एक राष्ट्रभक्त होने के साथ-साथ एक उत्कृष्ट वक्ता, लेखक और आलोचक भी थे. पाल उन महान विभूतियों में शामिल हैं जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई. वे मशहूर लाल-बाल-पाल (लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक एवं विपिनचन्द्र पाल) तिकड़ी का हिस्सा थे. इस तिकड़ी ने अपने तीखे प्रहार से अंग्रेजी हुकुमत की चूलें हिला दी थी. उन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों का जनक भी माना जाता है.

उन्होंने 1905 के बंगाल विभाजन के विरोध में अंग्रेजी शासन के खिलाफ आंदोलन बड़ा योगदान दिया जिसे बड़े पैमाने पर जनता का समर्थन मिला। लाल-बाल-पाल की इस तिकड़ी ने महसूस किया कि विदेशी उत्पादों से देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है और लोगों का काम भी छिन रहा है। अपने ‘गरम’ विचारों के लिए मशहूर पाल ने स्वदेशी आन्दोलन को बढ़ावा दिया और ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज तथा औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल आदि हथिआरों से ब्रिटिश हुकुमत की नीद उड़ा दी।

महात्मा गांधी के राजनीति में आने से पहले वर्ष 1905 में लाल बाल पाल (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल) पहला ऐसा क्रांतिकारी गुट था जिसने बंगाल विभाजन के समय अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था. वर्ष 1907 में जब बाल गंगाधर तिलक अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किए गए उस समय बिपिन चंद्र पाल भी इंग्लैंड चले गए और वहां जाकर इंडिया हाउस के साथ जुड़ गए तथा स्वराज नामक पत्रिका की स्थापना की.

उन्होंने कई मौक़ों पर महात्मा गांधी जैसे नेताओं की आलोचना भी की और उनके विचारों का विरोध भी किया। सन 1921 में गांधीजी की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा था, ‘’आप के विचार तार्किक नहीं बल्कि जादू पर आधारित हैं”।

बिपिन चंद्र पाल कई प्रतिष्ठित और चर्चित बंगाली नेताओं के संपर्क में आए. ब्रह्म समाज में रहते हुए बिपिन चंद्र पाल केशव चंद्र और सिबनाथ शास्त्री के बेहद करीबी बन गए थे. वंदे मातरम् राजद्रोह मामले में उन्होंने अरबिन्दो घोष के ख़िलाफ़ गवाही देने से इंकार कर दिया जिसके कारण उन्हें 6 महीने की सजा हुई।

05/16/2025

#मुरारबाजी #देशपांडे

अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपांडे
बलिदान दिवस- 16 मई

मुरारबाजी देशपाण्डे का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिला स्थित महाड तालुका के किंजलोली गांव में हुआ था। प्रारंभ में मुरारबाजी जावली के चन्द्रराव मौर्य के साथ थे। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा जावली को मराठा साम्राज्य में शामिल करने के लिए जावली पर आक्रमण के समय चन्द्रराव मौर्य के साथ मुरारबाजी ने जो पराक्रम दिखाया उससे प्रभावित होकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज्य रक्षा के लिए अपने साथ काम करने का प्रस्ताव रखा जिसे मुरारबाजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, जिससे शिवाजी महाराज के हाथ और अधिक मजबूत हो गए।

छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनके सबसे अधिक विश्वसनीय और पराक्रमी सैनिक मुरारबाजी देशपाण्डे को पुरंदर के किले की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा था। पश्चिमी घाट में समुद्र से लगभग 4472 फीट की ऊंचाई पर स्थित पुरंदर का यह किला मराठा साम्राज्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण किला रहा । इसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने 1946 में जीता । तब से ही उन्होंने मराठा साम्राज्य को सम्पूर्ण देश में फ़ैलाने का सपना देखा था। पुरंदर का किला दो पर्वतों की चोटियों पर बना हुआ था, पहली चोटी पर वज्रगढ़ का किला और दूसरी छोटी पर पुरंदर का किला। यह किला दो भागों मांची और बाले में बंटा हुआ था, किले में प्रवेश द्वार के ऊपर जाते ही मांची और किले के ऊपर पहाड़ चढ़कर जाने पर बाले वाले भाग का प्रवेश द्वार आता है, जहाँ जाने का यही एकमात्र रास्ता है। पुरंदर किले के सामने वज्रगढ़ है, दुश्मन को पुरंदर पर आक्रमण करने के पहले वज्रगढ़ का सामना करना होता था।

