18/10/2025
🌷 धम्मचक्कप्पवत्तनसुत्त प्रवचन (भाग -2/2)
(यह सूत्र बुद्धवाणी के तीन पिटकों में से दूसरे, यानी, सुत्त पिटक के पांच निकायों में से तीसरे- संयुक्तनिकाय के महावग्गो का 1081वां सूत्र है।
क्रमशः ....
शुद्ध धर्म, कुदरत का कानून सार्वजनीन है। इन चारों बातों में हम देखेंगे कि गहराइयों तक दुःख ही दुःख, दुःख ही दु:ख। जिसको हम सुख कह रहे हैं वस्तुतः वह भी दुःख है। यह बात अब अनुभूतियों से पकड़ में आ जायगी कि दुःख क्यों है? सुखद अनुभूतियों से चिपकाव ही हमारे दु:ख का कारण है। हम दुःखद अनुभूति नहीं चाहते, हमको सुख ही चाहिए, ऐसी गहरी आसक्ति है। बार-बार, बार-बार वैसा ही चाहिए और वह हमेशा होता नहीं तो व्याकुल होते हैं। या हो गया तो उससे और ज्यादा सुख चाहिए, और ज्यादा सुख चाहिए । व्याकुल ही व्याकुल, व्याकुल ही व्याकुल।
यह बात समझ में आ गयी तो दुःख समझ में आ गया। दुःख का कारण समझ में आ गया। उसको दूर करने का रास्ता है। उसे जानना है- देख कैसे दुःख जागता है? मेरे भीतर जहां तृष्णा जागती है वहां तक पहुँचना है। वहां तक पहुँचने के लिए मन को शांत करना पड़ता है, एकाग्र करना पड़ता है। और फिर अंतर्मन की गहराइयों में जाते-जाते देख , तृष्णा जागी न! सुखद अनुभूति हुई तो राग जागा न! दुःखद अनुभूति हुई तो द्वेष जागा न! और यह बात सबकी होती है। सार्वजनीन बात है। यह पहला उपदेश ही इस बात को सिद्ध करता है कि यह व्यक्ति सचमुच सम्यक संबुद्ध है। इसको किसी संप्रदाय से लेन-देन नहीं। इसके सामने एक ही लक्ष्य है कि किस तरह से सारे लोग जो व्याकुल हैं, दुखियारे हैं, और उनके दुःखों का यह कारण है, उसे दूर करें। जैसे मैंने अपनी अनुभूतियों से जाना और अपने दुःखों का निवारण कर लिया, इसी तरह सब लोग अपनी अनुभूतियों से जान कर अपने-अपने दुःखों का निवारण कर लें। इस मारे लोगों को शुद्ध धर्म बांटता है।
यह पहला उपदेश ही है जिसे वे अपने जीवन के पैंतालीस वर्षों तक देते चले गये। उसका जो स्वरूप सामने आता है, वह है चार आर्य सत्य।
चार आर्य सत्यों की पूरी जानकारी हो ...
चार आर्य सत्यों की ये सारी की सारी चारों अवस्थाएं हमारी अनुभूति पर उतरें। फिर कहते हैं- 'यावकीवञ्च मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्चेसु'- ये जो चार आर्य सत्य है; हर एक आर्य सत्य की 'तिपरिवट्ट'-तीन प्रकार से, यानी, 'द्वादसाकार-बारह प्रकार से पूरी जानकारी करनी है। जानकारी कर ली तब कहा, मैंने सत्य की पूरी जानकारी कर ली। इन बारह में से स्वयं गुजर गया। जब तक नहीं गुजर गया तब तक- 'यथाभूतं ञाणदस्सनं न सुविसुद्धं अहोसि'- मेरा ज्ञान, मेरा दर्शन शुद्ध नहीं हुआ। सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन (दार्शनिक मान्यता नहीं) के बिना कोई व्यक्ति सम्यक संबुद्ध नहीं बनेगा। उसकी सारी वाणी इसी प्रकार कायम रहेगी, लेकिन बिगड़ जायगी। क्योंकि अनुभूति पर उतारना भूल जायँगे । कहेंगे हमारी मान्यता ही सम्यक ज्ञान है, सम्यक दर्शन है।
