Saharsa news

Saharsa news news

17/11/2024

सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार जन्मदिन मनाने की प्रामाणिक और शास्त्रीय विधि क्या हैं चलिए जानते हैं-:

( यह सभी निर्देश तिथि के अनुसार है परंतु आज के समय में दिनांक से जन्मदिन मनाने का प्रचलन है तो यह नियम दोनों ही दिन निभाए जा सकते हैं)

जन्मदिन मनाने के विषय में निर्णय सिंधु नामक ग्रंथ में पेज नंबर 531 में निम्नलिखित निर्देश प्राप्त होते है -:
1) व्यक्ति को अपने जन्मदिन के दिन नए वस्त्र धारण करने चाहिए
( नवाम्बरधरो भूत्वा )
2) अपने जन्मदिन के दिन व्यक्ति को आठ चिरंजीवियों की पूजा करनी चाहिए
( पूजयेच्च चिरायुषम्)

3) अपने जन्मदिन के दिन दही और चावल का षष्ठी देवी को भोग अवश्य लगाना चाहिए।

4) अपने जन्मदिन के दिन माता-पिता और गुरुजनों का पूजन करके प्रतिवर्ष महोत्सव (Celebration)करना चाहिए

5)हाथ में मोली बांधना चाहिए।

6) अपने जन्मदिन के दिन एक अंजलि में दूध लेकर उसमें थोड़ा सा गुड और थोड़ी सी तिल्ली डालकर उस दूध को पीना चाहिए और दूध पीते समय यह बोलना चाहिए-:
हे भगवान आप मुझ पर प्रसन्न होइए और मुझे आरोग्यता और आयु प्रदान कीजिए हे अष्ट चिरंजीवीयो आप मुझ पर कृपा किजीएऔर मुझे आयुष्य का वर दीजिए यही कामना रखकर मैं इस दूध का पान कर रहा हूं।
आप सभी मेरे पर कृपा करें।
7) अपने जन्मदिन के दिन ठंडे जल से ही स्नान करना चाहिए गर्म जल को प्रयत्नतः त्याग देना चाहिए।

🌹

सभी पापों से छुड़ाने वाले गंगा जी के द्वादश (बारह ) नाम कौन कौन से हैं ?  उत्तर :---स्नान के समय निम्नलिखित श्लोक का जहा...
17/11/2024

सभी पापों से छुड़ाने वाले गंगा जी के द्वादश (बारह ) नाम कौन कौन से हैं ?

उत्तर :---
स्नान के समय निम्नलिखित श्लोक का जहाँ भी स्मरण किया जाय गंगा जी वहाँ के जल में प्रवेश कर जाती हैं। इसमें गंगा जी के द्वादश (बारह) नाम हैं जो सभी पापों को हरने वाले हैं। इसे गंगा जी ने स्वयं अपने मुख से कहा है :---

नन्दिनी नलिनी सीता मालती च महापगा ।
विष्णुपादाब्जसम्भूता गङ्गा त्रिपथगामिनी ।।
भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी ।
द्वादशैतानि नामानि यत्र तत्र जलाशये ।
स्नानोद्यतः स्मरेन्नित्यं तत्र तत्र वसाम्यहम् ।।

नन्दिनी, नलिनी, सीता, मालती, महापगा, विष्णुपादा, गङ्गा, त्रिपथगामिनी, भागीरथी, भोगवती, जाह्नवी और त्रिदशेश्वरी ।
वैसे तो गंगा जी के 108 नाम हैं पर ये द्वादश नाम मुख्य नाम हैं।

🌹

"सनातन विद्या से 𝗖𝘆𝗯𝗲𝗿 𝘀𝗲𝗰𝘂𝗿𝗶𝘁𝘆"जी हाँ, शास्त्रों में एक ऐसी भी विद्या है जिससे आप अपने pin को सुरक्षित और गोपनीय रख सकत...
06/11/2023

"सनातन विद्या से 𝗖𝘆𝗯𝗲𝗿 𝘀𝗲𝗰𝘂𝗿𝗶𝘁𝘆"
जी हाँ, शास्त्रों में एक ऐसी भी विद्या है जिससे आप अपने pin को सुरक्षित और गोपनीय रख सकते हैं।
उस विद्या का नाम है "कटपयादी सन्ख्या विद्या"
◆ कटपयादि संख्या
हम में से बहुत से लोग अपना Password, या ATM PIN भूल जाते हैं इस कारण हम उसे कहीं पर लिख कर रखते हैं पर अगर वो कागज का टुकड़ा किसी के हाथ लग जाए या खो जाए तो परेशानी हो जाती, पर अपने Password या Pin No. को हम लोग “कटपयादि संख्या” से आसानी से याद रख सकते है।
“कटपयादि”( क ट प य आदि) संख्याओं को शब्द या श्लोक के रूप में आसानी से याद रखने की प्राचीन भारतीय पद्धति है
चूँकि भारत में वैज्ञानिक/तकनीकी/खगोलीय ग्रंथ पद्य रूप में लिखे जाते थे, इसलिये संख्याओं को शब्दों के रूप में अभिव्यक्त करने हेतु भारतीय चिन्तकों ने इसका समाधान 'कटपयादि' के रूप में निकाला।
कटपयादि प्रणाली के उपयोग का सबसे पुराना उपलब्ध प्रमाण, 869 AD में “शंकरनारायण” द्वारा लिखित “लघुभास्कर्य” विवरण में मिलता है
तथा “शंकरवर्मन” द्वारा रचित “सद्रत्नमाला” का निम्नलिखित श्लोक इस पद्धति को स्पष्ट करता है
◆ इसका शास्त्रीय प्रमाण -
नज्ञावचश्च शून्यानि संख्या: कटपयादय:।
मिश्रे तूपान्त्यहल् संख्या न च चिन्त्यो हलस्वर: ॥
[अर्थ: न, ञ तथा अ शून्य को निरूपित करते हैं। (स्वरों का मान शून्य है) शेष नौ अंक क, ट, प और य से आरम्भ होने वाले व्यंजन वर्णों द्वारा निरूपित होते हैं। किसी संयुक्त व्यंजन में केवल बाद वाला व्यंजन ही लिया जायेगा। बिना स्वर का व्यंजन छोड़ दिया जायेगा।]
अब चर्चा करते हैं कि आधुनिक काल में इसकी उपयोगिता क्या है और कैसे की जाए ?
कटपयादि – अक्षरों के द्वारा संख्या को बताकर संक्षेपीकरण करने का एक शास्त्रोक्त विधि है, हर संख्या का प्रतिनिधित्व कुछ अक्षर करते हैं जैसे
1 – क,ट,प,य
2 – ख,ठ,फ,र
3 – ग,ड,ब,ल
4 – घ,ढ,भ,व
5 – ङ,ण,म,श
6 – च,त,ष
7 – छ,थ,स
8 – ज,द,ह
9 – झ,ध
0-ञ,न,अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,लृ,ए,ऐ, ओ,औ
हमारे आचार्यों ने संस्कृत के अर्थवत् वाक्यों में इन का प्रयोग किया, जैसे गौः = 3, श्रीः = 2 इत्यादि ।
इसके लिए बीच में विद्यमान मात्रा को छोड़ देते हैं । स्वर अक्षर ( vowel) यदि शब्द के आदि (starting) मे हो तो ग्राह्य ( acceptable) है, अन्यथा अग्राह्य (unacceptable) होता
जैसे समझिए कि मेरा ATM PIN 0278 है- पर कभी-कभी संख्या को याद रखते हुए ATM में जाकर हम Confuse हो जातें हैं कि 0728 था कि 0278 ?
यह भी अक्सर बहुत लोगों के साथ होता है, ये इनसे बचने के उपाय हैं
जैसे ATM PIN के लिए कोई भी चार अक्षर वाले संस्कृत शब्द को उस के कटपयादि मे परिवर्तन करें ( उस शब्द को सिर्फ अपने ही मन मे रखें, किसी को न बताएं )
उदाहरण के लिए –
इभस्तुत्यः = 0461
गणपतिः = 3516
गजेशानः = 3850
नरसिंहः = 0278
जनार्दनः = 8080
सुध्युपास्यः = 7111
शकुन्तला = 5163
सीतारामः = 7625
इत्यादि ( अपने से किसी भी शब्द को चुन लें )
ऐसे किसी भी शब्द को याद रखें और तत्काल “कटपयादि संख्या” में परिवर्तन करके अपना ATM PIN आदि में प्रयोग करें ।
सत्य सनातन धर्म की जय 🙏❤️

