भविष्य पुराण Bhavishy Puran

भविष्य पुराण Bhavishy Puran भविष्यपुराण

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ८३ से ८५ भद्रादित्य, सौम्यादित्य और कामदादित्यवार – व्रतों की विधि का निरूपण  #पुराण ...
16/09/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ८३ से ८५ भद्रादित्य, सौम्यादित्य और कामदादित्यवार – व्रतों की विधि का निरूपण

#पुराण
#व्रत

ब्रह्माजी बोले – दिण्डिन् ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को जो वार हो उसका नाम ‘भद्र’ है । उस दिन जो मनुष्य नक्तव्रत और उपवास करता है, वह हंसयुक्त विमान में बैठकर सूर्यलोक को जाता है । उस दिन श्वेत चन्दन, मालती-पुष्प, विजय-धूप तथा खीर के नैवेद्य से मध्याह्न-काल में सूर्यनारायण का पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये ।

दिण्डिन् ! यदि रोहिणी नक्षत्र से युक्त आदित्यवार हो तो उसे ‘सौम्यवार’ कहा जाता है । उस दिन किये जानेवाले स्नान,दान,जप, होम, पितृ-देवादि तर्पण तथा पूजन आदि कृत्य अक्षय होते हैं ।

मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की तिथि को जो वार हो, वह ‘कामदवार’ कहलाता हैं । यह वार भगवान् सूर्य को अत्यन्त प्रिय है । इस दिन जो भक्ति और श्रद्धा से सूर्यनारायण की पूजा करता है, वह सभी पातकों से विमुक्त होकर सूर्यलोक में निवास करता है । इस व्रत को करने से विद्यार्थी को विद्या, पुत्रेच्छु को पुत्र, धनार्थी को धन और आरोग्य के अभिलाषी को आरोग्य की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार कामदवार व्रत से और अन्य सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती है, इसीलिए इसका नाम कामद है ।

04/09/2025

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जैसे शरीर में कवच पहन लेने से बाण नहीं लगते वैसे ही ग्रहों की शान्ति करने से किसी प्रकार का उपघात नहीं होता ।
अहिंसक, जितेन्द्रिय, नियम में स्थित और न्याय से धनार्जन करने वाले पुरुषों पर ग्रहों का सदा अनुग्रह रहता है ।
यश, धन, संतान की प्राप्ति के लिये, अनावृष्टि होने पर, आरोग्य-प्राप्ति के लिये तथा सभी उपद्रवों की शान्ति के लिये ग्रहों की सदा पूजा करनी चाहिये।
संतान से रहित, दुष्ट संतान वाली, मृत-वत्सा, मात्र कन्या संतान वाली स्त्री संतान दोष की निवृत्ति के लिये, जिसका राज्य नष्ट हो गया हो वह राज्य के लिये, रोगी पुरुष रोग की शान्ति के लिये अवश्य ग्रहों की शान्ति करे, ऐसा मनीषियों ने कहा है ।
(भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व अध्याय ५६ । ३०-३५)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – १६३ विभिन्न पुष्पों द्वारा सूर्य-पूजन का फल  #सूर्य #पुष्प सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ...
03/09/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – १६३ विभिन्न पुष्पों द्वारा सूर्य-पूजन का फल

#सूर्य
#पुष्प

सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! अमित तेजस्वी भगवान् सूर्य को स्नान कराते समय ‘जय’ आदि माङ्गलिक शब्दों का उच्चारण करना चाहिये तथा शङ्ख, भेरी आदि के द्वारा मङ्गल-ध्वनि करनी चाहिये । तीनों संध्याओं में वैदिक ध्वनियों से श्रेष्ठ फल होता है । शङ्ख आदि माङ्गलिक वाद्य के सहारे नीराजन करना चाहिये । जितने क्षणों तक भक्त नीराजन करता है, उतने युग सहस्त्र वर्ष वह दिव्यलोक में प्रतिष्ठित होता है । भगवान् सूर्य को कपिला गौ के पञ्चगव्य से और मन्त्रपूत कुश-युक्त जल से स्नान कराने को ब्रह्मस्नान कहते हैं । वर्ष में एक बार भी ब्रह्मस्नान करानेवाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।

