
02/05/2024
अगर आपने पहले कभी जमींदारी बांध नाम न सुना हो, तो भी कोई बात नहीं क्योंकि नाम से ही आपने अंदाजा लगा लिया होगा कि पुराने दौर में अपनी रैयत को बाढ़-सुखाड़ इत्यादि से बचाने के लिए कभी जमींदारों ने ये बांध बनवाए होंगे. सामंत और जमींदार हमेशा अत्याचारी नहीं होते थे, वो जनहित के भी कई काम करवाते थे. और हां, जिस दौर में भारत में अकाल पड़ा हुआ था उस समय मुगल लोग ताजमहल भले बनवा रहे थे, बांधों के मामले में थोड़े कच्चे ही थे. मुगलों के बनाए नहर-बांध कौन से थे, ये ढूंढने के लिए आईने-अकबरी से लेकर रोमिला थापर तक की किताबें कुछ खास नहीं पता पाती हैं. बहरहाल, आजादी के बाद जमींदारी व्यवस्था बंद कर दी गयी और सबकुछ सरकार के कब्जे में आ गया. जब बांध इत्यादि बनवाने की व्यवस्था समाजवाद ने ले ली तो जमींदारी बांध भी सरकारी कब्जे में आ गए.
इस दौर में नेताओं ने शायद मान लिया कि नदी जो है, वो तो पीडब्ल्यूडी का खुदवाया हुआ नाला है! आज यहां नाला बना है तो कल भी वहीं रहेगा, परसों भी और पचास साल बाद भी. मतलब अगर “वेल डन अब्बा” फिल्म वाले कुंए की तरह सिर्फ कागजों पर न बना हो तो वहीं रहेगा. दिक्कत ये है कि नदी एक प्राकृतिक व्यवस्था है और उसका मन ऐसे सरकारी नियमों को मानने का बिलकुल नहीं होता. सिर्फ कोसी नदी का नक्शा ढूंढेंगे तो दिख जायेगा कि ये नदी सौ वर्षों में सौ किलोमीटर तो खिसक ही गयी है. यानी कि नयी समस्या थी बार-बार तटबंधों को अलग-अलग जगह बनवाना और बार-बार उनकी मरम्मत करना. इन तटबंधों की मरम्मत की जिम्मेदारी दी गयी बिहार के जल संसाधन विभाग को लेकिन जमींदारी बांध जब सरकार ने बनवाए ही नहीं थे, केवल उन पर मालिकाना लिया था तो उनकी मरम्मत जल संसाधन विभाग क्यों करवाता?
इस तरह जमींदारों से अधिकार तो ले लिए गए, मगर उनके कर्तव्य कौन पूरे करेगा, यह नहीं सोचा गया. जब सरकार का ध्यान इस पर गय.....