जैसे हम लोग 12 ज्योतिर्लिंग जाते हैं वैसे हमे देवी मां के 51 सिद्ध पीठ भी घूमने चाहिए। सूची निम्न है।1 . मणिकर्णिका घाट,...
10/07/2023

जैसे हम लोग 12 ज्योतिर्लिंग जाते हैं वैसे हमे देवी मां के 51 सिद्ध पीठ भी घूमने चाहिए। सूची निम्न है।
1 . मणिकर्णिका घाट, वाराणसी,
2. माता ललिता देवी शक्तिपीठ, प्रयागराज
3. रामगिरी, चित्रकूट,
4. वृंदावन में उमा शक्तिपीठ (कात्यायनी शक्तिपीठ)
5. देवी पाटन मंदिर, बलरामपुर
6. हरसिद्धि देवी शक्तिपीठ, मध्य प्रदेश
7. शोणदेव नर्मता शक्तिपीठ, अमरकंटक,
8. नैना देवी मंदिर, बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश
9. ज्वाला जी शक्तिपीठ, कांगड़ा
10. त्रिपुरमालिनी माता शक्तिपीठ,जालंधर,
11.. महामाया शक्तिपीठ, अमरनाथ के पहलगांव, कश्मीर
12. माता सावित्री का शक्तिपीठ, कुरुक्षेत्र
13. मां भद्रकाली देवीकूप मंदिर, कुरुक्षेत्
14. मणिबंध शक्तिपीठ, अजमेर के पुष्कर में
15 .बिरात, मां अंबिका का शक्तिपीठ राजस्थान
16. अंबाजी मंदिर शक्तिपीठ- गुजरात
17. मां चंद्रभागा शक्तिपीठ, जूनागढ़,
18. माता के भ्रामरी स्वरूप का शक्तिपीठ, महाराष्ट्र
19. माताबाढ़ी पर्वत शिखर शक्तिपीठ, त्रिपुरा
20.देवी कपालिनी का मंदिर, पूर्व मेदिनीपुर जिला, पश्चिम बंगाल
21.. माता देवी कुमारी शक्तिपीठ, रत्नावली, बंगाल
22- माता विमला का शक्तिपीठ, मुर्शीदाबाद, बंगाल
23- भ्रामरी देवी शक्तिपीठ जलपाइगुड़ी, बंगाल
24. बहुला देवी शक्तिपीठ- वर्धमान, बंगाल
25. मंगल चंद्रिका माता शक्तिपीठ, वर्धमान, बंगाल
26. मां महिषमर्दिनी का शक्तिपीठ, वक्रेश्वर, पश्चिम बंगाल
27. नलहाटी शक्तिपीठ, बीरभूम, बंगाल
28. फुल्लारा देवी शक्तिपीठ, अट्टहास,
29. नंदीपुर शक्तिपीठ, पश्चिम बंगाल
30. युगाधा शक्तिपीठ- वर्धमान
31.. कलिका देवी शक्तिपीठ, बंगाल
32. कांची देवगर्भ शक्तिपीठ, कांची
33. भद्रकाली शक्तिपीठ, तमिलनाडु
34. शुचि शक्तिपीठ, कन्याकुमारी
35. विमला देवी शक्तिपीठ, उत्कल
36. सर्वशैल रामहेंद्री शक्तिपीठ, आंध्र प्रदेश
37. श्रीशैलम शक्तिपीठ, कुर्नूर
38. कर्नाट शक्तिपीठ, कर्नाटक
39. कामाख्या शक्तपीठ, गुवाहाटी
40. मिथिला शक्तिपीठ,भारत नेपाल सीमा
41. चट्टल भवानी शक्तिपीठ, बांग्लादेश
42. सुगंधा शक्तिपीठ, बांग्लादेश
43.जयंती शक्तिपीठ, बांग्लादेश
44.श्रीशैल महालक्ष्मी, बांग्लादेश
45.यशोरेश्वरी माता शक्तिपीठ, बांग्लादेश
46.इन्द्राक्षी शक्तिपीठ
47.गुहेश्वरी शक्तिपीठ, नेपाल
48. आद्या शक्तिपीठ, नेपाल
49.दंतकाली शक्तिपीठ- नेपाल
50. मनसा शक्तिपीठ,तिब्बत
51. हिंगुला शक्तिपीठ

 #भगवान  #शिव महादेव के रहस्य!!सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी...
09/07/2023

#भगवान #शिव महादेव के रहस्य!!
सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम 'आदिश' भी है।और इसी आदिदेव की पूजा झारखंड के सराहनीय एवं आदिवासी पुरातन काल से करते आ रहे हैं यहां की धरती शिव एवं शक्ति की भक्ति की धरती है।
2. शिव के अस्त्र-शस्त्र
शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र #त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।
3. शिव का नाग
शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
4. शिव की अर्द्धांगिनी
शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा काली कहलाई।
5. शिव के पुत्र
शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।
6. शिव के शिष्य
शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।
7. शिव के गण
शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। शिवगण नंदी ने ही 'कामशास्त्र' की रचना की थी। 'कामशास्त्र' के आधार पर ही 'कामसूत्र' लिखा गया।
8. शिव पंचायत
भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
9. शिव के द्वारपाल
नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
10. शिव पार्षद
जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।
11. सभी धर्मों का केंद्र शिव
शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में विभक्त हो गई।
12. बौद्ध साहित्यके मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।
13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव
भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।
14. शिव चिह्न
वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
15. शिव की गुफा
शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा 'अमरनाथ गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है।
16. शिव के पैरों के निशान
#श्रीपद-श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
#रुद्र पद-तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
#तेजपुर-असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
#जागेश्वर-उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
#रांची-झारखंड से 175 किलोमीटर की दूरी पर बाबा टांगीनाथ धाम जो एक महत्वपूर्ण शैव स्थल जहाँ सैकड़ों शिवलिंग तथा मूर्तियाँ है,। एक और रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है।
17. शिव के अवतार
वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
18. शिव का विरोधाभासिक परिवार
शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।
19. तिब्बतस्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।
20.शिव भक्त :ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।
21.शिव ध्यान :शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
22.शिव मंत्र :दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।
23.शिव व्रत और त्योहार :सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
24.शिव प्रचारक :भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
25.शिव महिमा :शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।
26.शैव परम्परा :दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।
27.शिव के प्रमुख नाम :शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।
28.अमरनाथ के अमृत वचन :शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
29.शिव ग्रंथ :वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
30.शिवलिंग :वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।
31.बारह ज्योतिर्लिंग :सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है। दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्योतिर्लिंग में शामिल किया गया।
32.शिव का दर्शन :शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
33.शिव और शंकर :शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।
34.देवों के देव महादेव :देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।
35.शिव हर काल में :भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिए थे।
आनंदम् 🙏

