10/09/2025
शिकागो से विश्वगुरु तक विवेकानंद की कालजयी गूंज
- युद्ध, उन्माद और विषमताओं के बीच भारत की सच्ची शक्ति करुणा, सह-अस्तित्व और मानवीय सेवा ।।
11 सितम्बर 1893 का दिन भारत ही नहीं, विश्व इतिहास की स्मृति में अमर है। शिकागो के विशाल सभागार में धर्म संसद चल रही थी। जगमग झूमरों के नीचे दुनिया भर की परंपराओं और आस्थाओं के प्रतिनिधि बैठे थे। विभिन्न मतों के प्रवक्ता अपने विचार रख चुके थे। तभी मंच पर एक युवा संन्यासी पहुँचे साधारण केसरिया वस्त्र, मुख पर धैर्य और नेत्रों में अडिग आत्मविश्वास। क्षण भर को सभागार में सन्नाटा छा गया। और जैसे ही उन्होंने कहा- "Sisters and Brothers of America..." वातावरण मानो बिजली की तरह चमक उठा। लोग खड़े हो गए, तालियों की गूंज लहरों की तरह दीवारों से टकराने लगी। यह केवल एक अभिवादन नहीं था: यह भारत की आत्मा की पहली वैश्विक प्रस्तुति थी। उस क्षण से स्वामी विवेकानंद केवल एक व्यक्ति नहीं रहे: वे भारत के पहले cultural diplomat बन गए। उपनिवेशवाद के शिकंजे में बंधे भारत ने उनके माध्यम से स्वयं को एक आध्यात्मिक शक्ति और सांस्कृतिक आत्मविश्वास के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने वेदांत और हिन्दू धर्म को पहली बार पश्चिमी विमर्श का हिस्सा बनाया। यह क्षण भारत की सभ्यता के वैश्विक पुनर्जागरण की उद्घोषणा था। विवेकानंद का सबसे गहरा संदेश था कि धर्म का सार केवल सहिष्णुतानहीं, बल्कि सार्वभौमिक स्वीकृति है। उन्होंने गर्व से कहा "मुझे गर्व है उस भूमि पर जिसने युगों से सबसे पीड़ित और शरणार्थियों को अपने आँचल में स्थान दिया है- यहूदी हों या पारसी, सबको इसी धरती ने माँ की तरह सहारा दिया है।" यह भारत की आत्मा का परिचय था। वही आत्मा आज भी जीवित है महामारी के समय वैक्सीन पहुँचाने से लेकर तुर्की भूकंप जैसे आपदाओं में राहत भेजने तक। भारत की यही पहचान है: शरण देना, अपनाना और संकट में सहारा बनना। पर विवेकानंद ने चेताया कि सभ्यता की सबसे बड़ी बीमारी संकीर्णता है। "कुएँ के मेंढक" की उनकी कथा इसका प्रतीक है- एक ऐसा मेंढक जो अपने छोटे से कुएँ को ही सम्पूर्ण जगत मान लेता है और समुद्र की विशालता को अस्वीकार कर देता है। यही स्थिति तब होती है जब समाज अपनी जाति, धर्म या राष्ट्र की सीमाओं में कैद हो जाता है। आज की दुनिया इस विडंबना का जीवंत उदाहरण है। जब राष्ट्रवाद उग्र होकर दूसरों को शत्रु बना देता है, जब धार्मिक कट्टरता हिंसा और नरसंहार का रूप ले लेती है, जब युद्धों की आग में मासूमों की हँसी डूब जाती है तब यह स्पष्ट हो जाता है कि हम अब भी अपने-अपने कुओं में कैद हैं। विवेकानंद का संदेश था कि सभ्यता का भविष्य दीवारें खड़ी करने में नहीं, बल्कि समुद्र जैसी व्यापक दृष्टि अपनाने में है। यही भारत की normative शक्ति है दूसरों पर प्रभुत्व नहीं, बल्कि सबको एक परिवार के सूत्र में बाँधने का सामर्थ्य। "वसुधैव कुटुंबकम्" इसी दृष्टि का शाश्वत आधार है। वेदों पर उनकी व्याख्या भी उतनी ही मौलिक थी। उन्होंने उन्हें किसी पैरांबर की वाणी नहीं, बल्कि मानवता द्वारा अनुभूत शाश्वत सत्य का संकलन कहा। इस दृष्टि ने हिन्दू धर्म को कठोरता से मुक्त किया और उसे निरंतर विकसित होती परंपरा के रूप में प्रस्तुत किया। यही दृष्टि इसे आज भी प्रासंगिक बनाती है।