सम्यक ज्ञान वह होता है जो हमारे अनुभव पर उतरे। उस अनुभव से जो ज्ञान जागा वह हमारा अपना ज्ञान, सम्यक ज्ञान है; सचमुच ज्ञान है; सही ज्ञान है। अनुभूति से जागा हुआ ज्ञान, किसी की कही-सुनी बात से नहीं। ऐसा ज्ञान, ऐसा दर्शन तब तक विशुद्ध नहीं होता जब तक कि वह सम्यक न हो जाय, और सम्यक तब तक नहीं होता जब तक कि स्वानुभूति पर न उतर जाय। तब कहते हैं- 'यथाभूतं- जैसा है, वैसा है। "यथाभूतं आणदस्सनं न विसुद्धं अहोसि" जब तक सुविशुद्ध नहीं हुआ- तब तक 'नेव तावाह'- मैंने इस बात का दावा नहीं किया कि 'सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय 'अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धोति पच्चासि ।' ऐसे संसार में जिसमें देव भी हैं, ब्रह्म भी है, मार भी है, श्रमण भी है, ब्राह्मण भी है, यह सारी प्रजा है। इनके बीच में मैंने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि 'मुझे सम्यक संबोधि प्राप्त हो गयी'। अनेक लोग उस समय भी थे भारत में, उसके पूर्व भी थे, जो केवल बुद्धि के स्तर पर धर्म को समझ कर इस बात का दावा करते थे- 'हम बुद्ध हो गये। यह व्यक्ति कहता है कि जब तक मेरी अनुभूति पर ये चारों बातें बारह प्रकार से नहीं उतर गयीं, तब तक मैंने दावा नहीं किया कि मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया। मुझे सम्यक संबोधि प्राप्त हो गयी। आगे कहते हैं:
“यतो च खो मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्चेसु एवं 'तिपरिवट्ट द्वादसाकारं यथाभूतं ञाणदस्सनं सुविसुद्धं अहोसि, ... _
ये चारों आर्य सत्य इन तीन चरणों में, बारह प्रकार से जब अनुभूतिया से मेंरा ज्ञान और दर्शन सुविशुद्ध हुआ; सारे संसार में जहां देवता हैं, मार है, ब्रह्म हैं, श्रमण हैं, ब्राह्मण हैं, प्रजा हैं, मनुष्य हैं; तब मैंने यह बात स्वीकार की । 'अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसंबुद्धो' ति'। तब कहा- मुझे सम्यक संबोधि प्राप्त हुई। इस बात को मैंने स्वयं स्वीकारा और घोषणा की। 'ञाणञ्च पन में दस्सनं उदपादि'अब सही माने में ज्ञान उत्पन्न हुआ, सही माने में दर्शन उत्पन्न हुआ। उस अवस्था का अनुभव हुआ जहां पहुंचने वाला आदमी यह महसूस कर लेता है कि अब मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा।
यह पुनर्जन्म नहीं होना अंधविश्वास की बात नहीं है। उस अहंत अवस्था के निरोध समापत्ति का अनुभव करके जब आदमी निकलता है तब सारी बातें बहुत स्पष्ट हो जाती हैं। जितने-जितने जन्म देनेवाले संस्कार थे देख, सारे निकल गये। एक भी नहीं है। और इस तरह के जन्म देनेवाले नये संस्कार अब बन ही नहीं सकते। यह अवस्था प्राप्त हो गयी। तो इस अवस्था को अपनी अनुभूति पर उतार करके जब दर्शन करता है तब कहता है'अकुप्पा मे चेतोविमुत्ति। अरे, विमुक्ति मुझे प्राप्त हो गयी। 'अयमन्तिमा जाति'- यह अंतिम जीवन है। 'नथिदानि पुनभवोति'अब फिर नया भव, नया जन्म होने वाला नहीं।
ऐसा दावा, सच्चाई को अनुभूति पर उतारकर जो व्यक्ति करता है, वह सचमुच मुक्त हुआ। और सच्चाई को अनुभूति पर उतारे बिना केवल दार्शनिक मान्यता के आधार पर कहता है तो बेचारा स्वयं उलझा हुआ है, औरों को उलझाता है।
यह बुद्ध की संबोधि है कि वह इस अवस्था पर पहुँचा । इन चारों आर्य सत्यों को इन तीनों प्रकार से अपनी अनुभूतियों पर उतारकर उस अवस्था पर पहुंचा है जो मुक्त अवस्था है और तब घोषणा करता है 'अब मेरा पुनर्जन्म नहीं है'। मैंने उस अवस्था का स्वयं साक्षात्कार किया। भगवान की इस वाणी को सुनकर वे पंचवर्गीय भिक्षु बड़े प्रसन्न चित्त हुए।