09/07/2023
24/06/2023

पवित्रीकरण,आचमन,गणपति पूजन , संकलप, किसको कहते है? पूजा करते समय कैसे इनका अर्थ क्या होता है?
1.पवित्रीकरण
कोई भी अनुष्ठान या साधना पवित्रता के बिना सिद्धि नहीं होती, अतः सर्वप्रथम वैदिक मंत्रों द्वारा स्वयं को पवित्र कर लेना चाहिये। पवित्रीकरण के लिये बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर छिड़कें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए,
ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपि वा। स्मरण करें - यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाहरीभ्यन्तरः शुचिः
2. आचमन
आचमन का अर्थ है शोधन मनुष्य दिन भर में अनगिनत शब्दों का प्रयोग करता है जिससे उसकी वाणी अपवित्र हो सकती है अतः पूजन से पहले आत्मतत्व, विद्यातत्व व शिवतत्व शोधन आचमन के द्वारा कर लेना चाहिये। साधक को चाहिये कि वह आचमनी में जल लेकर तीन बार पिये तथा हर बार क्रमश: । निम्न मंत्रों का उच्चारण करे -
ॐ आत्मतत्वं खोजयामि स्वाहा।
ॐ विद्यात्त्वं शोधयामि स्वाहा ।
3. संकल्प
सिर्फ साधना ही नहीं कोई भी कार्य तब तक सफल नही हो सकता जब तक कि हम पूर्ण मनोयोग से उस कार्य को करने के लिये संकल्पित न हो जायें। साधना पथ में भी संकल्प का महत्वपूर्ण स्थान है साधक किस देवी-देवता की आराधना किस उद्देश्य से कर रहा है यह स्पष्ट होना चाहिये इसीलिये आरम्भ करने से पूर्व संकल्प लेना चाहिये संकल्प के लिये दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण करें और मंत्र की समाप्ति पर जल को किसी पात्र में छोड़ दें। जिस मंत्र मे नाम, गोत्र, स्थान,तिथि, का उच्चारण किया जाता है
4.गणपति पूजन
विघ्नहर्ता श्री गणेश सभी देवताओं में प्रथम पूज्य हैं इसीलिये किसी भी साधना, यज्ञ, अनुष्ठान आदि में सर्वप्रथम श्री गणेश का आह्वान और पूजन किया जाता है ताकि अनुष्ठान बिना किसी विघ्न के सम्पन्न हो सके।

हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता खाने से पहले आम को पानी भिगोने को क्यों कहती थीं, जानें इसके पीछे का विज्ञान..आम क...
27/04/2023

हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता खाने से पहले आम को पानी भिगोने को क्यों कहती थीं, जानें इसके पीछे का विज्ञान..
आम को खाने से पहले पानी में भिगोने का मकसद सिर्फ फलों की गंदगी और धूल को साफ करना नहीं है. जानें इसके पीछे छिपे छह वैज्ञानिक कारणों के बारे में.
गर्मी का मौसम यानि फलों के राजा, आम का मौसम. एक तरफ धूप, पसीना और गर्म हवाओं के बारे में सोचकर मन थोड़ा परेशान होता है, तो वहीं दूसरी तरफ आम के मीठे स्वाद के बारे में सोच कर मन खुश भी हो जाता है.
आम का मौसम आते ही लोग इसके अचार, आमरस, मैंगो शेक सहित कई तरह की रेसिपी बनाने की तैयारी में जुट जाते हैं.लेकिन क्या आपने गौर किया है कि आमतौर पर घरों में हमारी दादी-नानी आम खाने से पहले इसे एक-दो घंटे के लिए पानी में भिगोकर जरूर रखती थीं !
उनका मानना था कि ऐसा करने से आम में लगी गंदगी और फसल में इस्तेमाल किए गए केमिकल, दोनों साफ हो जाते हैं. आम को पानी में भिगोकर रखने के पीछे यह तो एक कारण है. आईए विस्तार से जानें ऐसा करने के पीछे और कारणों के बारे में.
1. फाइटिक एसिड से छुटकारा
फाइटिक एसिड उन पोषक तत्वों (न्यूट्रिएंट्स) में से है, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा और बुरा दोनों हो सकता है. इसे एक एंटी पोषक तत्व माना जाता है, जो शरीर को आयरन, जिंक, कैल्शियम और अन्य मिनरल्स को अवशोषित करने से रोकता है, जिसकी वजह से शरीर में मिनरल्स की कमी होने लगती है.
जाने माने न्यूट्रिशनिस्ट के अनुसार, आम में फाइटिक एसिड नाम का एक प्राकृतिक मॉलिक्युल होता है, जो कई फलों, सब्जियों और नट्स में भी पाया जाता है. फाइटिक एसिड शरीर में गर्मी पैदा करता है. जब आम को कुछ घंटों के लिए पानी में भिगोया जाता है, तो इससे फाइटिक एसिड को हटाने में मदद मिलती है.
2. आम को भिगोकर खाने से होता है रोगों से बचाव.
आम को पानी में भिगोकर रखने से त्वचा की कई समस्याओं जैसे मुंहासे, फुंसियों और सिरदर्द के साथ-साथ कब्ज व आंत से संबंधित अन्य समस्याओं को रोकने में भी मदद मिलती है. आयुर्वेद विशेषज्ञ द्वारा बताया कि फलों को पानी में भिगोकर रखने से उसकी गर्मी बाहर निकल जाती है, जिससे दस्त और मुंहासे जैसी त्वचा की समस्याओं से बचने में मदद मिलती है.
3. केमिकल से बचाव.
फसल को बचाने के लिए कई तरह से कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है. ये कीटनाशक जहरीले होते हैं और शरीर में जलन, एलर्जी, सिरदर्द जैसी कई परेशानियां पैदा कर सकते हैं. फलों को खाने से पहले, पानी में भिगोकर रखने से इन परेशानियों से बचा जा सकता है. इसके अलावा, ऐसा करने से इसके तने पर लगा दूधिया रस हट जाता है जिसमें फाइटिक एसिड होता है.
4. शरीर का सही तापमान बनाए रखना.
आम शरीर के तापमान को भी बढ़ाता है, जिससे थर्मोजेनेसिस का उत्पादन होता है. इसलिए, आमों को थोड़ी देर के लिए पानी में भिगोने से उनके थर्मोजेनिक गुण को कम करने में मदद मिलती है.
5. आम को भिगोकर खाने से फैट बर्न में मिलती है मदद.
आम में ढेर सारे फाइटोकेमिकल्स होते हैं.उन्हें पानी में भिगोने से उनकी कॉन्संट्रेशन कम हो जाती है, जिससे वे ‘नैचुरल फैट बस्टर’ की तरह काम करते हैं.
आशा है कि आप सभी इसी प्रकार से आम को पानी में भिगोकर ही प्रयोग करते होंगे और अगर नहीं तो फिर आज से ही इसे शुरू किया जाना चाहिए.

23/04/2023

#कालचिन्तन...

हम सब का नियन्ता काल है। शेषनाग काल है। शेषशायी पुरुष धर्म है। धर्म का व्यायाम क्षण से युग पर्यन्त है तथा विस्तार मुहूर्त से परार्धपर्यन्त है। तीस मुहूर्त का एक दिनरात (होरा) होता है। तीस होरा का एक मास होता है । १२ मासों का एक संवत्सर होता है। एक संवत्सर में दो अयन हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन । मनुष्य के दिनरात का विभाग सूर्यदेव करते हैं। रात प्राणियों के विश्राम के लिए तथा दिन क्रियाशील रह कर कर्म करने के लिए है। मनुष्यों के एक मास में पितरों का एक दिनरात होता है। शुक्लपक्ष पितरों का दिन है तथा कृष्णपक्ष पितरों की रात है। मनुष्य का एक वर्ष देवताओं के एक दिनरात के बराब होता है। उत्तरायण देवताओं का दिन है, दक्षिणायन उन की रात्रि है। देवताओं के चार हजार वर्षों का एक सतयुग होता है। सतयुग में चार सौ दिव्य वर्षों की संध्या होती है तथा इतने ही वर्षों का एक संध्यांश होता है। इस प्रकार, सतयुग का सम्पूर्ण मान ४००० + ४०० + ४०० = ४८०० दिव्यवर्ष है। संध्या एवं संध्यांशों सहित अन्य तीन युगों का मान भी इसी प्रकार स्पष्ट है। त्रेता का सम्पूर्ण मान ३००० + ३०० + ३०० = ३६०० दिव्यवर्ष, द्वापर का सम्पूर्ण मान २००० + २०० + २०० = २४०० दिव्यवर्ष तथा कलियुग का सम्पूर्ण मान १००० + १०० + १०० = १२०० दिव्य वर्ष हुआ। स्पष्ट है, देवताओं के बारह हजार वर्षों का एक चतुर्युग होता है तथा एक हजार चतुर्युग को ब्रह्मा का एक दिन बताया गया है। इतने ही युगों की उन की एक रात्रि भी होती है। अर्थात् ब्रह्मा के एक दिनरात्रि (होरा) का मान ससंध्यांश (१००० + १०० + १०० ) x २ = २४०० चतुर्युग है। ब्रह्मा दिन के आरंभ में सृष्टिकर्म करते हैं तथा रात्रि के आरंभ में इससे उपराम हो कर योगनिद्रा का आश्रय लेते हैं। जागने पर पुनः सृष्टि करने में व्यस्त हो जाते हैं। एक हजार चतुर्युग का जो ब्रह्मा का एक दिन बताया गया है तथा उतनी ही बड़ी जो उनकी रात्रि कही गई है, उसको जो लोग ठीक-ठीक जानते हैं, वे ही दिन और रात अर्थात् कालतत्व को जानने वाले हैं। कथन है...

१. सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः । रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेहोऽरात्रविदोजनाः।।( -महा. शांति. २३१/३१, भीष्म. ३२/१७)

२. तद्वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।
रात्रिं च तावतीमेव तेहोऽरात्रिविदोजनाः।।
(मनुस्मृति १/७३)

१. सहस्त्रयुगपर्यन्तम् = एक हजार युगों के बराबर। अहः यद् ब्रह्मणः = ब्रह्मा का जो एक दिन है। रात्रिं युगसहस्त्रान्ताम् = एक हजार युगों की एक रात्रि होती है। जनाः विदुः = जो लोग यह जानते हैं। ते अहोरात्रविदः = वे अहोरात्रविद् (कालज्ञ) हैं।

२. ब्रह्मं पुण्यम् -अहः युग सहस्त्रान्तम् = ब्रह्मा का एक पवित्र दिन एक हजार चतुर्युग के बराबर होता है। रात्रिं च तावतीम् एव = रात्रि भी उतनी बड़ी अर्थात् एक हजार चतुर्युग के बराबर होती है। तद् वै विदुः = उस (इस) तथ्य को जो जानता है। ते अहोरात्रविदः जनाः = वे लोग - अहोरात्र के ज्ञाता कहे जाते हैं।

ब्रह्मा के अहोरात्र की संध्या का मान इस का दशांश १०० चतुर्युग है तथा इतना ही संध्यांश है। इसलिये सम्पूर्ण अहोरात्र का मान दो हजार चार सौ चतुर्युग (महायुग) हुआ।

चतुर्युगी : = कृत + त्रेता + द्वापर + कलि = महायुग ।

संवत्सर = १ मानुषवर्ष = १ दिव्यदिन = १ दिव्य अहोरात्र । देवों का ३६० अहोरात्र = १ दिव्य वर्ष = ३६० मानुषवर्ष

इस क्रम में प्रत्येक युग का मान मानुषवर्षों में इस प्रकार परिगण्य है...

कलियुग = १२०० दिव्य वर्ष = १२००x३६० = ४,३२,००० मानुषवर्ष ।

द्वापरयुग = २४०० दिव्य वर्ष = २४००x३६०= ८,६४,००० मानुषवर्ष ।

त्रेतायुग = ३६०० दिव्य वर्ष = ३६००x३६० = १२,९६,००० मानुषवर्ष ।

कृतयुग = ४८०० दिव्य वर्ष = ४८००x३६० = १७,२८,००० मानुषवर्ष ।

१ चतुर्युगी | = १२००० दिव्य वर्ष = १२०००x३६० = ४३,२०,००० मानुषवर्ष ।

एक महायुग का मान तिरालिस लाख बीस हजार मानुषवर्ष हुआ। इस सन्दर्भ में वेद का यह मन्त्र है...

शतं ते ऽ युतं हायनान् द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः ।
इन्द्राग्नी विश्वेदेवाः ते ऽनुमन्यतामहृणीयमानाः ।।
(अथर्व. ८/२/२१)

शतम् = १०० | ते = (ब्रह्मा के) ।

अयुतम् = १०,००० दस हजार मात्र ।

हायनान् = वर्षाणि ।

द्वे त्रीणि चत्वारि = ४३२ अंकानां वामतो गतिः ।

युगे = महायुग में,

एक चतुर्युगी में कृण्मः = स्थापित किया है।

इन्द्राग्नी = प्रभुत्व एवं सर्वोपरिता से युक्त ।

विश्वेदेवाः =सर्वमान्य विद्वानों ने ।

ते = उस ब्रह्म के लिए।
अह्नणीयमाणाः लज्जा संकोच से हीन, बिना किसी हिचक वा लाग लपेट के ।
ते = उस ब्रह्म के लिए। अह्नणीयमाणाः लज्जा संकोच से हीन, बिना किसी हिचक वा लाग लपेट के । अनु-मन्यताम् = मानें, स्वीकार करें। मन्वन्तर = १००० महायुग ।

अतएव १ मन्वन्तर = १००० ÷१४ = ७१ मन्वन्तर से कुछ अधिक वा

अनु-मन्यताम् = मानें, स्वीकार करें।

द्वे त्रीणि चत्वारि अयुतम् = ४३२x१०,००० = ४३,२०,००० मानुषवर्ष एक महायुग का मान है।

ब्रह्मा का १ दिन १००० चतुर्युगी (महायुग) = १०००x४३,२०,००० = ४,३२,००,००,००० अर्थात् चार अरब, बत्तीस करोड़ मानुषवर्ष ।

इतने ही वर्षों की ब्रह्म रात्रि है।

अतएव ब्रह्म होरा : ४,३२,००,००,०००x२ = ८,६४,००,००,००० मानुष वर्ष ।

इस की संध्या एवं संध्यांश का मान = ८६,४०,००,००० + ८६,४०,००,००० = १,७२,८०,००,००० मानुषवर्ष ।

सम्पूर्ण ब्रह्महोरा ८,६४,००,००,००० + १,७२,८०,००,००० = १०,३६,८०,००,००० ।
दस अरब, छत्तीस करोड़, अस्सी लाख मानुषवर्ष मात्र दिव्य वर्षों में इसका मान = १०,३६,८०,००,००० | + ३६० = २,८८,००,००० ।

दो करोड़ अट्ठासी लाख दिव्य वर्ष के बराबर ब्रह्मा का होरा होता है। ३६० अहोरात्र का १ ब्राह्मवर्ष होता है। ब्रह्मा की आयु का प्रमाण १०० वर्ष है। इसलिये...

ब्रह्मा की सम्पूर्ण आयु = १०,३६,८०,००,०००×३६० x १०० मानुष वर्ष। = ३७,३२,४८,००,००,००,००० मानुषवर्ष । अर्थात् सैंतीसनील, बत्तीस खरब, अड़तालिस अरब मानुष वर्ष मात्र = १०,३६,८०,००,००० दिव्य वर्ष ।
सृष्टि के निर्माण के हेतु जिस जीव को ब्रह्मा के पद पर महामाया द्वारा स्थापित किया जाता है, उस के कार्य की अवधि (आयु) मात्र इतने वर्ष नियत है। वर्तमान में जो ब्रह्मा जी हैं, उनकी आयु के आधे का भाग ५० वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। ५१वाँ वर्ष चल रहा है। इसमें से २७ कल्पगत हो चुके हैं और २८वाँ श्री श्वेतवाराह नामक कल्प चल रहा है। इस कल्प का यह वैवस्वत नामक सातवाँ मन्वतन्तर है।
ब्रह्मा के १ दिन में १४ मन्वन्तर होते हैं। १ मनु का कार्यकाल = १ मन्वन्तर । १ ब्राह्मदिन = १ कल्प = १४ सर्वमान्य विद्वानों ने ।

७१ .३/७ - महायुग । प्रत्येक मन्वन्तर में सतयुग के प्रमाण तुल्य १ सन्धि होती है। इस प्रकार १४ मन्वन्तरों में आद्यन्त कुल १५ सन्धियाँ होती हैं।

१ संधिकाल = १ सतयुग = १७,२८,००० मानुषवर्ष ।

१५ संधिकाल = १५×१७,२८,००० = २,२९,२०,००० वर्ष ।

१ मन्वन्तर = ७१ महायुग = ७१x४३,२०,००० (१ महायुग का मान) = ३०,६७,२०,००० वर्ष । १४ मन्वन्तर = १४×३०,६७,२०,००० वर्ष । = ४,२९,४०,८०,००० वर्ष ।

