13/11/2021
कहानी:
प्रतिभा देवी
सुरेश कातिब, वैशाली, गाज़ियाबाद (भारत)
अपार भीड़ उमड़ रही थी, एक हुजूम, एक सैलाब बहा जा रहा था लोगों का, सिविल लाइन्स की ओर। प्रतित हो रहा था मानो सारे कस्बे की ट्रेफिक एक तरफ को मोड़ दी गई हो। लोग, मोटरौं मे, मोटरसाइकिल, साइकिलों पर, या फिर पैदल ही चले जा रहे थे, एक ही दिशा में। इतनी भीड़ और इस चिल्चिलाती धूप मे? कहां जा रहे थे यह लोग? कोई जलसा, कोई जुलूस कोई बड़े नेता के स्वागत मे? उत्सुकता अनिवार्य थी।
आगे जा के देखा, तो पाया,ये सारे लोग एक बड़ी सारी कोठी (एकड़ो मे फैली हुई), के बड़े सारे लोहे के गेट के सामने इकट्ठा हो रहे थे। उनमे से कुछ गेट पर चढ़, कोठी के भीतर जाने की नाकाम कोशिश मे लगे थे। जैसे ही वे गेट पे चढ़ते, अन्दर खड़े दो चोकिदार, उन्हे डन्डे मार नीचे गिरा देते। कुछ के तो खून भी बह रहा था। एक, पागलपन, बदहवासी और अराजकता का माहौल हो चला था। भीड़ मे खड़े हुए लोगो में कुछ बिलकुल मौन धारण करे खड़े थे। चेहरा बिकुल सफेद, मानो किसी ने उनका खून निकाल/चूस लीया हो, किसी यन्त्र से। कुछ नीढ़ाल हो बैठ गये थे, ज्यादातर अपना सर पकड़े। कुछ तो अपने बाल भी नोच रहे थे।
सबसे ज्यादा लोग आक्रोशीत वे थे जो जोरो-जोरो से चिल्ला रहे थे, नारे लगा रहे थे। 'प्रतिभा तेरा सत्यानाश हो,' 'प्रतिभा तू नर्क मे जाए,' 'प्रतिभा तूझे नर्क मे भी जगह ना मिले,' 'प्रतिभा तेरी लाश को चील कव्वे नोचे,' इत्यादी, इत्यादि। कुछ तो चिल्लाते चिल्लाते बेहोश हुए जा रहे थे, कुछ, बेहोश हो, गिर चुके थे।
कोठी के अन्दर का द्रश्य । बड़ी सारी कोठी का, बड़ा सारा ड्रॉइंग हाल। बिलकुल खाली, सारा फर्नीचर हटा लिया गया था शायद। हाल के बीचो-बीच एक लाश, लेटी हुई।अकेली, तनहा और शान्त। चहरा खुला हुआ। चहरे पर एक हल्की सी मुस्कान। लग रहा था मानो अभी बोल पड़ेगी। लाश डॉक्टर प्रतिभा देवी की।
आज सुबह का अखबार, हमीरपुर मेल, जब लोगों के हाथ आया, तो पढ़ कर सब के होश उड़ गये। पहले पन्ने पर ही एक, लैटर टू दी एडिटर (सम्पादक को पत्र) छपा था, मोटे अक्षरों में। लिखने वाली थी डॉक्टर प्रतिभा देवी। खत का मज्मून/विषय बहुत ही भयावह और पीड़ाजनक था। कहीं उससे भी ज्यादा, जान लेवा। खत मे प्रतिभा देवी ने लिखा था:
"सम्पादक महोदय, नमशकार।
जब तक यह खत आपके हाथों मे पड़ेगा, मै इस दुनिया से जा चुकी हुंगी। पर मै यह चाहूंगी कि आप मेरा यह खत अपने अखबार मे जरूर छापें। शायद इसे पढ़, आप खुद को रोक भी नही पायेंगे।
महोदय, जैसा कि आप जानते हैं कि मै करीब तीस साल से, कस्बे का सबसे बड़ा मैटर्निटी होम, माँ दुर्गा मैटर्निटी होम, चला रही हूँ। गत तीस सालों मे, मेरे यहां, हजारों बच्चों ने जन्म लिया, सभी धर्म, जाति और तबके के लोगों ने।