मई, 1665 में हुए युद्ध ने मुरारबाजी देशपाण्डे को इतिहास में अमर कर दिया था। मुग़ल सम्राट औरंगजेब द्वारा भेजा गया मिर्जा राजे जयसिंह मराठा साम्राज्य पर आक्रमण करने आया तब दिलेरखान को मुख्य सेनापति बनाकर तीस हजार सैनिको की विशाल फ़ौज के साथ युद्ध के लिए भेजा। इस फ़ौज के साथ तोपखाना भी था।छत्रपति शिवाजी महाराज उस समय दक्षिण के विजय अभियान पर निकल गए थे। दिलेरखान ने पुरंदर किले को चारो ओर से घेर तो लिया किन्तु उस किले के अंदर प्रवेश कैसे करें, यह नहीं समझ पाया। पुरंदर के किले की मजबूती को देखकर दिलेरखान को बड़ा आश्चर्य हुआ और जब पता किया तो जानकारी मिली कि पुरंदर के किले को जीतने के लिए वज्रगढ़ को जीतना होगा। वज्रगढ़ के किले की सुरक्षा में लगे सैनिकों को मावल कहा जाता था वहाँ तीन सौ मावल मौजूद थे। पुरंदर के किले की सुरक्षा में तैनात मुरारबाजी देशपाण्डे ने मराठा साम्राज्य के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ी थी और छत्रपति शिवाजी महाराज का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया था किन्तु इतिहास में पुरंदर युद्ध का अलग ही महत्त्व है।

मुग़ल सेना ने किले को सामने की तरफ से घेरा तो राजा जयसिंह के बेटे कीरतसिंह ने किले की पिछली ओर से घेराबंदी की। मुरारबाजी देशपाण्डे दो पाटों की बीच फंस गए थे उनको पता था कि यदि मुग़ल सैनिकों द्वारा किले के एक भी माची या बुरुज को ढ़हा दिया तो किले की रक्षा कर पाना कठिन हो जायेगा, उनके पास सात सौ सैनिकों की टुकड़ी थी जो पुरंदर किले की सुरक्षा में तैनात थी। मुग़ल सैनिक वज्रगढ़ पर जाकर तोपों की सहायता से पुरंदर किले पर हमला करना चाहते थे और वे इस प्रयास में लग गए। मराठा सैनिको ने सामना कर उन्हें खदेड़ा भी किन्तु वे अपनी तोपें मोर्चे की ओर लगातार बढ़ाते रहे। तब सभी मराठा सैनिक इकट्ठे हुए और वज्रगढ़ जाकर तोपों को निष्क्रिय करके कई मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार पुरंदर किले में लौट आये।

मुगलों ने पुरंदर के किले को जीतने की लगभग तैयारी कर ही ली थी और किसी भी तरह से बाले किला हासिल करना चाहते थे। मुग़ल सेना की संख्या अधिक होने से भारी पड़ रही थी और मराठा सैनिक इसलिए भी कुछ असहज थे कि उनका राशन पानी और गोला बारूद धीरे धीरे समाप्ति की कगार पर था। दिलेरखान ने पांच हजार मुग़ल सैनिकों की टुकड़ी को अंतिम और निर्णायक हमला करने का आदेश दिया। इधर मुरारबाजी ने भी अंतिम और निर्णायक युद्ध की तैयारी पूरी कर ली। पांच हजार सैनिकों का सामना करना मराठा सैनिकों के लिए आसान नहीं था किन्तु मराठा सेना अपने सिर पर कफ़न बांध कर युद्ध के लिए पहुँच चुकी थी। मुरारबाजी ने एक लक्ष्य बना रखा था कि किसी भी प्रकार दिलेरखान को मौत के घाट उतारा जाय।