जो पितरों के उद्देश्य से शीतल जल से भगवान सूर्य को स्नान कराता है, उसके पितर नरकों से मुक्त होकर स्वर्ग चले जाते हैं । मिट्टी के कलश की अपेक्षा ताम्र-कलश से स्नान कराना सौ गुना श्रेष्ठ होता है । इसी प्रकार चाँदी आदि के कलश द्वारा स्नान कराने से और अधिक फल प्राप्त होता है । भगवान् सूर्य के दर्शन से स्पर्श करना श्रेष्ठ हैं और स्पर्श से पूजा श्रेष्ठ है और घृत-स्नान कराना उससे भी श्रेष्ठ है । इस लोक और परलोक में प्राप्त होनेवाले पापों के फल भगवान् सूर्य को घृतस्नान कराने से नष्ट हो जाते हैं एवं पुराण श्रवण से सात जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं ।

एक सौ पल (लगभग छः किलो बीस ग्राम) प्रमाण से (जल, पञ्चामृत आदिसे) स्नान कराना ‘स्नान’ कहलाता है । पचीस पल (लगभग डेढ़ किलो) से स्नान कराना ‘अभ्यङ्ग-स्नान’ कहलाता है और दो हजार पल (लगभग एक सौ चौबीस किलो) से स्नान कराने को ‘महास्नान’ कहते हैं ।

जो मानव भगवान् सूर्य को पुष्प-फल से युक्त अर्घ्य प्रदान करता है, वह सभी लोकों में पूजित होता है और स्वर्गलोक में आनन्दित होता है । जो अष्टाङ्ग अर्घ— जल, दूध, कुश का अग्रभाग, घी, दही, मधु, लाल कनेर का फूल तथा लाल चन्दन — बनाकर भगवान् सूर्य को निवेदित करता है, वह दस हजार वर्ष तक सूर्यलोक में विहार करता है । यह अष्टाङ्ग अर्घ भगवान् सूर्य को अत्यन्त प्रिय हैं ।
‘आपः क्षीरं कुशाग्राणि घृत दधि तथा मधु ।
रक्तानि करवीराणि तथा रक्तं च चन्दनम् ॥
अष्टाङ्ग एष अर्घो वै ब्रह्मणा परिकीर्तितः ।
सततं प्रीतिजननो भास्करस्य नराधिप ॥’
(ब्राह्मपर्व १६३ । ३७-३८)
बाँस के पात्र से अर्घ-दान करने से सौ गुना फल मिट्टी के पात्र से होता है, मिट्टी के पात्र से सौ गुना फल ताम्र के पात्र से होता है और पलाश एवं कमल के पतों से अर्घ देने पर ताम्रपात्र का फल प्राप्त होता है । रजतपात्र के द्वारा अर्घ प्रदान करना लाख गुना फल देता है । सुवर्णपात्र के द्वारा दिया गया अर्घ कोटि गुना फल देनेवाला होता है । इसी प्रकार स्नान, अर्घ, नैवेद्य, धूप आदिका क्रमशः विभिन्न पात्रों की विशेषता से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है ।

धनिक या दरिद्र दोनों को समान ही फल मिलता है, किंतु जो भगवान् सूर्य के प्रति भक्ति-भावना से सम्पन्न रहता है, उसे अधिक फल मिलता है । वैभव रहने पर भी मोहवश जो पूर्व विधि-विधान के साथ पूजन आदि नहीं करता, वह लोभ से आक्रान्त-चित होनेके कारण उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता । इसलिये मन्त्र, फल, जल तथा चन्दन आदि से विधिपूर्वक सूर्य की पूजा करनी चाहिये । इससे वह अनन्त फल को प्राप्त करता है । इस अनन्त फल-प्राप्ति में भक्ति ही मुख्य हेतु है । भक्तिपूर्वक पूजा करने से वह सौ दिव्य कोटि वर्ष सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।

