भविष्य पुराण Bhavishy Puran

भविष्य पुराण Bhavishy Puran भविष्यपुराण

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७४ सूर्यनारायण की द्वादश मूर्तियों का वर्णन  #पुराण #सूर्य राजा शतानीक ने कहा – महामु...
22/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७४ सूर्यनारायण की द्वादश मूर्तियों का वर्णन

#पुराण
#सूर्य

राजा शतानीक ने कहा – महामुने ! साम्ब के द्वारा चन्द्रभागा नदी के तट पर सूर्यनारायण की जो स्थापना की गयी है, वह स्थान आदिकाल से तो नहीं हैं, फिर भी आप इस स्थान के माहात्म्य का इतना वर्णन कैसे कर रहे हैं ? इसमें मुझे संदेह है ।

सुमन्तु मुनि बोले – भारत ! वहाँ पर सूर्यनारायण का स्थान तो सनातन काल से है । साम्ब ने उस स्थान की प्रतिष्ठा तो बाद में की है । इसका हम संक्षेप में वर्णन करते हैं । आप प्रेमपूर्वक उसे सुनें –

इस स्थान पर परम-ब्रह्म-स्वरुप जगत् स्वामी भगवान् सूर्यनारायण ने अपने मित्ररूप में तप किया है । वे ही अव्यक्त परमात्मा भगवान् सूर्य सभी देवताओं और प्रजाओं की सृष्टि करके स्वयं बारह रूप धारण कर अदिति के गर्भ से उत्पन्न हुए । इसी से उनका नाम आदित्य पड़ा । इन्द्र, धाता, पर्जन्य, पूषा, त्वष्टा, अर्यमा, भग, विवस्वान्, अंशु, विष्णु, वरुण तथा मित्र – ये सूर्य भगवान् की द्वादश मूर्तियाँ हैं । इन सबसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है ।

इनमें से प्रथम इन्द्र नामक मूर्ति देवराज में स्थित है, जो सभी दैत्यों और दानवों का संहार करती है । दूसरी धाता नामक मूर्ति प्रजापति में स्थित होकर सृष्टि की रचना करती है । तीसरी पर्जन्य नामक मूर्ति किरणों में स्थित होकर अमृतवर्षा करती है । पूषा नामक चौथी मूर्ति मन्त्रों में अवस्थित होकर प्रजा-पोषण का कार्य करती है । पाँचवी त्वष्टा नाम की जो मूर्ति है, वह वनस्पतियों और ओषधियों में स्थित है । छठी मूर्ति अर्यमा प्रजा की रक्षा करने के लिये पुरों में स्थित है । सातवी भग नामक मूर्ति पृथ्वी और पर्वतों में विद्यमान है । आठवीं विवस्वान् नामक मूर्ति अग्नि में स्थित है और वह प्राणियों के भक्षण किये हुए अन्न को पचाती है । नवीं अंशु नामक मूर्ति चन्द्रमा में अवस्थित है, जो जगत् को आप्यायित करती है । दसवीं विष्णु नामक मूर्ति दैत्यों का नाश करने के लिये सदैव अवतार धारण करती है । ग्यारहवीं वरुण नाम की मूर्ति समस्त जगत् की जीवनदायिनी है और समुद्र में उसका निवास है । इसलिये समुद्र को वरुणालय भी कहा जाता है । बारहवीं मित्र नामक मूर्ति जगत् का कल्याण करने के लिये चन्द्रभागा नदी के तट पर विराजमान है ।

यहाँ सूर्यनारायण ने मात्र वायु-पान करके तप किया है और मित्र-रूप से यहाँ पर अवस्थित है, इसलिये इस स्थान को मित्रपद (मित्रवन) भी कहते हैं । ये अपनी कृपामयी दृष्टि से संसार पर अनुग्रह करते हुए भक्तों को भाँति-भाँति के वर देकर संतुष्ट करते रहते हैं । यह स्थान पुण्यप्रद है । महाबाहो ! यहीं पर अमित तेजस्वी साम्ब ने सूर्यनारायण की आराधना करके मनोवाञ्छित फल प्राप्त किया है । उनकी प्रसन्नता और आदेश से साम्ब ने यहाँ भगवान् सूर्य को प्रतिष्ठापित किया । जो पुरुष भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण को प्रणाम करता है और श्रद्धा-भक्ति से उनकी आराधना करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में निवास करता है । (अध्याय ७४)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७० सिद्धार्थ (सर्षप)-सप्तमी- व्रत के उद्यापन की विधि  #सप्तमी #पुराण ब्रह्माजी बोले –...
08/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७० सिद्धार्थ (सर्षप)-सप्तमी- व्रत के उद्यापन की विधि

#सप्तमी
#पुराण

ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! सिद्धार्थ सप्तमी के व्रत के अनन्तर दूसरे दिन स्नान-पूजन-जप तथा हवन आदि करके भोजक, पुराण वेत्ता और वेद-पारङ्गत ब्राह्मणों को भोजन कराकर लाल वस्त्र, दूध देनेवाली गाय, उत्तम भोजन तथा जो-जो पदार्थ अपने को प्रिय हों, वे सब मध्याह्न काल में भोजकों को दान देने चाहिये । यदि भोजक न प्राप्त हो सकें तो पौराणिक को और पौराणिक न मिल सके तो सामवेद जाननेवाले मन्त्र विद् ब्राह्मण को वे सभी वस्तुएँ देनी चाहिये । मुने ! यह सिद्धार्थ-सप्तमी के उद्यापन की संक्षिप्त विधि है ।

इस प्रकार भक्तिपूर्वक सात सप्तमी का व्रत करने से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है और दस अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । इस व्रत से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । गरुड़ को देखकर सर्प आदि की तरह कुष्ठ आदि सभी रोग इसके अनुष्ठान से दूर भागते हैं । व्रत-नियम तथा तप करके सात सप्तमी को व्रत करने से मनुष्य विद्या, धन, पुत्र, भाग्य, आरोग्य और धर्म को तथा अन्त समय में सूर्यलोक को प्राप्त कर लेता है ।

इस सप्तमी व्रत की विधि का जो श्रवण करता है अथवा उसे पढ़ता है, वह भी सूर्यनारायण में लीन हो जाता है । देवता और मुनि भी इस व्रत के माहात्म्य को सुनकर सूर्यनारायण के भक्त हो गए हैं । जो पुरुष इस आख्यान का स्वयं श्रवण करता है अथवा दूसरे को सुनाता है तो वे दोनों सूर्यलोक को जाते हैं । रोगी यदि इसका श्रवण करे तो रोगमुक्त हो जाता है । इस व्रत की जिज्ञासा रखनेवाला भक्त अभिलषित इच्छाओं को प्राप्त करता है और सूर्यलोक को जाता है । यदि इस आख्यान को पढकर यात्रा की जाय तो मार्ग में विघ्न नहीं आते और यात्रा सफल होती है । जो कोई भी जिस पदार्थ की कामना करता है, वह उसे निश्चित प्राप्त कर लेता है ।

गर्भिणी स्त्री इस आख्यान को सुने तो वह सुखपूर्वक पुत्र को जन्म देती है. बन्ध्या सुने तो संतान प्राप्त करती है । याज्ञवल्क्य ! यह सब कथा सूर्यनारायण ने मुझसे कही थी और मैंने आपको सुना दी और अब आप भी भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण की आराधना करें, जिससे सभी पातक नष्ट हो जायँ । उदित होते ही जो अपनी किरणों से संसार का अन्धकार दूरकर प्रकाश फैलाते हैं, वे द्वादशात्मा सूर्यनारायण ही जगत् के माता-पिता तथा गुरु हैं, अदिति-पुत्र भगवान् सूर्य आपपर प्रसन्न हों । (अध्याय ७०)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६९ शुभाशुभ स्वप्न और उनके फल ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! जो व्यक्ति सप्तमी में उपव...
03/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६९ शुभाशुभ स्वप्न और उनके फल
ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! जो व्यक्ति सप्तमी में उपवास करके विधिपूर्वक सूर्यनारायण पूजन, जप एवं हवन आदि क्रियाएँ सम्पन्न कर रात्रि के समय भगवान् सूर्य का ध्यान करते हुए शयन करता हैं, तब उसे रात्रि में जो स्वप्न दिखायी देते हैं, उन स्वप्न-फलों का मैं अब वर्णन कर रहा हूँ ।