१४ मन्वन्तर + १५ सन्धिकाल = ४,२९,४०,८०,००० + २,५९,२००० = ४,३२,००,००,००० वर्ष।

यह मान ब्रह्मा के १ दिन का है। चार अरब, बत्तीस करोड़ मानुष वर्ष के तुल्य एक ब्राह्म दिन होता है। ४,३२,००,००,००० ÷ ३६० = १,२०,००,०० अर्थात् एक करोड़ बीस लाख दिव्यवर्ष। इस गणना को जो हृदयंगम कर लेता है, वह ब्रह्मवेत्ताओं के निकट स्थान पाने का अधिकारी होता है। ऐसे जन को हमारा नमस्कार।

अब हम वर्तमान ब्रह्मा की गत आयु का आकलन कर रहे हैं।
ब्रह्मकल्प के ६ मन्वन्तर बीत चुके हैं।

६ मन्वन्तर = ६×३०,६७,२०,००० = १,८४,०३,२०,००० मानुषवर्ष ।
६ मन्वन्तरों की ७ संधियाँ १७,२८,००० (१ सतयुग का मान) x ७ = १,२०,९६,००० वर्ष ।
१ चतुर्युगी = ४३,२०,००० वर्ष गत २७ चतुर्युगी = २७x४३,२०,००० = ११,६६,४०,००० वर्ष। १ सतयुग + १ त्रेता + १ द्वापर १७,२८,००० + १२,९६,००० + ८,६४,००० वर्ष। = ३८,८८,००० वर्ष ।
वर्तमान कलियुग के गत वर्ष = ५१२१ वर्ष (सं. २०७९ वै. तक) । ब्रह्मा के ५१वें वर्ष का गत काल = ६ मन्वन्तर + ६ मन्वन्तरों की ७ संधियाँ + २७ महायुग (चतुर्युगियों) का काल + वर्तमान २८वीं चतुर्युगो का गत काल = १,८४,०३,२०,००० + १,२०,९६,००० + ११,६६,४०,००० + ३८,८८,०० + ५,१२१ वर्ष । = १,९७,२९,४९,१२१ वर्ष । ब्रह्मा जी की अब तक की गत आयु का मान = परार्ध + परार्धोत्तर गत = (३७,३२,४८,००,००,००,००० : २) + १,९७,२९,४९,११७ = १८,६६,२४,००,००,००,००० + १,९७,२९,४९,११७ = १८,६६,२५,९७,२९,४९,११७ वर्ष । इस ब्रह्मा का नाम आपव प्रजापति है। ये अब तक अपनी नियत आयु के अठारह नील, छाछठ खरब, पचीस अरब, सत्तानबे करोड़, उनतीस लाख, उनचास हजार, एक सौ सत्रह वर्ष भोग चुके हैं। यह इन का ५१वाँ ब्राह्मवर्ष है। वर्तमान कल्प का नाम श्रीश्वेतवारह कल्प है, क्योंकि इस कल्प के प्रारंभ में भगवान् का श्वेतवाराह के रूप में पृथ्वी के उद्धारार्थ अवतरण हुआ। इस कल्प के ६ मनु अपना कार्यका पूरा कर जा चुके हैं। इन गत मनुओं के नाम हैं...

१. स्वायम्भुव,
२. स्वारोचिष,
३. औत्तमि,
४. तामस,
५. रैवत,
६. चाक्षुष।
सातवें मनु वैवस्वत वर्तमान पद को सम्हाल रहे हैं। भविष्य में होने वाले मनुओं के नाम क्रम से ये हैं-८. सावर्णि, ९. दक्षसावर्णि, १०. ब्रह्मसावर्णि, ११. धर्मसावर्णि, १२. रुद्रसावर्णि, १३. देवसावर्णि तथा १४. इन्द्रसावर्णि।

धार्मिक व्यवस्था में संकल्प लेते समय परार्ध, कल्प, मन्वन्तर, युग का स्मरण द्विज लोग इस प्रकार करते हैं-ओम् अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतखण्डे भारतवर्षे, अमुक क्षेत्रे, अमुक नगरे, अमुक ग्रामे तीर्थे वा अमुक नाम संवत्सरे, अमुकमासे, अमुकपक्षे (शुक्ल वा कृष्ण), अमुकतिथौ, अमुकवासरे, अमुकगोत्रोत्पन्नः, अमुकनाम वर्णः अहम् आत्मप्रीत्यर्थं अमुक कर्म करिष्ये । पर का अर्थ है- शत १०० । परार्ध = १०० का आधा = ५० । ब्रह्मा का प्रथम परार्ध ५० वर्ष व्यतीत हो चुका है। उनका यह द्वितीय परार्ध है। इस द्वितीय परार्ध में यह श्रीश्वेतवाराह नामक कल्प (ब्राह्मदिन) है। ब्रह्मा के १ कल्प में १४ मनु व्यवस्था को ठीक रखते हैं। इस कल्प में अब वैवस्वतमनु कार्य कर रहे हैं। ये सातवें मनु हैं। इस का अर्थ हुआ कि इस के पहले ६ मनु पदमुक्त चुके हैं, अपने-अपने कार्यकालों को पूरा कर के इस सातवें मन्वन्तर की २७ चतुर्युगियाँ गत हो चुकी हैं। २८वीं चतुर्युगी चल रही है। इस चतुर्युगी के प्रथम तीन युग (सतयुग, त्रेता, द्वापर) व्यतीत हो चुके हैं तथा कलियुग के प्रथम चरण में से पाँच हजार एक सौ सत्रह वर्ष (वैक्रम संवत् २०७९ तक) समाप्त हो चुके हैं। कालमान के सम्बन्ध में इतना कहने के बाद जातक क्षेत्र स्थान स्वनाम गोत्र संवत्सर तिथि आदि का स्मरण करता हुआ कर्तव्य का निष्पादन करता है। यह हमारी सनातन व्यवस्था का अंग है। हम सब द्विजों के द्वारा यह पालनीय एवं रक्षणीय है। जैसे मनुष्यों के अहोरात्र में दो संध्याएँ (प्रातः एवं सायम्) होती हैं वैसे ही युगादि-युगान्त की दो संध्याएँ होती हैं, मन्वन्तर के आरम्भ एवं अन्त की दो संध्याएँ होती हैं तथा कल्प (ब्राह्महोरा) के आदि एवं अन्त की भी दो संध्याएँ होती हैं। ये दो संध्याएँ कार्य के आरम्भ एवं उपसंहार के लिए होती हैं। जैसे हम सब प्रतिदिन सो कर उठने पर पातर् संध्या में कार्यारम्भ करते हैं तथा सायंकाल सोने के पूर्व कार्य को समेटते हैं, वैसे ही मनु जी मन्वन्तर के आरम्भ एवं अन्त में तथा ब्रह्मा जी कल्प के आरम्भ एवं अन्त में अपने-अपने कार्यों का प्रारंभ एवं संहरण करते रहते हैं। ये संध्याएँ सृष्टि एवं प्रलय की कारक हैं। सामान्यतः तीन प्रकार के सृष्टि एवं प्रलय देखे जाते हैं। इन के नाम हैं-योग, मान्व तथा ब्राह्म। जागरण सृष्टि है तथा निद्रा प्रलय है। प्रत्येक मन्वन्तर का स्वामी धर्मपुरुष मनु होता है। १४ मनुओं, मनुपुत्रों, सप्तर्षियों, देवगणों, देवेन्द्रों तथा अवतारों का विवरण इस प्रकार है...