राजन् ! सूर्य को भक्तिपूर्वक तालपत्र को पंखा समर्पित करनेवाला दस हजार वर्षों तक सूर्योलोक में निवास करता है । मयूर-पंख का सुन्दर पंखा सूर्य को समर्पित करनेवाला सौ कोटि वर्षों तक सूर्यलोक में निवास करता है । नरश्रेष्ठ ! हज़ारों पुष्पों से कनेरका पुष्प श्रेष्ठ, हजारों बिल्वपत्रों से एक कमल-पुष्प श्रेष्ठ है । हजारों कमल-पुष्पों से एक अगस्त्य-पुष्प श्रेष्ठ है, हजारों अगस्त्य-पुष्पों से एक मोंगरा-पुष्प श्रेष्ठ है, सहस्र कुशाओं से शमीपत्र श्रेष्ठ है तथा हजार शमी-पत्रों से नीलकमल श्रेष्ठ है । सभी पुष्पों में नीलकमल ही श्रेष्ठ है । लाल कनेर के द्वारा जो भगवान् सूर्य की पूजा करता है, वह अनन्त कल्पों तक सूर्यलोक में सूर्य के समान श्रीमान् तथा पराक्रमी होकर निवास करता है । चमेली, गुलाब, विजय, श्वेत मदार तथा अन्य श्वेत पुष्प भी श्रेष्ठ माने गये हैं । नाग-चम्पक, सदाबहार-पुष्प, मुद्गर (मोंगरा) ये सब समान ही माने गये हैं । गन्धयुक्त किंतु अपवित्र पुष्पों को देवताओं पर नहीं चढ़ाना चाहिये । गन्धहीन होते हुए भी पवित्र कुशादिकों को ग्रहण करना चाहिये । पवित्र पुष्प सात्त्विक पुष्प हैं और अपवित्र पुष्प तामसी हैं । रात्रि में मोंगरा और कदम्ब का पुष्प चढ़ाना चाहिये । अन्य सभी पुष्पों को दिन में ही समर्पित करना चाहिये । अधखिले पुष्प तथा अपक्व पदार्थ भगवान् सूर्य को नहीं चढ़ाने चाहिये । फलों के न मिलने पर पुष्प, पुष्प न मिलने पर पत्र और इनके अभाव में तृण, गुल्म और औषध भी समर्पित किये जा सकते हैं । इन सबके अभाव में मात्र भक्तिपूर्वक पूजन-आराधन से भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं । जो माघ मास के कृष्ण पक्ष में सुगन्धित मुक्ता-पुष्पों द्वारा सूर्य की पूजा करता है, उसे अनन्त फल प्राप्त होता है । संयतचित्त होकर करवीर-पुष्पों से पूजा करनेवाला सभी पापों से रहित हो सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।

अगस्त्यके पुष्पों से जो एक बार भी भक्तिपूर्वक सूर्य की पूजा करता है, वह दस लाख गोदान का फल प्राप्त करता है और उसे स्वर्ग प्राप्त होता है ।

मालती, रक्त कमल, चमेली, पुंनाग, चम्पक, अशोक, श्वेत मन्दार, कचनार, अंधुक, करवीर, कल्हार, शमी, तगर, कनेर, केशर, अगस्त्य, बक तथा कमल-पुष्प द्वारा यथाशक्ति भगवान् सूर्य की पूजा करनेवाला कोटि सूर्य के समान देदीप्यमान विमान से सूर्यलोक को प्राप्त करता है अथवा पृथ्वी या जल में उत्पन्न पुष्पों द्वारा श्रद्धापूर्वक पूजन करनेवाला सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।
(अध्याय १६३)

23/08/2025

भगवान् सूर्य | God | भगवान् | Sun | सूर्य | Incense | धूप | Yagya | यज्ञ | Ashwamedha | अश्वमेध यज्ञ



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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६१ से १६२ सूर्योपासना का फल  #सूर्य  #फल  शतानीक ने पूछा — मुने ! आपने भगवान् सूर्य...
23/08/2025

भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६१ से १६२ सूर्योपासना का फल

#सूर्य
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शतानीक ने पूछा — मुने ! आपने भगवान् सूर्य के विषय में जो कहा, वह सत्य ही है, संसार के मूल कारण तथा परम दैवत भगवान् सूर्य ही हैं, सभी को यही तेज प्रदान करते हैं । भगवान् सूर्यनारायण के पूजन से जो फल प्राप्त होता है, आप उसे बतलाने की कृपा करें ।

सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! जो व्यक्ति सर्वदेवमय भगवान् सूर्य की प्रतिष्ठा कर पूजन करता है, वह अमरत्व तथा भगवान् सूर्य का सामीप्य प्राप्त कर लेता है । जो व्यक्ति भगवान् सूर्य का तिरस्कार कर सभी देवताओं का पूजन करता है, उस व्यक्ति के साथ भाषण करनेवाला व्यक्ति भी नरकगामी होता है । जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सूर्यदेव की प्रतिष्ठा कर पूजन-अर्चन करता है, उसे यज्ञ, तप, तीर्थयात्रा आदिकी अपेक्षा कोटि गुना अधिक फल प्राप्त होता है तथा उसके मातृकुल, पितृकुल एवं स्त्रीकुल—इन तीनों का उद्धार हो जाता है और वह इन्द्रलोक मे पूजित होता है तथा वहाँ ज्ञानयोग के आश्रयण से वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है अथवा जो राज्य चाहता है वह दूसरे जन्म में सप्तद्वीपवती वसुमती का राजा होता है । जो व्यक्ति मिट्टी का सर्वदेवमय व्योम बनाकर भगवान् सूर्य का पूजन-अर्चन करता है, वह तीनों लोकों में पूजित एवं इस लोक में धन-धान्य से परिपूर्ण होकर अन्त में सूर्यलोक को प्राप्त कर लेता है ।

जो व्यक्ति भगवान् सूर्य के पिष्टमय व्योम की रचनाकर गन्ध, धूप, पुष्प, माला, चन्दन, फल आदि उपचारों से पूजा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है और कोई क्लेश नहीं पाता । वह भगवान् सूर्य के समान प्रतापपूर्ण हो अव्यय पद को प्राप्त करता है । अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक भगवान् सूर्य का मन्दिर निर्माण कराने वाला स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर भगवान् सूर्य के साथ विहार करता है । यदि साधनसम्पन्न होने पर भी श्रद्धा-भक्ति से शून्य होकर मन्दिर आदि का निर्माण करता है तो उसे कोई फल नहीं होता । इसलिये अपने धन का तीन भाग करना चाहिये, उसमे से दो भाग धर्म तथा अर्थोपार्जन में व्यय करें और एक भाग से जीवनयापन करे । धन-सम्पत्ति से सम्पन्न रहने पर भी यदि कोई बिना भक्ति के अपना सर्वस्व भगवान् सूर्य के लिये अर्पण कर दे, तब भी वह धर्म का भाग नहीं होता, क्योंकि इसमें भक्ति की ही प्रधानता है ।

‘सर्वस्वनपि यो दद्यादर्के भक्तिविवर्जितः । न तेन धर्मभागी स्याद्भक्तिरेवात्र कारणम् ॥ (ब्राह्मपर्व १६२ । २९)
मानव संसार में दुःख और शोक से व्याकुल होकर तबतक भटकता है, जबतक भगवान् सूर्य की पूजा नहीं करता । संसार में आसक्त प्राणियों को भगवान् सूर्य के अतिरिक्त और कौन ऐसा देवता है जो बन्धन से छुटकारा दिला सके । (अध्याय १६१-१६२)

12/08/2025

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One who worships God SUN and offers incense after taking bath at ALL three times, gets the fruit of ASHWAMADHA yagya and also gets wealth, son and health and FINALLY he absorbed in, merges with GOD sun. One who watches God Sun being WORSHIPed with devotion ALSO gets the fruit of Ashwamedha Yagya and attains the Sun World. One attains the BEST destination by seeing Sun at the time of INCENSE offering. The glory of offering Arghya and showing incense to God Sun is mentioned in Bhavishya Puran (Brahma parva) Chapter – 143 Sambopakhyana.

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७४ सूर्यनारायण की द्वादश मूर्तियों का वर्णन  #पुराण #सूर्य राजा शतानीक ने कहा – महामु...
22/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७४ सूर्यनारायण की द्वादश मूर्तियों का वर्णन

#पुराण
#सूर्य

राजा शतानीक ने कहा – महामुने ! साम्ब के द्वारा चन्द्रभागा नदी के तट पर सूर्यनारायण की जो स्थापना की गयी है, वह स्थान आदिकाल से तो नहीं हैं, फिर भी आप इस स्थान के माहात्म्य का इतना वर्णन कैसे कर रहे हैं ? इसमें मुझे संदेह है ।

सुमन्तु मुनि बोले – भारत ! वहाँ पर सूर्यनारायण का स्थान तो सनातन काल से है । साम्ब ने उस स्थान की प्रतिष्ठा तो बाद में की है । इसका हम संक्षेप में वर्णन करते हैं । आप प्रेमपूर्वक उसे सुनें –