#स्वप्न
#पुराण

यदि स्वप्न में सूर्य का उदय, इन्द्रध्वज और चन्द्रमा दिखायी दे तो सभी समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं । माला पहने व्यक्ति, गाय या वंशी की आवाज, श्वेत कमल, चामर, दर्पण, सोना, तलवार, पुत्र की प्राप्ति, रुधिर का थोड़ा या अधिक मात्रा में निकलना तथा पान करना ऐसा स्वप्न देखने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । घृताक्त प्रजापति के दर्शन से पुत्र-प्राप्ति का फल होता है । स्वप्न में प्रशस्त वृक्ष पर चढ़े अथवा अपने मुख में महिषी, गौ या सिंहनी का दोहन करे तो शीघ्र ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है । सोने या चाँदी के पात्र में अथवा कमल-पत्र में जो स्वप्न में खीर खाता है उसे बल की प्राप्ति होती है । द्युत, वाद तथा युद्ध में विजय प्राप्ति का जो स्वप्न देखता है, वह सुख प्राप्त करता हैं । स्वप्न जो अग्नि-पान करता है, उसके जठराग्नि की वृद्धि होती है । यदि स्वप्न में अपने अङ्ग-प्रज्वलित होते दिखायी दें और सिर में पीड़ा हो तो सम्पत्ति मिलती है । श्वेत वर्ण के वस्त्र, माला और प्रशस्त पक्षी का दर्शन शुभ होता है ।
देवता-ब्राह्मण, आचार्य, गुरु, वृद्ध तथा तपस्वी स्वप्न में जो कुछ कहते हैं, वह सत्य होता है (देवद्विजजनाचार्यगुरुवृद्धतपस्विनः । यद्यद्वदन्ति तत्सर्वं सत्यमेव हि निर्दिशेत् ॥ ब्राह्मपर्व ६९ । १४-१५)। स्वप्न में सिर का कटना अथवा फटना, पैरों में बेड़ी का पड़ना, राज्य-प्राप्ति का संकेतक हैं । स्वप्न में रोने से हर्ष की प्राप्ति होती है ।

घोड़ा, बैल, श्वेत कमल तथा श्रेष्ठ हाथी पर निडर होकर चढ़ने से महान् ऐश्वर्य प्राप्त होता है । ग्रह और ताराओं का ग्रास देखे, पृथ्वी को उलट दे और पर्वत को उखाड़ फेंके तो राज्य का लाभ होता है । पेट से आँत निकले और उससे वृक्ष को लपेटे, पर्वत-समुद्र तथा नदी पार करे तो अत्यधिक ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । सुन्दर स्त्री के गोद में बैठे और बहुत-सी स्त्रियाँ आशीर्वाद दें, शरीर को कीड़े भक्षण करे, स्वप्न में स्वप्न का ज्ञान हो, अभीष्ट बात सुनने और कहने में आये तथा मङ्गलदायक पदार्थों का दर्शन एवं प्राप्ति हो तो धन और आरोग्य का लाभ होता है । जिन स्वप्नों का फल राज्य और ऐश्वर्य की प्राप्ति है, यदि उन स्वप्नों को रोगी देखता है तो वह रोग से मुक्त हो जाता है । इस प्रकार रात्रि में स्वप्न देखने के पश्चात् प्रातःकाल स्नानकर राजा-ब्राह्मण अथवा भोजक को अपना स्वप्न सुनाना चाहिये ।
(अध्याय ६९)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६८ सूर्यनारायण के प्रिय पुष्प, सूर्य मंदिर में मार्जन-लेपन आदि का फल, दीपदान का फल तथ...
01/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६८ सूर्यनारायण के प्रिय पुष्प, सूर्य मंदिर में मार्जन-लेपन आदि का फल, दीपदान का फल तथा सिद्धार्थ-सप्तमी-व्रत का विधान और फल

#पुराण
#सूर्य

ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! एक बार मैंने भगवान् सूर्यनारायण से उनके प्रिय पुष्पों के विषय में जिज्ञासा की । तब उन्होंने कहा था कि मल्लिका (बेला फुल की एक जाति) पुष्प मुझे अत्यन्त प्रिय है । जो मुझे इसे अर्पण करता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । मुझे श्वेत कमल अर्पण करने से सौभाग्य, सुगन्धित कुटज-पुष्प से अक्षय ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा मन्दार-पुष्प से सभी प्रकार के कुष्ठ-रोगों का नाश होता है और बिल्व-पत्र से पूजन करनेपर विपुल सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।

मन्दार-पुष्प की माला सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति, वकुल (मौलसिरी)-पुष्प की माला से रूपवती कन्या का लाभ, पलाश-पुष्प से अरिष्ट-शान्ति, अगस्त्य-पुष्प से पूजन करने पर (मेरा) सूर्यनारायण का अनुग्रह तथा करवीर (कनैल) पुष्प समर्पित करने से मेरे अनुचर होने का सौभाग्य प्राप्त होता है । बेला के पुष्पों से सूर्य की (मेरी) पूजा करने पर मेरे लोक की प्राप्ति होती है । एक हजार कमल-पुष्प चढ़ाने पर मेरे सूर्यलोक में निवास करने का फल प्राप्त होता है । वकुल-पुष्प अर्पित करने से भानुलोक प्राप्त होता है । कस्तुरी, चन्दन, कुंकुम तथा कपूर के योग से बनाये गए यक्षकर्दम गन्ध का लेपन करने से सद्गति प्राप्त होती है । सूर्य भगवान् के मन्दिर का मार्जन तथा उपलेपन करने वाला सभी रोगों से मुक्त हो जाता है और उसे शीघ्र ही प्रचुर धन की प्राप्ति होती है । जो भक्तिपूर्वक गेरू से मन्दिर का लेपन करता है, उसे सम्पत्ति प्राप्त होती है और वह रोगों से मुक्ति प्राप्त करता हैं और यदि मृत्तिका से लेपन करता है तो उसे अठारह प्रकार के कुष्ठरोगों से मुक्ति मिल जाती है ।

सभी पुष्पों से करवीर का पुष्प और समस्त विलेपनो में रक्तचन्दन का विलेपन मुझे अधिक प्रिय है । करवीर के पुष्पों से जो सूर्यभगवान् की पूजा करता है, वह संसार के सभी सुखों को भोगकर अन्त में स्वर्गलोक में निवास करता है ।

मन्दिर में लेपन करने के पश्चात् मण्डल बनाने पर सूर्यलोक की प्राप्ति होती है । एक मण्डल बनाने से अर्थ की प्राप्ति, दो मण्डल बनाने से आरोग्य, तीन मण्डल की रचना करने से अविच्छिन्न संतान, चार मण्डल बनाने से लक्ष्मी, पाँच मण्डल बनाने से विपुल धन-धान्य, छः मण्डलों की रचना करने से आयु, बल और यश तथा सात मण्डलों की रचना करने से मण्डल का अधिपति होता है तथा आयु, धन, पुत्र और राज्य की प्राप्ति होती है एवं अन्त मे उसे सूर्यलोक मिलता है ।

मन्दिर में घृत का दीपक प्रज्वलित करने से नेत्र रोग नहीं होता । महुए के तेल का दीपक जलाने से सौभाग्य प्राप्त होता है, तिल के तेल का दीपक जलाने से सूर्यलोक तथा कडुआ तेल से दीपक जलाने पर शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है ।

