28/09/2025
धूल का गुबार ....आग की उठती लपटें और मनुष्यों की चीखें;रह रहकर महाराज वीरभद्र को अधीर कर रहीं थीं वह बार बार यज्ञ वेदी की ओर देख रहे थे...एक एक करके सारी आहुतियां समाप्त हो रहीं थी अब आहुति के नाम पर कुछ धातुएं ही शेष थीं जो महराज वीरभद्र के माथे पर चिंता की लकीरें उकेर रहीं थीं।
" पुरोहित जी शत सहस्र यज्ञ की आहुतियां अभी शेष है और सामग्री हमारे पास पर्याप्त नहीं है....कहीं यह अनुष्ठान खंडित न हो जाए..... वापस नगर की ओर जाकर सामग्री की व्यवस्था करता हूं!" पुरोहित के सहायक ने सामग्री की ओर देखते हुए कहा जो शत सहस्त्र यज्ञ के लिए लाई गई थी।
" नहीं बाल गोविंद.....हमें यह अनुष्ठान यहां उपस्थित सामग्री से ही करना होगा......शत सहस्र यज्ञ का यह नियम हैं एक बार जितनी सामग्री जितने व्यक्तियों के साथ यह अनुष्ठान प्रारंभ किया जाए अनुष्ठान पूर्ण होने तक उनकी संख्या में जोड़ या घटाव नहीं किया जा सकता.....!" पुरोहित जी ने याद दिलाते हुए कहा।
" किंतु उपलब्ध सामग्री अपर्याप्त प्रतीत हो रही है पुरोहित जी....कहीं अनुष्ठान में बाधा ना आ जाए.....!" बाल गोविंद ने फिर शंका प्रकट की।
" मां काली हमारा मार्ग प्रशस्त करें.....!" पुरोहित ने मां काली की मूर्ति की ओर देखते हुए उत्तर दिया।
महाभारत के 1000 वर्ष बाद आर्यावर्त पर दैत्य और दानवों का आना काम नहीं हुआ.... कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार में उन्हें अधिक संख्या में मांस का आहार मिलता रहा जो उन्हें बार-बार पृथ्वी पर आने को आकर्षित करता रहा और इस तरह वह धीरे-धीरे पृथ्वी पर अधिक संख्या में आने लगे और जब उन्हें मांस मिलना काम हो गया तब है जीवित मनुष्य पर आक्रमण करने लगे धीरे-धीरे आक्रमण बढ़ता गया और इतना बढ़ गया कि मानव मात्र इससे त्रस्त होकर रह गया.... लोग चीख पुकार करने लगे.... अपने-अपने राजाओं से अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे।
राज्यों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय होने लगी क्योंकि बाहरी शत्रुओं से तो वह लड़ सकते थे लेकिन यह आकाशीय दैत्य से लड़ना उनके लिए असंभव सा प्रतीत होता था वह उन्हें रोक तो सकते थे मगर हरा नहीं सकते थे।
ऐसी ही विपदा इस समय महाराजा वीरभद्र के राज्य चंद्रनगर पर थी वहां दानवों का आक्रमण बढ़ गया था..... राज्य में त्राहि त्राहि मच चुकी थी उन्होंने दानवों से लड़ने का भरसक प्रयास किया किंतु उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी ऐसे में उन्होंने कई विद्वानों से संपर्क किया और उनसे उपाय मांगा।
उस समय पांचाल प्रदेश के पुरोहित आदिदेव ने उन्हें माता काली का शत सहस्त्र अनुष्ठान करने की सुझाव दिया। पुरोहित जी के कथन अनुसार यह अनुष्ठान दुर्गम किन्तु फलदायक था।
इसमें शत सहस्त्र (एक लाख) आहुतियां देवी को समर्पित करनी होती है किन्तु यह कोई भी आहुति का दोहराव नहीं होना चाहिए हर आहुति एक नवीन वस्तु से देनी होगी.... और एक बार जब अनुष्ठान प्रारंभ हो जाए तो इसमें उपस्थित कोई भी व्यक्ति वहां से कहीं नहीं जा सकता ना ही कोई बाहरी व्यक्ति उसमें आ सकता है।
महाराज वीरभद्र ने यह अनुष्ठान आरंभ कर दिया लेकिन जैसे ही दानवों को यह पता चला वह इस अनुष्ठान को भंग करने पहुंच गए.... किंतु माता काली के प्रभाव से वह यज्ञ वेदी तक नहीं पहुंच पाए....लेकिन उन्होंने प्रजा को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया जिनकी चीखें महाराज को यज्ञ वेदी तक सुनाई दे रहीं थीं.... उनका हृदय द्रवित हो उठा किंतु है यज्ञ के नियम से बंधे हुए थे ना चाहते हुए भी उन्हें उन चीखों को अनसुना कर रहे थे..... लेकिन बाल गोविंद की बात उनके हृदय में शंका पैदा कर रही थी..... उन्हें भी यह प्रतीत हो रहा था की आहुति संख्या में कम थी..... और उनकी यह शंका सत्य प्रतीत हुई।
अनुष्ठान पूर्ण होने वाला था और कुछ ही आहुतियां शेष थी...लेकिन यह क्या सामग्री तो समाप्त हो चुकी थी..... उनके पास कोई भी नवीन वस्तु नहीं थी जिसके वह आहुति दे सके!
" यह तो अनर्थ हो जाएगा महात्मन्..... तुम्हारे पास कोई नवीन वस्तू शेष नहीं है.....शेष यज्ञ कैसे करें.......!" बाल गोविंद ने अपनी चिंता प्रकट की।
" यह कैसे संभव हो गया मैं स्वयं वस्तुओं की गणना की थी वह संख्या में पूरी थी फिर.....समाप्त कैसे हुई ...!" पुरोहित के चेहरे पे शंका के बादल उमड़ आए।
" अनुष्ठान नहीं रुकेगा पुरोहित जी.....!" कहते हुए महाराज वीरभद्र ने अपना अंगवस्त्र अग्नि को समर्पित कर दिया।
" महाराज...!" पुरोहित हतप्रभ हुए।
" हम स्वर्ण और बाकी धातुओं की आहुति दे चुके है लेकिन यह वस्त्र एक खास प्रकार के सूत से बना जो केवल गांधार में होता है इसलिए यह अनूठा है .....आप निश्चिन्त रहिए यह आहुति स्वीकार होगी।" महाराज वीरभद्र ने आत्मविश्वास के साथ कहा और उनका कथन सत्य हुआ आहुति स्वीकार हुई।
इस प्रकार उन्होंने अपने माणिको रत्नों और मोतियों की आहुति दी....अब केवल एक आहुति बाकी थी मगर समस्या यह थी की महाराज के पास कोई और नवीन वस्तु उपलब्ध नहीं थी ।
" पुरोहित जी मेरे पास अब कुछ भी शेष नहीं.....!" महाराज ने स्वयं को देखा।
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वर्तमान से 4000 वर्ष पूर्व उत्तर आयार्वत का एक स्थान धूल का गुबार ....आग की उठती लपटें और मनुष्यों की चीखें;रह रहकर महार.....