आगे की बात कहने से पहले मै अपना बैकग्राउंड, यानी पृष्ठभूमि, बताती चलूँ। मेरे पिता, सेना मे, एक आला ऑफिसर थे। उन्होँने, मुझे बहुत लाड़-प्यार से बड़ा किया, और उच्चतम शिक्षा दी। मै डॉक्टर बन गई। थोड़ी सुन्दर और पढी-लिखी होने के कारण, मेरी शादी, एक बहुत बड़े परिवार/घराने में हो गई। वे ठाकुर, जमींदार थे। दो सो एकड़ से उपर ज़मीन, आलिशान महल नुमा कोठी, घोड़ा, गाड़ी, नौकर-चाकर, सब कुछ था, मगर कमी थी तो इंसानियत की। क्रूर और घमंडी थे वे। नही जानते थे दूसरों की इज्जत करना, खासकर औरतों की। पैर की जूती समझते थे वो औरतों को। मेरे पति ठाकुर विजेंद्र सिंह, चार भाईयों मे तीसरे थे, उन्ही मे से एक। शराब, जुआ, रंगरेलीया उनके खून मे बसा था।
मुझे आते के साथ फरमान मिला। कोई ज़रूरत नही प्रक्टिस वगरैह करने की। घर सम्भालो, बाकियों की तरह। मगर मै भी कहां मानने वाली थी, अड़ गई बूरी तरह। आखिर, थक-हार कर यह मेटर्निटी होम बनवा दिया, पांच एकड़ जमीन पर। मै खुश, मगर घर और बाहर, मै लोगो पर निरंतर होती ज्यादतियां देखती और सुनती थी। घर मे नौकरो को ही नही, स्त्रियों को , मारना-पीटना , कभी शराब पीकर, कभी यूं ही। जायदाद और दौलत की हेकड़ी, नसों-नसों मे बहती थी। इसी तरह समाज मे हो रही ज्यादती, अमानवीय वातावरण, लड़ाई-झगड़े, कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर और कभी दौलत को लेकर, खून-खराबा, भ्रूण हत्या, सब देख, मै बहुत परेशान और दुखी हो गई थी। लोग बच्चियों तक को मार देते थे, पैदा होने पर। उनकी शादी और दहेज़ की वजह से। दिल कांप उठता था यह देख, सुन कर।
मैने, एक दिन, एक प्लान बनाया। दो नर्सों को विश्वास मे लिया। एक बाल विधवा थी, और दूसरी का पति उसे छोड़ भाग गया था, किसी और के संग। मैने उन्हे अपने दिल की वेदना बतायी और प्लान समझाया। इस निर्दयी और बद्तमीज़ समाज को सबक सिखाने के लिये हम बच्चे बदल देंगें। जिसको लड़की चाहिये उसे लडकी, जिसे लड़का चाहिये उसे लड़का। किसी गरीब का बच्चा किसी अमीर को, और किसी अमीर का किसी गरीब को। इसीतरह अलग-अलग जाति और धर्म के बच्चों को भी हम बदल देंगें। मगर यह काम हमे बहुत ही सावधानी और चतुरता से करना होगा। पहले तो वे बहुत घबराई मगर आखिर मे राजी हो गई।
महोदय, यह काम हम, गत तीस सालों से, करते आ रहे हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हमने कितने बच्चे बदले होंगे। कस्बे के लोग के ही नही, आस-पास के सभी गावों से भी लोग डेलिवेरी करवाने आते हैं हमारे पास। तीन पीढियाँ बीत गई है हमे यह सब करते।
यह सब पढ़ आपको आश्चर्य ही नही, झटका लगा होगा। लगना भी चाहिये। आप मेरे इस पत्र को लोगो तक ज़रूर पहुंचायेंगे, इस की मै आशा करती हूँ। जैसा कि मैने ऊपर कहा, आपको मेरा यह पत्र मिलने से पहले, मै यह दुनिया छोड़ जा चुकी हुंगी। मै आत्महत्या कर रही हूँ।
धन्यवाद।"
डॉक्टर प्रतिभा देवी,
दुर्गा मेटर्निटी होम,
हमीरपुर।