सर्वप्रथम गन्ध-पुष्प-धुप-दीप आदि उपचारों से सूर्य का पूजन कर नाना प्रकार के नैवेद्य निवेदित करने चाहिये । पुष्पों में चमेली और कनेर के पुष्प, धूपों में विजय-धूप, गन्धों में कुंकुम, लेपों में रक्त-चन्दन, दीपों में घृतदीप तथा नैवेद्यों में मोदक भगवान् सूर्यनारायण को परम प्रिय हैं । अतः इन्ही वस्तुओं से उनकी पूजा करनी चाहिये । पूजन करने के पश्चात् प्रदक्षिणा और नमस्कार करके हाथ में श्वेत सरसों का एक दाना और जल लेकर सूर्यभगवान् के सम्मुख खड़े होकर हृदय में अभीष्ट कामना का चिन्तन करते हुए सरसों सहित जल को पी जाना चाहिये, परन्तु दाँतों से उसका स्पर्श नहीं हो । इसी प्रकार दूसरी सप्तमी को श्वेत सर्षप (पीली सरसों) के दो दाने जल के साथ पान करना चाहिये और इसी तरह सातवीं सप्तमी तक एक-एक दाना बढ़ाते हुए इस मन्त्र से उसे अभिमन्त्रित करके पान करना चाहिये –
“सिद्धार्थकस्त्वं हि लोके सर्वत्र श्रूयसे यथा । तथा मामपि सिद्धार्थमर्थतः कुरुतां रविः ॥” (ब्राह्मपर्व ६८ । ३६)

तदनन्तर शास्त्रोक्त रीति से जप और हवन करना चाहिये । यह भी विधि है कि प्रथम सप्तमी के दिन जल के साथ सिद्धार्थ (सरसों) का पान करे, दूसरी सप्तमी को घृत के साथ और आगे शहद, दही, दूध, गोमय और पञ्चगव्य के साथ क्रमशः एक-एक सिद्धार्थ बढ़ाते हुए सातवीं सप्तमी तक सिद्धार्थ का पान करे । इस प्रकार जो सर्षप-सप्तमी का व्रत करता है, वह बहुत-सा धन, पुत्र और ऐश्वर्य प्राप्त करता है । उसकी सभी मनःकामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं और वह सूर्यलोक में निवास करता है ।
(अध्याय ६८)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६१ से ६३ भगवान् सूर्य द्वारा योग का वर्णन एवं ब्रह्माजी द्वारा दिण्डी को दिया गया क्र...
17/06/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६१ से ६३ भगवान् सूर्य द्वारा योग का वर्णन एवं ब्रह्माजी द्वारा दिण्डी को दिया गया क्रिया योग का उपदेश

#सूर्य
#पुराण

सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन् ! ऋषियों को जिस प्रकार ब्रह्माजी ने सूर्यनारायण की आराधना के विधान का उपदेश दिया था, उसे मैं सुनाता हूँ ।

किसी समय ऋषियों ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि महाराज ! सभी प्रकार की चित्तवृत्ति के निरोधरूपी योग को आपने कैवल्यपद को देनेवाला कहा हैं, किन्तु यह योग अनेक जन्मों की कठिन साधना के द्वारा प्राप्त हो सकता है । क्योंकि इन्द्रियों को बलात् आकृष्ट करनेवाले विषय अत्यन्त दुर्जय हैं, मन किसी प्रकार से स्थिर नहीं होता, राग-द्वेष आदि दोष नहीं छूटते और पुरुष अल्पायु होते हैं, इसलिये योगसिद्धि का प्राप्त होना अतिशय कठिन है । अतः आप ऐसे किसी साधन का उपदेश करें जिससे बिना परिश्रम के ही निस्तार हो सके ।

ब्रह्माजी ने कहा – मुनीश्वरों ! यज्ञ, पूजन, नमस्कार, जप, व्रतोपवास और ब्राह्मण-भोजन आदि से सूर्यनारायण की आराधना करना ही इसका मुख्य उपाय है । यह क्रियायोग है । मन, बुद्धि, कर्म, दृष्टी आदि से सूर्यनारायण की आराधना में तत्पर रहे । वे ही परब्रह्म, अक्षर, सर्वव्यापी, सर्वकर्ता, अव्यक्त, अचिन्त्य और मोक्ष को देनेवाले हैं । अतः आप उनकी आराधना कर अपने मनोवाञ्छित फल को प्राप्त करें और भवसागर से मुक्त हो जायँ । ब्रह्माजी से यह सुनकर मुनिगण सूर्यनारायण की उपासना-रूप क्रियायोग में तत्पर हो गए ।
हे राजन् ! विषयों में डूबे हुए संसार के दुःखी जीवों को सुख प्रदान करनेवाले सूर्यनारायण के अतिरिक्त और कोई भी नहीं हैं, इसलिये उठते-बैठते, चलते-सोते, भोजन करते हुए सदा सूर्यनारायण का ही स्मरण करो, भक्तिपूर्वक उनकी आराधना में प्रवृत्त होओ, जिससे जन्म-मरण, आधि-व्याधि से युक्त इस संसार-समुद्र से तुम पार हो जाओगे । जो पुरुष जगत्कर्ता, सदा वरदान देनेवाले, दयालु और ग्रहों के स्वामी श्रीसुर्यनारायण की शरण में जाता हैं, वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करता है ।

सुमन्तु मुनि ने पुनः कहा – राजन् ! प्राचीन काल में दिण्डी को ब्रह्महत्या लग गयी थी । उस ब्रह्महत्या के पाप को दूर करने के लिये उन्होंने बहुत दिनों तक सूर्यनारायण की आराधना और स्तुति की । उससे प्रसन्न हो भगवान् सूर्य उनके पास आये । भगवान् सूर्य ने कहा – ‘दिण्डिन् ! तुम्हारी भक्तिपूर्वक की गयी स्तुति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, अपना अभीष्ट वर माँगो ।’

दिण्डी ने कहा – महाराज ! आपने पधारकर मुझे दर्शन दिया, यह मेरे सौभाग्य की बात है । यही मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ वर है । पुण्य हीनों के लिये आपका दर्शन सर्वदा दुर्लभ है । आप सबके हृदय में स्थित हैं, अतः आप सबका अभिप्राय जानते हैं । जिस प्रकार मुझे ब्रह्महत्या लगी है, उसे तो आप जानते ही हैं । भगवन् ! आप मुझ पर ऐसा अनुग्रह करें कि मैं इस निन्दित ब्रह्महत्या से तथा अन्य पापों से शीघ्र मुक्त हो जाऊँ और मैं सफल-मनोरथ हो जाऊँ । आप संसार से उद्धार का उपाय बतलायें, जिसके आचरण से संसार के प्राणी सुखी हों । दिण्डी के इस वचन को सुनकर योग वेत्ता भगवान् सूर्य ने उन्हें निर्बीज-योग का उपदेश दिया, जो दुःख के निवारण के लिये औषधरूप है ।

दिण्डी ने प्रार्थना करते हुए कहा – महाराज ! यह निष्कल-योग तो बहुत कठिन हैं, क्योंकि इन्द्रियों को जीतना, मन को स्थिर करना, अहं-शरीरादि का अभियान और ममता का त्याग करना, राग-द्वेष से बचना- ये सब अतिशय कष्टसाध्य हैं । ये बातें कई जन्मों के अभ्यास करने से प्राप्त होती हैं । अतः आप ऐसा साधन बतलायें, जिससे अनायास बिना विशेष परिश्रम के ही फल की प्राप्ति हो जाय ।