एक बात और समझ लेनी चाहिए कि ये पांचों के पांचों भिक्षु भगवान के विरोध में भाग गये थे। क्योंकि भारत में एक मान्यता इस प्रकार जड़ हो गयी थी कि शरीर को दंड दिए बिना मुक्ति मिल ही नहीं सकती। और इस व्यक्ति ने शरीर को दंड देने के कितने काम किये, छ: वर्षों तक इतना दंड दिया। अब क्योंकि इसके पहले आठ ध्यान कर चुका था तो भीतर देखा कि इस शरीर को दंड देने से जरा-सा भी लाभ नहीं हुआ। तब उसको त्याग दिया और मध्यम मार्ग की ओर गया। जैसे ही त्याग दिया इन्होंने समझा कि यह आदमी तो भ्रष्ट हो गया। यह भ्रष्ट-योगी है। यह कैसे मुक्त होगा? तो उसके विरुद्ध होकर चले गये।
अब जब वह आ रहा है तब कहते हैं- यह तो भ्रष्ट-योगी है। हम इसकी कोई बात नहीं सुनेंगे । इसका कोई सम्मान नहीं करेंगे। क्योंकि राजपुत्र है, राजघराने से आया है इसलिए बैठने का आसन जरूर दे देंगे, और कुछ नहीं करेंगे। वही लोग अब प्रसन्न चित्त से स्वीकार करते हैं सारी बात । क्योंकि यथार्थ नजर आता है कि अरे, और सारी बातें अपनी जगह । मुख्य बात तो यह कि दुःख है, और देख, यह दुःख का कारण है। और देख, यह दुःख का निवारण है और दु:ख के निवारण का यह रास्ता है। और यह कहता है कि इन चारों बातों का कोरा उपदेश नहीं, मैं इसे अपने अनुभव पर उतार चुका। अब तुम्हे समझाने आया हू, तुम भी अपने अनुभव पर उतारो।
यह प्रथम धर्म-चक्र-प्रवर्तन । प्रथम धर्म-चक्र प्रवर्तन तो दरअसल बोधिवृक्ष के नीचे ही हुआ। अपने भीतर जो धर्म-चक्र चलाया। लोक-चक्र ही लोक-चक्र चल रहा था; हर व्यक्ति अपने भीतर लोक-चक्र, लोक-चक्र, दुःख-चक्र, दुःख-चक्र यही चलाता है। यह पहली बार अपने भीतर धर्म-चक्र चलाया। माने धर्म को अनुभूतियों पर उतारा। जो बात मैंने कभी सुनी ही नहीं थी, वह अपनी अनुभूतियों पर उतारी। पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खू उदपादि.. । धर्मचक्षु जागे । जो बात पहले कभी सुनी नहीं थी। धर्म के नाम पर न जाने क्या-क्या सुनता रहा। अब धर्म के नाम पर सही बात- यह कानून है, यह नियम है, यह विधान है, यह प्रकृति है, यह नियति है। सारी बात समझ में आने लगी। उन सारी बातों को अपनी अनुभूति पर उतारता है तो सम्यक संबुद्ध होता है। जो धर्म-चक्र अपने भीतर जगाया अब वह बाहर चले । व्यक्ति-व्यक्ति के भीतर धर्म-चक्र चले और वह दुःख-चक्र के बाहर निकल जाय, लोक-चक्र के बाहर निकल जाय। लोगों में धर्म-चक्र जगाने का पहला काम किया, इसलिए प्रथम उपदेश है। यानी, लोगों के लिए धर्म-चक्र पहली बार जागा।
अब जो पांच लोग बैठे थे, उनको सारी बात समझ में आयी। उनका मन बड़ा प्रसन्न हुआ। अरे, यह बात तो बहुत ठीक कहता है। हम इसलिए भागे थे कि यह शरीर को दंड नहीं दे रहा। शरीर को बिना दंड दिये भी इन चारों बातों का दर्शन हो सकता है! यह बात समझ में आ गयी।
'इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मि भञ्जमाने आयस्मतो कोण्डञस्स विरजं वीतमलं धम्मचक्खू उदपादि- “यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म"न्ति।' यह जो बार-बार आगे अनेक सूत्र पढ़ेंगे, बुद्ध-वाणी पढ़ेगे, तो एक बात बार-बार ऐसी आयगी जो अपनी ही नासमझी की वजह से हमारे मन में एक संदेह पैदा करेगी कि यह कैसी बात है? एक तरफ भगवान कहते हैं 'एकायनो मग्गो' । अपने भीतर शरीर और चित्त की अवस्थाओं का अनुभव करते हुए, चार सतिपट्टान करते हुए ही मुक्त अवस्था पर पहुंचेगा। भगवान की इतनी बड़ी घोषणा है और दूसरी ओर बार-बार देखेंगे कि कहीं भगवान उपदेश दे रहे हैं और उस उपदेश के समाप्त होने पर इतने लोग सोतापन्न हो गये, इतने लोग सकृदागामी हो गये, अहंत भी हो गये, इस तरह की बातें बार-बार आयेंगी। तो संदेह होगा कि एक ओर 'एकायनो मग्गो', और दूसरी ओर केवल उपदेश ही रास्ता बन गया न! माने किसी सम्यक संबुद्ध का उपदेश सुनने से ही मुक्त हो जायेंगे, यह दूसरा रास्ता है न! यह ज्यादा सरल रास्ता है तो काहे उस पर चले? दोनों में विरोधाभास होगा।