इसी के साथ, विवेकानंद ने जाति व्यवस्था की जंजीरों को भी चुनौती दी। "भिक्षु बनने में जाति कोई बंधन नहीं यह केवल धार्मिक उद्घोष नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का शंखनाद था। हमारी परंपरा स्वयं इसका प्रमाण है: महर्षि वाल्मीकि, जिन्होंने रामायण रचीः वेदव्यास, जिन्होंने महाभारत की रचना की: कबीर, जिन्होंने जाति की दीवारें ठुकराकर समता का संदेश दियाः और रहीम, जिन्होंने अपनी भक्ति-कविताओं से दिखाया कि मानवता की पहचान जाति या मज़हब नहीं, बल्कि प्रेम और आस्था है। भारतीय सभ्यता की महानता का आधार जन्म नहीं, बल्कि गुण और साधना रहा है। विवेकानंद का संदेश था कि भारत को विश्वगुरु बनने से पहले अपनी आंतरिक विषमताओं की बेड़ियाँ तोड़नी होंगी। उनकी करुणा सामाजिक पीड़ा के प्रति भी उतनी ही संवेदनशील थी। उन्होंने उद्घोष किया "पूर्व की असली समस्या धर्म नहीं भूख है।" यह वाक्य आज भी उतना ही प्रखर है। युद्धग्रस्त धरती पर भूख से बिलखते बालक, शरणार्थी शिविरों के थके चेहरे और हिंसा से उजड़े समाज सब उसी सच्चाई की गूंज हैं। विवेकानंद का संदेश स्पष्ट था कि धर्म का सार किसी बहस या प्रचार में नहीं, बल्कि मानवता की सेवा और पीड़ा के निवारण में है। इसी संदर्भ में उन्होंने मतांतरण की प्रवृत्ति को भी निरर्थक ठहराया। उनके लिए सच्चा धर्म किसी को बदलने में नहीं. बल्कि हर धर्म की अंतर्निहित सच्चाई को स्वीकारने में है। यही सनातन धर्म का वैशिष्ट्य है- उसके भीतर अनेक संप्रदाय हैं, फिर भी सबको सत्य मानता है: वह अन्य धर्मों की सत्यता का भी सम्मान करता है और किसी को मतांतरण के लिए बाध्य नहीं करता। इसी उदार दृष्टि ने उसे "धर्मों की जननी" बनाया है। उनके अंतिम शब्द थे "Help and not Fight, Assimilation and not Destruction, Harmony and Peace and not Dissension ।" यह केवल शिकागो के सभागार की गूंज नहीं थी, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए घोषणापत्र था। आज जब राज्य युद्धरत हैं. जब कट्टरता नरसंहार को जन्म देती है और जब समाज आंतरिक विभाजन से जूझ रहा है, विवेकानंद की यह वाणी और भी प्रासंगिक हो उठती है। भारत की आकांक्षा आज विश्वगुरु बनने की है। लेकिन यह पदवी केवल शक्ति या संपन्नता से नहीं मिलेगी। विश्वगुरु बनने का अर्थ है सभ्यता को ऐसा मार्ग दिखाना जो शांति, न्याय और साझी समृद्धि पर आधारित हो। विवेकानंद का संदेश ही भारत की सबसे बड़ी soft power है: शरण देने की परंपरा, भूख मिटाने की संवेदना और करुणा व विवेक का संतुलन। यही भारत के सभ्यतागत पुनर्जागरण का आधार है- एक ऐसी आत्मा की वापसी, जो दुनिया को यह याद दिलाती है कि सामंजस्य, शांति और सह-अस्तित्व ही मानवता का शाश्वत मार्ग है। Author- Aastha Agarwal, Research Scholar, Political Science Baba Mastnath University, Rohtak [email protected]
म्हारा बहादुरगढ़