भगवान् सूर्य ने कहा – गणनाथ ! यदि तुम्हें मुक्ति की इच्छा है तो समस्त क्लेशों को नष्ट करनेवाले क्रिया योग को सुनो । अपने मन को मुझ में लगाओ, भक्ति से मेरा भजन करो, मेरा यजन करो, मेरे परायण हो जाओ; आत्मा को मेरे में लगा दो, मुझे नमस्कार करो, मेरी भक्ति करो, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मुझे परिव्याप्त समझो (मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणाः ॥ (ब्राह्मपर्व ६२ । १९; गीता ९ ।३४), ऐसा करने से तुम्हारे सम्पूर्ण दोषों का विनाश हो जायगा और तुम मुझे प्राप्त कर लोगे । भली-भाँति मुझ में आसक्त हो जाने पर राग-लोभादि दोषों के नाश हो जाने से कृतकृत्यता हो जाती है । अपने मन को स्थिर करने के लिये सोना, चाँदी, ताम्र, पाषाण, काष्ठ आदि से मेरी प्रतिमा का निर्माण कराकर या चित्र ही लिखकर विविध उपचारों से भक्तिपूर्वक पूजन करो । सर्वभाव से प्रतिमा का आश्रय ग्रहण करो । चलते-फिरते, भोजन करते, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे उसी का ध्यान करो, उसे पवित्र तीर्थो के जल से स्नान कराओ । गन्ध, पुष्प, वस्त्र, आभूषण, विविध नैवेद्य और जो पदार्थ स्वयं को प्रिय हो उन्हें अर्पण करो । इन विविध उपचारों से मेरी प्रतिमा को संतुष्ट करो । कभी गाने की इच्छा हो तो मेरी मूर्ति के आगे मेरा गुणानुवाद गाओ, सुनने की इच्छा हो तो हमारी कथा सुनो । इस प्रकार मुझ में अपने मन को अर्पण करने से तुम्हें परमपद की प्राप्ति हो जायगी । सभी कर्म मुझ मे अर्पण करो, डरने की कोई बात नहीं । मुझ में मन लगाओ, जो कुछ करो मेरे लिये करो, ऐसा करने से तुम ब्रह्महत्या आदि सभी दोष पापों से रहित होकर मुक्त हो जाओगे, इसलिये तुम इस क्रिया योग का आश्रय ग्रहण करो ।

दिण्डी बोले – महाराज ! इस अमृतरूप क्रियायोग को आप विस्तार से कहें, क्योंकि आप के बिना कोई भी इसे बतलाने में समर्थ नहीं है । यह अत्यन्त गोपनीय और पवित्र है ।

भगवान् सूर्यने कहा – तुम चिन्ता मत करो । इस सम्पूर्ण क्रियायोग का ब्रह्माजी तुमको विस्तारपूर्वक उपदेश करेंगे और मेरी कृपा से तुम इसे ग्रहण करोगे । इतना कहकर तीनों लोकों के दीप स्वरुप भगवान् सूर्य अन्तर्हित हो गए और दिण्डी भी ब्रह्माजी के धाम को चले गये । ब्रह्मलोक पहुँचकर दिण्डी सुरज्येष्ठ चतुर्मुख ब्रह्माजी को प्रणाम कर कहने लगे ।

दिण्डी ने प्रार्थनापूर्वक कहा – ब्रह्मन् ! मुझे भगवान् सूर्यदेव ने आप के पास भेजा है । आप कृपाकर मुझे क्रियायोग का उपदेश करें, जिसके सहारे मैं शीघ्र ही भगवान् सूर्य को प्रसन्न कर सकूँ ।

ब्रह्माजी बोले – गणाधिप ! भगवान् सूर्य का दर्शन करते ही तुम्हारी ब्रह्महत्या तो नष्ट हो गयी । तुम भगवान् सूर्य के कृपापात्र हो । यदि सूर्यनारायण की आराधना करने की इच्छा है तो प्रथम दीक्षा ग्रहण करो, क्योंकि दीक्षा के बिना उपासना नहीं होती । अनेक जन्मों के पुण्य से भगवान् सूर्य में भक्ति होती है । जो पुरुष भगवान् सुर्य से द्वेष रखता है, ब्राह्मण तथा वेद की निन्दा करता है, उसे अवश्य ही अधम पुरुष से उत्पन्न समझो । माया के प्रभाव से ही अधम पुरुषों की कुकर्म में प्रवृत्ति होती है और उनके स्वल्प शेष रहने पर सूर्य की आराधना के लिये दीक्षा की इच्छा होती है । इस भवसागर में डूबनेवाले पुरुषों का हाथ पकड़कर उद्धार करनेवाले एकमात्र भगवान् सूर्य ही है । इसलिये तुम दीक्षा ग्रहण कर भगवान् सूर्य में तन्मय होकर उनकी उपसना करो, इससे शीघ्र ही भगवान् सूर्य तुम पर अनुग्रह करेंगे ।

दिण्डी ने पूछा – महाराज ! दीक्षा का अधिकारी कौन पुरुष है और दीक्षा-ग्रहण करने के बाद क्या करना चाहिये । कृपया आप इसे बतायें ।

ब्रह्माजी ने कहा – दिण्डिन् ! दीक्षा-ग्रहण की इच्छावाले व्यक्ति को मन, वचन और कर्म से हिंसा नहीं करनी चाहिये । सूर्यभगवान् में भक्ति करनी चाहिये, दीक्षित ब्राह्मणों को सदा नमस्कार करना चाहिये, किसी से द्रोह नहीं करना चाहिये । सभी प्राणियों को सूर्य के रूप के समझना चाहिये । देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, चींटी,वृक्ष, पाषाण आदि जगत् के सभी पदार्थों और आत्मा को सूर्य से भिन्न न समझकर मन, वचन और कर्म से जीवों में पापबुद्धि नहीं करनी चाहिये – ऐसा ही पुरुष दीक्षा का अधिकारी होता है । जो गति सूर्यनारायण की आराधना से प्राप्त होती है, वह न तो तप से मिलती है और न बहुत दक्षिणावाले यज्ञों के करने से । सभी प्रकार से जो भगवान् सूर्य का भक्त हैं, वह धन्य है । उस सूर्य भक्त के अनेक कुलों का उद्धार हो जाता है । जो अपने हृदय प्रदेश में भगवान् सूर्य की अर्चा करता है, वह निष्पाप होकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है । सूर्य का मन्दिर बनानेवाला अपनी सात पीढ़ियों को सूर्यलोक में निवास कराता है और जितने वर्षों तक मन्दिर में पूजा होती है, उतने हजार वर्षों तक वह सूर्यलोक में आनन्द का भोग करता है । निष्कामभाव से सूर्य की उपासना करनेवाला व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त करता है । जो उत्तम लेप, सुन्दर पुष्प, अतिशय सुगन्धित धूप प्रतिदिन सूर्यनारायण को अर्पित करता है, वह यज्ञ के फल को प्राप्त करता है ।
यज्ञ में बहुत सामग्रियों की अपेक्षा रहती है, इसलिये मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते, परन्तु भक्तिपूर्वक दुर्वा से भी सूर्यनारायण की पूजा करने से यज्ञ करने से भी अधिक फल की प्राप्ति हो जाती है – बहुपकरणा यज्ञा नानासम्भारविस्तराः ॥
न दिण्डिन्नवाप्यन्ते मनष्यैरल्पसंचयैः ।
भक्त्या तु पुरुषैः पूजा कृता दुर्वाङ्कुरैरपि ।
भानोर्ददाति हि फलं सर्वयज्ञैः सुदुर्लभम् ॥ (ब्राह्मपर्व ६३ । ३२-३३)