अब इस बात को समझते हैं। साधक गहराइयों में जायगा तो उसे स्पष्ट होगा कि बुद्ध जैसा व्यक्ति जब बोल रहा है, धर्म की बात समझा रहा है तो केवल वाणी नहीं है। वाणी के साथ-साथ धर्म-धातु है, निर्वाण-धातु है, मैत्री-धातु की तरंगें हैं। और जो-जो व्यक्ति किसी-किसी जन्म में उनके साथ रहे हैं और अपनी पारमिताएं पूर्ण करते-करते इस अवस्था पर पहुँचे हुए हैं कि यह व्यक्ति जब सम्यक संबुद्ध बनेगा तब इसके साथ जन्म लेकर हम मुक्त अवस्था तक पहुँचेंगे। जो ऐसे लोग आये हैं, तब जब ये बोले जा रहे हैं, धर्म समझाये जा रहे है। वे सुन रहे है लेकिन धर्म सुनते-सुनते भीतर तरंगे जागने लगीं। भीतर तरंगें जाग रही हैं, अनित्यबोध समझ में आ रहा है। भीतर 'अनित्य है, अनित्य है' यह समझ है। वह उपदेश समाप्त होता है तब तक निर्वाणिक अवस्था प्राप्त हो गयी।
कुछ लोगों को प्राप्त हुई, कुछ को नहीं हुई। यह अवस्था जो प्राप्त होती है, यह भीतर उन चारों आर्य सत्यों, माने चारों सतिपट्ठान की अपने आप अनुभूति हुई, तब वह अवस्था प्राप्त होती है। केवल उपदेश से नहीं हो जाती। तो केवल उपदेश से कोई व्यक्ति अर्हत हो जाय, यह मिथ्या धारणा मन से निकाल देनी चाहिए।
उस समय जब उन पांचों व्यक्तियों को यह कहा गया, तब उनमें से एक को यह अवस्था प्राप्त हुई। पांच ब्राह्मणों में से एक कौंडण्य को, 'विरजं'- जहां रज नहीं है, रज माने राग नहीं है, 'वीतमलं' जहां कोई मैल नहीं है। ऐसे धर्म-चक्षु उत्पन्न हुए। वह केवल बुद्धि की बात नहीं है। सारी सच्चाई उसको अनुभूति पर उतरी। क्या सच्चाई अनुभूति पर उतरी? 'यं किञ्चि समुदयधम्म- जो-जो उत्पन्न होने वाले धर्म हैं, वे सारी अवस्थाएं जिनका उत्पाद है, 'सब्बं तं निरोधधम्म'- उन सबका निरोध होना भी स्वभाव है। उदय होना, व्यय होना- यह स्वभाव तो हर विपश्यना करने वाला व्यक्ति जान जायगा । विपश्यना शुरू ही इससे होती है। देख, उदय हो रहा है, व्यय हो रहा है 'समुदयधम्मानुपस्सी विहरति, वयधम्मानुपस्सी विहरति'।
निर्वाणिक अवस्था की पहली बार अनुभूति होगी तब 'निरोधधम्मा' । तब पहली बार निरोध की अनुभूति हुई। यह जो उत्पन्न होता है, व्यय होता है, यह चक्र तो चल ही रहा है। लेकिन एक अवस्था ऐसी जहां निरोध हो जाता है। जहां उसकी उत्पत्ति ही नहीं होती। तो यह बात बतायी गयी कि उस एक व्यक्ति को यह सारी बात सुनते-सुनते यह अवस्था प्राप्त हो गयी। ऐसा धर्म-चक्षु जाग गया, माने विपश्यना भीतर जाग गयी और जागते-जागते वह स्रोतापन्न-फल की पहली अवस्था, 'यं किञ्चि समुदयधम्म' जो-जो समुदय होनेवाली सच्चाइयां हैं, 'सब्बं तं निरोधधम्म'- उनके धर्म का निरोध है। यह उसने अनुभव से जान लिया। माने पहली बार उस व्यक्ति ने निरोध की अवस्था का साक्षात्कार कर लिया। पहली बार निर्वाण का साक्षात्कार कर लिया। यह व्यक्ति स्रोतापन्न हुआ। बाकी चार नहीं हुए, जबकि पांच आदमियों को धर्म सिखाया जा रहा है।
