07/05/2025
युधिष्ठिर की जन्म कथा – एक दिव्य प्रारंभ
हस्तिनापुर का राजवंश कुरु वंश, वैदिक काल से ही धर्म, नीति और युद्धशास्त्र में महान माना जाता था। राजा शांतनु, उनकी पत्नी गंगा और फिर सत्यवती के वंशजों के माध्यम से यह वंश आगे बढ़ा। शांतनु और सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य की मृत्यु हो जाने पर वंश की वृद्धि असंभव प्रतीत होने लगी। इसी कारण, देवी सत्यवती ने अपने पहले पुत्र महर्षि वेदव्यास को बुलाया और उनसे अनुरोध किया कि वे नियोग पद्धति से विचित्रवीर्य की विधवाओं – अंबिका और अंबालिका – से संतान उत्पन्न करें।
वेदव्यास ने मां की आज्ञा मानते हुए दोनों रानियों से संतान उत्पन्न की। अंबिका से धृतराष्ट्र, अंबालिका से पांडु, और एक दासी से विदुर का जन्म हुआ। इनमें पांडु ही योग्य राजा थे, क्योंकि धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे और विदुर शूद्र माता के कारण राज्य के उत्तराधिकारी नहीं बन सकते थे।
पांडु की तपस्या और श्राप
राजा पांडु बलवान, न्यायप्रिय और महान योद्धा थे। उन्होंने अनेक दिशाओं में विजय अभियान चलाया और अपने राज्य का विस्तार किया। किंतु एक दिन वन में आखेट करते समय उन्होंने गलती से एक ऋषि – किंडम ऋषि – को मृग समझकर बाण मार दिया। वह ऋषि अपनी पत्नी के साथ मृग का रूप धारण कर आनंद में लीन थे। मरते समय ऋषि ने पांडु को श्राप दिया: "जिस क्षण तुम अपनी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहोगे, उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।"
इस भयावह श्राप से दुखी होकर पांडु ने राजपाट धृतराष्ट्र को सौंप दिया और अपनी दोनों पत्नियों – कुंती और माद्री – के साथ वन को प्रस्थान कर गए। उन्होंने वैराग्य का मार्ग अपनाया और हिमालय की उपत्यकाओं में तप करने लगे।
कुंती का दिव्य वरदान
कुंती को बचपन में ही महर्षि दुर्वासा से एक विशेष वरदान मिला था। यह वरदान एक मंत्र था जिसके द्वारा वह किसी भी देवता का आह्वान कर सकती थी, और वह देवता उसे पुत्र रूप में वरदान स्वरूप संतान प्रदान करता।
पांडु ने जब यह रहस्य जाना, तो उन्होंने कुंती से अनुरोध किया कि वह इस मंत्र का उपयोग करे और देवताओं से संतान प्राप्त करें। कुंती, अपने पति की आज्ञा से, सबसे पहले धर्मराज यम का आह्वान करती हैं। यमराज प्रकट होते हैं और कहते हैं, "हे कुंती, मैं तुम्हारे गर्भ से एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करूंगा जो सत्य, नीति और धर्म का प्रतिरूप होगा। वह सदा धर्म के मार्ग पर चलेगा और उसका नाम युधिष्ठिर होगा।"
युधिष्ठिर का जन्म
वसंत ऋतु के मधुर वातावरण में, जब सूर्य की किरणें धरती को सुवर्णिम आभा दे रही थीं, उस समय हिमालय की एक शांत कुटी में युधिष्ठिर का जन्म हुआ। उनके जन्म के समय आकाश से पुष्पों की वर्षा हुई, आकाशवाणी हुई:
"यह बालक धर्म का प्रतिरूप होगा। इसके राज्य में धर्म की स्थापना होगी, यह महान यश और विजय प्राप्त करेगा।"
वन के मुनि और ऋषियों ने यज्ञ किया और आशीर्वाद दिया – “यह बालक धर्म का अवतार है।” युधिष्ठिर का बचपन हिमालय की वादियों में, ऋषियों के सान्निध्य में, वेदों, शास्त्रों और धर्मनीति की शिक्षा पाते हुए बीता।
युधिष्ठिर का स्वरूप और स्वभाव
युधिष्ठिर का स्वरूप तेजस्वी था। उनका रंग सांवला, मुख पर गंभीरता और आँखों में करुणा थी। वे अत्यंत विनम्र, संयमी, शांत और सत्यवादी थे। उनमें लोभ, क्रोध, अहंकार का नामोनिशान नहीं था। वे धर्म के इतने पालनकर्ता थे कि उन्हें 'धर्मराज', 'अजातशत्रु' (जिसका कोई शत्रु नहीं) और 'युधि-स्थिर' (जो युद्ध में भी स्थिर चित्त रखे) जैसे उपाधियाँ प्राप्त हुईं।
युधिष्ठिर ने कभी झूठ नहीं बोला था – सिवाय एक अवसर के, जो युद्ध में रणनीति के लिए आवश्यक हुआ (अश्वत्थामा वाला प्रसंग)। उनके इसी सत्यप्रिय स्वभाव के कारण भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें धर्मराज यम का अवतार कहा।