दिण्डिन् ! गन्ध, पुष्प, धुप, वस्त्र, आभूषण तथा विविध प्रकार के नैवेद्य जो भी प्राप्त हों और तुम्हें जो प्रिय हो, उन्हें भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण को निवेदित करो । तीर्थ के जल, दही, दूध, घृत, शर्करा और शहद से उन्हें स्नान कराओ । गीत-वाद्य, नृत्य, स्तुति, ब्राह्मण-भोजन, हवन आदि से भगवान् को प्रसन्न करो, किन्तु सभी पूजाएँ भक्तिपूर्वक होनी चाहिये । मैंने भगवान् सूर्य की आराधना करके ही सृष्टि की है । विष्णु उनके अनुग्रह से ही जगत् का पालन करते हैं और रूद्र ने उनकी प्रसन्नता से ही संहार-शक्ति प्राप्त की है । ऋषिगण भी उनके ही कृपाप्रसाद को प्राप्तकर मन्त्रों का साक्षात्कार करनेमें समर्थ होते हैं । इसलिये तुम भी पूजन, व्रत, उपवास आदिसे वर्ष-पर्यन्त भगवान् सूर्य की आराधना करो, जिससे सभी क्लेश दूर हो जायेंगे और तुम शान्ति प्राप्त करोगे ।
(क्रियायोग का वर्णन सभी पुराणों में मिलता है, विशेषरुप से पद्मपुराण का क्रियायोगसार-खण्ड दृष्टव्य है।)
(अध्याय ६१ से ६३)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ५८ सूर्यनारायण की रथयात्रा का फल इसे जो पढ़ता है, सुनता है, वह सभी प्रकार के रोगों से...
07/06/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ५८ सूर्यनारायण की रथयात्रा का फल
इसे जो पढ़ता है, सुनता है, वह सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है

ब्रह्माजी ने कहा — हे महादेव ! इस प्रकार अमित ओजस्वी भगवान् भास्कर को रथयात्रा करने वाला और दूसरे से कराने वाला व्यक्ति परार्ध वर्षों (ब्रह्माजी की आधी आयु) तक सूर्यलोक में निवास करता है । उस व्यक्ति के कुल में न कोई दरिद्र होता है न कोई रोगी । सूर्यभगवान् के अभ्यङ्ग के लिये घी समर्पण करने वाले तथा अनेक प्रकार का तिलक करने वाले व्यक्ति को सूर्यलोक प्राप्त होता है। गङ्गा आदि तीर्थों से जल लाकर जो सूर्यनारायण को स्नान कराता है, वह वरुणलोक में निवास करता करता हैं । लाल रंग का भात और गुड़ का नैवेद्य समर्पित करने वाला व्यक्ति प्रजापति लोक को प्राप्त करता है । भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण को स्नान कराकर पूजन करनेवाला व्यक्ति सूर्यलोक में निवास करता है ।

#पुराण
#सूर्य

जो व्यक्ति सूर्यदेव को रथ पर चढ़ाता है, रथ के मार्ग को पवित्र करता और पुष्प, तोरण, पताका आदि से अलंकृत करता है, वह वायुलोक में निवास करता है। जो व्यक्ति नृत्य-गीत आदि के द्वारा वृहद् उत्सव मनाता है, वह सूर्यलोक को प्राप्त करता है । जब सूर्यदेव रथ पर विराजमान होते हैं, उस दिन जागरण करनेवाला पुण्यवान् व्यक्ति निरन्तर आनन्द प्राप्त करता है । जो व्यक्ति भगवान् सूर्य को सेवा आदि के लिये व्यक्ति को नियोजित करता है, वह सभी कामनाओं को प्राप्तकर सूर्यलोक में निवास करता है । रथारूढ भगवान् सूर्य का दर्शन रथ करना बड़े ही सौभाग्य की बात है । जब रथ की यात्रा उत्तर अथवा दक्षिण दिशा की ओर होती है, उस समय दर्शन करने वाला व्यक्ति धन्य है । जिस दिन रथयात्रा हो, उसके साल भर बाद उसी दिन पुनः रथयात्रा करनी चाहिये । यदि वर्ष के बाद यात्रा न करा सके तो बारहवें वर्ष अतिशय उत्साह के साथ उत्सव सम्पन्न कर यात्रा सम्पन्न करानी चाहिये । बीच में यात्रा नहीं करनी चाहिये ।

इसी प्रकार इन्द्रध्वज के उत्सव में भी यदि विघ्न हो जाय तो बारहवें वर्ष में ही उसे सम्पन्न करना चाहिये । जो व्यक्ति रथयात्रा की व्यवस्था करता है, वह इन्द्रादि लोकपाल के सायुज्य को प्राप्त करता है । यात्रा में विप्न करने वाले व्यक्ति मंदेह जाति के राक्षस होते हैं । सूर्यनारायण की पूजा किये बिना जो अन्य देवताओं की पूजा करता है, वह पूजा निष्फल है । रथयात्रा के समय जो सूर्यनारायण का दर्शन करता है, वह निष्पाप हो जाता है । षष्ठी, सप्तमी, पूर्णिमा, अमावास्या और रविवार के दिन दर्शन करने से बहुत पुण्य होता है । आषाढ़, कार्तिक और माघ की पूर्णिमा को दर्शन करने से अनन्त पुण्य होता है। इन तीन मासों में भी रथयात्रा करनी चाहिये । इनमें भी कार्तिक (कार्तिक-पूर्णिमा)- को विशेष फलदायक होने से महाकार्तिकी कहा गया है । इन समयों में उपवासकर जो भक्तिपूर्वक भगवान् सूर्य की पूजा करता है, वह सद्गति को प्राप्त करता है ।

संसार पर अनुग्रह करने के लिये प्रतिमा में स्थित होकर सूर्यदेव स्वयं पूजन ग्रहण करते हैं । जो व्यक्ति मुण्डन कराकर स्नान, जप, होम, दान आदि करता है, वह दीक्षित होता है । सूर्य भक्त को अवश्य ही मुण्डन कराना चाहिये । जो व्यक्ति इस प्रकार दीक्षित होकर सूर्यनारायण की आराधना करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है । महादेवजी ! इस रथयात्रा के विधान का मैंने वर्णन किया । इसे जो पढ़ता है, सुनता है, वह सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है और विधिपूर्वक रथयात्रा का सम्पादन करनेवाला व्यक्ति सूर्यलोक को जाता है। (अध्याय ५८)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ५६-५७ रथयात्रा में विघ्र होने पर एवं गोचर में दुष्ट ग्रहों के आ जाने पर शान्ति का विध...
04/06/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ५६-५७ रथयात्रा में विघ्र होने पर एवं गोचर में दुष्ट ग्रहों के आ जाने पर शान्ति का विधान और तिल की महिमा

#पुराण
#ग्रह

भगवान् रुद्र ने पूछा — ब्रह्मन् ! आप पुनः रथयात्रा का वर्णन करें ।

ब्रह्माजी ने कहा — रुद्र ! रथ को धीरे-धीरे सममार्ग पर चलाया जाय, जिससे रथ को धक्का आदि न लगने पाये । मार्ग की शुद्धि के लिये प्रथम प्रतीहार और दण्डनायक उस मार्ग में जायँ । पिंगल, रक्षक, द्वारक, दिण्डी तथा लेखक – ये भी रथ के साथ-साथ चलें । इतनी सतर्कता और कुशलता से रथ को ले जाया जाय कि रथ का कोई अङ्ग-भङ्ग न हो। रथ का ईषादण्ड टूटने पर ब्राह्मणों को, अक्ष टूटने पर क्षत्रियों को, तुला टूटने पर वैश्यों को, शय्या के टूटने पर शूद्रों को भय होता है । युग के भङ्ग से अनावृष्टि, पीठ के भङ्ग से प्रजा को भय, रथ का चक्र टूटने से शत्रुसेना का आगमन, ध्वजा के गिरने से राजभङ्ग तथा प्रतिमा खण्डित होने से राजा की मृत्यु होती है । छत्र के टूटने पर युवराज की मृत्यु होती है । इनमें से किसी भी प्रकार का उत्पात होने पर उसकी शान्ति अवश्य करानी चाहिये तथा बाह्मण को भोजन और दान देना चाहिये एवं विधि-पूर्वक ग्रह-शान्ति करानी चाहिये ।