एक बात और समझनी चाहिए कि कोई व्यक्ति सम्यक संबुद्ध होता है तो मुक्तिदाता नहीं होता। वह हमें मुक्ति नहीं दे सकता। वह हमको मार्ग देता है। मुक्तिदाता तो हम ही हैं अपने । हमने अनेक जन्मों से कितना काम किया है, और सही मार्ग चलते हुए हमने बहुत से विकार पहले ही निकाल लिये हैं, थोड़े से रहे हैं, और अब तरीका मिल गया तो हम तुरंत डुबकी लगा लेंगे निरोध अवस्था की। हमारे पास बहुत ज्यादा विकार इकट्ठे हैं, हमें ज्यादा समय लगेगा मुक्त होने के लिए। लेकिन काम हम ही करना पड़ेगा। अगर वह मुक्तिदाता होता तो इन पांचों को निर्वाणिक अवस्था की अनुभूति करा देता।
और केवल स्रोतापन्न की क्यो, उन्हें अहंत अवस्था की अनुभूति करा देता। नहीं करा पाया न! तो यह भ्रम रखना कि कोई गुरु हमें तार देगा, या कोई देव, ईश्वर, ब्रह्म तार देगा, इससे बाहर निकलना चाहिए। हमें ही तरना है और इन चारों के चारों आर्य सत्यों का साक्षात्कार हमें करना है। और वह इस विपश्यना द्वारा होता है। यह बात समझकर काम करेगा तो उसके बाहर निकल जायगा।
किसी व्यक्ति का सम्यक संबुद्ध बन जाना सरल बात नहीं है। न जाने कितने कल्पों तक, असंख्य कल्पों तक पारमिताओं को बढ़ाते-बढ़ाते, पारमिताएं वही हैं लेकिन कितनी बड़ी मात्रा में बढ़ानी पड़ती हैं। केवल अपने आपको ही मुक्त करना हो तो थोड़े से कल्पों में ही, उतनी ही मात्रा बढ़ा कर मुक्त अवस्था तक पहुँच जायगा। लेकिन जिसे सम्यक संबुद्ध बनना है, जिससे वह औरो को मुक्ति का मार्ग दे सके, अनेक लोगों की मुक्ति में सहायक बन सके, उस अवस्था तक पहुँचना है तो असंख्य जन्मों व कल्पों तक काम करते-करते पारमिता बढ़ानी सरल बात नहीं होती। इस अवस्था तक पहुँचना अपने आपमें एक महत्त्वपूर्ण बात है। इस अवस्था तक पहुँच कर अपने भीतर धम-चक्र चलाया, वहीं अपने आपमें बहुत महत्त्वपूर्ण है। और जब यह धर्म-चक्र लोगों के लिए, अन्य प्राणियों के लिए चलाया कि अन्य प्राणी भी इसका लाभ लेकर मुक्त अवस्था तक चले जायँ, तो बहुत-बहुत बड़ी महत्त्वपूर्ण घटना घटती है। इसका प्रभाव सारे ब्रह्मांड पर पड़ता है, सारे विश्व पर पड़ता है। उसकी बात आगे समझायी गयी।
'पवत्तिते च पन भगवता धम्मचक्के भुम्मा देवा सद्दमनुस्सावेसुं - “एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मना वा केनचि वा लोकस्मि"न्ति। - भगवान ने जब यह धर्म-चक्र प्रवर्तन किया तो अनेक एस भूमि के देव- भूमि पर रहने वाले देवता, अदृश्य प्राणी। सारे विश्व में, सारे चक्रवालों में ऐसे अनेक प्राणी होते हैं जो अनेक जन्मों से मुक्ति के मार्ग पर चलने का प्रयास कर रहे हैं, इनमें से अनेक एसे होगे जिनमें धर्म का बीज था, उनको जब यह तरंग मिली, मुक्ति की वाइब्रेशन मिली तो बड़ा आह्लाद हुआ। इस आह्लाद के मारे वे इस बात की घोषणा करते हैं- "अरे देखो, भगवान ने ऋषिपत्तन मृगदाय में यह अनुत्तर, यानी, इससे ऊंची कोई अवस्था नहीं होती, ऐसा धर्म-चक्र का प्रवर्तन किया। लोक में दूसरा कोई प्राणी इस तरह धर्म-चक्र का प्रवर्तन नहीं कर सकता। जिसने धर्म-चक्र अपने भीतर जगा करके मुक्त अवस्था प्राप्त कर ली, वही व्यक्ति धर्म-चक्र का प्रवर्तन करेगा। अरे देखो, इस व्यक्ति ने धर्म-चक्र का प्रवर्तन किया । ऐसे हर्ष के उद्गार उन प्राणियों के मुख से निकले जो भूमि के देव थे।
और यह जो आवाज निकली, फैलती है। यह वाइब्रेशन फैलती है- तो "भुम्मानं देवानं सदं सुत्वा'- इन भूमिक देवों, भूमि के देवों की आवाज सुनकर जो चतुर्महाराजिक देवलोक है, उस देवलोक के प्राणियों तक यह बात पहुँची, उन्होंने बड़े हर्ष के साथ इस बात की घोषणा की-कोई व्यक्ति इस प्रकार का धर्म-चक्र-प्रवर्तन नहीं कर सकता। देखो, इस सम्यक संबुद्ध ने ऐसा धर्म-चक्र प्रवर्तन किया!