इस स्थान पर परम-ब्रह्म-स्वरुप जगत् स्वामी भगवान् सूर्यनारायण ने अपने मित्ररूप में तप किया है । वे ही अव्यक्त परमात्मा भगवान् सूर्य सभी देवताओं और प्रजाओं की सृष्टि करके स्वयं बारह रूप धारण कर अदिति के गर्भ से उत्पन्न हुए । इसी से उनका नाम आदित्य पड़ा । इन्द्र, धाता, पर्जन्य, पूषा, त्वष्टा, अर्यमा, भग, विवस्वान्, अंशु, विष्णु, वरुण तथा मित्र – ये सूर्य भगवान् की द्वादश मूर्तियाँ हैं । इन सबसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है ।

इनमें से प्रथम इन्द्र नामक मूर्ति देवराज में स्थित है, जो सभी दैत्यों और दानवों का संहार करती है । दूसरी धाता नामक मूर्ति प्रजापति में स्थित होकर सृष्टि की रचना करती है । तीसरी पर्जन्य नामक मूर्ति किरणों में स्थित होकर अमृतवर्षा करती है । पूषा नामक चौथी मूर्ति मन्त्रों में अवस्थित होकर प्रजा-पोषण का कार्य करती है । पाँचवी त्वष्टा नाम की जो मूर्ति है, वह वनस्पतियों और ओषधियों में स्थित है । छठी मूर्ति अर्यमा प्रजा की रक्षा करने के लिये पुरों में स्थित है । सातवी भग नामक मूर्ति पृथ्वी और पर्वतों में विद्यमान है । आठवीं विवस्वान् नामक मूर्ति अग्नि में स्थित है और वह प्राणियों के भक्षण किये हुए अन्न को पचाती है । नवीं अंशु नामक मूर्ति चन्द्रमा में अवस्थित है, जो जगत् को आप्यायित करती है । दसवीं विष्णु नामक मूर्ति दैत्यों का नाश करने के लिये सदैव अवतार धारण करती है । ग्यारहवीं वरुण नाम की मूर्ति समस्त जगत् की जीवनदायिनी है और समुद्र में उसका निवास है । इसलिये समुद्र को वरुणालय भी कहा जाता है । बारहवीं मित्र नामक मूर्ति जगत् का कल्याण करने के लिये चन्द्रभागा नदी के तट पर विराजमान है ।

यहाँ सूर्यनारायण ने मात्र वायु-पान करके तप किया है और मित्र-रूप से यहाँ पर अवस्थित है, इसलिये इस स्थान को मित्रपद (मित्रवन) भी कहते हैं । ये अपनी कृपामयी दृष्टि से संसार पर अनुग्रह करते हुए भक्तों को भाँति-भाँति के वर देकर संतुष्ट करते रहते हैं । यह स्थान पुण्यप्रद है । महाबाहो ! यहीं पर अमित तेजस्वी साम्ब ने सूर्यनारायण की आराधना करके मनोवाञ्छित फल प्राप्त किया है । उनकी प्रसन्नता और आदेश से साम्ब ने यहाँ भगवान् सूर्य को प्रतिष्ठापित किया । जो पुरुष भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण को प्रणाम करता है और श्रद्धा-भक्ति से उनकी आराधना करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में निवास करता है । (अध्याय ७४)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७० सिद्धार्थ (सर्षप)-सप्तमी- व्रत के उद्यापन की विधि  #सप्तमी #पुराण ब्रह्माजी बोले –...
08/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ७० सिद्धार्थ (सर्षप)-सप्तमी- व्रत के उद्यापन की विधि

#सप्तमी
#पुराण

ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! सिद्धार्थ सप्तमी के व्रत के अनन्तर दूसरे दिन स्नान-पूजन-जप तथा हवन आदि करके भोजक, पुराण वेत्ता और वेद-पारङ्गत ब्राह्मणों को भोजन कराकर लाल वस्त्र, दूध देनेवाली गाय, उत्तम भोजन तथा जो-जो पदार्थ अपने को प्रिय हों, वे सब मध्याह्न काल में भोजकों को दान देने चाहिये । यदि भोजक न प्राप्त हो सकें तो पौराणिक को और पौराणिक न मिल सके तो सामवेद जाननेवाले मन्त्र विद् ब्राह्मण को वे सभी वस्तुएँ देनी चाहिये । मुने ! यह सिद्धार्थ-सप्तमी के उद्यापन की संक्षिप्त विधि है ।