रथ के ईशानकोण में वेदी अथवा कुण्ड बनाकर धृत और समिधाओं से देवता तथा ग्रहों की प्रसन्नता के लिये हवन करना चाहिये और इन नाम-मन्त्रों से आहुति देनी चाहिये— ‘ॐ अग्नये स्वाहा, ॐ सोमाय स्वाहा, ॐ प्रजापतये स्वाहा ।’— इत्यादि। अनन्तर शान्ति एवं कल्याण के लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये —
‘स्वस्त्यस्त्विह च विप्रेभ्यः स्वस्ति राज्ञे तथैव च ।
गोभ्यः स्वस्ति प्रजाभ्यश्च जगतः शान्तिरस्तु वै ॥
शं नोऽस्तु द्विपदे नित्यं शान्तिरस्तु चतुष्पदे ।
शं प्रजाभ्यस्तथैवास्तु शं सदात्मनि चास्तु वै ॥
भूः शान्तिरस्तु देवेश भुवः शान्तिस्तथैव च ।
स्वश्चैवास्तु तथा शान्तिः सर्वत्रास्तु तथा रवे; ॥
त्वं देव जगतः स्रष्टा पोष्टा चैव त्वमेव हि ।
प्रजापाल ग्रहेशान शान्तिं कुरु दिवस्यते ॥’ (ब्राह्मपर्व ५६ । १६-१९)

अपनी जन्मराशि से दुष्ट स्थान में स्थित ग्रहों की प्रसन्नता तथा शान्ति के लिये ग्रह-समिधाओं से हवन करना चाहिये । ये समिधाएँ प्रादेशमात्र लम्बी होनी चाहिये ।
सूर्य के लिये अर्क की, चन्द्रमा के लिये पलाश की, मङ्गल के लिये खदिर की, बुध के लिये अपामार्ग की, बृहस्पति के लिये पीपल की, शुक्र के लिये गूलर की, शनि के लिये शमी की, राहु के लिये दूर्वा की और केतु के लिये कुशा की समिधा ही हवन के लिये प्रयोग करना चाहिये ।
उत्तम गौ, शङ्ख, लाल बैल, सुवर्ण, वस्त्र युगल, श्वेत अश्व, काली गौ, लौहपात्र और छाग — ये क्रमशः नौ ग्रहों की दक्षिणा हैं ।
गुड़ और भात, घी-मिश्रित खीर, हविष्यान्न, क्षीरान्न, दही-भात, घृत, तिल और उड़द के बने पक्वान्, गूदोंवाला फल, चित्रवर्ण का भात एवं काँजी — ये क्रमशः नवग्रहों के भोजन हैं ।

जैसे शरीर में कवच पहन लेने से बाण नहीं लगते वैसे ही ग्रहों की शान्ति करने से किसी प्रकार का उपघात नहीं होता । अहिंसक, जितेन्द्रिय, नियम में स्थित और न्याय से धनार्जन करने वाले पुरुषों पर ग्रहों का सदा अनुग्रह रहता है । यश, धन, संतान की प्राप्ति के लिये, अनावृष्टि होने पर, आरोग्य-प्राप्ति के लिये तथा सभी उपद्रवों की शान्ति के लिये ग्रहों की सदा पूजा करनी चाहिये। संतान से रहित, दुष्ट संतान वाली, मृत-वत्सा, मात्र कन्या संतान वाली स्त्री संतानदोष की निवृत्ति के लिये, जिसका राज्य नष्ट हो गया हो वह राज्य के लिये, रोगी पुरुष रोग की शान्ति के लिये अवश्य ग्रहों की शान्ति करे, ऐसा मनीषियों ने कहा है ।
यथा बाणप्रहाराणां वारणं कवचं स्मृतम् । तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम् ॥
अहिंसकस्य दान्तस्य धर्माजितधनस्य च । नित्यं च नियमस्थस्य सदा सानुग्रहा ग्रहाः ॥
ग्रहाः पूज्या सदा रुद्र इच्छता विपुलं यशः । श्रीकामः शान्तिकामो वा ग्रहयज्ञं समाचरेत् ॥
वृष्टयायुः पुष्टिकामो वा तथैवाभिचरन् पुन: । यानपत्या भवेन्नारी दुष्प्रजाश्चापि या भवेत् ॥
बाला यस्याः प्रम्रियन्ते या च कन्याप्रजा भवेत् । राज्यभ्रष्टो नृपो यस्तु दीर्घरोगी व यो भवेत् ॥
ग्रहयज्ञः स्मृतस्तेषां मानवानां मनीषिभिः । (ब्राह्मपर्व ५६ । ३०-३५)

ग्रहों की प्रतिमा ताम्र, स्फटिक, रक्त-चन्दन, सुवर्ण, चाँदी, लोहे और शीशे आदि की बनवाकर अथवा इनके चित्र का निर्माण करा कर जिस ग्रह का जो वर्ण हो उसी रंग के वस्त्र एवं पुष्प उन्हें समर्पित करे। गुग्गुल का धूप सभी को अर्पित करना चाहिये।
‘आ कृष्णन० ‘ (यजु० ३३ । ४३), इमं देवा० (यजु० ९ ।४०) इत्यादि नवग्रहों के अलग -अलग मन्त्रों से एक-एक ग्रह के नाम से समिधा, घृत, शहद और दही की एक सौ आठ अथवा अट्ठाईस आहुतियाँ दे तथा ब्राह्मणों को भोजन कराये । उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दे । जो ग्रह जिसके गोचर कुण्डली में अथवा दुष्ट स्थान पर स्थित हो, उसे उस ग्रह की यत्न-पूर्वक पूजा करनी चाहिये ।
महादेव ! मैंने इन ग्रहों को ऐसा वर दिया है कि लोगों द्वारा तुम सब पूजित होओगे । राजाओं का उत्थान और पतन तथा मनुष्यों का उदय और सम्पत्तियों का नाश ग्रहों के अधीन है, इसलिये ग्रह-शान्ति अवश्य करनी चाहिये ।

ग्रह, गाय, राजा, गुरुजन तथा ब्राह्मण पूजन करने वाले व्यक्ति को सब प्रकार का सुख प्रदान करते हैं । इनका अपमान करने से मनुष्य को अनेक प्रकार के दुःख मिलते हैं । यज्ञ करने वाले, सत्यवादी, जप, होम, उपवास आदि में तत्पर धर्मात्मा पुरुषों की सभी बाधाएँ शान्त हो जाती हैं ।
ग्रह गावो नरेन्द्राश्च गुरवो ब्राह्मणास्तथा । पूजिताः पूजयन्त्येते निर्दहन्त्यपमानिताः ॥
यज्वनां सत्यवाक्यानां तथा नित्योपवासिनाम् । जपहोमपराणां व सर्वं दुष्टं प्रशाम्यति ॥ (ब्राह्मपर्व ५६ । ४७, ४९)

इस प्रकार से शान्ति कर रथ को पुनः चलाना चाहिये और शेष मार्गों में घुमाकर अपने स्थान में पहुँच जाने पर रथस्थित देवताओं की पूजा करनी चाहिये। उत्पात होने पर ग्रहों की शान्ति के समान ही रथ में स्थित सभी देवताओं की भी पूजा करनी चाहिये । ऐसा करने से सभी तरह के उत्पातों की सब प्रकार से शान्ति हो जाती है।
दुष्ट ग्रहों की शान्ति के लिये ब्राह्मणों को तिल प्रदान करे अथवा घी के साथ तिलों का हवन कर और देवताओं को धूप दे ।

तिल देवताओं के लिये स्वाहारुप अमृत, पितरों के लिये स्वधारूप अमृत तथा ब्राह्मणों के लिये आश्रय-स्वरूप कहे गये हैं । ये तिल कश्यप के अङ्ग से उत्पन्न हुए हैं तथा देवता एवं पितरों को अति प्रिय हैं । स्नान, दान, हवन, तर्पण और भोजन में परम पवित्र माने गये हैं’।
देवानाममूतं होते पितृणां हि स्वधामृतम् । शरणं ब्राह्माणानां च सदा होता विदुर्बुधाः ॥
कश्यपस्याङ्गजा ह्येते पवित्राश्च तथा हर । स्नाने दाने तथा होमे तर्पणे ह्यशने पराः ॥ (बाह्मपर्व ५७। २५-२६)