मुरारबाजी ने आत्मआहुति का मार्ग अपनाते हुए किले का मुख्य द्वार खोल दिया और बचे हुए सात सौ सैनिक हाथों में तलवार लिए मुग़ल सेना पर टूट पड़े। पुरंदर किले पर लड़े गए इस युद्ध में दोनों ओर से वार प्रतिवार हो रहे थे, भयानक मारकाट मची हुई थी। मुरारबाजी भीषण युद्ध करते हुए मुग़ल सेना के बीच तक पहुँच चुके थे उनकी आँखे दिलेरखान को खोज रही थी, जोकि सेना के पिछले भाग में हाथी पर हौदे में बैठा हुआ था। मुरारबाजी ने एक मुग़ल घुड़सवार का वध कर उसका घोडा छीनकर उस घोड़े पर सवार होकर दिलेरखान की ओर बढ़ गए। मुरारबाजी युद्ध करते हुए दिलेरखान की ओर बढ़ रहे थे तब उनके शौर्य और पराक्रम को देखकर दिलेरखान को बड़ा आश्चर्य हुआ। इसी बीच दिलेरखान ने एक तीर छोड़ा जो सीधा मुरारबाजी देशपाण्डे की छाती में लगा इसके बाद भी मुरारबाजी ने आगे बढ़कर दिलेरखान की और अपना भाला फेंका तब दिलेरखान का चलाया हुआ दूसरा तीर मुरारबाजी की गर्दन के पार हो गया और एक महान देशभक्त, वीर और शौर्यशाली मुरारबाजी देशपाण्डे वीरगति को प्राप्त हो गए। मुरारबाजी देशपाण्डे की मृत्यु के बाद भी लगभग दो महीने तक यह युद्ध चलता रहा किन्तु मुग़ल नहीं जीत सके। इस प्रकार से अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे ने जीवित रहते मुगल सेना को किले में घुसने नहीं दिया। ऐसे वीरों के बल पर ही तो छत्रपति शिवाजी महाराज क्रूर विदेशी मुग़ल शासन की जड़ें हिलाकर हिन्दू पद पादशाही की स्थापना कर सके। अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे को शत शत नमन।

 ीद वीर केसरी चन्द बलिदान दिवस - 3 मईवीर केसरी चन्द एक ऐसा नाम है, जिन्होंने देश के लिए अपनी जान की आहुति दी। उनकी शौर्य...
05/03/2025

ीद वीर केसरी चन्द
बलिदान दिवस - 3 मई

वीर केसरी चन्द एक ऐसा नाम है, जिन्होंने देश के लिए अपनी जान की आहुति दी। उनकी शौर्यगाथा देशवासियों के बीच गौरवपूर्ण है। उन्हें अमर शहीद का दर्जा दिया गया है ।

अमर हुतात्मा वीर केसरीचन्द का जन्म 1 नवम्बर सन 1920 को देवभूमि उत्तराखण्ड के ग्राम क्यावा, जौनसार बावर में पण्डित शिवदत्त के घर पर हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा विकासनगर में हुई। केसरीचन्द बचपन से ही निर्भीक और साहसी थे, खेलकूद में भी इनकी विशेष रुचि थी, इस कारण वह टोली नायक रहा करते थे। सन 1938 में डी.ए.वी. कालेज, देहरादून से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर इसी कालेज में उन्होंने इण्टरमीडियेट की भी पढ़ाई जारी रखी थी। देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन की सुगबुगाहट के चलते केसरीचन्द पढ़ाई के साथ-साथ सभाओं और कार्यक्रमों में भी भाग लेते रहते थे। इण्टर की परीक्षा पूर्ण किये बिना ही केसरीचन्द 10 अप्रैल सन 1941 को रायल इन्डिया आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गये थे।

उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध जोरों पर चल रहा था, केसरीचन्द को 29 अक्टूबर सन 1941 को मलाया युद्ध के मोर्चे पर तैनात किया गया। मोर्चे पर जापानी फौज द्वारा उन्हें बन्दी बना लिया गया था। इन्हीं दिनों नेताजी सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर आजाद हिंद फौज का गठन हुआ था। केसरीचन्द ऐसे वीर सिपाही थे, जिनके हृदय में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने नारे “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” के नारे से प्रभावित होकर और जेल से रिहा होने के पश्चात वह “आजाद हिन्द फौज” में शामिल हो गये थे। देश को आजाद कराने का सपना लिए केसरीचंद भी आजादी के दीवानों की टोली में शामिल हो गए थे। इनके भीतर अदम्य साहस, अद्भुत पराक्रम, जोखिम उठाने की क्षमता, दृढ संकल्प शक्ति का ज्वार देखकर इन्हें आजाद हिन्द फौज में जोखिम भरे कार्य सौंपे गये, जिनका इन्होंने कुशलता से सम्पादन किया था।

