29/06/2025
*एक भक्त की कहानी: माया और मुक्ति*
एक छोटे से गाँव में मदन नाम का एक व्यक्ति रहता था। बचपन से ही मदन के दिल में भक्ति और आध्यात्मिकता की चाह थी, लेकिन दुनियादारी के बंधनों ने उसे जकड़ रखा था। उसके परिवार में बड़ी संख्या में सदस्य थे, और रिश्तों की उलझनें, भाईचारे की जिम्मेदारियाँ, और सामाजिक ताने-बाने ने उसे कभी खुली साँस नहीं लेने दी। वह सुबह से शाम तक खेतों में काम करता, परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने में लगा रहता, और गाँव के हर सामाजिक कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता। उसकी पूरी ज़िंदगी दूसरों की अपेक्षाओं को पूरा करने और रिश्तों को निभाने में ही बीत गई।
मदन ने कई बार सोचा कि वह सब कुछ छोड़कर भजन-कीर्तन में लीन हो जाए, ईश्वर का नाम जपे, लेकिन हर बार कोई न कोई नई जिम्मेदारी आ जाती। कभी बेटे की शादी, कभी बेटी का गृहस्थ जीवन, कभी भाई के खेत में मदद, और कभी गाँव के झगड़ों को सुलझाना। वह इन सब में इतना उलझा रहा कि उसे अपने लिए समय ही नहीं मिला। उसके मन में हमेशा एक कसक रहती कि उसने अपनी आध्यात्मिक यात्रा शुरू ही नहीं की।
उम्र ढलती गई। मदन के बाल सफ़ेद हो गए और शरीर कमजोर पड़ने लगा। उसके बच्चे बड़े हो गए थे और अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त थे। अब मदन के पास थोड़ा खाली समय था, लेकिन तब तक उसका शरीर साथ छोड़ चुका था। एक दिन, गाँव के पास एक बड़े संत पधारे। यह कोई साधारण संत नहीं थे, बल्कि वे भगवान बलदाऊ के अनन्य भक्त थे। उन्होंने गाँव में डेरा डाला और प्रवचन देने लगे। मदन ने भी उनके प्रवचन सुने। संत ने दाऊजी (भगवान बलदाऊ) की महिमा का वर्णन किया, उनके त्याग, उनके प्रेम और उनके निस्वार्थ भाव की बातें कीं। संत के वचनों में एक ऐसी सच्चाई थी जिसने मदन के हृदय को झकझोर दिया।
मदन को लगा जैसे वर्षों से उसके मन में जो शांति की खोज थी, वह आज दाऊजी के नाम में मिल गई है। उसे अपने जीवन के उन सभी वर्षों का एहसास हुआ, जो उसने दुनियादारी की मृगतृष्णा में बिता दिए थे। उसे समझ आया कि ये सारे रिश्ते, ये सारी जिम्मेदारियाँ, एक मोह माया के सिवा कुछ नहीं थीं। अंततः, उसने अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर दाऊजी का आश्रय लिया। वह हर सुबह संत के पास जाता, दाऊजी के भजनों में लीन हो जाता और उनके गुणों का गान करता। उसकी आँखों से अश्रुधारा बहती रहती, लेकिन ये अश्रु दुख के नहीं, बल्कि मुक्ति और संतोष के थे।
एक दिन, जब वह संत के चरणों में बैठा था, उसने अपने हाथों को जोड़कर, आँखों में आँसू लिए कहा: "दाऊजी, आप ही सच्चे हैं! यह सारा संसार झूठा है, यह माया का खेल है। मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी इसी झूठ में गंवा दी। आज आपके चरणों में आकर ही मुझे शांति मिली है, मुझे मुक्ति मिली है। मैं धन्य हो गया, दाऊजी!"
मदन ने अपने जीवन के अंतिम क्षण दाऊजी के चरणों में ही बिताए। उसे इस बात का कोई मलाल नहीं था कि उसने देर से शुरुआत की, क्योंकि उसे यह एहसास हो गया था कि सच्ची शांति और सच्चा आनंद केवल ईश्वर के चरणों में ही है, दुनिया के बंधनों में नहीं।
कविता: दाऊजी तुम सच्चे हो
सारी उमर बीती इस जग की आपा-धापी में,
रिश्तों के बंधन में, भाईचारे की मापी में।
कभी किसी का था कंधा, कभी किसी का हाथ,
छूटा अपना ध्येय, भूला खुद का पथ।
घर-गृहस्थी की डोर ने ऐसा जकड़ा था,
मुक्ति का द्वार मुझको कभी न पकड़ा था।
मोह-माया के जाल में फँसता चला गया,
जीवन का सुनहरा पल यूँ ही ढला गया।
सोचा था कभी तो मिलेगा मुझको चैन,
पर दुनिया की बातें करती थीं बेचैन।
ये झूठा संसार, ये झूठे सब रिश्ते,
मतलब के सारे यहाँ, सारे फरिश्ते।
फिर एक दिन राह में, मिले एक संत महान,
सुनाया उन्होंने दाऊजी का पवित्र गान।
जैसे वर्षों से भूखा था कोई प्यासा मन,
पाया दाऊजी में मैंने अपना सच्चा धन।
आँखों से बहने लगे अश्रु की धारा,
मुझ पापी को मिला दाऊजी का सहारा।
लगा आज मिली मुझे जीवन की सच्ची राह,
छूट गई मन से वो जग की सारी चाह।
झूठा है ये सब संसार, दाऊजी तुम सच्चे हो,
मेरी आत्मा के, तुम ही सच्चे बच्चे हो।
धन्य हुआ ये जीवन, पाकर तुम्हारा नाम,
अब बस तुम्हारे चरणों में मिले मुझे विश्राम।
बोलो दाऊजी महाराज की जय