इस प्रकार भक्तिपूर्वक सात सप्तमी का व्रत करने से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है और दस अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । इस व्रत से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । गरुड़ को देखकर सर्प आदि की तरह कुष्ठ आदि सभी रोग इसके अनुष्ठान से दूर भागते हैं । व्रत-नियम तथा तप करके सात सप्तमी को व्रत करने से मनुष्य विद्या, धन, पुत्र, भाग्य, आरोग्य और धर्म को तथा अन्त समय में सूर्यलोक को प्राप्त कर लेता है ।

इस सप्तमी व्रत की विधि का जो श्रवण करता है अथवा उसे पढ़ता है, वह भी सूर्यनारायण में लीन हो जाता है । देवता और मुनि भी इस व्रत के माहात्म्य को सुनकर सूर्यनारायण के भक्त हो गए हैं । जो पुरुष इस आख्यान का स्वयं श्रवण करता है अथवा दूसरे को सुनाता है तो वे दोनों सूर्यलोक को जाते हैं । रोगी यदि इसका श्रवण करे तो रोगमुक्त हो जाता है । इस व्रत की जिज्ञासा रखनेवाला भक्त अभिलषित इच्छाओं को प्राप्त करता है और सूर्यलोक को जाता है । यदि इस आख्यान को पढकर यात्रा की जाय तो मार्ग में विघ्न नहीं आते और यात्रा सफल होती है । जो कोई भी जिस पदार्थ की कामना करता है, वह उसे निश्चित प्राप्त कर लेता है ।

गर्भिणी स्त्री इस आख्यान को सुने तो वह सुखपूर्वक पुत्र को जन्म देती है. बन्ध्या सुने तो संतान प्राप्त करती है । याज्ञवल्क्य ! यह सब कथा सूर्यनारायण ने मुझसे कही थी और मैंने आपको सुना दी और अब आप भी भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण की आराधना करें, जिससे सभी पातक नष्ट हो जायँ । उदित होते ही जो अपनी किरणों से संसार का अन्धकार दूरकर प्रकाश फैलाते हैं, वे द्वादशात्मा सूर्यनारायण ही जगत् के माता-पिता तथा गुरु हैं, अदिति-पुत्र भगवान् सूर्य आपपर प्रसन्न हों । (अध्याय ७०)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६९ शुभाशुभ स्वप्न और उनके फल ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! जो व्यक्ति सप्तमी में उपव...
03/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६९ शुभाशुभ स्वप्न और उनके फल
ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! जो व्यक्ति सप्तमी में उपवास करके विधिपूर्वक सूर्यनारायण पूजन, जप एवं हवन आदि क्रियाएँ सम्पन्न कर रात्रि के समय भगवान् सूर्य का ध्यान करते हुए शयन करता हैं, तब उसे रात्रि में जो स्वप्न दिखायी देते हैं, उन स्वप्न-फलों का मैं अब वर्णन कर रहा हूँ ।

#स्वप्न
#पुराण

यदि स्वप्न में सूर्य का उदय, इन्द्रध्वज और चन्द्रमा दिखायी दे तो सभी समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं । माला पहने व्यक्ति, गाय या वंशी की आवाज, श्वेत कमल, चामर, दर्पण, सोना, तलवार, पुत्र की प्राप्ति, रुधिर का थोड़ा या अधिक मात्रा में निकलना तथा पान करना ऐसा स्वप्न देखने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । घृताक्त प्रजापति के दर्शन से पुत्र-प्राप्ति का फल होता है । स्वप्न में प्रशस्त वृक्ष पर चढ़े अथवा अपने मुख में महिषी, गौ या सिंहनी का दोहन करे तो शीघ्र ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है । सोने या चाँदी के पात्र में अथवा कमल-पत्र में जो स्वप्न में खीर खाता है उसे बल की प्राप्ति होती है । द्युत, वाद तथा युद्ध में विजय प्राप्ति का जो स्वप्न देखता है, वह सुख प्राप्त करता हैं । स्वप्न जो अग्नि-पान करता है, उसके जठराग्नि की वृद्धि होती है । यदि स्वप्न में अपने अङ्ग-प्रज्वलित होते दिखायी दें और सिर में पीड़ा हो तो सम्पत्ति मिलती है । श्वेत वर्ण के वस्त्र, माला और प्रशस्त पक्षी का दर्शन शुभ होता है ।
देवता-ब्राह्मण, आचार्य, गुरु, वृद्ध तथा तपस्वी स्वप्न में जो कुछ कहते हैं, वह सत्य होता है (देवद्विजजनाचार्यगुरुवृद्धतपस्विनः । यद्यद्वदन्ति तत्सर्वं सत्यमेव हि निर्दिशेत् ॥ ब्राह्मपर्व ६९ । १४-१५)। स्वप्न में सिर का कटना अथवा फटना, पैरों में बेड़ी का पड़ना, राज्य-प्राप्ति का संकेतक हैं । स्वप्न में रोने से हर्ष की प्राप्ति होती है ।