सन 1944 में आजाद हिंद फौज वर्मा–भारत सीमा से होते हुए मणिपुर की राजधानी इम्फाल पहुंची, जहां 28 जून सन 1944 में युद्ध के दौरान केसरीचंद को एक पुल उड़ाने के प्रयास में ब्रिटिश फौज ने इन्हें पकड़ लिया और बन्दी बनाकर दिल्ली की जिला जेल भेज दिया। वहां पर ब्रिटिश राज्य और सम्राट के विरुद्ध षडयंत्र के अपराध में इन पर मुकदमा चलाया गया और मृत्यु दण्ड की सजा दी गई। उन्हें जब फांसी की सजा सुनाई गई तो उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष 6 माह थी। इतनी छोटी उम्र में भी उनके अंदर इतना स्वाभिमान और देश के प्रति चेतना थी कि वह ब्रिटिश सरकार के सामने झुके नहीं थे। अमर बलिदानी केसरीचंद 3 मई सन 1945 को हंसते-हंसते ’भारतमाता की जय’ और ’जयहिन्द’ का उदघोष करते हुये फांसी के फन्दे पर झूल गया था।

वीर केसरीचन्द ने अप्रतिम बलिदान देकर भारतवर्ष का मान तो बढ़ाया ही अपितु उत्तराखण्ड और जौनसार बावर का सीना भी गर्व से चौड़ा कर दिया था। उनके बलिदान को विगत और वर्तमान शासन–सत्ता ने चाहे जितना भुला दिया हो, लेकिन उत्तराखण्ड के लोगों ने उन्हें और उनके बलिदान को कभी नहीं भुलाया। वीर केसरीचंद की पुण्य–स्मृति में आज भी चकराता के पास चौलीथात, रामताल गार्डन में प्रतिवर्ष मेला लगता है, जिसमें हजारों-लाखों लोग इस महान वीर सपूत को नमन करने आते हैं। बेहद लोकप्रिय जौनसारी लोकगीत ’हारुल’ में इनके बलिदान आज भी सम्मान दिया जाता है।

   1857 के महासमर के वयोवृद्ध योद्धा   "वीर कुंवर सिंह"  पूण्य तिथि - 26 अप्रैलभारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो ...
04/26/2025


1857 के महासमर के वयोवृद्ध योद्धा "वीर कुंवर सिंह"
पूण्य तिथि - 26 अप्रैल

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया.

बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे.

बाबू कुंवर सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे. सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे. वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी. कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने.

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया. मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया. उन्होंने 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा कर लिया. इस तरह कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ.

कुंवर सिंह ने दूसरा मोर्चा बीबीगंज में खोला जहां दो अगस्त, 1857 को अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई. बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए. अंग्रजों ने जगदीशपुर पर भयंकर गोलाबारी की. घायलों को भी फांसी पर लटका दिया. महल और दुर्ग खंडहर कर दिए. कुंवर सिंह पराजित भले हुए हों लेकिन अंग्रेजों का खत्म करने का उनका जज्बा ज्यों का त्यों था. सितंबर 1857 में वे रीवा की ओर निकल गए वहां उनकी मुलाकत नाना साहब से हुई और वे एक और जंग करने के लिए बांदा से कालपी पहुंचे लेकिन लेकिन सर कॉलिन के हाथों तात्या की हार के बाद कुंवर सिंह कालपी नहीं गए और लखनऊ आए.

इस बीच बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे. लेकिन कुंवर सिंह की यह विजयी गाथा ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुन: कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया. इस बीच कुंवर सिंह बिहार की ओर लौटने लगे. जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक अंग्रेजों की गोली आकर लगी. उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी. इस तरह से अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर पहुंचे. वह बुरी तरह से घायल थे. 1857 की क्रान्ति के इस महान नायक का आखिरकार अदम्य वीरता का प्रदर्शन करते हुए 26 अप्रैल, 1858 को निधन हो गया.

