18/12/2023
*🛑 "जय श्रीराम कट्टर समिति" की ओर से प्रस्तुत स्वास्थ्य सम्बन्धित ज्ञान अवश्य अर्जित करें !*
*🌹 आयुर्वेद के महान ज्ञाता ऋषि वाग्भट्ट द्वारा रचित पुस्तक अष्टांगहृदयम् अवश्य पठन करें*
*♦️ दिनचर्या,ऋतुचर्या रोगों की उत्पत्ति के कारण, आहार द्रव्यों का ज्ञान,अन्न द्रव्यों का ज्ञान*
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*■ त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमः स्मृतिः। देशकालात्मविज्ञानं सद्वृत्तस्यानुवर्तेंनम् ।। अथर्वविहिता शान्तिः प्रतिकूलग्रहार्चनम् । भूताद्यस्पर्शनोपायो निर्दिष्टश्च पृथक् पृथक् ।। अनत्पत्यै समासेन विधिरेष प्रदर्शितःनिजागन्तुविकाराङ्गामुत्पन्नानां च शान्तये ।।*
*🔅 अर्थ : रोगों का चिकित्सासूत्र-प्रज्ञापराधों का त्याग, इन्द्रियों में शान्ति स्मरण शक्ति का उद्बोधन, देश, काल और आत्मा का विज्ञान अर्थात् मैं किस वातादि प्रकृति का हूं उसका पूर्ण ज्ञान और सदूत का पालन करना। अथर्ववेद में बतायी गयी शान्तियों का सेवन प्रतिकूल सूर्यादि ग्रहों की पूजा भूत प्रेतादि का शरीर में आवेश न हो इसके लिए अलग-अलग उपाय भूतबाधा प्रतिषेध नामक उतरतंत्र को अध्याय में बताया गया है। उसका सेवन करने से निज और आगन्तुक रोगों के न होने का संक्षेपोपाय बताया गया है। और उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा भी इन्हीं के द्वारा बतायी गयी है।*
*🔹️ विश्लेषण : यहाँ यह संक्षेप में निज या आगन्तुक रोगों के न होने तथा उत्पन्न रोगों के शान्ति का उपाय बताया गया है। प्राज्ञापराध अर्थात् असत् आचरण इसका त्याग जैसे-इन्द्रियों में शान्ति से इन्द्रियों का विषयों के साथ अतियोग मिथ्यायोग और हीनयोग का न होना, स्मृति से पूर्व में किये गए आहार विहार का समुचित रूप में स्मरण होना, देश से जांगल आनूप साधारण, काल से शीत वर्षा और उषण काल आदि, विज्ञान से में किस प्रकृति का हूं और मेरे लिए कौन कौन सा आहार-विहारअनुकूल पड़ता है इसका ज्ञान होना रोगों के उत्पन्न न होने का मुख्य कारण है। इस प्रकार दिनरात का विचार कर कार्य क रने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार रोगों से पीड़ित नहीं होता है। विशेषकर भूत प्रेतादि के आवेश से तथा सूर्यादि ग्रहों के प्रतिकूल होने से रोग होते हैं इसमें अथर्ववेद में बतायी गयी शान्ति करनी चाहिये। यदि ग्रह की दुष्ट दशा हो तो ग्रहों की पूजा करनी चाहिये। और इस ग्रंथ में भी भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न देवादि ग्रह पकड़ न सके इसका उपाय सवृत में एवं अनागतवाधा प्रतिषेध अध्याय में बताया गया है।*
*■ विशोधयन् ग्रीष्मजमनकाले । घनात्यये वार्षिकमाशु सम्यक् प्राप्नोति रोगानृतुजान्न जातु ।।*
*🔅 अर्थ : मलों को शोधन का काल-शीतकाल अर्थात् हेमन्त और शिशिर ऋतु में संचित कफ दोष का चय अर्थात् समूह को वसन्त ऋतु में, ग्रीष्म में, संचित बात को वर्षा काल में, वर्षाकाल में संचित पित्त को शरद ऋतु में निकालते हुए व्यक्ति को ऋतुओं में स्वभाव से होने वाले रोग नहीं होते हैं।*
*🔹️ विश्लेषण : ऋतुओं में दो प्रकार के रोग होते हैं। 1- स्वाभाभिक ऋतु में दोष संचय जन्य और दूसरे ऋतु के बिगड़ने पर। यहाँ स्वभाव से संचित हुए दोषों को निकालने के लिए निर्देश किया गया है, क्योंकि ऋतु के विपरीत होने पर किस दोष से कौन सा रोग होगा यह निश्चित नहीं रहता। क्योंकि ऋतु विपरीत में सहसा दोषों का प्रकोप विना संचय हुये ही हो जाता है, और स्वाभाविक ऋतु वर्षा में वात शरद में पित्त और बसन्त में कफ का प्रकोप होता ही है। इस लिये प्रकोप होने के पूर्व शोधन कर दिया जाता है। सुश्रुत ने-*
*■ 'श्रावणे कार्तिके चैत्र' मासि, साधारणे क्रमात्। ग्रीष्म वर्षा हिमचितान्वारूवादीनाशु निर्हरेत ।।*
*🔅 अर्थ : वर्षा के प्रथम श्रावण, शरद के प्रथम कार्त्तिक और बसन्त के प्रथम चैत मास में शोधन का विधान बताया है।*
*■ नित्यं हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः । दाता समः सत्यपरः क्षमावा नाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः ।। इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्मटविरचिताया- मष्टाङ्गहृदयसंहितायां सूत्रस्थाने रोगानुत्पाद- नोयो नाम चतुर्थों ध्यायः ।।*
*🔅 अर्थ : स्वस्थ रहने का उपाय-निरन्तर हित आहार-विहार का सेवन करने वाला, अच्छी प्रकार विचार कर कार्य करने वाला, कामादि विष्यों में आसक्त न रहने वाला, निरन्तर दान देने वाला, समान रूप से सभी वस्तु को देखने और समझने वाला, सत्य प्रधान वचन वाला, सहनशील तथाा आप्त (विश्वास पात्र) जनों की सेवा करने वाला, अर्थात् विश्वास करने वाले व्यक्तियों के साथ निरन्तर रहने वाला मनुष्य रोग रहित रहता है।*