घोड़ा, बैल, श्वेत कमल तथा श्रेष्ठ हाथी पर निडर होकर चढ़ने से महान् ऐश्वर्य प्राप्त होता है । ग्रह और ताराओं का ग्रास देखे, पृथ्वी को उलट दे और पर्वत को उखाड़ फेंके तो राज्य का लाभ होता है । पेट से आँत निकले और उससे वृक्ष को लपेटे, पर्वत-समुद्र तथा नदी पार करे तो अत्यधिक ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । सुन्दर स्त्री के गोद में बैठे और बहुत-सी स्त्रियाँ आशीर्वाद दें, शरीर को कीड़े भक्षण करे, स्वप्न में स्वप्न का ज्ञान हो, अभीष्ट बात सुनने और कहने में आये तथा मङ्गलदायक पदार्थों का दर्शन एवं प्राप्ति हो तो धन और आरोग्य का लाभ होता है । जिन स्वप्नों का फल राज्य और ऐश्वर्य की प्राप्ति है, यदि उन स्वप्नों को रोगी देखता है तो वह रोग से मुक्त हो जाता है । इस प्रकार रात्रि में स्वप्न देखने के पश्चात् प्रातःकाल स्नानकर राजा-ब्राह्मण अथवा भोजक को अपना स्वप्न सुनाना चाहिये ।
(अध्याय ६९)

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६८ सूर्यनारायण के प्रिय पुष्प, सूर्य मंदिर में मार्जन-लेपन आदि का फल, दीपदान का फल तथ...
01/07/2025

भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ६८ सूर्यनारायण के प्रिय पुष्प, सूर्य मंदिर में मार्जन-लेपन आदि का फल, दीपदान का फल तथा सिद्धार्थ-सप्तमी-व्रत का विधान और फल

#पुराण
#सूर्य

ब्रह्माजी बोले – याज्ञवल्क्य ! एक बार मैंने भगवान् सूर्यनारायण से उनके प्रिय पुष्पों के विषय में जिज्ञासा की । तब उन्होंने कहा था कि मल्लिका (बेला फुल की एक जाति) पुष्प मुझे अत्यन्त प्रिय है । जो मुझे इसे अर्पण करता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । मुझे श्वेत कमल अर्पण करने से सौभाग्य, सुगन्धित कुटज-पुष्प से अक्षय ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा मन्दार-पुष्प से सभी प्रकार के कुष्ठ-रोगों का नाश होता है और बिल्व-पत्र से पूजन करनेपर विपुल सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।

मन्दार-पुष्प की माला सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति, वकुल (मौलसिरी)-पुष्प की माला से रूपवती कन्या का लाभ, पलाश-पुष्प से अरिष्ट-शान्ति, अगस्त्य-पुष्प से पूजन करने पर (मेरा) सूर्यनारायण का अनुग्रह तथा करवीर (कनैल) पुष्प समर्पित करने से मेरे अनुचर होने का सौभाग्य प्राप्त होता है । बेला के पुष्पों से सूर्य की (मेरी) पूजा करने पर मेरे लोक की प्राप्ति होती है । एक हजार कमल-पुष्प चढ़ाने पर मेरे सूर्यलोक में निवास करने का फल प्राप्त होता है । वकुल-पुष्प अर्पित करने से भानुलोक प्राप्त होता है । कस्तुरी, चन्दन, कुंकुम तथा कपूर के योग से बनाये गए यक्षकर्दम गन्ध का लेपन करने से सद्गति प्राप्त होती है । सूर्य भगवान् के मन्दिर का मार्जन तथा उपलेपन करने वाला सभी रोगों से मुक्त हो जाता है और उसे शीघ्र ही प्रचुर धन की प्राप्ति होती है । जो भक्तिपूर्वक गेरू से मन्दिर का लेपन करता है, उसे सम्पत्ति प्राप्त होती है और वह रोगों से मुक्ति प्राप्त करता हैं और यदि मृत्तिका से लेपन करता है तो उसे अठारह प्रकार के कुष्ठरोगों से मुक्ति मिल जाती है ।