और अब कैसे यह आवाज इस स्थूल धरती से ऊपर सूक्ष्मता की ओर उठती चली जा रही है। चतुर्महाराजिक देवी की आवाज 'तावतिस' देवलोक तक पहूँची; उनके हर्ष की घोषणा 'यामा' देवलोक तक पहुँची; यामा देवों के हर्ष की घोषणा 'तुषित' देवलोक तक पहुँची; तुषित देवलोक के जो प्राणी थे, उन्होंने भी यही घोषणा की। उनके हर्ष की घोषणा 'निर्माणरति' देवलोक तक पहुँची; उनकी आवाज सुनकर के 'परनिम्मितवसवत्ती' देवलोक के देवों ने भी यह घोषणा की। इस प्रकार एक से एक ऊंचे लोक, सूक्ष्म से सूक्ष्म... 'सद्दमनुस्सावेसुं'।
और इसके ऊपर ब्रह्मलोक की बारी आयी। इसके ऊपर ब्रह्मपरिषद लोक के लोगों ने 'सद्दमनुस्सावेसुं'। उसी प्रकार 'ब्रह्मपुरोहिता देवा सद्दमनुस्सावेसुं'- यह सोलह जो ब्रह्मलोक हैं, उनमें एक-एक, एक-एक करके ब्रह्मपरिषद से ब्रह्मपुरोहित देवलोक में; और उसी प्रकार महाब्रह्मलोक के जो प्राणी हैं, उन्होंने यह आवाज दी। उसी प्रकार ... 'परित्ताभा देवा सद्दमनुस्सावेसुं'। वैसे ही 'परित्ताभानं देवानं सई सुत्वा अप्पमाणाभा देवा सद्दमनुस्सावेसुं'- जिनकी आभा अपरमित है, उस लोक के लोगों ने यह घोषणा की। उसी प्रकार आभस्सरा (आभास्वर देवलोक के लोगों ने)- ब्रह्मलोक के लोगों ने, उसी प्रकार परित्तसुभा' (परिमित शुभ) इस ब्रह्मलोक के लोगों की यह घोषणा हुई। उसी प्रकार अपरिमित शुभ ब्रह्मलोक के देवों की यह घोषणा हुई। उसी प्रकार सुभकिण्हकान' (जहां पर शुभ्र प्रकार की किरणें निकलती हैं इस प्रकार के ब्रह्मलोक) के लोगों की यह घोषणा हुई। उसी प्रकार वेहष्फला... फिर अविहा देवा ... यह अविहा सोलह ब्रह्मलोकों में जहां एक-एक ब्रह्मलोक की बात आयी। ऊंची से ऊंची, और ऊंची अवस्थाएं।... ये सारे ब्रह्मलोक, ये सारे देवलोक क्या हैं? हमारे ही कर्म-संस्कारों की बैंक हैं। हमारे वाइब्रेशंस उस प्रकार से वहां जाकर समरस हो जाते हैं। और मृत्यु के समय वैसे ही वाइब्रेशन जागे तो तुरंत खिचे हुए हम वहां चले जायें।
तो जो हम शरीर और वाणी से सत्कर्म करते हैं- दान देते हैं, शील-पालन करते हैं, किसी की सेवा करते हैं, किसी का भला करते हैं, उसकी जो वाइब्रेशन होती है वह हमको देवगति, (छः देवलोक बताये) एक से एक सूक्ष्म वाइब्रेशन के साथ, हमको समरस करती चली जायगी और मृत्यु के समय वैसी वाइब्रेशन जागी, तो प्रकृति हमें खींचकर वहां ले जायगी।
भगवान के मुंह से निकला पहला उदान ....
