Ram Kumar Niraj

Ram Kumar Niraj विज्ञान और मनोरंजन का अद्द्भुत संगम ।
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24/03/2025

रेडियो केवल एक संचार माध्यम नहीं, बल्कि हमारे बचपन और युवावस्था की अनगिनत यादों का साक्षी रहा है। 90 के दशक में पले-बढ़े हम जैसे लोगों के लिए रेडियो केवल खबरों या गानों का जरिया नहीं था, बल्कि यह हमारी भावनाओं और सोच का हिस्सा था। रेडियो की आवाज़ के साथ सुबह की शुरुआत होती और रात को इसकी मधुर धुनों के साथ नींद आ जाती।

अंतरराष्ट्रीय प्रसारणों का तो एक अलग ही आकर्षण था। बीबीसी, रेडियो जापान, रेडियो जर्मनी, वॉयस ऑफ़ अमेरिका जैसे रेडियो स्टेशनों से जुड़कर हम दुनिया के विभिन्न कोनों की खबरें और संस्कृतियाँ जान पाते थे। श्रोताओं की चिट्ठियाँ पढ़ी जातीं, जिनमें एक अपनापन झलकता था। जब कभी अपना नाम या पत्र किसी कार्यक्रम में सुनने को मिलता, तो गर्व और खुशी का अनुभव अविस्मरणीय होता।

लेकिन अब धीरे-धीरे रेडियो की दुनिया सिमट रही है। एक-एक कर कई अंतरराष्ट्रीय प्रसारण बंद हो गए हैं, और इंटरनेट तथा डिजिटल मीडिया ने रेडियो की जगह ले ली है। हालाँकि तकनीक का विकास ज़रूरी है, लेकिन रेडियो जैसी आत्मीयता और जुड़ाव शायद ही किसी और माध्यम में मिल सके।

रेडियो हमारे अतीत की वह मीठी याद है, जिसे भुला पाना मुश्किल है। यह न केवल मनोरंजन का माध्यम था, बल्कि भावनाओं का साथी और दुनिया को समझने का एक अनोखा जरिया भी था।

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गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू, महुए के फूलों की मीठी महक, और चौपाल पर गूँजती ढोलक की थाप—इन सबसे सजी होली बचपन से ही मेर...
14/03/2025

गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू, महुए के फूलों की मीठी महक, और चौपाल पर गूँजती ढोलक की थाप—इन सबसे सजी होली बचपन से ही मेरे लिए एक अनमोल त्योहार रही है। लेकिन इस बार सब कुछ बदला-बदला सा है। माँ के बिना यह पहली होली है, और उनके जाने के बाद घर में रंगों की जगह एक गहरी शून्यता ने ले ली है।

जहाँ पहले माँ की आवाज़ गूँजती थी—"अरे, रंगों से ज़रा बचकर! कहीं आँख में न चला जाए!"—वहाँ अब बस उनकी स्मृतियाँ रह गई हैं। बचपन में उन्हीं के दिए हुए चंद रुपयों से खरीदी गई पिचकारी और गुलाल से जो दुनिया रंगीन लगती थी, आज वही रंग फीके से लग रहे हैं।

इस बार घर में होली नहीं मनाने का निर्णय लिया गया है। न रंग खेला जाएगा, न गुझिया तली जाएगी, और न ही आँगन में हँसी-ठिठोली की गूँज होगी। लेकिन क्या माँ वाकई चाहतीं कि हम यूँ उदास रहें? शायद नहीं। वे तो हमेशा कहती थीं—"होली सिर्फ़ रंगों का नहीं, दिलों का भी त्योहार है।"

आज माँ की बहुत याद आ रही है। उनकी ममता, उनका स्नेह, उनकी खिलखिलाती हँसी… सब कुछ। मन करता है कि एक बार फिर वही बचपन लौट आए, जब माँ अपने हाथों से माथे पर अबीर लगाकर कहतीं—"जुग-जुग जियो बेटा!" पर अब बस यादें ही शेष हैं, जो न मिट सकती हैं, न धुंधला सकती हैं।

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