पांडवों का लालन-पालन
युधिष्ठिर के पश्चात कुंती ने वायु देव से भीम, इंद्र से अर्जुन तथा माद्री ने अश्विनीकुमारों से नकुल और सहदेव को जन्म दिया। पांचों पांडवों का लालन-पालन वन में ही हुआ। युधिष्ठिर सबसे बड़े थे और पिता तुल्य समझे जाते थे। वे अपने सभी भाइयों के प्रति अत्यंत स्नेही थे और उनकी रक्षा एवं मार्गदर्शन का कार्य करते थे।
जब पांडु की आकस्मिक मृत्यु हुई (श्रापवश माद्री से सहवास करते समय), कुंती पाँचों पुत्रों को लेकर हस्तिनापुर लौट आईं। वहीं से युधिष्ठिर का शौर्य और राजनीति में प्रवेश आरंभ हुआ।
युधिष्ठिर का शिक्षण और गुरुजनों से संबंध
हस्तिनापुर लौटने के बाद, पांडवों और कौरवों को गुरु कृपाचार्य के अधीन धनुर्विद्या, राजनीति, धर्मशास्त्र और नैतिकता की शिक्षा मिली। युधिष्ठिर पढ़ाई में अत्यंत निपुण थे। वे युद्धकला में अर्जुन जितने कुशल भले न हों, पर राजनीति, नीति और न्याय में उन्हें कोई नहीं पछाड़ सकता था।
गुरु द्रोणाचार्य ने भी उनकी नीति की प्रशंसा की। जब एक बार द्रोण ने परीक्षा ली कि कौन विद्यार्थी क्या सीखकर आया है, तो युधिष्ठिर ने कहा – “मैं अब तक केवल सत्य बोलना ही पूरी तरह सीख पाया हूँ।” यह सुनकर द्रोण की आँखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहा, “वास्तव में, यही सबसे कठिन ज्ञान है। बाकी तो केवल अभ्यास है।”
युधिष्ठिर और राज्याधिकार
जब युधिष्ठिर और पांडव युवावस्था में पहुंचे, तो हस्तिनापुर की जनता ने चाहा कि युधिष्ठिर को युवराज घोषित किया जाए। वे धृतराष्ट्र के भतीजे थे, धर्मप्रिय थे और जनता का प्रेम उन्हें प्राप्त था।
परंतु यही बात दुर्योधन को खटकने लगी। उसने शकुनि और कर्ण के साथ मिलकर युधिष्ठिर और पांडवों के खिलाफ षड्यंत्र रचना शुरू किया। लाक्षागृह कांड, वनवास, द्रौपदी-स्वयंवर, और अंततः जुए का षड्यंत्र – इन सभी घटनाओं का मूल कारण युधिष्ठिर की लोकप्रियता और धार्मिक प्रतिष्ठा ही थी।
धर्म के मार्ग पर युधिष्ठिर की परीक्षा
युधिष्ठिर ने कभी धर्म का त्याग नहीं किया। भले ही उन्होंने जुए में अपने राज्य, भाईयों, स्वयं को और अंततः द्रौपदी को भी हार दिया, पर उन्होंने कभी छल नहीं किया। यह घटना उनकी सबसे बड़ी त्रासदी बन गई, किंतु उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि यह उनका दोष था – “मैंने मोह में आकर यह अधर्म किया, यह मेरी परीक्षा थी।”
वनवास के दौरान युधिष्ठिर ने धर्म पर अनेक शास्त्रार्थ किए, मुनियों से धर्म और अधर्म का अंतर समझा, और अनेक बार अपने भाइयों का मार्गदर्शन किया। यक्ष प्रश्न के समय, जब युधिष्ठिर ने सभी सवालों के उत्तर धर्म के अनुसार दिए, यमराज – जो यक्ष के रूप में आए थे – अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया।
धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक और अंत
महाभारत युद्ध के बाद, जब समस्त कुरुक्षेत्र श्मशान बन चुका था, तब धर्मराज युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का सम्राट बनाया गया। उन्होंने धर्म के अनुसार प्रजा का पालन किया। श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में उन्होंने राजसूय यज्ञ और अन्य यज्ञ किए।
परंतु युद्ध के विनाश और अपने प्रियजनों की मृत्यु ने युधिष्ठिर को कभी आनंदित नहीं होने दिया। उन्होंने अंततः अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ महाप्रस्थान किया और हिमालय की ओर चल पड़े – मोक्ष की खोज में।
स्वर्गारोहण के समय केवल युधिष्ठिर ही जीवित थे, शेष सभी मार्ग में धराशायी हो गए। यमराज ने अंतिम बार युधिष्ठिर की परीक्षा ली और उन्हें जीवित शरीर सहित स्वर्ग ले गए – यह मानते हुए कि युधिष्ठिर धर्म के साक्षात रूप हैं।