29/01/2025
गरुड़ जी द्वारा अमृत-प्राप्ति की कथा
पिछले अंक में हमने समुद्र-मंथन की कथा पढ़ी थी , जिसमें यह बताया गया था कि गरुड़ जी अमृत कलश को लेकर उड़ चले थे। इस प्रसंग को जानने के लिए हम महाभारत के आदिपर्व में प्रवेश करते हैं।
महाभारत में गरुड़ जी द्वारा अमृत-प्राप्ति की कथा
महर्षि कश्यप जी की दो पत्नियां थीं - कद्रू और विनता। दोनों आपस में बहनें भी थीं। सौतियाडाह के कारण वे आपस में एक दूसरे से जलती भी थीं। गरुड़ जी माता विनता के पुत्र थे। इसलिए गरुड़ को " वैनतेय " भी कहते हैं। कद्रू के पुत्र सर्प थे।
समुद्र-मंथन से निकले उच्चै:श्रवा घोड़े को देखकर कद्रू ने विनता से कहा - यह अश्वराज किस रंग का है ? विनता ने कहा - श्वेत वर्ण (सफेद रंग) का है। कद्रू ने कहा - " यह घोड़ा तो सफेद है , लेकिन इसकी पूंछ काली है। आओ ! हम दोनों इस पर बाजी लगाएं। यदि तुम्हारी बात ठीक हो , तो मैं तुम्हारी दासी रहूंगी और मेरी बात ठीक निकली , तो तुम मेरी दासी रहना। " इस बात पर दोनों बाजी लगाने में सहमत हो गईं।
उच्चै:श्रवा घोड़े की पूंछ तो सफेद ही थी। विनता को धोखा देने के लिए कद्रू ने अपने सर्प पुत्रों को कहा कि तुम लोग शीघ्र ही काले बाल बनकर घोड़े की पूंछ ढक लो , जिससे पूंछ काली दिखने लगे और हमें दासी न बनना पड़े। तदनन्तर सर्प-पुत्र बाल बनकर पूंछ में लिपट गए और पूंछ काली दिखने लग गई।
दूसरे दिन जब दोनों बहनें घोड़े के समीप पहुंचीं , तो काली पूंछ देखकर विनता उदास हो गई। कद्रू ने विनता को दासी बना लिया। विनता के दासी बनते ही गरुड़ भी दास हो गया। दोनों मिलकर कद्रू और उसके सर्प पुत्रों की सेवा करने लगे।
एक दिन गरुड़ ने सांपों से कहा कि मैं और मेरी माता तुम लोगों की दासता से कैसे मुक्त होंगे ? तो सांपों ने कहा - गरुड़ ! यदि तुम हमें अमृत लाकर दो , तो हम तुम्हें और तुम्हारी माता को दासत्व से मुक्त कर देंगे।
गरुड़ जी देवलोक से अमृत-कुम्भ (अमृत कलश) लाने चल पड़े। देवगुरु बृहस्पति जी ने देवराज इंद्र को कहा कि विनतानंदन गरुड़ अमृत लेने के लिए यहां आ रहा है। इसके पश्चात् देवताओं सहित देवराज इंद्र स्वयं अमृत कलश को घेर कर उसकी रक्षा करने के लिए डट गए।
देवता सहित देवराज इंद्र गरुड़ जी को अमृत-कुम्भ ले जाने से नहीं रोक पाए। (इसी भाग- दौड़ में अमृत कुंभ से अमृत की कुछ बूंदें धरती पर भी छलक पड़ी थीं। वहीं आज भी कुंभ मेला का आयोजन होता है।)
आकाश मार्ग में गरुड़ जी को विष्णु भगवान के दर्शन हुए। गरुड़ के मन में अमृत-पान का तनिक भी लोभ नहीं है - यह जानकर भगवान ने गरुड़ से वर मांगने को कहा। गरुड़ ने कहा - " भगवन् ! एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में रखिए और दूसरे मैं अमृत पिए बिना ही अजर-अमर हो जाऊं। " भगवान ने कहा - " तथास्तु "।
तब गरुड़ जी ने कहा - प्रभु ! आप भी मुझसे कुछ मांग लीजिए। तब भगवान ने कहा - " तुम मेरे वाहन बन जाओ। " गरुड़ ने " ऐसा ही होगा " कहकर उनकी अनुमति से अमृत-कलश लेकर यात्रा पर चल पड़े।
जब देवराज इंद्र वैनतेय गरुड़ जी का मुकाबला नहीं कर सके , तो उन्होंने उनसे मित्रता कर ली। गरुड़ ने कहा - देवराज! मैं अमृत किसी को पिलाना नहीं चाहता। केवल अपनी मां एवं स्वयं को कद्रू की दासता से मुक्त करने के लिए सर्पों को अमृत कलश सौंपने जा रहा हूं। मैं इसे जहां रखूंगा , आप वहां से उठाकर ले जाइएगा। "
इससे इंद्र ने प्रसन्न होकर गरुड़ को वर दे दिया - " सर्प ही तुम्हारे भोजन की सामग्री हो। "
इसके बाद इंद्र से विदा होकर गरूड़ ने सांपों को अमृत कलश दे दिया और कहा - मैं इसे कुशों पर रख देता हूं। तुम सब स्नान करके पवित्र होकर इसे पी लेना।" जब सर्पगण स्नान करने के लिए गए , तब इंद्र अमृत-कलश उठाकर स्वर्ग में ले आए। अमृत-कलश का स्पर्श होने से " कुश " पवित्र माना जाने लगा।
इस प्रकार गरुड़ दासता से मुक्त होकर अपनी माता के साथ आनंद से रहने लगे।
मिथिलेश ओझा की ओर से आपको नमन एवं वंदन।