जब कोई व्यक्ति ध्यान का काम शुरू करता है तो जो पहले चार ध्यान हैं -- उनमें से पहले ध्यान से ही ब्रह्मलोक की वाइब्रेशन शुरू हो जाती हैं। सोलह ब्रह्मलोकों में से हम किस तरह का ध्यान कर रहे हैं? प्रथम ध्यान की अवस्था तक पहुँचे तो प्रथम ध्यान का प्रयास करते हुए- इस ब्रह्मलोक से हमारा संबंध हो गया। दूसरे ध्यान से और ऊंचे ब्रह्मलोकों से संबंध हो गया। तीसरे, चौथे... यों ऊंचे से ऊंचे ब्रह्मलोकों से हमारा संबंध होता चला गया। एक ब्रह्मलोक जो काफी ऊंचायी पर है और बहुत सूक्ष्म है, उसके लिए कहा गया- "अविहा"।
यह अविहा क्या है ? सारे ब्रह्मलोक, यहां तक कि अरूप ब्रह्मलोक जो भवान, लोकान तक स्थापित हैं; वे सारे के सारे ऐसे हैं कि वहां की अवधि समाप्त होने पर च्युति होगी ही। फिर गिरेगा ही। क्योंकि अपने अंतर्मन के सारे भव-संस्कारों को नहीं निकाला। आठों ध्यान कर लेने वाले व्यक्ति ने भी अपने मन के भव-संस्कारों की जड़ें नहीं निकालीं। क्लेश हैं अभी। क्योंकि उसने प्रथम ध्यान से लेकर आठों ध्यान तक किया है, तो जो-जो ध्यान किया है उस-उस लोक में उसकी उत्पत्ति हो जायगी। उनका जीवन बहुत लंबा होता है, अनेक कल्पों का, और ऐसी सुख-शांति का, कि उसका कोई मुकाबला नहीं। बाकी और लोकों में वैसी शांति नहीं मिल सकती; इतनी सुख-शांति का जीवन होता है। लेकिन क्योंकि अभी जड़ों से विकार नहीं निकले, तो जो कुछ उस ध्यान का फल उसे मिलना था, वह उसने सारा भोग लिया वहां पर। और जैसे ही वह समाप्त हुआ, कोई न कोई दबा हुआ विकार जो अभी निकला नहीं है, उसने मृत्यु के समय सिर उठाया और फिर कहीं न कहीं नीचे के लोक में आया। भव-चक्र उसका चलता ही रहा, चलता ही रहा।
यह "अविहा" ऐसा ब्रह्मलोक है जहां से पतन नहीं होता । ब्रह्मलोक में ही है, लेकिन इस लोक में आकर पतन नहीं होता। इसका मतलब कैसा व्यक्ति वहां पहुंचेगा? ऐसा ही जो अनागामी हो गया। फिर आने वाला नहीं है। स्रोतापन्न, सकृदागामी की अनुभूतियां करते हुए वह अनागामी की अनुभूति करेगा। अनागामी की अनुभूति करेगा तो चारों ध्यानों में उसे परफेक्ट भी होना पड़ेगा। चारों ध्यानों में परफेक्ट हुआ तो मृत्यु के समय उसको यही ब्रह्मलोक मिलेगा- अविहा। क्योंकि इससे अब गिरना नहीं है।
अब उस "अविहा" में जन्म लेने के बाद उसका जितना समय है, जीवनकाल है, उसे पूरा करके वहीं अर्हत होकर मुक्त हो जायगा। इसलिए इसको "अविहा" कहा गया। ...
"इति हि तेन खणेन"- उस समय, उस क्षण "तेन मुहुत्तेन"- उस मुहूर्त में "याव ब्रह्मलोका सहो अब्भुग्गच्छि"- जैसे ही ब्रह्मलोक तक यह बात पहुँची कि संसार में कोई व्यक्ति सम्यक संबुद्ध हुआ है। उसने धर्मचक्र प्रवर्तन किया है (साधारण बात नहीं होती); जब ये तरंगें ब्रह्मलोक तक पहुँची तो- "अयञ्च दससहस्सी लोकधातु सङ्कम्पि सम्पकम्पि सम्पवेधि..."।
कोई व्यक्ति जब सम्यक संबुद्ध बनता है तब उसकी तरंगें दूर-दूर तक जाती हैं। यह व्यक्ति सम्यक संबुद्ध बना तो उसने चार असंख्येय और एक लाख कल्पों की पारमिताएं पूरी करके सम्यक संबुद्ध बना। जितने सम्यक संबुद्ध बनते हैं, उनमें यह सबसे छोटा सम्यक संबुद्ध। सिद्धार्थ गौतम सबसे छोटा सम्यक संबुद्ध है। उसने चार असंख्येय एक लाख कल्प की पारमिताएं पूरी की। और सम्यक संबुद्ध होते हैं जो आठ असंख्येय, और होते हैं जो बारह असंख्येय, और होते हैं जो सोलह असंख्येय कल्पों तक पारमिताएं पूरी करते-करते सम्यक संबुद्ध बनते हैं। तो जितनी अधिक पारमिताओं का संग्रह होगा, उतनी ही उनकी धर्म की तरंगें बड़े क्षेत्र तक प्रभावशाली होंगी। तो इस गौतम नाम के सम्यक संबुद्ध की पारमिताओं का जितना संग्रह है, उसकी वजह से दस हजार चक्रवालों तक उसकी वाइब्रेशन जाती है और उन लोगों को प्रभावित करती है।
जब यह घटना घटी तो दस हजार चक्रवाल-- यह चक्रवाल क्या होता है ? एक चक्रवाल और एक सौरमंडल । एक सूर्य के इर्द-गिर्द कितने ग्रह-उपग्रह घूमते हैं। चक्रवालों का इन सूर्य, चंद्र इत्यादि से लेन-देन नहीं। ये जो इकत्तीस लोक हैं, इन इकत्तीस लोकों का एक चक्रमंडल है। इस तरह के दस सहस्र चक्रमंडल। इन जैसे दस सहस्र चक्रमंडलों में उसकी तरंगें पहुँची। तो इन दस सहस्र चक्रमंडलों में एक प्रकंपन हुआ।
"अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातुरहोसि, अतिक्कम्म देवानं देवानुभावन्ति । यह जो किसी देवताओं के, ब्रह्माओं के प्रकाश से जो प्रकाश फैलता है, उससे कहीं तेज प्रकाश उस समय इन दस हजार चक्रवालों में जागा।
"अथ खो भगवा इदं उदानं उदानेसि"- यह घटना घटने पर भगवान के मुँह से उदान निकला, हर्ष के उद्गार निकले। जब हर्ष के, धर्म के उद्गार निकलते हैं, उसे उन दिनों की भाषा में "उदान" कहते थे। यह उदान निकला । क्या उदान निकला? भगवान की क्या वाणी निकली उस समय?