१. स्वायम्भुवमन्वन्तर स्वायम्भुव मनु के पुत्र - आग्नीध्र, अग्निबाहु, मेधा, मेधातिथि, वसु, ज्योतिष्मान् द्युतिमान् हव्य, सवन, पुत्र ।

सप्तर्षिगण - मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ, पुलस्त्य ।

पूज्यदेवगण-शान्तरजा, प्रकृति, याम। देवेन्द्र - यज्ञ ।

अवतार - वामन (कश्यप-अदिति से) ।

२. स्वारोचिषमन्वन्तर स्वारोचिष मनु के पुत्र- हविर्धः, सुकृति, ज्योति, आप, मूर्ति, अयस्मय, प्रथित, नमस्य, ऊर्ज, नभ सप्तर्षिगण - और्व, स्तम्ब, काश्यप, प्राण, बृहस्पति, दत्त, निश्चयवन ।

पूज्यदेवता- तुषितगण, पारावत। देवेन्द्र- रोचन।

अवतार- विभु (वेदशिरा - तुषिता से) ।

३. औत्तम मन्वन्तर उत्तम मनु के पुत्र - इष, ऊर्ज, तनुज, मधु, माधव, शुचि, शुक्र, सह, नभस्य, नभ ।

सप्तर्षिगण - कौकुरुण्डि, दाल्भ्य, शंख, प्रवहण, शिव, सित, सम्मित।

देवगण-सुधामा, अन, सत्य, जप, प्रतर्दन।

देवेन्द्र- सत्यजित् । अवतार-सत्यसेन (धर्म-सूनृता से)।

४. तामस मन्वन्तर तामस मनु के पुत्र-अकल्मष, धन्वी, तन्वी, तपोधन, तपोरति, तपोमूल, सुतपा, तपस्य, द्युति, परंतप ।

सप्तर्षिगण - काव्य, पृथु, अग्नि, जन्यु, धाता, कपीवान्, अकपीवान् ।

पूज्य देवता - सत्यक, हरि, वीर, वैधृति ।

देवेन्द्र - त्रिशिख ।

अवतार- हरि (हरिमेधा- हरिणी से)।

५. रैवत मनु के पुत्र- धृतिमान्, अव्यय, युक्त, तत्वदर्शी, निरुत्सुक, अरण्य, प्रकाश, निर्मोह, सत्यवाक्, कवि ।

सप्तर्षिगण - वेदबाहु, यदुध्र, वेदशिरा, हिरण्यरोमा, पर्जन्य, ऊर्ध्वबाहु, सत्यनेत्र |

देवगण-अभूतरजा, प्रकृति, परिप्लव, रैभ्य। देवेन्द्र - विभुः ।

अवतार - वैकुण्ठनाथ (शुभ्र-विकुण्ठी से) ।

६. चाक्षुष मन्वन्तर चाक्षुष मनु के पुत्र- ऊरु, पुरु, शतद्युम्न, महिम्न, तेजोमय, सह, सख, सानु, सुवर्ण, कुन्त।

सप्तर्षिगण - भृगु, नभ, विवस्वान्, सुधामा, विरजा, अतिनामा, सहिष्णु ।

देवगण-आद्य, प्रभूत, भृभु, पृथग्भाव, लेखा ।
देवेन्द्र-मन्त्रद्युम्न |

अवतार-अजित (वैराज-सम्भूति से)।

७. वैवस्वत मन्वन्तर...

वैवस्वत मनु के पुत्र- इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, अरिष्ट, करूष, पृषध, वसुमान्।

सप्तर्षिगण - अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जगदग्नि ।

पूज्यदेवता - आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुत्, साध्य, अभु, अश्विनौ ।

देवेन्द्र पुरन्दर।
अवतार वामन (कश्यप-अदिति से)।

८. सावर्णिमन्वन्तर सावर्णि मनु के पुत्र- वरीयान्, अवरीयान्, सम्मत, धृतिमान्, वसु, चरिष्णु, वाज, सुमति, विरजस्क,

सप्तर्षिगण गालव, दीप्तिमान्, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, सृष्यशृंग, बादरायण व्यास । सुहत् ।

देवगण- सुरजा, विरजा, अमृतप्रभ ।

देवेन्द्र - विरोचनपुत्र बलि ।

अवतार - सार्वभौम (देवगुह्य-सरस्वती से)।

९. दक्षसावर्णिमन्वन्तर दक्षसावर्णि के पुत्र - भूतकेतु, दीप्तकेतु, धृष्टकेतु, पञ्चहोत्र, निराकृति, गय, अष्टहत, अचीक, भूरिधामा, पृथुश्रवा।

सप्तर्षिगण - हविष्मान्, सुकृति, आपोमूर्ति, अष्टम, प्रमिति, नभोग, नभस् ।

देवगण - पार, मरीचिगर्भ ।
देवेन्द्र-अद्भुत ।

अवतार-सृषभ (आयुष्मान् - अम्बुधारा से) । दक्षसावर्णि को मेरुसावर्णि भी कहते हैं। इसे रोहित मनु नाम दिया गया है।

१०. ब्रह्मसावर्णिमन्वन्तर ब्रह्मसावर्णि के पुत्र - सुक्षेत्र, उत्तमौजा, भूरिषेण, चित्रसेन, महासेन, विश्वसेन, प्रथित, सुधर्मा, कम्प, क्षत्र।

सप्तर्षिगण - आर्चिष्मान्, सुवृत, सत्य, तपोमूर्ति, नाभाग, अप्रतिमौजा, सत्यकेतु ।

देवगण - सुधामा, विशुद्ध।

देवेन्द्र- शम्भु ।

अवतार- विष्वक्सेन (विश्वसृज् - विषूचि से) ।

११. धर्मसावर्णिमन्वन्तर धर्मसावर्णि मनु के पुत्र-देववीर्य, देवानीक, अनघ, सर्वत्रग, सधर्मा, सुवर्चा, शंकु, नरोत्तम, प्रभुपाद, क्षेम।

सप्तर्षिगण - निःस्वर, अग्नितेजा, वपुष्मान्, घृणि, आरुणि, अमोघ, तरुण ।

देवगण-विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि ।

देवेन्द्र- वैधृत ।

अवतार-धर्मसेतु (अर्यक-वैधृता से) ।

१२. रुद्रसावर्णिमन्वन्तर रुद्रसावर्णि मनु के पुत्र-देववान्, उपदेव, देवश्रेष्ठ, उदधिष्ण्य, निश्वर, अग्नितेजा, महातेजा, तिग्मतेजा. संतोष, संपत् ।

सप्तर्षिगण-द्युति, सुतपा, तपोमूर्ति, तपस्वी, तपोऽशन, तपोरति, तपोधृति ।

देवगण - हरित, रोहित, सुमना, सुकर्मा, सुराय।

देवेन्द्र - मृतघामा ।

अवतार-स्वधामा (सत्यसहा-सुनीता से) ।

१३. देवसावर्णिमन्वन्तर देवसावर्णि मनु के पुत्र- चित्र, विचित्र, धर्मभृत, घृत, सुनेत्र, क्षत्रवृद्धि, सुतपा, निर्भय, दृढ, नय।

सप्तर्षिगण - धृतिमान् हव्यप, तत्वदर्शी, निरुत्सुक, निष्प्रकम्प, निःशंक, निरालम्ब ।

देवगण- सुकर्म, सुत्राम।

देवेन्द्र-दिवस्यति ।

अवतार - योगेश्वर (देवहोत्र - बृहती से) । देवसावर्णि को रुचिसावर्णि भी कहा गया है।

१४. इन्द्रसावर्णिमन्वन्तर इन्द्रसावर्णि मनु के पुत्र-तरंगभीरु, वप्र, तरस्वान्, उग्र, अभिमानी, प्रवीण, जिष्णु, संक्रन्दन, तेजस्वी, सबल ।

सप्तर्षिगण - अतिबाहु, शुचि, शुक्र, युक्त, अजित, अग्निध्र, मागध ।

देवगण - पवित्र, कनिष्ठ, चाक्षुष, भ्राजिक, वाचावृद्ध ।

देवेन्द्र-शुचि ।

अवतार - बृहद्भानु (सुत्रायण-विताना से) । इन्द्रसावर्णि को भौत्य मनु भी कह
एक कल्प में ४३२ करोड़ सौरवर्ष होते हैं,यह प्राचीन ग्रन्थों में स्पष्ट लिखा है । किन्तु इस सौरपक्षीय का दृक्पक्षीय कल्प से क्या सम्बन्ध है इसका गणित छिटपुट ही कहीं−कहीं बचा है ।