इस प्रकार प्रह और देवताओं का पूजन कर भगवान् सूर्य को प्रतिमा को रथ से उतारकर मण्डल में स्थापित करे, फिर विघ्न-बाधाओं की शान्ति के लिये दीप, जल, जौ, अक्षत, कपास के बीज, नमक तथा धान की भूसी से आरती कर पलियों सहित सूर्यनारायण को वेदी के ऊपर स्थापित करे । वहाँ दस दिन तक उनकी विधिपूर्वक पूजा करे । दस दिनतक होनेवाली यह पूजा दशाहि का पूजा कहलाती है । इस प्रकार पूजनकर फिर भगवान् सूर्यनारायण को पूर्व स्थान पर स्थापित करना चाहिये। (अध्याय ५६-५७)

Bhavishya puran (Brahma parva) Chapter – 55 Consecration of God Surya and his CHARIOT journeyभविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अ...
30/05/2025

Bhavishya puran (Brahma parva) Chapter – 55 Consecration of God Surya and his CHARIOT journey
भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ५५ भगवान् सूर्य का अभिषेक एवं उनकी रथयात्रा
जिस देश में ये महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, वहाँ दुर्भिक्ष आदि उपद्रव नहीं होते और न चोरी आदि का कोई भय ही रहता है । इसलिये दुर्भिक्ष, अकाल आदि उपद्रवों की शान्ति के लिये इन उत्सवों को मनाना चाहिये । इस रथयात्रा के करने से सभी विघ्न-बाधाएँ निवृत्त हो जाती हैं ।
In the country where THESE festivals are held organised, there are NO problems like famine etc. and there is NO fear of theft etc. Therefore, these festivals SHOULD be celebrated to bring peace relief from problems like famine and and other troubles. By performing THIS rath Yatra, ALL the obstacles are removed.
#पुराण
#सूर्य

रुद्रने पूछा — ब्रह्मन् ! भगवान् सूर्य की रथयात्रा कब और किस विधि से की जाती है ? रथयात्रा करने वाले, रथ को खींचने वाले, रथ को वहन करने वाले, रथ के साथ जाने वाले और रथ के आगे नृत्य-गान करने वाले एवं रात्रि जागरण करने वाले पुरुषों को क्या फल प्राप्त होता है ? इसे आप लोक-कल्याण के लिये विस्तारपूर्वक बताइये।

ब्रह्माजी बोले — हे रुद्र ! आपने बहुत उत्तम प्रश्न किया है । अब मैं इसका वर्णन करता हूँ, आप इसे एकाग्र मन से सुनें ।

भगवान् सूर्य की रथयात्रा और इन्द्रोत्सव – ये दोनों जगत् के कल्याण के लिये मैंने प्रवर्तित किये हैं । जिस देश में ये दोनों महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, वहाँ दुर्भिक्ष आदि उपद्रव नहीं होते और न चोरी आदि का कोई भय ही रहता है । इसलिये दुर्भिक्ष, अकाल आदि उपद्रवों की शान्ति के लिये इन उत्सवों को मनाना चाहिये । मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को घृत के द्वारा भगवान् सूर्य को श्रद्धापूर्वक स्नान कराना चाहिये । ऐसा करनेवाला पुरुष सोने के विमान में बैठकर अग्निलोक को जाता है और वहाँ दिव्य भोग प्राप्त करता है ।
जो व्यक्ति शर्करा के साथ शालि-चावल का भात, मिष्टान्न और चित्रवर्ण के भात को भगवान् सूर्य को अर्पित करता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है ।
The person who offers rice, sweets and colored RICE with sugar to God Surya, reaches attains Brahma region.
जो प्रतिदिन भगवान् सूर्य को भक्तिपूर्वक घृत का उबटन लगाता है, वह परम गति को प्राप्त करता है ।
One who DAILY applies ghee to God Surya with devotion, attains the SUPREME destination.

पौष शुक्ल सप्तमी को तीर्थों के जल अथवा पवित्र जल से वेद-मन्त्रों के द्वारा भगवान् सूर्य को स्नान कराना चाहिये । सूर्यभगवान् के अभिषेक के समय प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, नैमिष, पृथूदक (पेहवा), शोण, गोकर्ण, ब्रह्मावर्त, कुशावर्त, बिल्वक, नीलपर्वत, गङ्गाद्वार, गङ्गासागर, कालप्रिय, मित्रवन, भाण्डीरवन, चक्रतीर्थ, रामतीर्थ, गङ्गा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, चन्द्रभागा, नर्मदा, विपाशा (व्यासनदी), तापी, शिवा, वेत्रवती (वेतवा), गोदावरी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), कृष्णा, वेण्या, शतद्रु (सतलज), पुष्करिणी, कौशिकी (कोसी) तथा सरयू आदि सभी तीर्थों, नदियों और समुद्रों का स्मरण करना चाहिये

यजेद्धि तीर्थनामानि मनसा संस्मरन् बुध: । प्रयागं पुष्करं देवं कुरुक्षेत्रं च नैमिषम् ॥
पृथुदकं चन्द्रभागां शोण गोकर्णमेव च । ब्रह्मावर्त कुशावर्त बिल्वकं नीलपर्वतम् ॥
गंङ्गाद्वारं तथा पुष्यं गङ्गासागरमेव च । कालप्रियं मित्रवनं शुण्डीरस्वामिनं तथा ॥
चक्रतीर्थं तथा पुण्यं रामतीर्थं तथा शिवम् । वितस्ता हर्षपन्था वै तथा वै देविका स्मृता ॥
गङ्गा सरस्वती सिन्धुश्चन्द्रभागा सनर्मदा । विपाशा यमुना तापी शिवा क्षेत्रवती तथा ॥
गोदावरी पयोष्णी च कृष्णा वेण्या तथा नदी । शतरुद्रा पुष्करिणी कौशिकी सरयूस्तस्था ॥
तथान्ये सागराशऽचैव सांनिध्यं कल्पयन्तु वे ॥ तथाश्रमाः पुण्यतमा दिव्यान्यायतनानि च ॥ (ब्राह्मपर्व ५५ । २४-३०)।

दिव्य आश्रमों और देवस्थानों का भी स्मरण करना चाहिये । इस प्रकार स्नान कराकर तीन दिन, सात दिन, एक पक्ष अथवा मासभर उस अभिषेक के स्थान में ही भगवान् का अधिवास करे और प्रतिदिन भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करता रहे ।

माघ मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को मङ्गल कलशों तथा वितान आदि से सुशोभित चौकोर एवं पक्के ईंटों से बनी वेदी पर सूर्यनारायण को भली-भाँति स्थापित कर हवन, ब्राह्मण-भोजन, वेद-पाठ और विभिन्न प्रकार के नृत्य, गीत, वाद्य आदि उत्सवों को करना चाहिये । अनन्तर माघ शुक्ला चतुर्थी को अयाचित व्रत करे, पञ्चमी को एक बार भोजन करे, षष्ठी को रात्रि के समय ही भोजन करे और सप्तमी को उपवास कर हवन, ब्राह्मण -भोजन आदि सम्पन्न करे। सबको दक्षिणा देकर पौराणिक की भली-भाँति पूजा करे । तदनन्तर रत्नजटित सुवर्ण के रथ में भगवान् सूर्य को विराजित उस रथ को उस दिन मन्दिर के आगे ही खड़ा करे । रात्रि में जागरण करे और नृत्य-गीत चलता रहे । माघ शुक्ला अष्टमी को रथयात्रा करनी चाहिये । रथ के आगे विविध बाजे बजते रहें, नृत्य-गीत और मङ्गल वेदध्वनि होती रहे । रथयात्रा प्रथम नगर के उत्तर दिशा से प्रारम्भ करनी चाहिये, पुनः क्रमशः पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा में भ्रमण कराना चाहिये । इस प्रकार रथयात्रा करने से राज्य के सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं। राजा को युद्ध में विजय मिलती है तथा उस राज्य में सभी प्रजाएँ और पशुगण नीरोग एवं सुखी हो जाते हैं। रथयात्रा करने वाले रथ को वहन करने वाले और रथ के साथ जाने वाले सूर्यलोक में निवास करते हैं ।