"अञ्ञासि वत, भो, कोण्डो ; अञ्ञासि वत, भो, कोण्डओ"ति। अरे, कौंडण्य ने जान लिया; अरे, .. कितना हर्ष! किस बात के लिए निकले? कि सारे लोग अंधकार में हैं। उन्हें पता नहीं कि धर्म क्या होता है? उन्हें पता नहीं- दु:ख क्या होता है?
दु:ख का कारण क्या होता है ? दु:ख का निवारण क्या होता है? दु:ख के निवारण का तरीका क्या होता है? पहली बार जो लोगों को समझाया; उस समझाने में एक व्यक्ति ने तो निरोध अवस्था प्राप्त कर ली। अरे, इसे ज्ञान मिल गया। एक व्यक्ति को तो सही ज्ञान मिल गया। ये उद्गार निकलते हैं भगवान के मुँह से-- "अञ्ञासि वत, भो, कोण्डो ,.. अरे, यह कौंडण्य नाम का ब्राह्मण, इसने सचमुच ज्ञान प्राप्त कर लिया। क्योंकि उसको निरोध अवस्था प्राप्त हो गयी। भगवान को मालूम हो गया कि इसको यह निरोध अवस्था प्राप्त हुई। एक को निरोध अवस्था प्राप्त हुई, सही ज्ञान प्राप्त हुआ, सम्यक ज्ञान प्राप्त हुआ, सही ज्ञान अनुभूति पर उतरा। "अञ्ञासि वत, भो, कोण्डोंति।" "इति हिदं आयस्मतो कोण्डजस्स अञा कोण्डो त्वेव नाम अहोसी ति"। उस समय के बाद इस कौंडण्य ब्राह्मण का नाम "अञ्ञाकोण्ड " पड़ गया; ज्ञानी कौंडण्य । सही माने में 'ज्ञानी कौंडण्य' है और जीवनभर लोग उसको "अआकोण्डञ", "ज्ञानी कौंडण्य" ही कहते रहे।
ये भगवान के उद्गार। किसी व्यक्ति को धर्म सिखाते हुए उसे सचमुच धर्म की उपलब्धि हो जाय तो सिखाने वाले के मन में हर्ष जागता है। यह पहला धर्म-चक्र और उस धर्मचक्र के प्रवर्तन में एक व्यक्ति को स्रोतापन्न अवस्था का साक्षात्कार हुआ। उसने अपने भीतर उदय-व्यय, उदय-व्यय, देखते हुए निरोध अवस्था का साक्षात्कार कर लिया।
इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि सारा काम प्रैक्टिकल ही प्रैक्टिकल। केवल थ्योरी की, सिद्धांतों की बात नहीं है, केवल उपदेशों की बात नहीं है।
उपदेश चल रहा है, उसके साथ-साथ एक आदमी ने विपश्यना शुरू कर दी। विपश्यना करते-करते निरोध अवस्था का अनुभव कर लिया। किसी सम्यक संबुद्ध की शिक्षा यही है कि हम केवल उपदेश सुनकर उसी से मोहित न हो जायँ । बड़े खुश हो जायँ, बड़ा गर्व करने लगें कि अरे, हमारे सम्यक संबुद्ध का क्या कहना? सचमुच सम्यक संबुद्ध था । देखो, कितनी सही बात कही! कितना शुद्ध धर्म सिखाया, जहां कोई लाग-लपेट नहीं, किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं, कोई जकड़न नहीं, कितना शुद्ध धर्म! ऐसा हो तो हमें कुछ नहीं मिला। जो कुछ बताया जा रहा है, वैसा हम कर रहे हैं, कर रहे हैं, कर रहे हैं। तीन प्रकार से इन चारों आर्य सत्यों का दर्शन कर रहे हैं, तो हमारा कल्याण होगा ही। तो बात ही इस प्रकार की हुई। धर्म-चक्र ही इस प्रकार चला।
भवतु सब्ब मङ्गलं!...
कल्याणमित्र,
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