【 #विनय_झा जी के वाल का कुछ अंश】
♂♂♂कल्प में से सर्जनाकाल ४७४०० दिव्यवर्षों अर्थात् उसके ३६० गुणे अधिक १७०६४००० सौरवर्षों को घटाने पर सृष्टि की आयु ४३०२९३६००० प्राप्त होती है । उसका २४००० भाग बढ़ाने पर सायनसृष्टि ४३०३११५२८९ सौरपक्षीय सायणवर्षों की है । उसे सौरवर्ष एवं चान्द्रवर्ष के सौरपक्षीय अनुपात १⋅०३०७३५६४८१४८१ से विभक्त करने पर ९९४ दृक्पक्षीय महायुगों की ४१७४८००१०१⋅९७६७८८४२२८६७७ वर्षों वाली एक दृक्पक्षीय सृष्टि मिलती है जिसका हरेक दृक्पक्षीय महायुग ४२ लक्ष वर्षों का होता है,जिसमें १०२ अतिरिक्त वर्षों का एक दृक्पक्षीय संस्कार हटाने पर १०० खण्डकल्प होते हैं;हर खण्डकल्प ४२००० वर्षों का होता है जो एक मानवप्रजाति की पूर्णायु है ।

उपरोक्त गणित में “सौरवर्ष एवं चान्द्रवर्ष का अनुपात” सूर्यसिद्धान्त में है,५१७७९१७८२८ सौरदिनों का एक ४३२०००० वर्षीय सौर महायुग होता है ऐसा सूर्यसिद्धान्त तथा अनेक पुराणों में वर्णन है,अतः एक सौरवर्ष ३६५⋅२५८७५६४८१४८१४८१ सौरदिनों का होता है । सूर्य की तुलना में चन्द्रमा को एक चक्र घूमने में जितने दिन लगते हैं उसे ३० तिथि कहते हैं,ऐसे १२ शुद्ध चान्द्रमासों का एक धार्मिक वर्ष होता है जिसमें अधिकमास की गिनती नहीं होती । इसी को चान्द्रवर्ष भी कहते हैं जिसका प्रयोग विंशोत्तरी,अष्टोत्तरी आदि चान्द्रमान की दशाओं में होना चाहिए । सौरवर्ष एवं चान्द्रवर्ष का अनुपात १⋅०३०७३५६४८१४८१ है ।

उपरोक्त गणित में दूसरा रहस्य है एक दृग् कल्प में १०१⋅९७६७८८४२२८६७७ वर्षों का अतिरिक्त मान,जिसका गणित स्वर्गीय निर्मलचन्द्र लाहिड़ी ने अपनी पुस्तक ‘एडवांस एफेमेरिस’ में प्राचीन पञ्चाङ्गों की जाँच द्वारा लगभग १०२ बताया था किन्तु उसका कारण नहीं बता पाये ।

अतः एक दृक्पक्षीय खण्डकल्प का अवसर्पिणी चक्र ४२००० सहस्र वर्षों का होता है । सौरपक्षीय कल्प से इसका सम्बन्ध बिठाने के लिए १२०० वर्षों का उत्सर्पिणी चक्र भी जोड़ना पड़ेगा,तब ४३२०० वर्षों का एक पूर्ण खण्डकल्प बनेगा । किन्तु यह केवल दीर्घकालीन औसत है जिसका वास्तविकता से दूर का भी सम्बन्ध नहीं ।

वास्तविकता यह है कि सौरपक्षीय अर्थात् सूर्यसिद्धान्तीय ग्रहगणित समस्त कर्मफलों का कालविधान बताता है । दृक्पक्षीय गणित केवल ऐन्द्रिक माया है किन्तु इसका भी महत्व है — महत्व यह है कि दृक्पक्षीय संसार ही प्राणियों को फल देता है,अर्थात् ऐन्द्रिक भोग उपलब्ध कराता है । दृक्पक्षीय संसार में भी पृथ्वी से लेकर सभी खेतों और गृहों तक के मेदिनीक्षेत्रों का और सभी प्राणियों के लिए फलादेश सौरपक्षीय ग्रहगणित द्वारा ही करना चाहिए । किन्तु यह सौरपक्षीय फल जिस संसार को तथा जिस संसार में सबको मिलता है वह दृक्पक्षीय है । इस दृक्पक्षीय संसार में सर्जना होने पर सत से कलि की ओर क्रमिक पतन ४२००० वर्षीय अवसर्पिणी चक्र में होता है जिसके उपरान्त उत्सर्पिणी चक्र है जिसका गणित एवं प्रक्रिया केवल देवों एवं ऋषियों के लिए ही ब्रह्माजी प्रकट करते हैं,हम जैसे मानवों के लिए वह वर्जित है,क्योंकि हम उसका दुरुपयोग भावी प्रजाति के विनाश एवं अपने अमरत्व के लिए कर सकते हैं — यह दूसरी बात है कि हमारी यह कुचेष्टा कभी सफल नहीं हो सकती किन्तु इस प्रयास में हम अपना सर्वनाश कर सकते हैं ।

उत्सर्पिणी चक्र औसतन १२०० वर्षों का होता है किन्तु इस औसत का व्यवहार में कोई महत्व नहीं । एक कल्प में एक लक्ष खण्डकल्प होते हैं,अतः इस औसत में नगण्य हेरफेर भी सहस्रों वर्षों का हेरफेर कर सकता है ।

एक कल्प में १४ मनु होते हैं और एक मनु का काल ७१ महायुगों का होता है । अतः १४ मन्वन्तरों का काल ९९४ महायुगों का है । मन्वन्तरों के बीच एक कृतयुग की सन्धि होती है,१४ मनुओं में १५ सन्धियाँ होती हैं जो कुल ६ महायुगों के तुल्य है । इस प्रकार एक सौरपक्षीय कल्प में कुल १००० महायुग होते हैं ।

किन्तु एक दृक्पक्षीय कल्प में केवल ९९४ दृक्पक्षीय महायुग ही होते हैं क्योंकि मनुसन्धि का काल प्रलयकाल है जिसमें दृक्पक्ष का अस्तित्व ही नहीं रहता । हर दृक्पक्षीय महायुग ४२ लाख वर्षों का होता है और हर दृक्पक्षीय महायुग में १०० खण्डकल्प होते हैं जो ४२००० वर्षों के होते हैं । दृक्पक्ष में केवल अवसर्पिणियाँ होती हैं ।

यदि हम मान लें कि ९९४ की बजाय कुल १००० दृक्पक्षीय महायुग हों तो उनका कुल काल ४२० करोड़ वर्षों का होता और तब १२०० वर्षों की उत्सर्पिणियाँ कुल १२ करोड़ वर्षों की होती,ये दोनों मिलकर ४३२ करोड़ वर्ष का सौर कल्प बनाते । किन्तु ऐसा नहीं होता । दृक्पक्षीय महायुग केवल ९९४ ही होते हैं जो कुल 4,17,48,00,101.9767884228677017038619 वर्षों के होते
४३२ करोड़ वर्षों के कल्प में 145199898.0232115771322982961381 वर्ष बचते हैं । इनको ९९४ दृक्पक्षीय खण्डों में नहीं बाँट सकते क्योंकि शेष ६ महायुगों के तुल्य मनुसन्धियों का भी अस्तित्व है जब दृक्पक्ष का अस्तित्व ही नहीं रहता । उन ६ महायुगों को हटा दें तो ९९४ उत्सर्पिणियों के लिए कुल 119279898.0232115771322982961381 वर्ष बचेगा,एक दृक्−महायुगी उत्सर्पिणी हेतु ११९९९९⋅८९७४१ वर्ष । उसमें सौ खण्डकल्प हैं । एक उत्सर्पिणी खण्डकल्प औसतन 1199.998974वर्ष का । १२०० वर्ष से इस संख्या ११९९⋅९९८९७ वर्ष का अन्तर है 0.0010259234247773410634191338 वर्ष । ९९४०० खण्डकल्पों वाली पूरी दृक्पक्षीय सृष्टि में यह अन्तर बढ़ते−बढ़ते कुल 101.9767884228677017038619 वर्षों का हो जाता है जैसा कि ऊपर उल्लेख है । अतः 101.9767884228677017038619 वर्ष के संस्कार का ध्यान रखते हुए यदि गणना करें तो एक उत्सर्पिणी का काल पूरी तरह १२०० वर्षों का सिद्ध होता है । अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी मिलाकर एक दृक् खण्डकल्प ४३२०० वर्षों का होता है । पूरे कल्प में ऐसे १००००० खण्डकल्प होते हैं किन्तु उनमें से ६०० “लुप्त खण्डकल्प” हैं जो दृक् जगत में प्रकट नहीं होते,वे मन्वन्तर सन्धियों का काल हैं । सौर सन्धियों और दृक् सन्धियों में रहस्यमय अन्तर होता है जो मानवों को बताया नहीं जाता,इसी कारण कल्पारम्भ से गणना करें तो ईसापूर्व ३१०१ में ४३२०० वर्षों का सौरपक्षीय खण्डकल्प समाप्त हुआ किन्तु ईसा के उपरान्त ३२०० में वह दृक्पक्षीय खण्डकल्प समाप्त होगा जिसकी अवसर्पिणी २००० ई⋅ की मेष संक्रान्ति को समाप्त हुई है । सौर एवं दृक् खण्डकल्पों में अभी ६३०१ वर्षों का अन्तर चल रहा है जिसका कारण मानवजाति हेतु रहस्य बना रहेगा क्योंकि इसपर नयी प्रजातियों की सर्जना का रहस्य छुपा रहता है जो डार्विनवादियों को कभी नहीं मिल सकता वरना वे विघ्न डाल देंगे ।