रुद्र ने कहा — हे ब्रह्मन् ! मन्दिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा को किस प्रकार उठाना चाहिये और किस प्रकार रथ में विराजमान करना चाहिये । इस विषय में मुझे कुछ संदेह हो रहा है, क्योंकि वह प्रतिमा तो स्थिर अर्थात् अचल प्रतिष्ठित है । अतः उसे कैसे चलाया जा सकता है ? कृपाकर आप मेरे इस संशय को दूर करें ।

ब्रह्माजी बोले — संवत्सर के अवयवों के रूप में जिस रथ का पूर्व में मैंने वर्णन किया है, वह रथ सभी रथों में पहला रथ है, उसको देखकर ही विश्वकर्मा ने सभी देवताओं के लिये अलग-अलग विविध प्रकार के रथ बनाये हैं । उस प्रथम रथ की पूजा के लिये भगवान् सूर्य ने अपने पुत्र मनु को वह रथ प्रदान किया । मनु ने राजा इक्ष्वाकु को दिया और तब से यह रथयात्रा पूजित हो गयी और परम्परा से चली आ रही है । इसलिये सूर्य की रथयात्रा का उत्सव मनाना चाहिये । भगवान् सूर्य तो सदा आकाश में भ्रमण करते रहते हैं, इसलिये उनकी प्रतिमा को चलाने में कोई भी दोष नहीं है । भगवान् सूर्य के भ्रमण करते हुए उनका रथ एवं मण्डल दिखायी नहीं पड़ता, इसलिये मनुष्यों ने रथयात्रा के द्वारा ही उनके रथ एवं मण्डल का दर्शन किया है । ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवों की प्रतिमा के स्थापित हो जाने के बाद उनको उठाना नहीं चाहिये, किंतु सूर्यनारायण की रथयात्रा प्रजाओं की शान्ति के लिये प्रतिवर्ष करनी चाहिये । सोने-चाँदी अथवा उत्तम काष्ठ का अतिशय रमणीय और बहुत सुदृढ़ रथ का निर्माण करना चाहिये । उसके बीच में भगवान् सूर्य की प्रतिमा को स्थापित कर उत्तम लक्षणों से युक्त अतिशय सुशील हरितवर्ण के घोड़ों को रथ में नियोजित करना चाहिये । उन घोड़ों को केसर से रँगकर अनेक आभूषणों, पुष्प-मालाओं और चँवर आदि से अलंकृत करना चाहिये । रथ के लिये अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । इस प्रकार रथ को तैयार कर सभी देवताओं की पूजा कर ब्राह्मण- भोजन कराना चाहिये । दक्षिणा देकर दीन, अंधे, उपेक्षितों तथा अनाथों को भोजन आदि से संतुष्ट करना चाहिये । उत्तम, मध्यम अथवा अधम किसी भी व्यक्ति को विमुख नहीं होने देना चाहिये। रथयात्रा स्वरूप इस सूर्यमहायाग में भूख से पीड़ित बिना भोजन किये यदि कोई व्यक्ति भग्न आशावाला होकर लौट जाता है तो इस दुष्कृत्य से उसके स्वर्गस्थ पितरों का अधःपतन हो जाता है ।

अतः सूर्यभगवान् के इस यज्ञ में भोजन और दक्षिणा से सबको संतुष्ट करना चाहिये, क्योंकि बिना दक्षिणा के यज्ञ प्रशस्त नहीं होता तथा निम्नलिखित मन्त्रों से देवताओं को उनका प्रिय पदार्थ समर्पित करना चाहिये —

बलिं गृह्णन्तु मे देवा आदित्या वसवस्तथा ॥
मरुतोऽथाश्विनौ रुद्राः सुपर्णाः पन्नगा ग्रहाः ।
असुरा यातुधाना रथस्था यास्तु देवताः ॥
दिक्पाला लोकपालायश्च ये च विघ्नविनायकाः ।
जगतः स्वस्ति कुर्वन्तु ये च दिव्या महर्षयः ॥
मा विघ्नं मा च मे पापं मा च मे परिपन्थिनः ।
सौम्या भवन्तु तृप्ताश्च देवा भूतगणास्तथा ॥ (ब्राह्मपर्व ५५ । ६८-७१)

इन मन्त्रों से बलि देकर ‘वामदेव्य०’, ‘पवित्रo’, ‘मानस्तोकo’ तथा ‘रथन्तर०’ इन ऋचाओं का पाठ करे । अनन्तर पुण्याहवाचन और अनेक प्रकार के मङ्गल वाद्यों की ध्वनि कर सुन्दर एवं समतल मार्ग पर रथ को चलाये, जिससे कहीं पर धक्का न लगे । घोड़े के अभाव में अच्छे बैलों को रथ में लगाना चाहिये या पुरुषगण ही रथ को खींचें । तीस या सोलह ब्राह्मण जो शुद्ध आचरण वाले हों तथा व्रती हों, वे प्रतिमा को मन्दिर से उठाकर बड़ी सावधानी से रथ में स्थापित करें । सूर्यप्रतिमा के दोनों ओर सूर्यदेव की राज्ञी (संज्ञा) एवं निक्षुभा (छाया) नामक दोनों पत्नियों को स्थापित करे । निक्षुभा को दाहिनी ओर तथा राज्ञी को बायीं ओर स्थापित करना चाहिये। सदाचारी वेदपाठी दो ब्राह्मण प्रतिमाओं के पीछे की ओर बैठे और उन्हें सँभालकर स्थिर रखें । सारथि भी कुशल रहना चाहिये । सुवर्णदण्ड से अलंकृत छत्र रथ के ऊपर लगाये, अतिशय सुन्दर रत्नों से जटित सुवर्णदण्ड से युक्त ध्वजा रथ पर चढ़ाये, जिसमें अनेक रंगों की सात पताकाएँ लगी हों । रथ के आगे के भाग में सारथि के रूप में ब्राह्मण को बैठना चाहिये । श्रद्धारहित व्यक्ति को रथ के ऊपर नहीं चढ़ना चाहिये, क्योंकि जो श्रद्धारहित व्यक्ति रथ पर आरूढ़ होता है, उसकी संतति नष्ट हो जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ही रथ के वहन करने का अधिकार है ।

अपने स्थान से चलकर सर्वप्रथम रथ को उत्तरद्वार पर ले जाना चाहिये । वहाँ एक दिन तक पूजा करे, विविध नृत्य-गीतादि-उत्सव, वेदपाठ तथा पुराणों की कथा होनी चाहिये । वहाँ ब्राह्मण भोजन भी कराना चाहिये । नवमी के दिन रथ चलाकर पूर्वद्वार पर ले जाय, एक दिन वहाँ रहे । तीसरे दिन दक्षिणद्वार पर रथ ले जाय तथा चौथे दिन पश्चिमद्वार पर रथ ले जाय । वहाँ से नगर के मध्य में रथ ले जाय, वहाँ पूजन और उत्सव करे, दीपमालिका प्रज्वलित करे, ब्राह्मणों को दान दे और भोजन कराये । अनन्तर वहाँ से मन्दिर में रथ को लाना चाहिये । वहाँ नगर के सभी लोग मिलकर पूजन और उत्सव करें । एक दिन-रात रथ में ही प्रतिमा रहे । दूसरे दिन भगवान् सूर्य की प्रतिमा को रथ से उतारकर बड़ी धूमधाम से मन्दिर में स्थापित करे। इस प्रकार सप्तमी से त्रयोदशी तक रथयात्रा होनी चाहिये और चतुर्दशी को प्रतिमा पूर्व स्थान में स्थापित कर दे । इस रथयात्रा के करने से सभी विघ्न-बाधाएँ निवृत्त हो जाती हैं ।
(अध्याय ५५)

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