  1857 में क्रांति के नायक      तात्या टोपे  बलिदान दिवस - 18 अप्रैलछत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं ने उनकी विरास...
04/18/2025


1857 में क्रांति के नायक तात्या टोपे
बलिदान दिवस - 18 अप्रैल

छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं ने उनकी विरासत को बड़ी सावधानी से सँभाला। अंग्रेजों ने उनका प्रभुत्व समाप्त कर पेशवा बाजीराव द्वितीय को आठ लाख वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में नजरबन्द कर दिया। इनके दरबारी धर्माध्यक्ष रघुनाथ पाण्डुरंग भी इनके साथ बिठूर आ गये। इन्हीं रघुनाथ जी के आठ पुत्रों में से एक का नाम तात्या टोपे था।

1857 में जब स्वाधीनता की ज्वाला धधकी, तो नाना साहब के साथ तात्या भी इस यज्ञ में कूद पड़े। बिठूर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर में तात्या ने देशभक्त सैनिकों की अनेक टुकडि़यों को संगठित किया। कानपुर में अंग्रेज अधिकारी विडनहम तैनात था। तात्या ने अचानक हमला कर कानपुर पर कब्जा कर लिया। यह देखकर अंग्रेजों ने नागपुर, महू तथा लखनऊ की छावनियों से सेना बुला ली। अतः तात्या को कानपुर और कालपी से पीछे हटना पड़ा।

इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में संघर्ष का बिगुल बजा दिया। तात्या ने उनके साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। तात्या दो वर्ष तक सतत अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। चम्बल से नर्मदा के इस पार तक तथा अलवर से झालावाड़ तक तात्या की तलवार अंग्रेजों से लोहा लेती रही। इस युद्ध में तात्या के विश्वस्त साथी एक-एक कर बलिदान होते गये।

अकेले होने के बाद भी वीर तात्या टोपे ने धैर्य और साहस नहीं खोया। तात्या टोपे केवल सैनिक ही नहीं, एक कुशल योजनाकार भी थे। उन्होंने झालरा पाटन की सारी सेना को अपने पक्ष में कर वहाँ से 15 लाख रुपया तथा 35 तोपें अपने अधिकार में ले लीं।

इससे घबराकर अंग्रेजों ने छह सेनापतियों को एक साथ भेजा; पर तात्या उनकी घेरेबन्दी तोड़कर नागपुर पहुँच गये। अब उनके पास सेना बहुत कम रह गयी थी। नागपुर से वापसी में खरगौन में अंग्रेजों से फिर भिड़न्त हुई। सात अपै्रल, 1859 को किसी के बताने पर पाटन के जंगलों में उन्हें शासन ने दबोच लिया। ग्वालियर (म.प्र.) के पास शिवपुरी के न्यायालय में एक नाटक रचा गया, जिसका परिणाम पहले से ही निश्चित था।

सरकारी पक्ष ने जब उन्हें गद्दार कहा, तो तात्या टोपे ने उच्च स्वर में कहा, ‘‘मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा, तो मैं गद्दार कैसे हुआ ? मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ। जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया। मुझे अंग्रेजों के न्याय में विश्वास नहीं है। या तो मुझे छोड़ दें या फिर युद्ध बन्दी की तरह तोप से उड़ा दें।’’

अन्ततः 18 अप्रैल 1859 को उन्हें एक पेड़ पर फाँसी दे दी गयी। कई इतिहासकारों का मत है कि तात्या कभी पकड़े ही नहीं गये। जिसे फाँसी दी गयी, वह नारायणराव भागवत थे, जो तात्या को बचाने हेतु स्वयं फांसी चढ़ गये। तात्या संन्यासी वेष में कई बार अपने पूर्वजों के स्थान येवला आये।

इतिहासकार श्रीनिवास बालासाहब हर्डीकर की पुस्तक ‘तात्या टोपे’ के अनुसार तात्या 1861 में काशी के खर्डेकर परिवार में अपनी चचेरी बहिन दुर्गाबाई के विवाह में आये थे तथा 1862 में अपने पिता के काशी में हुए अंतिम संस्कार में भी उपस्थित थे। तात्या के एक वंशज पराग टोपे की पुस्तक ‘तात्या टोपेज आॅपरेशन रेड लोटस’ के अनुसार कोटा और शिवपुरी के बीच चिप्पा बरोड के युद्ध में एक जनवरी, 1859 को तात्या ने वीरगति प्राप्त की।

अनेक ब्रिटिश अधिकारियों के पत्रों में यह लिखा है कि कथित फांसी के बाद भी वे रामसिंह, जीलसिंह, रावसिंह जैसे नामों से घूमते मिले हैं। स्पष्ट है कि इस बारे में अभी बहुत शोध की आवश्यकता है।

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