
11/09/2025
#प्रभु_श्री_राम_लला_सरकार_जी की प्रातः कालीन शुभ मंगला श्रृंगार आरती दर्शन*🌺 #श्री_राम_जन्मभूमि_अयोध्या_धाम।।*_ 🌺🌻 दिनांक~ 11/09/2025 🌻 दिन - गुरुवार🌺 प्रभु राम जी सबके सकल मनोरथ सिद्ध करें।।🌺🌻
🌺 प्रभु श्री राम लला सरकार 🌺
*┈┉┅━❀꧁ω❍ω꧂❀━┅┉┈* श्रीमद्भगवद्गीता के माहात्म्य की कहानियाँ
पोस्ट–04
श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का माहात्म्य
श्रीभगवान् कहते हैं–‘प्रिये! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ। सुनो, भागीरथी के तट पर वाराणसी (बनारस) नाम की एक पुरी है। वहाँ विश्वनाथजी के मन्दिर में भरत नाम के एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्मचिन्तन में तत्पर हो आदरपूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे। उसके अभ्यास से उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया था। वे शीत उष्ण आदि द्वन्दों से कभी व्यथित नहीं होते थे।
एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर से बाहर निकल गये। वहाँ बेर के दो वृक्ष थे। उन्हीं की जड़ में वे विश्राम करने लगे। एक वृक्ष की जड़ में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये तब बेर के वे दोनों वृक्ष पाँच ही छः दिनों के भीतर सूख गये। उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं। तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणों के पवित्र गृह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए।
वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्ष की हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूमकर आते हुए भरतमुनि को देखा। उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गयीं और मीठी वाणी में बोलीं–‘मुने! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है। हमने बेर की योनि त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है।’
उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछा–‘पुत्रियों! मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था ? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेर के वृक्ष होने में क्या कारण था ? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।’
तब वे कन्याएँ पहले उन्हें अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोलीं–‘मुने! गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाला है। वह पावनता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है। उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म-ऋतु में प्रज्वलित अग्नियों के बीच में बैठते थे, वर्षाकाल में जल की धाराओं से उनके मस्तक के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर-भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वत्ता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुनने के लिये साक्षात् ब्रह्माजी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे। ब्रह्माजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अत: उनके आनेपर भी वे सदा तपस्यामें मग्न रहते थे। परमात्मा के ध्यान में निरन्तर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपा को जीवन्मुक्त के समान मानकर इन्द्र को अपने समृद्धिशाली पद के सम्बन्ध में कुछ भय हुआ, तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये। अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इन्द्र ने इस प्रकार आदेश दिया–‘तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्रपद से हटाकर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है।’
इन्द्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं। वहाँ मन्द एवं गम्भीर स्वर से बजते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गान आरम्भ किया। इतना ही नहीं, उन योगी महात्मा को वश में करने के लिये हमलोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगीं। बीच-बीच में जरा-जरा-सा अंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दीख जाती थी। हम दोनों की उन्मत्त गति कामभाव का उद्दीपन करने वाली थी, किंतु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया। तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दिया–‘अरी! तुम दोनों गंगाजी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ।’
यह सुनकर हमलोगों ने बड़ी विनय के साथ कहा–‘महात्मन्! हम दोनों पराधीन थीं, अत: हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है, उसे आप क्षमा करें।’ यों कहकर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया। तब उन पवित्र चित्तवाले मुनि ने हमारे शापोद्धार की अवधि निश्चित करते हुए कहा–‘भरतमुनि के आने तक ही तुम पर यह शाप लागू होगा। उसके बाद तुम लोगों का मर्त्यलोक में जन्म होगा और पूर्वजन्म की स्मृति बनी रहेगी।’
'मुने! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्ष के रूप में खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था, अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शाप से ही नहीं, इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।’
श्रीभगवान् कहते हैं–‘उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदर के साथ प्रतिदिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।
० ० ०
पुस्तक:- श्रीमद्भगवद्गीता के माहात्म्य की कहानियाँ
पुस्तक कोड़:- (1938)
प्रकाशक:- गीताप्रेस (गोरखपुर)
० ० ०
॥जय जय श्री हरिः॥
********************************************