सभी पुष्पों से करवीर का पुष्प और समस्त विलेपनो में रक्तचन्दन का विलेपन मुझे अधिक प्रिय है । करवीर के पुष्पों से जो सूर्यभगवान् की पूजा करता है, वह संसार के सभी सुखों को भोगकर अन्त में स्वर्गलोक में निवास करता है ।

मन्दिर में लेपन करने के पश्चात् मण्डल बनाने पर सूर्यलोक की प्राप्ति होती है । एक मण्डल बनाने से अर्थ की प्राप्ति, दो मण्डल बनाने से आरोग्य, तीन मण्डल की रचना करने से अविच्छिन्न संतान, चार मण्डल बनाने से लक्ष्मी, पाँच मण्डल बनाने से विपुल धन-धान्य, छः मण्डलों की रचना करने से आयु, बल और यश तथा सात मण्डलों की रचना करने से मण्डल का अधिपति होता है तथा आयु, धन, पुत्र और राज्य की प्राप्ति होती है एवं अन्त मे उसे सूर्यलोक मिलता है ।

मन्दिर में घृत का दीपक प्रज्वलित करने से नेत्र रोग नहीं होता । महुए के तेल का दीपक जलाने से सौभाग्य प्राप्त होता है, तिल के तेल का दीपक जलाने से सूर्यलोक तथा कडुआ तेल से दीपक जलाने पर शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है ।

सर्वप्रथम गन्ध-पुष्प-धुप-दीप आदि उपचारों से सूर्य का पूजन कर नाना प्रकार के नैवेद्य निवेदित करने चाहिये । पुष्पों में चमेली और कनेर के पुष्प, धूपों में विजय-धूप, गन्धों में कुंकुम, लेपों में रक्त-चन्दन, दीपों में घृतदीप तथा नैवेद्यों में मोदक भगवान् सूर्यनारायण को परम प्रिय हैं । अतः इन्ही वस्तुओं से उनकी पूजा करनी चाहिये । पूजन करने के पश्चात् प्रदक्षिणा और नमस्कार करके हाथ में श्वेत सरसों का एक दाना और जल लेकर सूर्यभगवान् के सम्मुख खड़े होकर हृदय में अभीष्ट कामना का चिन्तन करते हुए सरसों सहित जल को पी जाना चाहिये, परन्तु दाँतों से उसका स्पर्श नहीं हो । इसी प्रकार दूसरी सप्तमी को श्वेत सर्षप (पीली सरसों) के दो दाने जल के साथ पान करना चाहिये और इसी तरह सातवीं सप्तमी तक एक-एक दाना बढ़ाते हुए इस मन्त्र से उसे अभिमन्त्रित करके पान करना चाहिये –
“सिद्धार्थकस्त्वं हि लोके सर्वत्र श्रूयसे यथा । तथा मामपि सिद्धार्थमर्थतः कुरुतां रविः ॥” (ब्राह्मपर्व ६८ । ३६)

तदनन्तर शास्त्रोक्त रीति से जप और हवन करना चाहिये । यह भी विधि है कि प्रथम सप्तमी के दिन जल के साथ सिद्धार्थ (सरसों) का पान करे, दूसरी सप्तमी को घृत के साथ और आगे शहद, दही, दूध, गोमय और पञ्चगव्य के साथ क्रमशः एक-एक सिद्धार्थ बढ़ाते हुए सातवीं सप्तमी तक सिद्धार्थ का पान करे । इस प्रकार जो सर्षप-सप्तमी का व्रत करता है, वह बहुत-सा धन, पुत्र और ऐश्वर्य प्राप्त करता है । उसकी सभी मनःकामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं और वह सूर्यलोक में निवास करता है ।
(अध्याय ६८)

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