१५ में से ७ मनुसन्धियाँ व्यतीत हो चुकी हैं जो २⋅८ महायुग तुल्य हैं । कल्प के आरम्भ से २००० ई⋅ तक कुल १९७२९४९१०१ वर्ष व्यतीत हो चुके थे जिसमें २⋅८ महायुग घटाने के उपरान्त उपरोक्त औसत मान से गणित करें तो वर्तमान खण्डकल्प का अन्त २८९९ ई⋅ में होना चाहिए किन्तु वास्तव में २००० ई⋅ में अन्त हुआ । लगभग दो अरब वर्षों में ८९९ वर्षों की “त्रुटि” ब्रह्माण्ड के दीर्घवृत्तीय आकृति को गोल मानकर औसत गणित करने के कारण हुआ ।

कब कौन नवीन मानव प्रजाति अस्तित्व में आयेगी इसका शुद्ध गणित मर्त्य मानवों के लिए वर्जित है । २००० ई⋅ की मेष संक्रान्ति को खण्डकल्पान्त शुद्ध गणित है । अन्य खण्डकल्पों का शुद्ध गणित वर्जित है क्योंकि अनावश्यक है — उसे जानने वाले तब रहेंगे ही नहीं तो जानकर क्या करेंगे!

दृक्पक्षीय संसार का गणित सूर्यदेव ग्रहणों द्वारा करते हैं । ४२००० सहस्र वर्षों के एक खण्डकल्प में कुल १ लक्ष सूर्यग्रहण होते हैं,तब दृक्पक्षीय ब्रह्माण्ड का एक घूर्णन पूर्ण होता है और सौरपक्षीय राशिचक्र से उसका तादात्म्य पुनः स्थापित होता है,अर्थात् सौरपक्षीय आकाशरूपी ब्रह्म को वह लक्षित करता है । तब प्रजाति की आयु पूर्ण होती है और नयी प्रजाति आती है । ऐसे १ लक्ष खण्डकल्प हर कल्प में होते हैं,एक ब्रह्मा की पूर्णायु में ऐसे ७२००० कल्प होते हैं ।

सूर्यग्रहण का केन्द्र पृथ्वी से परे आकाश में टहलता हुआ जब पृथ्वी को स्पर्श करता है तो राहु−केतु की गति एवं उसकी तुलना में पृथ्वी के दैनिक घूर्णन के कारण ग्रहणकेन्द्र भूतल के अक्षांशों पर एक स्थिर कोण बनाता हुआ एक छोर से दूसरे छोर की ओर जाकर अन्ततः पुनः पृथ्वी से परे आकाश में लुप्त हो जाता है । भूतल पर ग्रहणकेन्द्र का पथ लोक्सोड्रोम बनाता है,जिसका विषुवतीय तल पर प्रक्षेप लॉगैरिथ्मिक स्पाइरल बनाता है,जिसका पैमाना लॉग स्केल का होता है । १ लक्ष द्रुमों की घूमती स्पाइरलों की १ लक्ष संख्या जिसके पूर्ण होने पर दृक्पक्ष को सौरपक्ष लक्षित करता है और खण्डकल्प का संहार होता है ।

सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था युग, मन्वन्तर एवं कल्प के अन्तर्गत भूयमान है। यह व्यवस्था शाश्वत होने से भृत है। सभी कालबद्ध हैं। कल्प में १४ मन्वन्तर, मन्वन्तर में ७१ चतुर्युगी, चतुर्युगी में ४ युग बड़े छोटे के क्रम से तथा युग में वर्ष अवयव रूप से विद्यमान हैं। हमारा जीवन संवत्सरों (वर्षों) में सीमित है। मनु की व्यवस्था में रहने से हम मानव हैं। मनुप्रोक्त धर्म को धारण करना हमारा कर्त्तव्य है। ब्रह्मा जी सिसृक्षासम्पन्न महत्तपी जीव हैं। सृजन कर्म के नायक के रूप में परमसत्ता ने ब्रह्मा जी को नियुक्त किया है। ब्रह्मा जी ने अपने सहायकों के रूप में महातपस्वी जीवों को मनु, अषि, देवता के पद पर प्रतिष्ठित किया है। मनु के सहायक के रूप में उनके पुत्र हैं तथा सब की सहायता के लिए महाजीव विष्णु प्रत्येक मन्वन्तर के आरम्भ में अवतार लेता है। देवताओं के अधिपति के रूप में इन्द्र होता है। इस प्रकार ब्रह्मा के एक कल्प में १४ मनु, प्रत्येक मनु के १० पुत्र, १४ सप्तर्षिगण १४ देवगणों में अनेक उपगण, १४ इन्द्र, १४ अवतारक अवतार होते हैं। मन्वन्तर विस्तार के सम्बन्ध में यह पौराणिक वचन है...

चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः ।
मन्वन्तरं मनोः कालः सुरादीनां च सत्तम ।।
चतुर्दशगुणो ह्येष कालो ब्राह्ममहः स्मृतम् ।। (विष्णु पुराण १/३/१८, २२)

हे सत्तम ! इकहत्तर युगों से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता है। यही मनु एवं देवादिकों क कार्यकाल है। इस काल का चौदह गुना ब्रह्मा का एक दिन होता है। पुन: कहते हैं...

द्वितीयस्य परार्धस्य वर्तमानस्य वै द्विज ।
वाराह इति कल्पोऽयं प्रथमः परिकीर्तितः ।। ( विष्णु पु. १/३/२८)

हे द्विज! इस समय वर्तमान ब्रह्मा के दूसरे परार्ध का यह वाराह नामक पहला कल्प है। इस वाराह कल्प में यह सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर है। वर्तमान में हम जिस धर्म का आचरण कर रहे हैं, वह वैवस्वत मनु के द्वारा प्रचलित, पुरन्दर इन्द्र द्वारा संरक्षित, वसिष्ठादि सप्तर्षियों द्वारा प्रसारित, आदित्यादि देवों द्वारा पोषित, इक्ष्वाकु आदि मनुपुत्रों द्वारा पूजित तथा वामनादि अवतारों द्वारा उद्धारित है। वैष्णवजनों द्वारा कथित इस सनातन धर्म के प्रति हम पूर्णत: समर्पित हैं।

।। सनातनधर्माय नमः ।।
#नवग्रहोंमें #वैदिक_काल_की_गणना #ज्योतिषनिरूपण_भ्रान्तिनिवारण #शब्द_क्या_है #ज्योतिष #काल_चक्र #कुण्डली #व्याकरण #संवत्सर_कालात्मा_विषुवान्
त्रिस्कन्धज्योतिर्विद् शशांक शेखर शुल्ब copy

Address


Website

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Saharsa news posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Shortcuts

  • Address
  • Alerts
  • Claim ownership or report listing
  • Want your business to be the top-listed Media Company?

Share