13/07/2024                                                                            
                                    
                                                                            
                                            प्रथम यथामति प्रणऊँ, श्रीवृन्दावन अति रम्य । श्रीराधिका कृपा बिनु, सबके मनन अगम्य ॥ 
वर यमुनाजल सींचन, दिनहीं शरद बसंत ।
 विविध भाँति सुमनस के, सौरभ अलि कुल मंत ॥ 
अरुण नूत पल्लव पर, कूजत कोकिल कीर । 
निर्तन करत सिखीकुल, अति आनन्द अधीर ॥ 
बहत पवन रुचिदायक, शीतल मंद सुगंधु । 
अरुण, नील, सित मुकुलित, जहाँ तहाँ पूषण - बंधु ॥ अति कमनीय विराजत, मन्दिर नवल निकुंज । 
सेवत सगन प्रीतिजुत, दिन मीनध्वज पुंज ॥ 
रसिक - रासि जहाँ खेलत, श्यामा-श्याम किशोर । 
उभय - बाहु - परिरंजित, उठे उनींदे भोर ॥ 
कनक कपिस पट शोभित, सुभग साँवरे अंग ।
 नील वसन कामिनि उर, कंचुकी कसूँभी सुरंग ॥ 
ताल रबाब मुरज डफ, बाजत मधुर मृदंग । 
सरस उकति-गति सूचत, वर बाँसुरी मुख चंग ॥ 
दोऊ मिलि चाँचर गावत, गौरी राग अलाप । 
मानस मृग बल बेधत, भृकुटि धनुष दृग चाँप ॥ 
दोऊ कर तारिनु पटकत, लटकत इत उत जात। 
हो - हो - होरी बोलत, अति आनँद कुलकात ॥
 रसिक लाल पर मेलत, कामिनी बन्धन्धुरी। 
पिय पिचकरिनु छीरकत, ताकि ताकि कुमकुम पूरी। 
कबहु -कबहु चन्दन तरु, निर्मित तरल हिंडोला ।
चढ़ी दोऊ जन झूलत, फूलत करत कलोल ।
वर हिन्डोल झकोरन, कामिनि अधिक डरात। पुलकी-पुलकी की वेपथ अंग, प्रीतम उर लपटात। 
हित चिन्तक निज- चेरिनु, उर आनन्द न समात।
निरखी निपट नैनन सुख, तृण तोरत बलि जात।
अती उदार विवी सुन्दर , सुरत सुर सुकुमार।
(जय श्री) हित हरिवंश, दो दिन, दो अचल बिहार।
राधा वल्लभ लाल कि जय 🙏🙏