26/05/2024
कोरोना के दिनों, अपनी माँ से धर्म को लेकर बात की. मैं धर्म पर विज्ञान और सवाल लेकर तर्क करने लगा. जो गाँव में रहने वाली माँ के लिए नए थे. अपने पक्ष में तर्क रखते हुए भी माँ मन विचलित हो गया. दो तीन दिन बाद माँ ने कहा कि मुझसे ऐसी बातें न किया कर, मेरा पूजा में मन नहीं लगता. मैं तो जैसे हैं वैसे ही पूजना चाहती हूँ. हमें तो अंधकार में ही रहने दे. तेरी बातों से मेरा मन विचलित होता है.'' मूल रूप से मेरी माँ का आग्रह यह था कि जैसे भी भगवान या तस्वीर उनके सामने हैं वे उनको ही पूजने में अपनी ख़ुशी पाती हैं. जिसके खंडन या आलोचना समालोचना, तर्क वितर्क से उन्हें घबराहट होती है, विचलन होता है. इसलिए वे अपनी आस्था में जरा भी कुछ कम करना नहीं चाहतीं. भले ही इससे वे अन्धकार में रहें या दुःख में.
मैं समझता हूँ कि एक गृहणी होने के कारण माँ को विश्वविद्यालयों और पुस्तकों से मिलने का मौका न मिला. इसलिए उनके पास एकमात्र धर्म एक आइडेन्टिटी बचता है, उनके लिए आस्था एक पहचान है, अगर उनसे वो भी छीन ली जाए तो उनके पास क्या बचता है? उन्हें शायद दुःख होगा. इसलिए मैंने अधिक बहसें न करके माँ की बातों को जस का तस मान लिया.
भगवान राम में हमारी ऐसी ही आस्था है, वे जैसे हैं अपने हैं, प्रिय हैं, इससे अधिक तर्क में जाने की हमारी इच्छा भी नहीं है. ये राम के प्रति हमारी एक मासूम सी आस्था है, बछड़े सा निरीह लगाव है, जिसे हम खोना नहीं चाहते. राम की तस्वीरें जो मसलन एक्टर अरुण गोविल की तस्वीरें हैं. वे ही हमने देखीं और राम को उसी रूप में मान लिया. उसी में वे पूजनीय हो गए. हमने राम को उसी रूप में तस्वीरों में पाया इसलिए उन्हें ही राम मान लिया. अब अपने इस नितांत स्नेह से गुथीं आस्थाओं में एक छोटी सी चटक भी हमें दुःख लगती है.
इस बीच अरुण गोविल भाजपा में चले गए. उनके बेतुके बयान आने लगे. इससे पहले अधिक लोग उन्हें जानते नहीं थे. लेकिन वे अपने राम को टीवी और सोशल मीडिया पर कुछ उम्रदराज और बहुत अधिक आम भाजपाई जैसा देख रहे थे. अब तक उनके लिए राम की वर्तमान तस्वीरें ही सदियों पुरानी लोककथाओं के नायक राम की तस्वीरें थीं. मगर भाजपा ने उनके राम को एक लोकसभा सीट भर के लिए सड़कों पर चुनाव लड़ने के लिए खड़ा कर दिया. जिन्हें वर्षों से राम के रूप में देखते आए उसे ही अब मोदी के नाम के लिए वोटों की भीख मांगते देख रहे हैं.
किसी का उन आस्थाओं पर ध्यान नहीं गया जिन्हें अरुण गोविल के इस रूप ने तोड़ा. आस्थाओं और मान्यताओं का सम यही है, मेरी मां जैसे आस्थावान औरतें-पुरुष हैं, जिन्हें इससे पहचान और लक्ष्य मिलता है जो उनकी जिन्दगी के दुखों को कुछ कुछ सहनीय बनाता है. वहीं राजनितिक दल भी हैं, जो राम के लिए लड़ते हैं, लेकिन राम के लिए उपलब्ध उन्हीं आस्थाओं को अपने पैरों में कुचल, हमारे सर की पगड़ी बन जाते हैं. सबके अपने अपने राम हैं...
— श्याम मीरा सिंह की वाल से साभार