17/09/2025
खतड़वा: उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर, पशुधन संरक्षण और ऋतु परिवर्तन का प्रतीक
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उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में आश्विन संक्रांति (कन्या संक्रांति) के दिन मनाया जाने वाला खतड़वा पर्व एक ऐसा लोक उत्सव है, जो किसी हार जीत का दिन नही अपितु समय. परिवर्तन का दिन होता है , खतडुवा जो प्रकृति, पशुपालन और सामुदायिक एकजुटता की गहन समझ को दर्शाता है। यह पर्व न तो किसी ऐतिहासिक युद्ध की स्मृति है और न ही क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता का प्रतीक—बल्कि यह पहाड़ी जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं और सांस्कृतिक संवेदनशीलता का जीवंत चित्रण है। ठंडी हवाओं के आगमन के साथ पशुओं की रक्षा और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने वाला यह त्योहार, ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार—पशुधन—को सम्मानित करता है। लोक संस्कृति विशेषज्ञ डॉ. शेर सिंह बिष्ट जैसे विद्वानों ने इसे उत्तराखंड की लोक परंपराओं की एक अनमोल निधि के रूप में रेखांकित किया है, जहां पर्यावरणीय सामंजस्य और सामुदायिक सहभागिता की भावना प्रमुख है।
पर्व की रीतियाँ: प्रकृति से संवाद का माध्यम
खतड़वा की शुरुआत सुबह गोठ (पशुशाला) की सफाई से होती है। सूखी घास, पिरुल और झाड़ियों से बने 'खतड़'—जो पहाड़ी भाषा में गर्म बिछौना या रजाई का प्रतीक है—को पशुओं के लिए व्यवस्थित किया जाता है। कांस के फूलों और हरी घास से निर्मित 'बूढ़ा-बूढ़ी' के पुतले गोबर के ढेर पर स्थापित होते हैं, जो ऋतु परिवर्तन के प्रतीक के रूप में शाम को जलाए जाते हैं। इस अग्नि की राख से पशुओं और परिवार के सदस्यों के माथे पर तिलक लगाया जाता है, जो रोगों और ठंड से रक्षा की कामना का प्रतीक है। चीड़ की लकड़ियों से बनी मशालों (छिलुक) को पशुओं के ऊपर घुमाकर आरती की जाती है, जो सामूहिक उत्सव का रूप ले लेती है। ये रीतियाँ न केवल शीत ऋतु की चुनौतियों का सामना करने की तैयारी हैं, बल्कि प्रकृति के चक्र को स्वीकार करने की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी हैं।
लोकगीत: भावनाओं का संगीतमय अभिव्यक्ति
खतड़वा के लोकगीत पर्व की आत्मा हैं, जो पीढ़ियों से गाए जाते हैं और पशुधन के प्रति गहरे लगाव को उजागर करते हैं। इन गीतों में 'गाय की जीत, खतड़ की हार' का प्रतीकात्मक उल्लेख प्रमुख है, जो गाय की प्राकृतिक गर्मी और उपयोगिता को रजाई (खतड़) से श्रेष्ठ बताता है। एक प्रसिद्ध गीत इस प्रकार है:
"गाय जीती, खतड़ हारा,
भाग खतड़वा भाग!
जाड़े से रक्षा करो,
पशुधन को मंगल दो।"
इस गीत का अर्थ है कि गाय की मौजूदगी गोठ को गर्म रखती है, जिससे ठंड की मार कम होती है—एक जैविक सत्य जो पहाड़ी जीवन की सादगी को प्रतिबिंबित करता है। बच्चे जोर-जोर से गाते हैं, "गाय जीत, खतड़ुवै की हार, भाग खतड़ुवा भाग!", जो पशुओं को लगने वाली बीमारियों ('खतड़ुआ' रोग) की हार का प्रतीक है। ये गीत न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि सामुदायिक एकता को मजबूत करने वाले सांस्कृतिक पुल भी हैं। वे वर्षाकाल की समाप्ति और शरद की शुरुआत को चिह्नित करते हुए, प्रकृति के साथ सामंजस्य की सीख देते हैं।
पर्व की प्रासंगिकता: आधुनिक संदर्भ में सांस्कृतिक संरक्षण
आज के दौर में, जब शहरीकरण और प्रवास के कारण ग्रामीण परंपराएँ लुप्त हो रही हैं, खतड़वा जैसा पर्व पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता के महत्व को याद दिलाता है। यह पशुधन की कुशलता की कामना करता है, जो पहाड़ी कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था का मूल है। ठंडे हिमालयी क्षेत्रों में पशुओं की रक्षा न केवल आर्थिक आवश्यकता है, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा भी। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दौर में, यह पर्व सतत विकास का मॉडल प्रस्तुत करता है—जहां मानव, पशु और प्रकृति का सह-अस्तित्व प्राथमिक है। हाल के वर्षों में, प्रवास के कारण इस पर्व का उत्साह कम हुआ है, लेकिन युवा पीढ़ी द्वारा इसे पुनर्जीवित करने के प्रयास (जैसे सामुदायिक आयोजन और डिजिटल माध्यमों से प्रचार) सकारात्मक संकेत हैं। खतड़वा हमें सिखाता है कि सच्ची विजय संघर्ष में नहीं, बल्कि सामंजस्य और संरक्षण में है।
डॉ. शेर सिंह बिष्ट की टिप्पणी: लोक संस्कृति की गहन व्याख्या
उत्तराखंड की लोक संस्कृति पर गहन कार्य करने वाले डॉ. शेर सिंह बिष्ट ने खतड़वा को 'पशुपालन और ऋतु चक्र की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति' के रूप में वर्णित किया है। उनके अनुसार, यह पर्व 'क्षेत्रीय मिथकों से परे, पर्यावरणीय बुद्धिमत्ता का प्रमाण है, जहां पशुओं को परिवार का अभिन्न अंग माना जाता है।' बिष्ट जी के कार्यों, जैसे "उत्तराखंड की लोक संस्कृति" में, वे जोर देते हैं कि ऐसी परंपराओं को ऐतिहासिक भ्रांतियों से मुक्त रखना आवश्यक है, ताकि उनका मूल सांस्कृतिक स्वरूप बरकरार रहे। उनकी दृष्टि में, खतड़वा 'विजय उत्सव' नहीं, बल्कि 'रक्षा और कृतज्ञता का उत्सव' है, जो हिमालयी जीवन की सहनशीलता को प्रतिबिंबित करता है।
निष्कर्ष: सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण
खतड़वा पर्व उत्तराखंड की सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है—एक ऐसा उत्सव जो हार-जीत के द्वंद्व से ऊपर उठकर, जीवन के सतत चक्र को मनाता है। लोकगीतों की मधुर धुनें, रीतियों की सरलता और प्रासंगिकता की गहराई इसे जीवंत बनाती हैं। डॉ. शेर सिंह बिष्ट जैसे विद्वानों की अंतर्दृष्टि हमें प्रेरित करती है कि ऐसी परंपराओं को संरक्षित रखें, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इस सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ सकें। आइए, इस पर्व को अपनाकर प्रकृति और पशुधन के प्रति अपनी जिम्मेदारी को मजबूत करें—क्योंकि सच्ची संस्कृति संरक्षण में ही फलती-फूलती है।