05/06/2025
तुम्हारी प्लेट्लेट्स गिर रहीं थीं और उल्टियां भी हो चुकी थीं.. आई सी यू में थीं। थैंक गॉड, बच्चे वक़्त रहते अस्पताल ले आए वरना...! ड्यूटी डॉक्टर मेरी तरफ हिक़ारत से देख रहे थे। मैं किसी अजनबी सा शून्य में खो गया। तुमने कभी अपनी बीमारी, दर्द, तकलीफ़ को मेरे सामने नहीं दिखाया और ना ही काम करने में लापरवाही की और मैं यही समझता रहा कि सब ठीक है। शादी के बाद से ही तुम्हारी यह सपनों को मुट्ठी में कैद करने की बातें मुझे बचकानी बेबुनियाद लगतीं। रीयल लाइफ से दूर की बातें। कभी तुम्हारे साथ उड़ने की कोशिश नहीं की मैंने! तुमने घर-बाहर की ज़िम्मेदारी से मुझे मुक्त कर दिया, तो मैं आरामतलब होता चला गया, चाय, टॉवेल, कपड़े, खाना सब हाथ में देतीं तुम। जब मैं ऑफिस से घर आता चाय पिलातीं और.. मैं अपने दोस्तों से मिलने निकल जाता। उस दिन मुझे बुखार था तो मेरी तीमारदारी में लग गई थीं। ख़ुश भी थीं कि मैं अब तुम्हारे साथ पास रहूंगा, कुछ देर ही सही। पर बुख़ार उतरते ही मैं काम पर निकल गया, तुम्हारा उतरा चेहरा आज भी मेरे सामने है। मुझे सब ढकोसला लगता - टेंशन लेना, परेशान होना, बच्चों को एक्स्ट्रा एक्टिविटी में भाग दिलाना, उनके लिए भाग-दौड़ करना । तुम अपने सपनों व भावनाओं को मार कर मेरे साथ हर क्षण ख़ुशी से बिताना चाहती थीं, निर्विकार सा मैं काम में ही डूबा रहता या कभी समय मिला भी तो मित्र, नाते-रिश्तेदार ही मेरे लिए विशेष रहे। तुम मुझे मेरी ज़िम्मेदारी समझातीं, कभी झुंझला कर लड़ भी पड़ती थीं, पर दो ही मिनट बाद मेरी टाई ठीक करने लगतीं। और मैं? तुम्हें ‘धकियाता हुआ’ ऑफिस के लिए निकल जाता। क्या जाने तुम पर क्या बीतती होगी। जब तुम छुट्टी वाले दिन मेरे सिर की तेल मालिश करतीं, तो मुझे अपनी किस्मत पर नाज़ होता। लेकिन तुम्हारी चाट की फ़रमाइश पर तुम्हें ‘चटोरी’ बोल दिया था और वो तुम्हारी आख़िरी फ़रमाइश साबित हुई। उसके बाद से तुमने मुझसे कभी कोई चीज़ नहीं मांगी। तुम्हारे आंसू ,जैसे मेरे ईगो को ही बूस्ट करते और मैं सोचता ‘औरतें आंसू लाकर पुरुषों को डराने की कोशिश करती हैं’ पर मैं फसूंगा नहीं। तुम्हारे निष्काम कर्तव्य पालन का नतीजा यह हुआ कि बच्चे तुमसे जुड़ते गए और मुझसे दूर होते गए। जब दोनों रिज़ल्ट या मेडल लाते तो सबसे पहले तुम्हें ही लाकर दिखाते। मेरे परिवार वाले भी तुमसे हमेशा ख़ुश ही रहते थे। मेरी बहनों को भी स्नेह-परवाह की आशा तुमसे ही रहती थी। तुम्हारी गुहार मेरी मां सुनती भी थीं। बस वहां तुम मन हल्का कर सकती थीं। मेरी निष्ठुरता से उबरने के लिए तुमने अपनी किट्टी पार्टियां भी शुरू कर दीं लेकिन मुझे यह सब भी बर्दाश्त नहीं होता था क्योंकि मुझे यह बेवजह समय और पैसे की बर्बादी लगती। मेरे लिए ये सब चोंचले होते। परिणाम वही हुआ- प्रौढ़वस्था में मैं अकेला तथा तिरस्कृत महसूस करने लगा और बच्चों के साथ तुम और मज़बूत हो चुकी थीं, फिर भी मेरी परवाह थी तुम्हें। अब बस यह अंतर आ चुका था कि जिस सानिध्य के लिए तुम तरसती थीं, उसके लिए अब मैं तरसने लगा क्योंकि जब भी मैं चाहता तुम मेरे आस-पास रहो, तुम किशोर हो रहे बच्चों से घिरी उनकी कोई समस्या सुलझा रही होतीं। अब बच्चे भी अपनी-अपनी जॉब में ख़ुश हैं। इतने सालों की चुप्पी या यूं कहें तिरस्कार से तुम ख़ुद को सिमटा चुकी थीं। तुम्हें तीन दिन से चढ़ रहे बुखार को भी मैं देख नहीं पाया व जब रविवार को बेटा घर आया तो उसने तुम्हें एडमिट करवाया। अब तो बच्चों को भी मैं हर पहल को, उनकी मां को नकारने वाली वस्तु लगने लगा हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि तुम मुझे अकेला छोड़कर नहीं जाओगी। ‘ज़िन्दगी भर मैं ख़ुद को तृप्त समझता रहा- और तुम तृषित रहीं। आज मैं तृषित हूं, तुम तृप्त दिखाई दे रही हो।’
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